एक घंटे में ही म्याजलार से 56 किलोमीटर दूर खुड़ी आ गये। यहाँ से जैसलमेर लगभग 50 किलोमीटर है। खुड़ी अपने रेत के टीलों के लिये प्रसिद्ध है। चारों तरफ़ टैंट कालोनियाँ ही थीं। अब हम फिर से ‘सभ्यता’ में आ गये थे। अगर हम यहाँ अपने टैंट लगाते, तो किसी भी तरह की परेशानी की बात नहीं थी। यहाँ खूब पर्यटक आते हैं और खुड़ी वालों के लिये हमारे टैंट असामान्य नहीं होते। लेकिन मैं इरादा कर चुका था कि अपना टैंट नहीं लगाना। थोड़े-बहुत पैसे खर्च होंगे, लेकिन नर्म बिस्तर पर पैर फैलाकर सोने की सुविधा होगी, हगने-मूतने की सुविधा होगी और ‘प्राइवेसी’ होगी। टैंट तो आपातकाल के लिये होते हैं। सुमित के लिये टैंट नयी चीज थी, इसलिये वह टैंट ही लगाना चाहता था, लेकिन उसने भी हमारा साथ दिया।
एक रिसॉर्ट वाले के यहाँ बात की। जानते थे कि ये बहुत महँगे होते हैं, फिर भी बात कर ली।
बोला - “1000 रुपये प्रति व्यक्ति लगेंगे, जिसमें आपको डिनर, ब्रेकफास्ट मिलेगा। राजस्थानी संगीत प्रोग्राम, जीप सफारी, ऊँट सफारी भी मिलेगी।”हम - “नहीं यार, हमें केवल तीन बिस्तर चाहिये। 500 रुपये ले लेना तीनों के।”
बोला - “नहीं, इतना सस्ता तो नहीं हो पायेगा। हमारी बुकिंग ऑनलाइन ही होती है और आजकल काफी रश भी चल रहा है। चलो, आप तीनों 1500 दे देना।”
हम - “ना, बिलकुल नहीं। ये देख, हमारे पास अपने टैंट हैं, लेकिन हम टैंट नहीं लगाना चाहते। अगर तुम्हारे यहाँ बात नहीं बनेगी, तो हम दूसरे के यहाँ जायेंगे। और अगर वहाँ भी नहीं बनेगी, तो अपने टैंट लगा लेंगे।”
बोला - “आपको हम राजस्थानी डांस भी तो दिखायेंगे।”
मैं - “ओ नहीं यार, हमारा बाइक पर बैठे-बैठे पहले ही राजस्थानी डांस बना पड़ा है। हमें तो बस सोना है।”
बोला - “चलो, ठीक है। एक अतिरिक्त बिस्तर लगा दूँगा। ... और खाने का क्या करोगे?”
मैं - “हाँ यार, खाना तो भूल ही गये थे। तुम्हारे ही यहाँ खायेंगे और जो भी बनेगा, दे देंगे।”
बोला - “हमारे यहाँ बुफे सिस्टम है।”
मैं - “सुमित, यह बुप्फे सिस्टम क्या होता है?”
सुमित - “अरे तुझे बुफे नहीं पता? मेज पर खाना लगा देंगे और तू जितना खा सके, लेकर खाते रहना।”
मैं - “तो ठीक है। 500 रुपये बिस्तरों के हो गये और 500 रुपये डिनर के। सुबह चाय भी दे देना।”
बोला - “यानी 1000 रुपये आप तीनों के?”
