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13 नवंबर 2017
गूगल मैप में नो-दिहिंग नदी के उस तरफ एक सड़क दिख रही थी। पूछताछ से पता चला कि वहाँ सड़क है, लेकिन घना जंगल भी है। हमें अब परशुराम कुंड जाना था और वह सड़क इस समय सर्वोत्तम थी। यहाँ से उसकी सीधी दूरी बमुश्किल एक किलोमीटर थी। लेकिन देबान रेस्ट हाउस नदी से तकरीबन पचास मीटर ऊपर किनारे पर स्थित है। और किनारा एकदम खड़ा है। नीचे उतरने के लिये ऊँची-ऊँची सीढ़ियाँ बनी हैं। किसी भी हालत में मोटरसाइकिल नीचे नदी तक नहीं उतर सकती थी। अगर यह नदी तक उतर भी जाती, तो हम नाव से इसे उस पार पहुँचा देते। फिर दूसरे किनारे पर ऊपर चढ़ाने में उससे भी ज्यादा समस्या आती।
अच्छा, हम क्यों ऐसा करना चाह रहे थे? क्योंकि नदी के उस पार से परशुराम कुंड केवल 65 किलोमीटर दूर था। लेकिन अगर मियाओ, बोरदुमसा से होकर जाते हैं, तो यह 180 किलोमीटर होगा। सलाह मिली कि मियाओ में नावघाट से नदी पार हो जाएगी और आप इसी सड़क पर आ सकते हो। यानी 25 किलोमीटर नदी के इस तरफ मियाओ जाना और फिर पार करके उतना ही दूसरी तरफ आना - कुल मिलाकर 50 किलोमीटर होगा। और यह सारा रास्ता खराब ही है। इससे लाख गुना अच्छा होता कि बाइक किसी तरह यहीं से नदी पार कर लेती। एक किलोमीटर में ही काम हो जाता।
जब नेशनल पार्क के भीतर बसे चकमा लोगों के गाँवों से होकर गुजरे तो एक साइकिल वाला मियाओ की ओर दूध ले जाता मिला। शक्ल देखी तो यह निश्चित ही पूर्वोत्तर का नहीं था, बल्कि उत्तर भारतीय था। बातचीत हुई। नाम तो मैं भूल गया, लेकिन ये बिहारी थे। इनके पिताजी ही किसी समय बिहार छोड़कर यहाँ आ बसे थे। अब ये वही काम कर रहे हैं। इन गाँवों से दूध इकट्ठा करके मियाओ भेजते हैं।
“अपना घर तो नहीं होगा आपका, क्योंकि अरुणाचल में कोई बाहरी आदमी घर, जमीन नहीं खरीद सकता।”
“जी नहीं, पिताजी भी किराये पर ही रहते थे और मैं भी किराये पर रहता हूँ।”
“स्थानीय लोग परेशान नहीं करते?”
“क्यों परेशान करेंगे?”
“बाहरी होने के कारण।”
“कभी-कभार हो जाता है, लेकिन मैं जन्म से यहीं रहता हूँ, तो इनकी भाषा भी जानता हूँ और व्यवहार भी। वैसे भी स्वयं चकमा स्थानीय नहीं हैं।”
“मतलब?”
“ये लोग बांग्लादेशी हिंदू और बौद्ध हैं। जब बांग्लादेश नहीं बना था, तो पाकिस्तान की धर्मांध कट्टरता के कारण इन्हें बांग्लादेश छोड़ना पड़ा। उसी दौरान मेरे पिताजी भी इधर ही थे। सरकार ने इन्हें जमीन आवंटित कर दी। बस, तब से ये लोग यहाँ रहते हैं। बहुतों के पास तो अभी भी भारतीय नागरिकता तक नहीं है।”
मैं सोच में पड़ गया। उधर नेशनल पार्क प्रशासन इन चकमाओं को ‘अतिक्रमणकारी’ घोषित कर चुका है और इस कोशिश में है कि ये पार्क से बाहर चले जाएँ। फिर कोई बाहरी ताकत आएगी, इनके कान भरेगी और ये ‘नक्सली’ बन जाएँगे।
विस्थापन हो जाता है और पुनर्वास होता नहीं।
...
