सूरज की पहली किरण निकलने से पहले ही हमने टैंट उखाड़कर पैक कर लिये थे। हम नहीं चाहते थे कि उत्सुक ग्रामीण यहाँ आयें और पूछताछ करें। थोड़े-से फोटो खींचे और निकल पड़े।
बाड़मेर बाईपास पर एक जगह चाय-नाश्ता किया और मुनाबाव वाली सड़क पर चल दिये। सीमा सड़क संगठन द्वारा लगाया गया हरे रंग का बोर्ड़ कह रहा था - “प्रोजेक्ट चेतक बाड़मेर-गड़रा-मुनाबाव सड़क पर आपका स्वागत करता है।” साथ ही दूरियाँ भी लिखी थीं - मारुडी 10 किलोमीटर, जसई 20 किलोमीटर, हतमा 34 किलोमीटर, रामसर 59 किलोमीटर, गड़रा 85 किलोमीटर और मुनाबाव 125 किलोमीटर।
मारुडी में दो पेट्रोल पंप हैं। हमने टंकियाँ फुल करा लीं। आगे मुनाबाव तक या जैसलमेर तक 250-300 किलोमीटर तक कोई पेट्रोल पंप हो या न हो। बाद में पता चला कि रामसर में भी पेट्रोल पंप है और शायद गड़रा में भी।
तो नौ बजे बाड़मेर से हम चल दिये - गर्मागरम बनी कचौड़ियाँ चाय के साथ खाकर। ट्रैफिक बहुत कम था, लेकिन जितनी उम्मीद कर रखी थी, उससे ज्यादा ही था। बाड़मेर से 35 किलोमीटर आगे एक जगह रुक गये। यहाँ से हमें यह सड़क छोड़कर दाहिने मुड़ना था - किराडू जाने के लिये, जो यहाँ से 2 किलोमीटर दूर था।
एक बंद दरवाजे के सामने बाइक रोक दी। आवाज लगायी, तो चौकीदार निकलकर आया और दरवाजा खोला। बाइक और सामान यहीं छोड़कर और 50-50 रुपये के टिकट लेकर हम अंदर घुस गये। हमारे अलावा कोई भी नहीं था। कोई होगा भी क्यों? किराडू अभी प्रसिद्ध नहीं हो पाया है।
“किराडू 11-12वीं शताब्दी में एक समृद्ध नगरी थी। यहाँ के परमार एवं चौहान शासक गुजरात के सोलंकी राजाओं के अधीन थे। विदेशी आक्रांताओं के फलस्वरूप यह नगरी उजड़ गयी। इस नगरी में 11वीं शताब्दी ई. में अनेक भव्य मंदिरों के निर्माण हुए, जो आज भी हमारे प्राचीन गौरव के प्रतीक हैं। वर्तमान में मरु-गुर्जर शैली के मात्र पाँच शैव-वैष्णव मंदिरों के भग्नावशेष ही अवशिष्ट हैं। इनमें सोमेश्वर मंदिर सर्वाधिक अनूठा है। गर्भगृह, अंतराल, महामंडप तथा द्वारमंडप कक्षों से युक्त यह मंदिर विभिन्न कलापूर्ण अभिव्यक्तियों, प्रतिमाओं आदि से अलंकृत है।”
एक कथा भी है। कोई साधु अपने शिष्य के साथ यहाँ रहता था। एक बार साधु शिष्य को इस मंदिर की देखभाल के लिये छोड़कर तीर्थयात्रा पर चला गया। वापस लौटा तो देखा कि शिष्य बीमार था और किसी भी ग्रामीण ने उसकी देखभाल नहीं की थी, सिवाय एक कुम्हारिन के। साधु ने क्रोधित होकर पूरे गाँव को श्राप दे दिया कि सभी मनुष्य पत्थर के हो जायें। उस कुम्हारिन से कहा कि तूने चूँकि इसकी सेवा की है, इसलिये तू यहाँ से चली जा। लेकिन अगर पीछे मुड़कर देख लिया तो तू भी पत्थर की हो जायेगी। कुम्हारिन जाने लगी, लेकिन कुछ दूर जाकर अपनी जन्मभूमि को आख़िरी बार देखने पीछे मुड़ गयी। वह भी पत्थर की हो गयी। कहते हैं कि उसकी भी प्रतिमा पास के गाँव में है, जिसे हम नहीं देख पाये।