मैं - “हाँ।”
बोला - “चलो, ठीक है। लेकिन किसी को बताना मत।”
मैं - “कैसी बात करता है! तू कहे तो पाँच-पाँच हज़ार रुपये का ढोल पीट दें।"
बुकिंग तो यहाँ हो गयी, लेकिन इनका कैंप यहाँ से करीब 6-7 किलोमीटर दूर था। एक ग्रुप ‘जीप सफारी’ व ‘कैमल राइड़’ करने ‘डेजर्ट’ में गया हुआ था। वे आयेंगे, तो हम वास्तविक कैंप में जायेंगे। तब तक यहीं इंतज़ार करते रहे।
यह कैंप और जिस कैंप में हमें ले जाया जायेगा, दोनों इनके अपने हैं। इनके अनुसार, खुड़ी में अभी उतने पर्यटक नहीं आते, जितने सम में आते हैं। लेकिन सम की भीड़ से तंग पर्यटक खुड़ी का रुख करने लगे हैं। इसलिये यहाँ लगातार नये रिसॉर्ट खुल रहे हैं। ऑनलाइन बुकिंग होने से काफ़ी सुविधा हुई है और नोटबंदी का उतना असर नहीं पड़ा है।
ये पर्यटक गुजरात से अपनी कार में आये थे। सात किलोमीटर दूर दूसरा कैंप था। छह किलोमीटर जैसलमेर रोड़ पर चलने के बाद दाहिने मुड़ गये और अंधेरे में कच्चे रेतीले रास्ते पर एक-डेढ़ किलोमीटर और चलना पड़ा। इस रास्ते पर कार तो तेजी से आगे निकल गयी, सुमित भी आगे निकल गया और सन्नाटे में हम ही रह गये। रेत पर बाइक चलाना काफ़ी मुश्किल होता है, हालाँकि इन्होंने इस पर मिट्टी डालकर चलने लायक रास्ता बना रखा था। थोड़ा आगे सुमित खड़ा मिला। कार का कहीं नामोनिशान नहीं। सुमित ने विशुद्ध रेत की तरफ़ इशारा करके बताया - “कार यहीं से गयी है। मैं रुककर तुम्हें देखने लगा, तब तक कार गायब हो गयी।’’
मैंने हैंडल घुमाकर उसकी बतायी दिशा में उजाला करके देखा। विशुद्ध रेत थी। किसी के पैदल चलने के निशान थे, लेकिन कार के पहियों के कोई निशान नहीं थे। कच्चा रास्ता सीधा आगे जा रहा था - “कार सीधी गयी है। इधर रेत से होकर नहीं गयी।”
सुमित - “अरे नहीं यार, मैंने खुद अपनी आँखों से देखा है। कार यहीं से बायें मुड़ी थी।”
मैं - “तो उसके पहियों के निशान क्यों नहीं हैं?”
सुमित - “पता नहीं।”
मैं - “सीधे चलो।”
थोड़ी दूर चले, सामने रोशनियाँ दिखने लगीं। नज़दीक गये तो एक रिसॉर्ट था - रेत के टीले पर बना हुआ एक अकेला रिसॉर्ट। दूर-दूर तक रेत ही रेत। रेत पर कुछ कलाकार बैठे थे और गा-बजा रहे थे - ‘पधारो म्हारे देस मा।’
हमें एक टैंट दे दिया गया। एक अतिरिक्त बिस्तर लग गया। सबकुछ आलीशान। अच्छा फर्नीचर और अच्छा बाथरूम। बिजली की भी सुविधा। हम तीनों खिलखिला उठे - एक हज़ार रुपये में सबकुछ।
तभी बाहर से आवाज आयी - “सर, खाना तो एक घंटे में बनेगा। तब तक आप बाहर प्रोग्राम देख लो।”
हालाँकि प्रोग्राम बाहर खुले में हो रहा था। वहाँ भी आरामदायक कुर्सियाँ और बिस्तर लगे थे। लेकिन हमारी अंतरात्मा ने हमें वहाँ नहीं जाने दिया। मोलभाव करते समय हमारा फोकस इस बात पर था कि हम प्रोग्राम नहीं देखेंगे। तो हम अंदर ही रहे। हाथ-मुँह धोये। दीप्ति ने कुछ कपड़े भी धोये। सुमित के लाये हुए स्वादिष्ट लड्डू खाये। मोबाइल में एयरटेल का नेटवर्क आ रहा था, नेट भी चलाया।
फिर थोड़ी देर के लिये बाहर निकले। प्रोग्राम में तो जाकर नहीं बैठ पाये, लेकिन रेत के टीलों पर चहलकदमी करने लगे, फोटो खींचते रहे। थोड़ी ही दूर संगीतमय प्रस्तुतिकरण हो रहा था, जो राजस्थानी भाषा में होने के कारण हमारी समझ में नहीं आ रहा था, लेकिन संगीत की भला कोई भाषा होती है? उधर वे कुछ भी कहते, हम भी उसे दोहराने की असफल कोशिश करते गा उठते - ‘पधारो म्हारे देस मा।’
