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14 नवंबर 2017
आज का लक्ष्य था परशुराम कुंड देखकर शाम तक तेजू पहुँचना और रात तेजू रुकना। रास्ते में कामलांग वाइल्डलाइफ सेंचुरी है। थोड़ा-बहुत सेंचुरी में घूमेंगे और ‘ग्लाओ लेक’ जाने के बारे में जानकारी हासिल करेंगे। अभी तक मुझे आलूबारी पुल के खुलने की जानकारी नहीं हुई थी। बल्कि मुझे कुछ पता ही नहीं था कि लोहित नदी पर आलूबारी पुल बनाने जैसा भी कोई काम चल रहा है। मैं सोचा करता था कि तिनसुकिया से तेजू जाने के लिए प्रत्येक गाड़ी को नामसाई, वाकरू, परशुराम कुंड होते हुए ही जाना पड़ेगा। कुछ समय पहले 9 किलोमीटर लंबा धोला-सदिया पुल खुला, तो तेजू की गाड़ियाँ उधर से जाने लगी होंगी - ऐसा मैंने सोचा।
नामसाई से आगे एक जगह दूरियाँ लिखी थीं - चौखाम 26 किलोमीटर, परशुराम कुंड 82 किलोमीटर और तेजू 126 किलोमीटर। यानी चौखाम से तेजू 100 किलोमीटर है, लेकिन आलूबारी पुल बनने से पहले। अब यह दूरी केवल 30 किलोमीटर रह गई है। लेकिन हमें तो इस पुल का पता ही नहीं था।
शानदार सड़क थी और हम 70-80 की स्पीड़ से दौड़े जा रहे थे। ध्यान था कि वाकरू में कामलांग सेंचुरी के पास एक पुल पार करना है। एक जगह एक बोर्ड लगा था - कामलांग सेंचुरी दाहिने। मैं समझा कि वाकरू आने वाला है और अब हम वाकरू पुल पार करेंगे। दीप्ति से कहा - “अब हम एक पुल पार करेंगे और थोड़ा विश्राम भी करेंगे।”
नदी आई और ढाई-तीन किलोमीटर लंबा पुल देखकर मैं हैरान रह गया - “इतना लंबा पुल नहीं होना चाहिए था। नक्शा देखना पड़ेगा।”
जी.पी.एस. ऑन करके गूगल मैप में देखा, तो मैं चिल्ला उठा - “ओये, यह तो लोहित है। यहाँ पुल कब बना?” बाद में पता चला कि इसी साल (2017 में) जनवरी में पुल बनकर तैयार हुआ।
लेकिन वाकरू कहाँ गया? देखा कि चौखाम में जहाँ लिखा था – “कामलांग दाहिने” - वही सड़क वाकरू जा रही थी। यह नई सड़क बनी है, चौड़ी है; तो हम चौखाम से सीधे इसी पर चलते रहे, अन्यथा दाहिने मुड़कर वाकरू होते हुए ही जाना पड़ता।
लेकिन अब तो सारी योजना ही बदल गई। आज शाम तक हमें तेजू पहुँचना था, लेकिन अब तो घंटे भर में ही पहुँच जाएँगे। तेजू में नाश्ता करेंगे और वहीं बैठकर आगे के बारे में सोचेंगे।
और लोहित के बारे में जितना लिखूँ, उतना कम। हमने इसे पार करने में एक घंटा लगा दिया। मन ही नहीं भरा। न देखते रहने से और न फोटो खींचने से। एकदम साफ नीला पानी। पानी के नीचे जहाँ रेत थी, वो भी दिख रही थी और जहाँ पत्थर थे, वे भी दिख रहे थे। हम सोच रहे थे कि नदी में कोई नाव भी होनी चाहिए। पारदर्शी पानी पर चलती नाव बड़ी अच्छी लगती।
लेकिन आप एक घंटे तक इस पुल पर खड़े रहें और कोई नाव न गुजरे; ऐसा नहीं हो सकता। एक नाव आई, दो मल्लाह इसे खे रहे थे और मछलियाँ पकड़ने को जाल फैला रहे थे। हम लपककर उनके ऊपर जा पहुँचे। अद्भुत दृश्य था! लोहित के पारदर्शी पानी में एक नाव! एकटक देखता रहा। दीप्ति की आवाज आई - “फोटो भी लेना है इनका।”
