Skip to main content

“मेरा पूर्वोत्तर” - अरुणाचल में प्रवेश

इस यात्रा-वृत्तांत को आरंभ से पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक करें
11 नवंबर 2017
“हम जब लौटेंगे तो हमें परशुराम कुंड की तरफ जाना है, लेकिन गूगल मैप पर मियाओ के पास नो-दिहिंग के उस पार से एक सड़क जाती दिख भी रही है; और समस्या ये है कि नो-दिहिंग पर कोई पुल नहीं है। इसे पार कैसे करेंगे? नहीं तो फिर वापस जागुन होते हुए ही डिगबोई और फिर बोरदुमसा वाला रास्ता लेना होगा, जो कि बहुत ज्यादा लंबा पड़ेगा।”
गीताली ने उत्तर दिया - “नहीं, आपको डिगबोई जाने की जरूरत नहीं पड़ेगी। हमारे घर के पीछे ही दिहिंग नदी बहती है। उसके उस तरफ अरुणाचल है और एक सड़क भी सीधे बोरदुमसा जाती है।”
“इसे पार कैसे करेंगे?”
“हो जाएगा सब।”
तो सुबह नौ बजे जागुन से निकल पड़े। ‘फिर आना’, ‘दो दिन रुकना’ समेत ढेरों आशीर्वाद भी मिले। गीताली की माताजी और भतीजे पुचकू समेत सभी हमें बाहर तक छोड़ने आए। हम अभिभूत हो गए, इतने सुदूर में ऐसा प्यार पाकर!




जागुन से बॉर्डर तक की सड़क बहुत खराब हालत में थी। आठ किलोमीटर की इस दूरी को तय करने में आधा घंटा लग गया। इस दौरान एक बस भी मियाओ से इटानगर जाती दिखी।
जंगल के बीचोंबीच वाहनों की कतार मिली। समझते देर न लगी कि हम अरुणाचल में प्रवेश करने वाले हैं। हम सभी वाहनों को ओवरटेक करते हुए सबसे आगे जा लगे। किसी वाहन चालक ने कोई आपत्ति नहीं की। आपत्ति की पुलिसवाले ने। वह काफी चिड़चिड़ा था और उसका पाला रोज ही अजीब-अजीब लोगों के अजीब-अजीब सवालों व चेष्टाओं से होता होगा।
“ओये, बाइक पीछे लगाओ। सबसे पीछे।”
“हाँ-हाँ। लगा रहे हैं। एक मिनट ठहर जाओ।”
“ठहरना नहीं है। अभी पीछे जाओ।”
मैंने सारे कागज, परमिट और पहचान-पत्र अपने साथ लिए और दीप्ति बाइक को पीछे ले गई। अब पुलिसवाले को कोई आपत्ति नहीं थी।
दो लड़के भी अरुणाचल जाना चाहते थे, लेकिन उनके पास परमिट नहीं थे। वे पुलिसवाले से खूब मिन्नतें कर रहे थे, लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ।
“यहाँ से परमिट नहीं बनेगा। आपको मोहनबाड़ी से बनवाकर लाना पड़ेगा।”
मोहनबाड़ी मतलब डिब्रुगढ़। मैंने सलाह दी कि यह ऑनलाइन भी बन जाता है। आप एप्लाई कर दो। नसीब अच्छा हुआ तो कुछ ही देर में अप्रूव हो जाएगा। आपको डिब्रुगढ़ नहीं जाना पड़ेगा।
‘ऑनलाइन’ सुनते ही बाहर खड़ा वो चिड़चिड़ा पुलिसवाला बोला - “नहीं, यहाँ ऑनलाइन नहीं चलता। अगर आपने ऑनलाइन बनवाया है, तब भी आपको मोहनबाड़ी से लिखवाकर लाना पड़ेगा।”
हमारे पास तो ऑनलाइन परमिट का प्रिंट-आउट था। अंदर बैठे पुलिसवाले ने बड़ी इज्जत से सभी कागज देखे, अपने रजिस्टर में एंट्री की और जाने को कह दिया। बाहर वाला दूसरे लोगों पर और वाहनों पर अपनी हड़क ही दिखाता रहा। मैंने दीप्ति की तरफ हाथ लहराया और वह बाइक लेकर आ गई। बैरियर खुला और साढ़े नौ बजे हम अरुणाचल में प्रवेश कर गए।