खाना भी लाजवाब था। मेरे मुँह से भोजन की तारीफ़ हो गयी, तो समझिये कि लाजवाब ही था। उनके द्वारा दिया गया गुड़ उतना अच्छा नहीं लगा तो अपने साथ लाया गुड़ हमने उन्हें दे दिया। उन्होंने भी इसे चखा और तारीफ़ की। गुजराती अभी भी बाहर संगीत में व्यस्त थे। उनके लिये खाना बाद में बनाया और परोसा गया।
बातचीत में पता चला कि इन संगीतकारों को जोधपुर से मासिक सैलरी पर बुलाया गया है। सितंबर में ये आ जाते हैं और मार्च तक रहते हैं। प्रत्येक रिसॉर्ट के अपने संगीतकार होते हैं। साथ ही यह भी पता चला कि जिस रेत में जिस जमीन पर यह रिसॉर्ट बना है, वो जमीन इनकी अपनी है। पिछले साल ही इसे बनाया था, इसलिये यह गूगल मैप के सैटेलाइट व्यू में नहीं दिखता।
18 दिसंबर 2016
सुबह उठते ही चाय आ गयी। हम सूर्योदय से पहले ही उठ गये थे, इसलिये सूर्योदय के फोटो खींचने की इच्छा हुई। बाहर निकला तो पता चला कि कैमरे का मैन्यूअल मोड़ काम नहीं कर रहा है। निराशा ज़रूर हुई, लेकिन ऑटोमैटिक मोड़ अच्छा काम कर रहा था, इसलिये निराशा ज्यादा देर नहीं टिक सकी। इसमें कल ज़रूर रेत का कोई महीन कण गलत जगह पर जाकर फँस गया है। शायद कुछ दिन बाद यह ठीक काम करने लगे।
गुजराती भी उठ गये। उठते ही उन्होंने कड़क शब्दों में कहा - रात खाना बिलकुल भी अच्छा नहीं था। जल्दी से हमें नाश्ता कराओ और हम जा रहे हैं। रिसॉर्ट के एक कर्मचारी ने प्रत्युत्तर दिया - बाकी लोगों को तो खाना अच्छा लगा, आपको क्यों अच्छा नहीं लगा?
बाद में मैंने मालिक को पकड़ा - “देख भाई, उन लोगों ने आठ-दस हज़ार रुपये खर्च किये हैं, इसलिये उन्हें कल का भोजन अच्छा नहीं लगा। थोड़ा पनीर-वनीर बनाते, तो तारीफ़ भी मिलती। इधर हम तीनों ने हज़ार रुपये ही खर्च किये हैं। हमें तो बाजरे की रोटी चटनी से भी खिला देते, तब भी तारीफ़ ही करते। और दूसरी बात, शिकायतों का कभी भी प्रत्युत्तर नहीं दिया करते कि दूसरों को तो अच्छा लगा है, आपको क्यों अच्छा नहीं लगा। सबके अच्छा लगने और न लगने की अपनी-अपनी वजहें होती हैं। और तीसरी बात, इन गर्मियों में आप दिल्ली या जयपुर जाकर होटल मैनेजमेंट या ऐसा ही कोई कोर्स कर लो। काम आयेगा। वे लोग वापस जाकर इंटरनेट पर तुम्हें ख़राब रेटिंग देंगे, तो यह तुम्हारे लिये नुकसान की बात होगी।”
नाश्ते में पोहा मिला। सुमित पोहा खा-खाकर ही डाक्टर बना है और हम भी ख़ूब पोहा खाते हैं, दीप्ति बेहद स्वादिष्ट पोहा बनाती है। तो हमें यह पोहा उतना अच्छा नहीं लगा। लेकिन इसकी शिकायत भी नहीं की।
कुल मिलाकर खुड़ी का यह लघु प्रवास शानदार बन गया।
(प्रत्येक फोटो पर नंबर लिखे हैं। आपको कौन-सा फोटो सबसे अच्छा लगा? अवश्य बतायें।)
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जब खुड़ी पहुँचे,और प्रताप रिसॉर्ट एंड टेंट सिटी के मालिक से मोलभाव शुरू किया,तब बड़ी ही बेफ़िक्री का आलम था।
ReplyDeleteवह भी सोच रहा होगा,कहाँ से आये है ये फक्कड़।
1000 रुपये मे आलीशान टेंट,खाना,चाय नाश्ता,वह भी तीन प्राणियों का...आज भी यक़ीन नहीं होता।
टेंट मे पहुँच कर अर्धस्नान करने के बाद,रेत के टीलों की और रुख किया,यहाँ पर रात मे फोटोग्राफी का एक नया अनुभव मिल रहा था,ऊपर से राजस्थानी संगीत मन कर रहा था,बस यह सब यूँही चलता रहे।
लेकिन भोजन का भी समय हो चला था...