दूर तक फैली लोहित में एक छोटी-सी नाव! अच्छे फोटो आए। कम से कम मुझे तो बड़े अच्छे लगे।
बाद में मनोज जोशी ने बताया - “आलूबारी पुल बनने से पहले आलूबारी घाट से फेरी चलती थी। बस तिनसुकिया से आती थी, यात्री फेरी में बैठकर लोहित पार करते थे और उधर उन्हें तेजू की गाड़ी मिलती थी। जब कभी मानसून में नदी में बाढ़ आती थी और इसे पार करना संभव नहीं होता था तो बसें वाकरू और परशुराम कुंड होते हुए तेजू जाती थीं।”
कितनी अनोखी बात है कि कुछ ही देर पहले समीकरण थे कि हमें पहले परशुराम कुंड जाना है और उसके बाद तेजू। लेकिन अब सब उलट-पुलट हो गया। अब हम तेजू पहुँचने ही वाले हैं और उसके बाद कहीं परशुराम कुंड आएगा। एक पुल ने कितना कुछ बदल दिया! अब दूरियाँ लिखी थीं - तेजू 5 किलोमीटर, परशुराम कुंड 50 किलोमीटर, वाकरू 77 किलोमीटर और नामसाई 134 किलोमीटर। ये सब वही पुरानी दूरियाँ थीं - पुल बनने से पहले की। हमें आगे तक भी इसी तरह दूरियाँ लिखी मिलीं। अभी तक किसी ने भी सड़क पर लिखी दूरियों को अपडेट नहीं किया है।
...
मनोज जोशी के घर पर पहुँचे। उनकी माताजी और भतीजी यहाँ थे। पिताजी किसी काम से तिनसुकिया गए थे। यहाँ इनकी एक आरा मशीन है। मूल रूप से झुंझनूँ में पिलानी के हैं। कभी किसी जमाने में इनके पिताजी यहाँ आए थे और आरा मशीन चालू की थी। अब इस काम को मनोज संभाल रहे हैं।
अरुणाचल में व्यापारियों के क्या हाल हैं, वो तो मुझे जागुन में पता चल चुका था। अब देखना था कि मनोज के क्या हाल हैं।
“मनोज भाई, विस्तार से तो बात करूँगा ही, फिलहाल मुझे फटाफट बता दो कि यहाँ आप सुरक्षित तो हो ना?”
“अरे नीरज, कैसी बात करते हो! एकदम सुरक्षित हैं। कोई झंझट नहीं। यह आरा मशीन दो पीढ़ियों से चल रही है, केवल इसीलिये तो चल रही है कि कोई झंझट नहीं है।”
तभी दरवाजे पर एक कार आकर रुकी। होरन बजा। मनोज ने कहा - “एक मिनट रुको, अभी आता हूँ।”
“कौन है?”
“चिंता ना करो भाई, कोई दिक्कत नहीं है।”
मुझे मनोज के हावभाव कुछ बदले-से लगे। मैं भी पीछे-पीछे हो लिया। कार में चार स्थानीय लड़के थे। एक नीचे उतरा। इज्जत से बात करता हुआ मनोज के बुलाने पर अंदर आया और एक रसीद-बुक निकाल ली। इस पर नाम-पता लिखकर 3000 रुपये लिख दिए।
“लेकिन फोन पर तो 1500 रुपये की बात हुई थी।” मनोज ने कहा।
“हाँ हाँ, सॉरी सॉरी।” और काटकर 1500 कर दिया। मनोज ने पाँच-पाँच सौ के तीन नोट इसे पकड़ाए और रसीद ले ली। वे सब चले गए।
उनके जाते ही मैंने रसीद पढ़ी। अंग्रेजी में थी। कहानी ज्यादा समझ में नहीं आई।
“मनोज भाई, क्या है यह?”
“वसूली के तरीके हैं। हर तीसरे-चौथे दिन कोई न कोई आता रहता है और तरह-तरह से पैसे ले जाता है।”
“आज की क्या कहानी है?”
“इधर फलाँ जनजाति के लोग रहते हैं। ये भी उसी जनजाति के लड़के हैं। सरकार ने उधर कुछ दूर दूसरी जनजाति वालों को विस्थापित करके बसाया है। ये लोग इसका विरोध कर रहे हैं। तो कल ये विरोध-स्वरूप अपने गाँव से चौखाम तक एक रैली निकालेंगे। इसके लिये पैसे चाहिए।”
“क्या वास्तव में रैली निकालेंगे?”