भले ही अरुणाचल भारत के बाकी राज्यों की तरह एक राज्य हो, लेकिन फिर भी यह विशिष्ट है। विशिष्ट क्यों है, हम इस तर्क में नहीं पड़ेंगे। बस, विशिष्ट है तो है। प्रवेश करते ही दो चीजों से सामना हुआ - शानदार सड़क और बर्फीली चोटी। यहाँ फिलहाल वो घना जंगल तो नहीं था, जो हमें असम में जागुन से यहाँ तक आने में मिला था, लेकिन अच्छी सड़क और बीच-बीच में कुछ गाँव अवश्य थे।
अरुणाचल जनजातियों का प्रदेश है। पूरब से पश्चिम तक यह जनजाति, वह जनजाति। हर जनजाति का अपना इतिहास, अपनी संस्कृति और अपनी खासियत। लेकिन मैं इन सब बातों का जानकार नहीं। जानने की इच्छा होती है, इनके बारे में पढ़ता भी रहता हूँ; लेकिन भूल जाता हूँ। तो हम जिन गाँवों से होकर गुजर रहे थे, इनमें कौन-सी जनजाति निवास करती है; पता नहीं।
और दाफाबुम के तो कहने ही क्या! वो जो सामने बर्फीली चोटी दिख रही है, वही दाफाबुम है। दाफा माने पता नहीं और बुम माने भी पता नहीं। इसी दाफा से नामदफा नेशनल पार्क बना है। वह चोटी नेशनल पार्क के अंदर ही है। 4200 मीटर से ऊँची वह चोटी इधर की सबसे ऊँची चोटी है।
इधर की मतलब किधर की?
मतलब चांगलांग जिले की। या कहिए कि पटकाई रेंज की।
अब यह पटकाई क्या है?
पूर्वोत्तर भारत में अरुणाचल को छोड़कर बाकी सभी राज्यों में जो पहाड़ियाँ हैं, वे पटकाई पहाड़ियाँ हैं। क्षेत्रीयता के अनुसार इनके अलग-अलग नाम हैं। जैसे मेघालय में गारो, खासी, जयंतिया; असम में हाफलोंग की पहाड़ियाँ या दिमासा हिल्स; मिजोरम, मणिपुर, त्रिपुरा में लुशाई हिल्स। इनका विस्तार सीमा के उस तरफ म्यांमार में भी है। ये पहाड़ियाँ हिमालय पर्वत श्रंखला का हिस्सा नहीं हैं, लेकिन अरुणाचल के पूर्वी भाग में ये हिमालय से जुड़ी हैं। हिमालय और पटकाई के बीच कोई स्पष्ट विभाजन नहीं है, लेकिन कहा जा सकता है कि लोहित नदी के दक्षिण में पटकाई है। हम लोहित के दक्षिण में थे, इसलिए पटकाई में थे।
अभी हम समुद्र तल से 200 मीटर ही ऊपर थे और हमें 4200 मीटर ऊँची चोटी दिख रही थी। इसकी मैंने कल्पना नहीं की थी। लेकिन अब जब दिख ही गई तो पहचानते भी देर नहीं लगी। इधर दाफाबुम से ऊँची कोई चोटी है ही नहीं।
खरसांग में पेट्रोल पंप मिला। टंकी फुल करा ली। एक सड़क बायीं तरफ जाती दिखी। शानदार बनी थी। मेरी जानकारी में यह सड़क नहीं थी। पूछताछ करनी पड़ी। पता चला बोरदुमसा जाती है।
“क्या? बोरदुमसा?”
“हाँ जी।”
“बोरदुमसा तक ऐसी ही बनी है क्या?”
“हाँ जी, नई बनी है। शानदार है।”
यह तो बड़ी अच्छी बात है। अब हमें बोरदुमसा जाने के लिए वापस जागुन नहीं जाना पड़ेगा। यहीं से जाएँगे।
मियाओ पहुँचे। इसके बारे में जैसी उम्मीद की थी, यह वैसा नहीं है। मैंने सोचा था, कम से कम कस्बा तो होगा ही। लेकिन यह तो एक गाँव ही है। जागुन जाने के लिए कई जीपें खड़ी थीं। कुछ दुकानें थीं। एक सड़क दाहिने जा रही थी, एक बाएँ। इनमें से एक सड़क एम.वी. रोड़ है, यानी मियाओ-विजयनगर रोड़। आज हमें नामदफा नेशनल पार्क में रुकना है।
“फोरेस्ट ऑफिस उधर है, एक किलोमीटर आगे।”
हम सीधे फोरेस्ट ऑफिस पहुँचे। बगल में एक छोटा-सा चिड़ियाघर भी है। कुछ सरकारी मकान बने हुए हैं। एक रेस्ट हाउस भी है। मियाओ ही नामदफा नेशनल पार्क का प्रवेश द्वार है। नेशनल पार्क में प्रवेश करने का परमिट और अंदर रुकने की व्यवस्था यहीं से करनी होगी।
“सर, आज तो ‘सेकंड सैटरडे’ है। आज तो ऑफिस बंद है और कल रविवार होने के कारण बंद रहेगा।”
हमें झटका लगा।
“अब?”
“अब कुछ नहीं हो सकता। परसों आना।”
यह वास्तव में एक बड़ा झटका था। हमें रविवार तो याद था, लेकिन ‘सेकंड सैटरडे’ की कोई कल्पना भी नहीं की थी। परमिट बन ही जाना चाहिए था।

