Skip to main content

लोद्रवा - थार में एक जैन तीर्थ


19 दिसंबर 2016
आज ज्यादा कुछ नहीं लिखेंगे। कुछ फोटो हैं, वे देख लेना और थोड़ा-सा लिख भी देता हूँ, इसे पढ़ लेना। काफ़ी रहेगा।
याद तो आपको होगा ही कि कल सुमित सम चला गया था और अपना टैंट लगाकर सोया था। हम दोनों जैसलमेर आ गये थे और एक गंदे-से होटल में अच्छी नींद ली। सुबह सुमित से व्हाट्स-एप पर बातचीत हुई, हमने अपनी लोकेशन उसे शेयर कर दी और कुछ ही देर में दरवाजे पर खटखटाहट हुई। सुमित आ गया था।
लोद्रवा पहुँचे। इससे पहले एक मजेदार घटना घटी। हमें आज तनोट जाना था और वहीं रुकना भी था। कहाँ जाना है, कैसे जाना है, किस रास्ते जाना है, कितनी रफ़्तार से जाना है; यह सारी सिरदर्दी मेरी थी। सुमित को बस इतना पता था कि हमें तनोट जाना है, बस।
मैं सोचता रह गया कि सुमित हमारे पीछे-पीछे ही आयेगा और मामूली ट्रैफिक में जैसे ही हम उसकी आँखों से ओझल हुए, वह तनोट वाली सड़क पर मुड़ गया। कुछ आगे चलकर जब हम लोद्रवा वाली सड़क पर मुड़े तो रुक गये और डॉक्टर की प्रतीक्षा करने लगे। उधर वह सोचता रहा कि जाटराम आगे है, उसने बुलेट को बुलेट बना दिया और अस्सी से ऊपर की रफ़्तार पकड़ ली।
जब दस मिनट तक सुमित नहीं दिखा तो मैं समझ गया कि वो तनोट वाली सड़क पर चला गया है। उसे फोन किया और एक छोटा-सा आदेश दिया - “लोद्रवा पहुँचो।” उसका उत्तर आया - “हाओ (ओके)।” अब वो जहाँ भी होगा और किस रास्ते से लोद्रवा पहुँचेगा, यह उसकी सिरदर्दी थी। मोबाइल में नेट बहुत अच्छा चल रहा था।
हम लोद्रवा पहुँच गये। जैन मंदिर के पास बाइक खड़ी कर दी और एक पेड़ की छाँव में बैठकर उसकी प्रतीक्षा करते रहे। पंद्रह मिनट बाद भी जब वह नहीं आया, तो धैर्य जवाब दे गया। फोन मिला दिया -
“कहाँ पहुँचा?”
“पता नहीं। लेकिन लोद्रवा पहुँचने ही वाला हूँ।”
“अपनी लोकेशन भेजो। तसल्ली हो जायेगी कि कितना समय लगेगा तुम्हें।”
“हाओ।”
उसने अपनी लोकेशन भेजी तो मैंने तुरंत फोन मिला दिया -
“तू लोद्रवा जा रहा है या तनोट जा रहा है?”
“हाँ, जा तो तनोट की तरफ़ ही रहा हूँ, लेकिन थोड़ी-बहुत देर में लोद्रवा पहुँच ही जाऊँगा।”
“ओये, तू लोद्रवा से 20 किलोमीटर आगे है। अगर नक्शे में देख लेता तो इतनी दूर न जाता।”
“अच्छा, ऐसी बात है क्या? मैं अभी देखता हूँ कि लोद्रवा कहाँ है। और अभी पहुँचता हूँ।”
आधे घंटे बाद जब सुमित आया, तब तक हम जैन मंदिर अच्छी तरह देख चुके थे। उसके आते ही मैंने कहा -
“यार, अगर मैं एक घंटे तक तुझे फोन नहीं करता तो तू तनोट पहुँच चुका होता।”
“हाँ, और वहाँ पहुँचकर तुझसे पूछता कि लोद्रवा कहाँ है।”
अब ‘हाओ’ कहने की बारी मेरी थी।
...
तो इस तरह हम लोद्रवा पहुँचे। बहुत अच्छा जैन मंदिर बना है। कैमरे का पचास रुपये का टिकट लगता है, बाकी सब फ्री है। सभी मंदिरों में कैमरे का प्रवेश हो जाये, तो कभी भी भक्ति-भावना में कमी नहीं आयेगी। थोड़ा-सा इंटरनेट पर पढ़ लूँ इसके बारे में, फिर आगे चलेंगे।
दिस टेम्पल इज डेडीकेटिड़ टू लॉर्ड़ पार्श्वनाथ - मतलब यह मंदिर भगवान पार्श्वनाथ को समर्पित है। किसी जमाने में लोद्रवा राजधानी भी हुआ करती थी। बाद में जैसलमेर राजधानी बनी। गज़नी और गोरी ने भी यहाँ आक्रमण किया और इसे काफ़ी क्षति पहुँचायी। फिर भी आज यह बड़ी शान से खड़ा है और आर्कीटेक्चर का शानदार नमूना है।
पास में हिंगलाज माता का मंदिर है। इस मंदिर की चाबी बगल वाले घर में रहती है। हमें हिंगलाज मंदिर से बाहर निकलते देख इस घर की एक महिला ने हमें चाबी दी और तब हमने तसल्ली से दर्शन किये। वैसे हिंगलाज माता का मुख्य मंदिर पाकिस्तान के बलूचिस्तान में है।
जैन मंदिर के पास ही एक भोजनशाला है। हमें भोजन तो नहीं करना था, लेकिन बोतलों में पानी भरना था। अंदर गये तो देखा कि आर.ओ. लगा है और वाटर कूलर से ठंड़ा और मीठा पानी आ रहा है। जैन भोजनशाला होने के कारण वाटर कूलर की टोंटियों पर पानी छानने के लिये कपड़ा बँधा था। गौरतलब है कि जैन लोग पानी छानकर पीते हैं और अक्सर टोंटियों पर कपड़ा बाँध देते हैं, ताकि पानी छनकर आता रहे। मुझे बड़ी हँसी आयी कि बगल में आर.ओ. और फिल्टर होने के बावज़ूद भी कपड़ा बँधा हुआ है। कई बार तो लगातार गीला रहने के कारण इस कपड़े में इतने कीटाणु पैदा हो जाते हैं कि सफ़ेद कपड़ा काला होने लगता है। इधर हमारे हिंदू धर्म में इतनी सारी मान्यताएँ हैं, अब कैसे जैन धर्म की इस मान्यता पर हँसता? चुपचाप बोतलें भरी और निकल गये।
एक आदमी कुछ पत्थर बेच रहा था - पिरामिड़ के आकार के पत्थर। कहने लगा कि यह फलां पत्थर है। इसे दूध में डाल दो, सुबह तक दही जम जायेगी। हमें इसकी सत्यता पर संदेह भी हो रहा था, लेकिन नकार भी नहीं सकते थे। बाद में प्रसिद्ध आर्कियोलोजिस्ट और ब्लॉगर ललित शर्मा जी से इस बारे में बात की, तो उन्होंने बताया -
“देखो, सेंधा नमक क्या है? पत्थर ही तो है। उसे हम चाटते हैं तो नमकीन स्वाद आता है। कुछ-कुछ इसी तरह वो फलां पत्थर है। लेकिन उससे कभी भी दही नहीं जमेगी, दूध फट ज़रूर जायेगा।”
इतनी ही कहानी थी लोद्रवा की।
