“नहीं, बिल्कुल भी नहीं। दारू पिएँगे और मुर्गा खाएँगे।”
“और अगर आप पैसे न दो, तो?”
“आओ, एक चीज दिखाता हूँ।”
ये हाल ही में प्रकाशित हुई मेरी किताब ‘मेरा पूर्वोत्तर’ के ‘पूर्वी अरुणाचल में’ चैप्टर के कुछ अंश हैं। किताब खरीदने के लिए नीचे क्लिक करें:
नया बना आलूबारी पुल... |
लोहित नदी |
लोहित नदी में मछुआरे |
लोहित पार करके तेजू बहुत नजदीक रह जाता है |
तेजू में भोजन... अब कोई नहीं कहेगा कि अरुणाचल में अच्छा भोजन नहीं मिलता... |
तेजू से आगे की सड़क |
तेजू के बाद इस तिराहे से एक सड़क परशुराम कुंड जाती है और दूसरी सड़क धुर पूर्व में किबिथू... |
लोहित नदी का विहंगम नजारा |
परशुराम कुंड में लोहित नदी पहाड़ छोड़कर पहली बार मैदान में आती है... |
और फिर आगे ब्रह्मपुत्र बनने चल देती है... |
परशुराम कुंड में लोहित पर बना पुल |
परशुराम कुंड |
परशुराम कुंड में कुंड तक जाने हेतु रास्ता |
अब बारी थी परशुराम कुंड से मेदू जाने की... रास्ता कामलांग वाइल्डलाइफ सेंचुरी से होकर जाता है |
और यह रहा अरुणाचल के जंगलों में स्थित छोटे-से गाँव मेदू में हमारा आज का भोजन |
अगला भाग: “मेरा पूर्वोत्तर” - गोल्डन पैगोडा, नामसाई, अरुणाचल
1. “मेरा पूर्वोत्तर”... यात्रारंभ
2. “मेरा पूर्वोत्तर”... गुवाहाटी से शिवसागर
3. “मेरा पूर्वोत्तर” - शिवसागर
4. “मेरा पूर्वोत्तर” - चराईदेव: भारत के पिरामिड
5. “मेरा पूर्वोत्तर” - अरुणाचल में प्रवेश
6. “मेरा पूर्वोत्तर” - नामदफा नेशनल पार्क
7. “मेरा पूर्वोत्तर” - नामदफा से नामसाई तक
8. “मेरा पूर्वोत्तर” - तेजू, परशुराम कुंड और मेदू
9. “मेरा पूर्वोत्तर” - गोल्डन पैगोडा, नामसाई, अरुणाचल
10. “मेरा पूर्वोत्तर” - ढोला-सदिया पुल - 9 किलोमीटर लंबा पुल
11. “मेरा पूर्वोत्तर” - बोगीबील पुल और माजुली तक की यात्रा
12. “मेरा पूर्वोत्तर” - माजुली से काजीरंगा की यात्रा
13. “मेरा पूर्वोत्तर” - काजीरंगा नेशनल पार्क
इतना गली गली मुहल्ले मुहल्ले घूमना और जानकारी देना बहुत कठिन है।
ReplyDeleteफिऱ तो पहाड़ी रस्ता आलूबारी पूल पार करने के बाद आरम्भ होता होगा प्रभु
ReplyDeleteबहुत अच्छी जानकारी और सुंदर फोटो
ReplyDeleteआपके साथ पूर्वोत्तर भ्रमण की इच्छा है ।क्या मै अगली यात्रा पर साथ चल सकता हूं?
ReplyDeleteवाकई, इतनी बारीकी से और सटीक जानकारी पाकर घूमने की इच्छा प्रबल होने लगती है, पूर्वोतर ख़ूबसूरती और अन्य किसी भी मायने में देश के दूसरे राज्यों से कम नहीं है !
ReplyDeleteबहुत सुंदर लिखते हैं आप
ReplyDeleteमारवाड़ी बहुत हैं उत्तर पूर्व में और इन्होंने ही वसूली का धंधा पनपा रखा है। इन्हें किसी को भी हफ्ता देने में कोई दिक्कत नहीं, बदले में उतनी ही कीमत बढ़ जाती है सामान की। अधिकांश रोजमर्रा के सामान की कीमत कई गुना है उत्तर पूर्व में जिनके डीलर मारवाड़ी ही हैं।
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