1000 रुपये तो टेंट देखते ही वसूल हो गये थे,बाकि खाने मे क्या अच्छा एयर क्या बुरा सब चलता है, बस खाना जितना मूलभूत होता है,उतना अच्छा स्वाद आता है, तो यहाँ तो ठेठ पारम्परिक राजस्थानी खाना था,मज़ा आ गया,मन आत्मा शरीर सब तृप्त हो गये।
सुबह सूर्योदय देखने पहुँचने मे,में भी लेट हो गया,देवता पहले ही निकल चुके थे,तो क्या करता,हर कोण से सेल्फ़ी ही लेता रहा।
बहुत आनंददायक समय गुजरा खुड़ी मे।
एकदम सही कहा डॉक्टर भाई...
Deleteनमस्कार सुमित जी। अच्छा लगा आप बहुत खुश् हुए खुड़ी जा कर। नींद भी थोड़ी एक्स्ट्रा मिल जाये तो कुछ schedule तो गड़बड़ हो ही जाता है, बट नींद सुबह आती भी बहुत प्यारी है :-D खास कर जो बाइक ड्राइव कर के आया हो। फ़ोटो का क्या है ना सही, अच्छी याद तो हमेशा रहेगी ही। अबकी बार आओ तो मेरे को ना भूल जाना।
Deleteखूबसूरती से कैद किया है रेत को कमरे में ...
ReplyDeleteधन्यवाद दिगंबर जी...
DeleteKhuri, nice desert place as per your note. We are also going to Jaisalmer on 20th Feb. Is this place worth than Sam sand Neeraj bhai?
ReplyDeleteसम में भीड़ बहुत रहती है... यहाँ भीड़ नहीं होती...
Deleteअच्छा आदमी था टेंट वाला और आप लोगों ने भी उसे अच्छे से 1000 ₹ में मना लिया। सही है घुमक्कड़ी में जितना कम खर्च हो और अनुपात में सुविधा/आनंद ज्यादा मिले तभी मजा है। वैसे कुछ एक्स्ट्रा मिल जाये तो मजा दुगुना हो जाता है। राजस्थानी भाषा बहुत आसान है, बस वो लोकगायक गाते ऐसे हैं के जब तक आपका ध्यान पूरा उनपर केंद्रित ना हो वो समझ नहीं आते। मै मौका चूक गया आपके साथ जाने का, बहुत मलाल है इस बात का। चलो कोई बात नहीं, फिर कभी सही। अच्छा लग रहा है अपने आस पास के इलाके के बारे में ब्लॉग पर पढ़ कर और वो भी जब आप लोग वहाँ से खुश होकर और अच्छी याद लेकर आगे बढे। एक ही पन्ना था 1-2 साँस में ही पढ़ गया। अब दुबारा पढता हूँ और फोटोज को बो अच्छे से लार्ज कर के देखता हूँ।
ReplyDeleteआपका बहुत बहुत धन्यवाद...
Deleteनीरज जी, भाषा!
ReplyDeleteनीरज जी, भाषा!
ReplyDeleteविवरण पढ़ते है दिल ने कहा.... उडकर जाओ खुड़ी ... विवरण मे 100 % सजीवता है
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Photo No. 08
धन्यवाद सर जी...
Deleteबेहतरीन.... पढ़ के मजा आ गया... नीरज भाई.... सुनदर लेख ..सुनदर फोटो.. धन्यवाद.
ReplyDeleteधन्यवाद भाई जी...
Deleteबिलकुल सही समय पर ये पोस्ट आई है ! मैं भी 28 जनवरी को खुरी या खुड़ी जाने वाला हूँ परिवार सहित ! आपने टेंट की जानकारी देकर मुझे सही रास्ता बता दिया नहीं तो मैं ठग जाता !
ReplyDeleteयात्रा की शुभकामनाएँ योगी जी...
Deleteसुमित पोहा खा-खाकर ही डाक्टर बना है 😜
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