Skip to main content

“मेरा पूर्वोत्तर” - शिवसागर

इस यात्रा-वृत्तांत को आरंभ से पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक करें
10 नवंबर 2017
हम शिवसागर में थे। मुझे और दीप्‍ति किसी को भी असम के बारे में कुछ नहीं पता था। शिवसागर का क्या महत्व है, वो भी नहीं पता। चार साल पहले लामडिंग से सिलचर जाते समय ट्रेन में एक साधु मिले थे। वे शिवसागर से आ रहे थे। उन्होंने शिवसागर की धार्मिक महत्‍ता के बारे में जो बताया था, तब से मन में अंकित हो गया था कि शिवसागर असम का हरिद्वार है। आज हम ‘हरिद्वार’ में थे। सोने से पहले थोड़ी देर इंटरनेट चलाया और हमें शिवसागर के बारे में काफी जानकारी हो गई। साथ ही यह भी पता चल गया कि कल हमें कहाँ-कहाँ जाना है और क्या-क्या देखना है।
हमें असम के बारे में कभी नहीं पढ़ाया गया। असम का इतिहास हमारे पाठ्यक्रम में कभी रहा ही नहीं। असम के नाम की उत्पत्‍ति बताई गई कि यहाँ की भूमि असमतल है, इसलिये राज्य का नाम अ-सम है। जबकि ऐसा नहीं है। यह असल में असोम है, जो अहोम से उत्पन्न हुआ है। सन् 1228 से सन् 1826 तक यानी लगभग 600 सालों तक यहाँ अहोम राजवंश का शासन रहा है। जब मुगल पूर्वोत्‍तर में पैर पसारने की जी-तोड़ कोशिश कर रहे थे, तो अहोम राजवंश ही था जिसने मुगलों को असम में घुसने भी नहीं दिया। लेकिन हमें मुगलों के बारे में सबकुछ बता दिया जाता है, अहोमों के बारे में कुछ नहीं बताया जाता।




यही कारण था कि हमें अपनी इस यात्रा के दौरान असम का कुछ भी नहीं पता था। कल जब पांगशू पास जाना मना हो गया तो शिवसागर के दर्शनीय स्थलों को देखने के लिए इंटरनेट का सहारा लिया। ज्यों-ज्यों ‘सर्फिंग’ करता चला गया, त्यों-त्यों आँखें खुलती चली गईं। अचरज हुआ कि हम तो अहोमों की राजधानी में थे। शिवसागर भी उनकी राजधानी रही है। अहोमों की पहली राजधानी चराइदेव थी जो शिवसागर से ज्यादा दूर नहीं। अभी भी चराइदेव में कुछ अवशेष बचे हैं। तय कर लिया कि हम जाएँगे चराइदेव भी। लेकिन पहले शिवसागर घूमेंगे।
तो 1699 में अहोम राजा रुद्र सिंह ने शिवसागर में कुछ निर्माण कार्य कराए। मुझे अभी भी ज्यादा कुछ नहीं पता है यहाँ के इतिहास के बारे में। तो इंटरनेट से टीपकर मैं फिलहाल इसका कच्चा-पक्का हिंदी अनुवाद नहीं करूँगा। कल जब हम शिवसागर आए थे तो इसके मुख्य तालाब ‘शिवसागर’ के किनारे-किनारे होकर आए थे। बगल में शिवडोल मंदिर भी देखा था, चलती बाइक से।
आज सबसे पहले वहीं पहुँचे। शिवसागर तालाब काफी बड़ा तालाब है। चारों ओर सड़क बनी है। खास बात यह है कि यह शहर से कुछ ऊपर बना है। हम जब पहुँचे तो पुलिस के बैरियर लगे थे। सुबह का समय पैदल चलने वालों और व्यायाम करने वालों का होता है। इसलिये इस समय इस परिक्रमा पथ पर कोई भी वाहन आ-जा नहीं सकता था। पुलिसवाले ने बड़े सलीके से हमें शिवडोल जाने का रास्ता समझा दिया।
मंदिर के सामने लगा असम टूरिज्म का बोर्ड बता रहा था कि यह मंदिर 1734 में बनवाया गया था। यह 104 फीट ऊँचा है, जो भारत का सबसे ऊँचा शिव मंदिर है। हम किसी दूसरे मंदिर को इसके बराबर में खड़ा नहीं करेंगे और न ही इस बहस में पड़ेंगे कि यह सबसे ऊँचा है या नहीं। फिलहाल जूते उतारकर मंदिर में चलते हैं। भीड़ तो छोड़िए, एक-दो आदमी भी मंदिर में नहीं दिख रहे। हाँ, पीछे तालाब की सड़क पर बहुत सारे नर-नारी ‘जॉगिंग’ करते दिख रहे हैं।
वास्तुकला की मेरी अज्ञानता जगजाहिर है। मुझे कुछ भी नहीं पता इसके बारे में। और यहाँ सुदूर पूरब में यह अज्ञानता और भी भयानक बन जाती है। मैंने प्रतिज्ञा तो कर ली कि दिल्ली लौटकर वास्तुकला के बारे में कुछ जानकारी हासिल करूँगा, लेकिन दिल्ली लौटकर इतनी फुरसत होती किसे है?
बहुत सारे सफेद कबूतर निर्भीक घूम रहे थे। सुबह-सुबह का समय था। भक्‍त लोग और व्यायामार्थी कुछ दाना-पानी भी डालते जाते हैं। बहुत सारे कबूतर थे। और कुत्‍ते को बिल्कुल भी मेहनत नहीं करनी पड़ी, उसके नाश्ते का प्रबंध हो गया। किसी को कोई फर्क नहीं पड़ा। दो-तीन कबूतर ही उड़े; कुछ दो फीट इधर-उधर हो गए; बाकी दाना चुगते रहे। कुत्‍ता एक कबूतर को मुँह में दबोचकर मंदिर परिसर से बाहर चला गया।
हम भी अविचलित ही रहे। भगवान के दरबार में सबका हक है।

