आज ज्यादा कुछ नहीं लिखेंगे। कुछ फोटो हैं, वे देख लेना और थोड़ा-सा लिख भी देता हूँ, इसे पढ़ लेना। काफ़ी रहेगा।
याद तो आपको होगा ही कि कल सुमित सम चला गया था और अपना टैंट लगाकर सोया था। हम दोनों जैसलमेर आ गये थे और एक गंदे-से होटल में अच्छी नींद ली। सुबह सुमित से व्हाट्स-एप पर बातचीत हुई, हमने अपनी लोकेशन उसे शेयर कर दी और कुछ ही देर में दरवाजे पर खटखटाहट हुई। सुमित आ गया था।
लोद्रवा पहुँचे। इससे पहले एक मजेदार घटना घटी। हमें आज तनोट जाना था और वहीं रुकना भी था। कहाँ जाना है, कैसे जाना है, किस रास्ते जाना है, कितनी रफ़्तार से जाना है; यह सारी सिरदर्दी मेरी थी। सुमित को बस इतना पता था कि हमें तनोट जाना है, बस।मैं सोचता रह गया कि सुमित हमारे पीछे-पीछे ही आयेगा और मामूली ट्रैफिक में जैसे ही हम उसकी आँखों से ओझल हुए, वह तनोट वाली सड़क पर मुड़ गया। कुछ आगे चलकर जब हम लोद्रवा वाली सड़क पर मुड़े तो रुक गये और डॉक्टर की प्रतीक्षा करने लगे। उधर वह सोचता रहा कि जाटराम आगे है, उसने बुलेट को बुलेट बना दिया और अस्सी से ऊपर की रफ़्तार पकड़ ली।
जब दस मिनट तक सुमित नहीं दिखा तो मैं समझ गया कि वो तनोट वाली सड़क पर चला गया है। उसे फोन किया और एक छोटा-सा आदेश दिया - “लोद्रवा पहुँचो।” उसका उत्तर आया - “हाओ (ओके)।” अब वो जहाँ भी होगा और किस रास्ते से लोद्रवा पहुँचेगा, यह उसकी सिरदर्दी थी। मोबाइल में नेट बहुत अच्छा चल रहा था।
हम लोद्रवा पहुँच गये। जैन मंदिर के पास बाइक खड़ी कर दी और एक पेड़ की छाँव में बैठकर उसकी प्रतीक्षा करते रहे। पंद्रह मिनट बाद भी जब वह नहीं आया, तो धैर्य जवाब दे गया। फोन मिला दिया -
“कहाँ पहुँचा?”
“पता नहीं। लेकिन लोद्रवा पहुँचने ही वाला हूँ।”
“अपनी लोकेशन भेजो। तसल्ली हो जायेगी कि कितना समय लगेगा तुम्हें।”
“हाओ।”
उसने अपनी लोकेशन भेजी तो मैंने तुरंत फोन मिला दिया -
“तू लोद्रवा जा रहा है या तनोट जा रहा है?”
“हाँ, जा तो तनोट की तरफ़ ही रहा हूँ, लेकिन थोड़ी-बहुत देर में लोद्रवा पहुँच ही जाऊँगा।”
“ओये, तू लोद्रवा से 20 किलोमीटर आगे है। अगर नक्शे में देख लेता तो इतनी दूर न जाता।”
“अच्छा, ऐसी बात है क्या? मैं अभी देखता हूँ कि लोद्रवा कहाँ है। और अभी पहुँचता हूँ।”
आधे घंटे बाद जब सुमित आया, तब तक हम जैन मंदिर अच्छी तरह देख चुके थे। उसके आते ही मैंने कहा -
“यार, अगर मैं एक घंटे तक तुझे फोन नहीं करता तो तू तनोट पहुँच चुका होता।”
“हाँ, और वहाँ पहुँचकर तुझसे पूछता कि लोद्रवा कहाँ है।”
अब ‘हाओ’ कहने की बारी मेरी थी।
...