धूप-स्नान




दूध जमाने वाला यानी दूध फाड़ने वाला पत्थर...





(आपको कौन-सा फोटो सबसे अच्छा लगा? अवश्य बताएँ।)


थार बाइक यात्रा के सभी लेख:
1. थार बाइक यात्रा - भागमभाग
2. थार बाइक यात्रा - एकलिंगजी, हल्दीघाटी और जोधपुर
3. थार बाइक यात्रा: जोधपुर से बाड़मेर और नाकोड़ा जी
4. किराडू मंदिर - थार की शान
5. थार के सुदूर इलाकों में : किराडू - मुनाबाव - म्याजलार
6. खुड़ी - जैसलमेर का उभरता पर्यटक स्थल
7. राष्ट्रीय मरु उद्यान - डेजर्ट नेशनल पार्क
8. धनाना: सम से आगे की दुनिया
9. धनाना में ऊँट-सवारी
10. कुलधरा: एक वीरान भुतहा गाँव
11. लोद्रवा - थार में एक जैन तीर्थ
12. जैसलमेर से तनोट - एक नये रास्ते से
13. वुड़ फॉसिल पार्क, आकल, जैसलमेर
14. बाइक यात्रा: रामदेवरा - बीकानेर - राजगढ़ - दिल्ली




Comments

  1. Number 7) is my favorite.
    Great post as usual, and thanks for sharing.

    ReplyDelete
  2. मंदिर का वास्तुशिल्प वाकई कमाल का है।

    ReplyDelete
    Replies
    1. हाँ जी, वाकई मेहनत कर रखी है वास्तुशिल्प में...