ये हाल ही में प्रकाशित हुई मेरी किताब ‘मेरा पूर्वोत्तर’ के ‘असम के आर-पार’ चैप्टर के कुछ अंश हैं। किताब खरीदने के लिए नीचे क्लिक करें:


होटल से दिखता शिवसागर शहर...


शिवडोल


शिवसागर झील






शिवडोल मंदिर की दीवारें इसकी प्राचीनता का एहसास कराती हैं।





रंगघर








तलातल घर के प्रवेश द्वार पर रखी तोपें


तलातल घर की छत से...


तलातल घर के अंदर... बारिश ज्यादा होने के कारण नमी ज्यादा रहती है और काई जम जाती है...






पर्यटक कहीं भी जाएँ... अपना नाम लिखना नहीं भूलते... यह तलातल घर के एक कमरे में नर्म पत्थर का फर्श है...















अगला भाग: “मेरा पूर्वोत्तर” - चराईदेव: भारत के पिरामिड






1. “मेरा पूर्वोत्तर”... यात्रारंभ
2. “मेरा पूर्वोत्तर”... गुवाहाटी से शिवसागर
3. “मेरा पूर्वोत्तर” - शिवसागर
4. “मेरा पूर्वोत्तर” - चराईदेव: भारत के पिरामिड
5. “मेरा पूर्वोत्तर” - अरुणाचल में प्रवेश
6. “मेरा पूर्वोत्तर” - नामदफा नेशनल पार्क
7. “मेरा पूर्वोत्तर” - नामदफा से नामसाई तक
8. “मेरा पूर्वोत्तर” - तेजू, परशुराम कुंड और मेदू
9. “मेरा पूर्वोत्तर” - गोल्डन पैगोडा, नामसाई, अरुणाचल
10. “मेरा पूर्वोत्तर” - ढोला-सदिया पुल - 9 किलोमीटर लंबा पुल
11. “मेरा पूर्वोत्तर” - बोगीबील पुल और माजुली तक की यात्रा
12. “मेरा पूर्वोत्तर” - माजुली से काजीरंगा की यात्रा
13. “मेरा पूर्वोत्तर” - काजीरंगा नेशनल पार्क




Comments

  1. अतिसुन्दर अभिव्यक्ति...

    ReplyDelete
  2. wildlife photography bhi kamaal hi hai

    ReplyDelete
  3. हमेशा की तरह शानदार....