ये हाल ही में प्रकाशित हुई मेरी किताब ‘मेरा पूर्वोत्तर’ के ‘नामदफा नेशनल पार्क’ चैप्टर के कुछ अंश हैं। किताब खरीदने के लिए नीचे क्लिक करें:




जागुन-मियाओ सड़क... असम के अंदर...

जागुन-मियाओ सड़क... अरुणाचल के अंदर...

जागुन-मियाओ सड़क से दिखती बर्फीली दाफाबुम की चोटी...


मियाओ चिड़ियाघर के अंदर






मियाओ का मुख्य चौक

एम.वी. रोड यानी मियाओ विजयनगर रोड


रास्ता नो-दिहिंग नदी के साथ-साथ है और बेहद खूबसूरत है...








नेशनल पार्क के अंदर सड़क एकदम कच्ची है और कई जगह नदी-नाले भी पार करने होते हैं...


नेशनल पार्क के अंदर बसा चकमा जनजाति के लोगों का एक गाँव और उनके खेत



घने जंगल से जाती सड़क...






कीचड़... यहाँ ऊपर से लगातार कीचड़ ही गिरता जा रहा था...


घनघोर जंगल के बीच से... रोमांच भी और उत्सुकता भी... यह जंगल टाइगर रिजर्व भी है...

जंगल में एक छोटा-सा मंदिर...

मंदिर के अंदर

यहाँ से दाहिनी सड़क विजयनगर की ओर जाती है और बाएँ नीचे जाती सड़क देबान रेस्ट हाउस की ओर

देबान रेस्ट हाउस

नो-दिहिंग के किनारे










मानसून में इस नदी में कितना पानी आता है, इससे अंदाजा लगाया जा सकता है...







अगला भाग: “मेरा पूर्वोत्तर” - नामदफा नेशनल पार्क






1. “मेरा पूर्वोत्तर”... यात्रारंभ
2. “मेरा पूर्वोत्तर”... गुवाहाटी से शिवसागर
3. “मेरा पूर्वोत्तर” - शिवसागर
4. “मेरा पूर्वोत्तर” - चराईदेव: भारत के पिरामिड
5. “मेरा पूर्वोत्तर” - अरुणाचल में प्रवेश
6. “मेरा पूर्वोत्तर” - नामदफा नेशनल पार्क
7. “मेरा पूर्वोत्तर” - नामदफा से नामसाई तक
8. “मेरा पूर्वोत्तर” - तेजू, परशुराम कुंड और मेदू
9. “मेरा पूर्वोत्तर” - गोल्डन पैगोडा, नामसाई, अरुणाचल
10. “मेरा पूर्वोत्तर” - ढोला-सदिया पुल - 9 किलोमीटर लंबा पुल
11. “मेरा पूर्वोत्तर” - बोगीबील पुल और माजुली तक की यात्रा
12. “मेरा पूर्वोत्तर” - माजुली से काजीरंगा की यात्रा
13. “मेरा पूर्वोत्तर” - काजीरंगा नेशनल पार्क




Comments

  1. abhi tak jitne bhi aap k lekh pade hai almost sab jagah k naam yad hain, par in jagaho k naam yaad rakh pana mere liye possible nahi lag raha.

    sab se badiya cheez lagi 200 Meter se 4200 meter height ki peak dikh rahi hai

    ReplyDelete
  2. इतने यात्रा पोस्ट की , पर कहीं पर भी डायरी का जिक्र नहीं किया। इतने घने जंगलों में डर, खाने की परेशानी। सूंदर चित्र।

    ReplyDelete
  3. असल जिंदगी तो आप जी रहे है मस्‍तमौला टाइप .... लिखते रहिए.. घूमते रहिए।