तो इस तरह हम लोद्रवा पहुँचे। बहुत अच्छा जैन मंदिर बना है। कैमरे का पचास रुपये का टिकट लगता है, बाकी सब फ्री है। सभी मंदिरों में कैमरे का प्रवेश हो जाये, तो कभी भी भक्ति-भावना में कमी नहीं आयेगी। थोड़ा-सा इंटरनेट पर पढ़ लूँ इसके बारे में, फिर आगे चलेंगे।
दिस टेम्पल इज डेडीकेटिड़ टू लॉर्ड़ पार्श्वनाथ - मतलब यह मंदिर भगवान पार्श्वनाथ को समर्पित है। किसी जमाने में लोद्रवा राजधानी भी हुआ करती थी। बाद में जैसलमेर राजधानी बनी। गज़नी और गोरी ने भी यहाँ आक्रमण किया और इसे काफ़ी क्षति पहुँचायी। फिर भी आज यह बड़ी शान से खड़ा है और आर्कीटेक्चर का शानदार नमूना है।
पास में हिंगलाज माता का मंदिर है। इस मंदिर की चाबी बगल वाले घर में रहती है। हमें हिंगलाज मंदिर से बाहर निकलते देख इस घर की एक महिला ने हमें चाबी दी और तब हमने तसल्ली से दर्शन किये। वैसे हिंगलाज माता का मुख्य मंदिर पाकिस्तान के बलूचिस्तान में है।
जैन मंदिर के पास ही एक भोजनशाला है। हमें भोजन तो नहीं करना था, लेकिन बोतलों में पानी भरना था। अंदर गये तो देखा कि आर.ओ. लगा है और वाटर कूलर से ठंड़ा और मीठा पानी आ रहा है। जैन भोजनशाला होने के कारण वाटर कूलर की टोंटियों पर पानी छानने के लिये कपड़ा बँधा था। गौरतलब है कि जैन लोग पानी छानकर पीते हैं और अक्सर टोंटियों पर कपड़ा बाँध देते हैं, ताकि पानी छनकर आता रहे। मुझे बड़ी हँसी आयी कि बगल में आर.ओ. और फिल्टर होने के बावज़ूद भी कपड़ा बँधा हुआ है। कई बार तो लगातार गीला रहने के कारण इस कपड़े में इतने कीटाणु पैदा हो जाते हैं कि सफ़ेद कपड़ा काला होने लगता है। इधर हमारे हिंदू धर्म में इतनी सारी मान्यताएँ हैं, अब कैसे जैन धर्म की इस मान्यता पर हँसता? चुपचाप बोतलें भरी और निकल गये।
एक आदमी कुछ पत्थर बेच रहा था - पिरामिड़ के आकार के पत्थर। कहने लगा कि यह फलां पत्थर है। इसे दूध में डाल दो, सुबह तक दही जम जायेगी। हमें इसकी सत्यता पर संदेह भी हो रहा था, लेकिन नकार भी नहीं सकते थे। बाद में प्रसिद्ध आर्कियोलोजिस्ट और ब्लॉगर ललित शर्मा जी से इस बारे में बात की, तो उन्होंने बताया -
“देखो, सेंधा नमक क्या है? पत्थर ही तो है। उसे हम चाटते हैं तो नमकीन स्वाद आता है। कुछ-कुछ इसी तरह वो फलां पत्थर है। लेकिन उससे कभी भी दही नहीं जमेगी, दूध फट ज़रूर जायेगा।”
इतनी ही कहानी थी लोद्रवा की।
धूप-स्नान |
दूध जमाने वाला यानी दूध फाड़ने वाला पत्थर... |
(आपको कौन-सा फोटो सबसे अच्छा लगा? अवश्य बताएँ।)
अगला भाग: जैसलमेर से तनोट - एक नये रास्ते से
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14. बाइक यात्रा: रामदेवरा - बीकानेर - राजगढ़ - दिल्ली
Number 7) is my favorite.
ReplyDeleteGreat post as usual, and thanks for sharing.
धन्यवाद सर जी...
Deleteमंदिर का वास्तुशिल्प वाकई कमाल का है।
ReplyDeleteहाँ जी, वाकई मेहनत कर रखी है वास्तुशिल्प में...