    ReplyDelete
  4. वाह ..... हमेशा की तरह एक जानदार लेख ।

    ReplyDelete

Post a Comment

Popular posts from this blog

46 रेलवे स्टेशन हैं दिल्ली में

एक बार मैं गोरखपुर से लखनऊ जा रहा था। ट्रेन थी वैशाली एक्सप्रेस, जनरल डिब्बा। जाहिर है कि ज्यादातर यात्री बिहारी ही थे। उतनी भीड नहीं थी, जितनी अक्सर होती है। मैं ऊपर वाली बर्थ पर बैठ गया। नीचे कुछ यात्री बैठे थे जो दिल्ली जा रहे थे। ये लोग मजदूर थे और दिल्ली एयरपोर्ट के आसपास काम करते थे। इनके साथ कुछ ऐसे भी थे, जो दिल्ली जाकर मजदूर कम्पनी में नये नये भर्ती होने वाले थे। तभी एक ने पूछा कि दिल्ली में कितने रेलवे स्टेशन हैं। दूसरे ने कहा कि एक। तीसरा बोला कि नहीं, तीन हैं, नई दिल्ली, पुरानी दिल्ली और निजामुद्दीन। तभी चौथे की आवाज आई कि सराय रोहिल्ला भी तो है। यह बात करीब चार साढे चार साल पुरानी है, उस समय आनन्द विहार की पहचान नहीं थी। आनन्द विहार टर्मिनल तो बाद में बना। उनकी गिनती किसी तरह पांच तक पहुंच गई। इस गिनती को मैं आगे बढा सकता था लेकिन आदतन चुप रहा।

जिम कार्बेट की हिंदी किताबें

इन पुस्तकों का परिचय यह है कि इन्हें जिम कार्बेट ने लिखा है। और जिम कार्बेट का परिचय देने की अक्ल मुझमें नहीं। उनकी तारीफ करने में मैं असमर्थ हूँ क्योंकि मुझे लगता है कि उनकी तारीफ करने में कहीं कोई भूल-चूक न हो जाए। जो भी शब्द उनके लिये प्रयुक्त करूंगा, वे अपर्याप्त होंगे। बस, यह समझ लीजिए कि लिखते समय वे आपके सामने अपना कलेजा निकालकर रख देते हैं। आप उनका लेखन नहीं, सीधे हृदय पढ़ते हैं। लेखन में तो भूल-चूक हो जाती है, हृदय में कोई भूल-चूक नहीं हो सकती। आप उनकी किताबें पढ़िए। कोई भी किताब। वे बचपन से ही जंगलों में रहे हैं। आदमी से ज्यादा जानवरों को जानते थे। उनकी भाषा-बोली समझते थे। कोई जानवर या पक्षी बोल रहा है तो क्या कह रहा है, चल रहा है तो क्या कह रहा है; वे सब समझते थे। वे नरभक्षी तेंदुए से आतंकित जंगल में खुले में एक पेड़ के नीचे सो जाते थे, क्योंकि उन्हें पता था कि इस पेड़ पर लंगूर हैं और जब तक लंगूर चुप रहेंगे, इसका अर्थ होगा कि तेंदुआ आसपास कहीं नहीं है। कभी वे जंगल में भैंसों के एक खुले बाड़े में भैंसों के बीच में ही सो जाते, कि अगर नरभक्षी आएगा तो भैंसे अपने-आप जगा देंगी।

ट्रेन में बाइक कैसे बुक करें?

अक्सर हमें ट्रेनों में बाइक की बुकिंग करने की आवश्यकता पड़ती है। इस बार मुझे भी पड़ी तो कुछ जानकारियाँ इंटरनेट के माध्यम से जुटायीं। पता चला कि टंकी एकदम खाली होनी चाहिये और बाइक पैक होनी चाहिये - अंग्रेजी में ‘गनी बैग’ कहते हैं और हिंदी में टाट। तो तमाम तरह की परेशानियों के बाद आज आख़िरकार मैं भी अपनी बाइक ट्रेन में बुक करने में सफल रहा। अपना अनुभव और जानकारी आपको भी शेयर कर रहा हूँ। हमारे सामने मुख्य परेशानी यही होती है कि हमें चीजों की जानकारी नहीं होती। ट्रेनों में दो तरह से बाइक बुक की जा सकती है: लगेज के तौर पर और पार्सल के तौर पर। पहले बात करते हैं लगेज के तौर पर बाइक बुक करने का क्या प्रोसीजर है। इसमें आपके पास ट्रेन का आरक्षित टिकट होना चाहिये। यदि आपने रेलवे काउंटर से टिकट लिया है, तब तो वेटिंग टिकट भी चल जायेगा। और अगर आपके पास ऑनलाइन टिकट है, तब या तो कन्फर्म टिकट होना चाहिये या आर.ए.सी.। यानी जब आप स्वयं यात्रा कर रहे हों, और बाइक भी उसी ट्रेन में ले जाना चाहते हों, तो आरक्षित टिकट तो होना ही चाहिये। इसके अलावा बाइक की आर.सी. व आपका कोई पहचान-पत्र भी ज़रूरी है। मतलब