    ReplyDelete

Post a Comment

Popular posts from this blog

46 रेलवे स्टेशन हैं दिल्ली में

एक बार मैं गोरखपुर से लखनऊ जा रहा था। ट्रेन थी वैशाली एक्सप्रेस, जनरल डिब्बा। जाहिर है कि ज्यादातर यात्री बिहारी ही थे। उतनी भीड नहीं थी, जितनी अक्सर होती है। मैं ऊपर वाली बर्थ पर बैठ गया। नीचे कुछ यात्री बैठे थे जो दिल्ली जा रहे थे। ये लोग मजदूर थे और दिल्ली एयरपोर्ट के आसपास काम करते थे। इनके साथ कुछ ऐसे भी थे, जो दिल्ली जाकर मजदूर कम्पनी में नये नये भर्ती होने वाले थे। तभी एक ने पूछा कि दिल्ली में कितने रेलवे स्टेशन हैं। दूसरे ने कहा कि एक। तीसरा बोला कि नहीं, तीन हैं, नई दिल्ली, पुरानी दिल्ली और निजामुद्दीन। तभी चौथे की आवाज आई कि सराय रोहिल्ला भी तो है। यह बात करीब चार साढे चार साल पुरानी है, उस समय आनन्द विहार की पहचान नहीं थी। आनन्द विहार टर्मिनल तो बाद में बना। उनकी गिनती किसी तरह पांच तक पहुंच गई। इस गिनती को मैं आगे बढा सकता था लेकिन आदतन चुप रहा।

जिम कार्बेट की हिंदी किताबें

इन पुस्तकों का परिचय यह है कि इन्हें जिम कार्बेट ने लिखा है। और जिम कार्बेट का परिचय देने की अक्ल मुझमें नहीं। उनकी तारीफ करने में मैं असमर्थ हूँ क्योंकि मुझे लगता है कि उनकी तारीफ करने में कहीं कोई भूल-चूक न हो जाए। जो भी शब्द उनके लिये प्रयुक्त करूंगा, वे अपर्याप्त होंगे। बस, यह समझ लीजिए कि लिखते समय वे आपके सामने अपना कलेजा निकालकर रख देते हैं। आप उनका लेखन नहीं, सीधे हृदय पढ़ते हैं। लेखन में तो भूल-चूक हो जाती है, हृदय में कोई भूल-चूक नहीं हो सकती। आप उनकी किताबें पढ़िए। कोई भी किताब। वे बचपन से ही जंगलों में रहे हैं। आदमी से ज्यादा जानवरों को जानते थे। उनकी भाषा-बोली समझते थे। कोई जानवर या पक्षी बोल रहा है तो क्या कह रहा है, चल रहा है तो क्या कह रहा है; वे सब समझते थे। वे नरभक्षी तेंदुए से आतंकित जंगल में खुले में एक पेड़ के नीचे सो जाते थे, क्योंकि उन्हें पता था कि इस पेड़ पर लंगूर हैं और जब तक लंगूर चुप रहेंगे, इसका अर्थ होगा कि तेंदुआ आसपास कहीं नहीं है। कभी वे जंगल में भैंसों के एक खुले बाड़े में भैंसों के बीच में ही सो जाते, कि अगर नरभक्षी आएगा तो भैंसे अपने-आप जगा देंगी।

ट्रेन में बाइक कैसे बुक करें?

अक्सर हमें ट्रेनों में बाइक की बुकिंग करने की आवश्यकता पड़ती है। इस बार मुझे भी पड़ी तो कुछ जानकारियाँ इंटरनेट के माध्यम से जुटायीं। पता चला कि टंकी एकदम खाली होनी चाहिये और बाइक पैक होनी चाहिये - अंग्रेजी में ‘गनी बैग’ कहते हैं और हिंदी में टाट। तो तमाम तरह की परेशानियों के बाद आज आख़िरकार मैं भी अपनी बाइक ट्रेन में बुक करने में सफल रहा। अपना अनुभव और जानकारी आपको भी शेयर कर रहा हूँ। हमारे सामने मुख्य परेशानी यही होती है कि हमें चीजों की जानकारी नहीं होती। ट्रेनों में दो तरह से बाइक बुक की जा सकती है: लगेज के तौर पर और पार्सल के तौर पर। पहले बात करते हैं लगेज के तौर पर बाइक बुक करने का क्या प्रोसीजर है। इसमें आपके पास ट्रेन का आरक्षित टिकट होना चाहिये। यदि आपने रेलवे काउंटर से टिकट लिया है, तब तो वेटिंग टिकट भी चल जायेगा। और अगर आपके पास ऑनलाइन टिकट है, तब या तो कन्फर्म टिकट होना चाहिये या आर.ए.सी.। यानी जब आप स्वयं यात्रा कर रहे हों, और बाइक भी उसी ट्रेन में ले जाना चाहते हों, तो आरक्षित टिकट तो होना ही चाहिये। इसके अलावा बाइक की आर.सी. व आपका कोई पहचान-पत्र भी ज़रूरी है। मतलब