      Delete
  3. आजकल जाटराम की रूचि वास्तुकला में बहुत ज्यादा हो गयी है। जगह जगह तारीफ निकलते रहता है।

    ReplyDelete
    Replies
    1. रुचि तो प्रत्येक क्षेत्र में है, लेकिन थार में इस तरह के बहुत-से स्थान हैं...

      Delete
  4. 4, 7 और 8 न. फोटो बहुत ही अच्छे है।

    ReplyDelete
  5. चित्र क्रमांक 12...
    सारी गड़बड़ जैसलमेर मे एक फ़ोटो लेने के कारण हुई...
    जब तुम साथ होते हो तो ना तो में कुछ योजना बनाता हु,ना ही किस रास्ते जाना है,इस बारे मे सोचता हु।
    इसे आप मेरा समर्पण भाव समझ लो या लापरवाही का लहज़ा भी कह सकते है।
    उस दिन भी यही हुवा,तुमने कहा लोद्रवा पहुँचो,तो मेरे दिमाग़ मे यही था की,तनोट रोड़ पर ही कही आयेगा लोद्रवा भी...
    अच्छा हुवा तुम्हारा फोन जल्दी ही आ गया,और मैने फ़टाफ़ट यु टर्न ले लिया...
    नहीं तो रामगढ़ तो पहुँच ही गया था समझो...
    जब लोद्रवा पहुँचा तो सोच रहा था,बहुत समय ख़राब हो गया है, तुम नाराज़ होवगे, लेकिन इसके उलट तुमने कहाँ भाई आराम से अंदर घुमो,50 रुपेय वसूल करो,जमकर फोटोग्राफी करो...
    उस वक़्त बड़ा अजीब लग रहा था,सोच रहा था इसको हो क्या गया है ? जल्दी करने के बजाय शांति से घुमने को कह रहा है...
    लेकिन फिर जब अंदर जैन मंदिरो मे प्रवेश किया तो मंदिर की भव्य सुन्दरता मे विचारों की सारी उथल पुथल गुम हो गई,सब कुछ सामान्य हो गया।

    ReplyDelete
    Replies
    1. जल्दी किस बात की थी? तनोट ही तो पहुँचना था और तनोट पहुँचने के लिये पर्याप्त समय था हमारे पास...

      Delete
    2. ह्म्म्म,फिर भी समय तो बर्बाद हुवा ही था।
      खेर अच्छा ही हुवा,किसी की भी नाराज़गी अच्छी भी नहीं लगती है।
      👍

      Delete
  6. हर बार की तरह ही बहुत बढि़या पोस्‍ट। यूं लगता है मानो आपके साथ-साथ हम भी यात्रा कर रहे हो। सभी फोटो अच्‍छे है एवं 7,8,9 एवं 11 बहुत अच्‍छे है 12 नंबर का भी मजेदार है।

    ReplyDelete
  7. कृपया अपने शरीर का भी ध्यान रखें। अब आलू जैसे दिखने लगे हैं।

    ReplyDelete
  8. लोद्रवा में कैमरे की टिकेट लगती है 50 रुपया :) ! और वहीँ एक जैन कैंटीन भी है जहां 60 रूपये की थाली मिलती है शुद्ध और सादा भोजन ! मंदिर अच्छा है , आपकी तसवीरें दिखा रही हैं लेकिन मुझे मंदिर के बाहर बैठे लोगों का व्यवहार पसंद नही आया ! मेरे साथ तो कुछ नही हुआ लेकिन एक आदमी जो अँगरेज़ था , उसे परेशां किया ! उसने बताया कि वो इंग्लैंड से है लेकिन चार साल से बंगलौर में रह रहा है , तब भी उससे टिकेट के 100 रूपये लिए ! खैर हो सकता है उनका इन विदेशियों के प्रति कुछ पुराना गलत व्यवहार रहा हो !!

    ReplyDelete
  9. aap ke dawara likha gaya sara vivaran bahut achcha hota hai... or esa lagata hai jese padhanewala khudh hi yah yatra kar raha ho.. or aap ke photograph to sayad hi koi esa ho jo pasand na aaye... bahut bahut badhiya karya hai aap ka.... hame or kai mere jese padhane-dekhanewalo ki ummide puri karane ke liye dhanyawad