खैर, वजह कुछ भी हो। किराडू के ये मंदिर आपको अपने गौरवशाली अतीत की भी याद दिलाते हैं और इनके भग्नावशेष आपको परेशान भी करते हैं। पाँच ही मंदिर बचे हैं। मतलब पाँच ही मंदिरों के भग्नावशेष बचे हैं। बाकी सब रेत में, झाड़ियों में, काँटों में टूटे-फूटे दबे पड़े हैं। हमने प्रत्येक मंदिर के प्रत्येक कोण से जमकर फोटो लिये।
मुझे मूर्तिकला की ज्यादा जानकारी नहीं है, लेकिन यहाँ की मूर्तिकला देखकर ऐसा पागल-सा हो गया, जैसे कोई गरीब स्वर्ण-भंडार में पहुँच गया हो और उसे स्वर्ण उठाने की पूरी आज़ादी हो। हालाँकि समय की मार के आगे पत्थर स्वतः भी कमजोर पड़ने लगे हैं, लेकिन मैं और दीप्ति इन पर उकेरी मूर्तियों, उनकी कथाओं की चर्चा करते रहे। प्रत्येक मंदिर का गर्भगृह खाली था और उनमें चमगादड़ों के मल की बू आ रही थी। कुछ में मेंगनी भी पड़ी थी, जिसका अर्थ था कि यहाँ बकरियाँ आकर धूप से बचने की कोशिश करती हैं।
कुछ मूर्तियाँ काम-क्रिया पर भी केंद्रित हैं, जिनके कारण किराडू को ‘राजस्थान का खजुराहो’ भी कह दिया जाता है।
कई जगह मूर्तियों से अलग कुछ ज्यामितीय संरचनाएँ भी हैं, जिनका अर्थ मुझे नहीं पता।
यहाँ आप रात भी रुक सकते हैं, कमरे बने हुए हैं। हालाँकि कोई रुकता नहीं है। चौकीदार ने बताया कि इनकी बुकिंग जोधपुर से होती है। अगर आप यहाँ रात रुकने की योजना बना रहे हैं, तो कुछ असुविधाओं के लिये तैयार रहिये। आसपास और दूर-दूर तक कोई भी बाज़ार नहीं है। आपसे पहले कोई यहाँ पता नहीं कितने महीने पहले रुका होगा, तो बंद कमरों की अजीब बदबू भी परेशान करेगी। बेहतर वही है, जो बाकी यात्री करते हैं। बाड़मेर से सुबह आईये और घूम-घामकर उसी दिन वापस चले जाइये।
ऊपर पहाड़ी पर चामुंडा माता का मंदिर है। वहाँ से इन मंदिरों के भग्नावशेष बड़े शानदार दिखते होंगे, लेकिन तेज धूप और आगे लंबी दूरी तय करने के दबाव में हम वहाँ नहीं गये।
सार्वजनिक वाहनों से जाना थोड़ा मुश्किल है। बसें बहुत कम चलती हैं। बस आपको ढाई-तीन किलोमीटर दूर मेन रोड़ पर छोड़ देगी, फिर आपको पैदल आना पड़ेगा। रेलवे स्टेशन तो निःसंदेह बाड़मेर ही है। बाड़मेर-मुनाबाओ रेलवे लाइन मंदिरों के नज़दीक से ही गुजरती है, लेकिन आसपास कोई स्टेशन नहीं है। ट्रेन पंद्रह किलोमीटर दूर भाचभर में रुकती है।
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बहुत ही उम्दा फोटोग्राफी...
ReplyDeleteचित्र क्रमांक 27 बहुत अच्छा लगा
बस, इत्ता-सा कमेंट?????
Deleteहीहीही...
Deleteबाड़मेर से किराड़ू ही तो पहुँचे है।
तो ज्यादा मसाला इक्कठा नहीं हुवा..
Nice click Sirji, snap no 10,11,12,13 r best I like.
ReplyDeleteधन्यवाद अनिल जी...
Deleteफोटो नं 14 शीला लेख है क्या ? ... या नक्काशी है
ReplyDeleteशिलालेख है सर जी...
Deleteआपकी ब्लॉग पोस्ट को आज की ब्लॉग बुलेटिन प्रस्तुति डॉ. सालिम अली और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। सादर ... अभिनन्दन।।
ReplyDeleteशानदार यात्रा
ReplyDeleteधन्यवाद अमित जी...
Delete38
ReplyDeleteभाई आजकल भोजन आइटम की फोटो नहीं आ रही ;(
ReplyDeleteफोटो तो सब एक से बढ कर एक हैं पर
ReplyDeleteफोटो 26 व 34 अच्छे लगे