Deleteआजकल जाटराम की रूचि वास्तुकला में बहुत ज्यादा हो गयी है। जगह जगह तारीफ निकलते रहता है।
ReplyDeleteरुचि तो प्रत्येक क्षेत्र में है, लेकिन थार में इस तरह के बहुत-से स्थान हैं...
Delete4, 7 और 8 न. फोटो बहुत ही अच्छे है।
ReplyDeleteधन्यवाद गौरव जी...
Deleteचित्र क्रमांक 12...
ReplyDeleteसारी गड़बड़ जैसलमेर मे एक फ़ोटो लेने के कारण हुई...
जब तुम साथ होते हो तो ना तो में कुछ योजना बनाता हु,ना ही किस रास्ते जाना है,इस बारे मे सोचता हु।
इसे आप मेरा समर्पण भाव समझ लो या लापरवाही का लहज़ा भी कह सकते है।
उस दिन भी यही हुवा,तुमने कहा लोद्रवा पहुँचो,तो मेरे दिमाग़ मे यही था की,तनोट रोड़ पर ही कही आयेगा लोद्रवा भी...
अच्छा हुवा तुम्हारा फोन जल्दी ही आ गया,और मैने फ़टाफ़ट यु टर्न ले लिया...
नहीं तो रामगढ़ तो पहुँच ही गया था समझो...
जब लोद्रवा पहुँचा तो सोच रहा था,बहुत समय ख़राब हो गया है, तुम नाराज़ होवगे, लेकिन इसके उलट तुमने कहाँ भाई आराम से अंदर घुमो,50 रुपेय वसूल करो,जमकर फोटोग्राफी करो...
उस वक़्त बड़ा अजीब लग रहा था,सोच रहा था इसको हो क्या गया है ? जल्दी करने के बजाय शांति से घुमने को कह रहा है...
लेकिन फिर जब अंदर जैन मंदिरो मे प्रवेश किया तो मंदिर की भव्य सुन्दरता मे विचारों की सारी उथल पुथल गुम हो गई,सब कुछ सामान्य हो गया।
जल्दी किस बात की थी? तनोट ही तो पहुँचना था और तनोट पहुँचने के लिये पर्याप्त समय था हमारे पास...
Deleteह्म्म्म,फिर भी समय तो बर्बाद हुवा ही था।
Deleteखेर अच्छा ही हुवा,किसी की भी नाराज़गी अच्छी भी नहीं लगती है।
👍
हर बार की तरह ही बहुत बढि़या पोस्ट। यूं लगता है मानो आपके साथ-साथ हम भी यात्रा कर रहे हो। सभी फोटो अच्छे है एवं 7,8,9 एवं 11 बहुत अच्छे है 12 नंबर का भी मजेदार है।
ReplyDeleteधन्यवाद स्वाति जी...
Delete7 aur 12 no.
ReplyDeleteकृपया अपने शरीर का भी ध्यान रखें। अब आलू जैसे दिखने लगे हैं।
ReplyDeleteलोद्रवा में कैमरे की टिकेट लगती है 50 रुपया :) ! और वहीँ एक जैन कैंटीन भी है जहां 60 रूपये की थाली मिलती है शुद्ध और सादा भोजन ! मंदिर अच्छा है , आपकी तसवीरें दिखा रही हैं लेकिन मुझे मंदिर के बाहर बैठे लोगों का व्यवहार पसंद नही आया ! मेरे साथ तो कुछ नही हुआ लेकिन एक आदमी जो अँगरेज़ था , उसे परेशां किया ! उसने बताया कि वो इंग्लैंड से है लेकिन चार साल से बंगलौर में रह रहा है , तब भी उससे टिकेट के 100 रूपये लिए ! खैर हो सकता है उनका इन विदेशियों के प्रति कुछ पुराना गलत व्यवहार रहा हो !!
ReplyDeleteaap ke dawara likha gaya sara vivaran bahut achcha hota hai... or esa lagata hai jese padhanewala khudh hi yah yatra kar raha ho.. or aap ke photograph to sayad hi koi esa ho jo pasand na aaye... bahut bahut badhiya karya hai aap ka.... hame or kai mere jese padhane-dekhanewalo ki ummide puri karane ke liye dhanyawad
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