    ReplyDelete

Post a Comment

Popular posts from this blog

46 रेलवे स्टेशन हैं दिल्ली में

एक बार मैं गोरखपुर से लखनऊ जा रहा था। ट्रेन थी वैशाली एक्सप्रेस, जनरल डिब्बा। जाहिर है कि ज्यादातर यात्री बिहारी ही थे। उतनी भीड नहीं थी, जितनी अक्सर होती है। मैं ऊपर वाली बर्थ पर बैठ गया। नीचे कुछ यात्री बैठे थे जो दिल्ली जा रहे थे। ये लोग मजदूर थे और दिल्ली एयरपोर्ट के आसपास काम करते थे। इनके साथ कुछ ऐसे भी थे, जो दिल्ली जाकर मजदूर कम्पनी में नये नये भर्ती होने वाले थे। तभी एक ने पूछा कि दिल्ली में कितने रेलवे स्टेशन हैं। दूसरे ने कहा कि एक। तीसरा बोला कि नहीं, तीन हैं, नई दिल्ली, पुरानी दिल्ली और निजामुद्दीन। तभी चौथे की आवाज आई कि सराय रोहिल्ला भी तो है। यह बात करीब चार साढे चार साल पुरानी है, उस समय आनन्द विहार की पहचान नहीं थी। आनन्द विहार टर्मिनल तो बाद में बना। उनकी गिनती किसी तरह पांच तक पहुंच गई। इस गिनती को मैं आगे बढा सकता था लेकिन आदतन चुप रहा।

जिम कार्बेट की हिंदी किताबें

इन पुस्तकों का परिचय यह है कि इन्हें जिम कार्बेट ने लिखा है। और जिम कार्बेट का परिचय देने की अक्ल मुझमें नहीं। उनकी तारीफ करने में मैं असमर्थ हूँ क्योंकि मुझे लगता है कि उनकी तारीफ करने में कहीं कोई भूल-चूक न हो जाए। जो भी शब्द उनके लिये प्रयुक्त करूंगा, वे अपर्याप्त होंगे। बस, यह समझ लीजिए कि लिखते समय वे आपके सामने अपना कलेजा निकालकर रख देते हैं। आप उनका लेखन नहीं, सीधे हृदय पढ़ते हैं। लेखन में तो भूल-चूक हो जाती है, हृदय में कोई भूल-चूक नहीं हो सकती। आप उनकी किताबें पढ़िए। कोई भी किताब। वे बचपन से ही जंगलों में रहे हैं। आदमी से ज्यादा जानवरों को जानते थे। उनकी भाषा-बोली समझते थे। कोई जानवर या पक्षी बोल रहा है तो क्या कह रहा है, चल रहा है तो क्या कह रहा है; वे सब समझते थे। वे नरभक्षी तेंदुए से आतंकित जंगल में खुले में एक पेड़ के नीचे सो जाते थे, क्योंकि उन्हें पता था कि इस पेड़ पर लंगूर हैं और जब तक लंगूर चुप रहेंगे, इसका अर्थ होगा कि तेंदुआ आसपास कहीं नहीं है। कभी वे जंगल में भैंसों के एक खुले बाड़े में भैंसों के बीच में ही सो जाते, कि अगर नरभक्षी आएगा तो भैंसे अपने-आप जगा देंगी।

ट्रेन में बाइक कैसे बुक करें?

अक्सर हमें ट्रेनों में बाइक की बुकिंग करने की आवश्यकता पड़ती है। इस बार मुझे भी पड़ी तो कुछ जानकारियाँ इंटरनेट के माध्यम से जुटायीं। पता चला कि टंकी एकदम खाली होनी चाहिये और बाइक पैक होनी चाहिये - अंग्रेजी में ‘गनी बैग’ कहते हैं और हिंदी में टाट। तो तमाम तरह की परेशानियों के बाद आज आख़िरकार मैं भी अपनी बाइक ट्रेन में बुक करने में सफल रहा। अपना अनुभव और जानकारी आपको भी शेयर कर रहा हूँ। हमारे सामने मुख्य परेशानी यही होती है कि हमें चीजों की जानकारी नहीं होती। ट्रेनों में दो तरह से बाइक बुक की जा सकती है: लगेज के तौर पर और पार्सल के तौर पर। पहले बात करते हैं लगेज के तौर पर बाइक बुक करने का क्या प्रोसीजर है। इसमें आपके पास ट्रेन का आरक्षित टिकट होना चाहिये। यदि आपने रेलवे काउंटर से टिकट लिया है, तब तो वेटिंग टिकट भी चल जायेगा। और अगर आपके पास ऑनलाइन टिकट है, तब या तो कन्फर्म टिकट होना चाहिये या आर.ए.सी.। यानी जब आप स्वयं यात्रा कर रहे हों, और बाइक भी उसी ट्रेन में ले जाना चाहते हों, तो आरक्षित टिकट तो होना ही चाहिये। इसके अलावा बाइक की आर.सी. व आपका कोई पहचान-पत्र भी ज़रूरी है। मतलब