“नामसाई से ही जाओ। वैसे तो उस तिराहे से दूसरी सड़क भी परशुराम कुंड ही जाती है; छोटा रास्ता भी है; परंतु वह पूरा जंगल वाला रास्ता है।”
लेकिन मुझे यह पसंद नहीं था। जब तक नामसाई पहुँचेंगे, तब तक तो इस जंगल वाले रास्ते से वाकरू पहुँच जाएँगे। इस बार तिराहे से दूसरी सड़क पकड़ ली। नामसाई की ओर अब भी नहीं चले।
जंगल वाकई घना था। पक्की सड़क पर केवल दो पगडंडियाँ बनी थीं। बीच में भी घास उगी हुई थी। दोनों तरफ भी इतनी घनी झाड़ियाँ थीं कि शरीर से टकरा रही थीं। बाँस भी बहुतायत में था। तभी अचानक झाड़ियों से कोई बाँस या लकड़ी बाइक के पहियों पर टकराई और बाइक एक फुट उछल गई। बड़े जोर का झटका लगा। गनीमत रही कि गिरे नहीं।
अब जाकर अकल आई। कोई अदृश्य शक्ति अवश्य चाह रही थी कि हम इस रास्ते न जाएँ। नाववाले का मना करना; रास्ता भटककर उस गाँव में पहुँचना ताकि हमें स्थानीय ग्रामीण बता सकें कि इधर से जाना ठीक नहीं। और फिर भी हम नहीं माने तो अब रास्ते में पड़ी लकड़ी का इस तरह टकराना। ये संकेत हैं कि इधर से जाने की जिद छोड़ देनी चाहिए। अभी तो जंगल शुरू ही हुआ था।
वापस मुड़ गए। यह रास्ता सीधा नामसाई जाता है। खराब रास्ता है, बहुत खराब है। कहीं-कहीं जंगल भी है, लेकिन ज्यादातर खेत और गाँव मिलते रहते हैं। लोगों का आना-जाना भी लगा रहता है।
भूख लग रही थी। खराब सड़क पर चलते हुए थक भी गए थे। चाय मिल जाए तो आनंद आ जाए। कुछ ही देर पहले हमने ऊपर वाले की बात मानी थी, अब उसने हमारी बात मान ली। एक गाँव में एक छोटी-सी दुकान मिल गई।
“इस गाँव का क्या नाम है?”
“मइत्रीपुर।”
एक बोर्ड पर देवनागरी में लिखा था - मैत्रीपुर।
अंडों के पकौड़े भी थे। उबले अंडे को आधा काटकर उसे आलू में लपेटकर और बेसन में भिगोकर पकौड़े बना दिए थे। थे तो सुबह के, लेकिन आनंद आ गया।
बाद में एक मित्र ने बताया कि मियाओ से नामसाई का यह इलाका ठीक नहीं है। यह ज्यादातर चांगलांग जिले में आता है और अरुणाचल का यह जिला नागालैंड के नजदीक है और काफी अशांत माना जाता है।
फिर भी अंडों के पकौड़े खाते हुए और चाय पीते हुए हम किसी भी तरह से डर नहीं रहे थे। हम इंसानों के बीच थे और एक इंसान दूसरे इंसान से क्यों डरेगा भला! अगर हम यहाँ रात रुकना चाहते, तो दुकान की मालकिन इसका भी इंतजाम कर देती।
मुझे यात्राओं में सामने वाले से बातचीत करने से ज्यादा पसंद है, उस माहौल को देखना और तमाम तरह की कल्पनाएँ करते रहना। कभी मैं प्रधानमंत्री बनने की कल्पना करता और इन लोगों का जीवन-स्तर सुधारने की भी कल्पना करता। फिर सोचता कि मैंने यह कैसे मान लिया कि इनका जीवन-स्तर बिगड़ा हुआ है और सुधारने की आवश्यकता है। नहीं, हमें अपना स्वयं का जीवन-स्तर सुधारना होगा। हमने स्वयं ताकतवर बनकर इन लोगों को दुख पहुँचाया है। वाइल्डलाइफ सेंचुरी बनाने से, नेशनल पार्क बनाने से, बांध बनाने से, सड़क बनाने से; इन लोगों पर ही मार पड़ती है। पहले इनके गाँवों तक एक पतली-सी सड़क आती है। सभी लोग जश्न मनाते हैं। फिर धीरे-धीरे वह सड़क अपना शरीर बढ़ाती है और चौड़ी होती जाती है और इन लोगों के घर भी निगलती जाती है।
विस्थापन हो जाता है और पुनर्वास होता नहीं।
ये हाल ही में प्रकाशित हुई मेरी किताब ‘मेरा पूर्वोत्तर’ के ‘पूर्वी अरुणाचल में’ चैप्टर के कुछ अंश हैं। किताब खरीदने के लिए नीचे क्लिक करें:
मूल रूप से बिहार का रहने वाला दूधिया... जो अब अरुणाचली हो गया है... रोजाना नामदफा नेशनल पार्क के अंदर बसे गाँवों से दूध लेकर मियाओ जाता है... |
मियाओ चिड़ियाघर में |
हूलोक गिब्बन |
मियाओ में हमारी मोटरसाइकिल नो-दिहिंग नदी पार कर रही है... |
नो-दिहिंग का शांत किनारा |
यही जंगल वाला रास्ता था, जिससे हम तो जाना चाहते थे, लेकिन ‘होनी’ नहीं जाने देना चाहती थी... आखिर में इस रास्ते से जाने का इरादा छोड़ना पड़ा... |
एक बार हम रास्ता भटक गए... वह सड़क पहले कच्चे रास्ते में तब्दील हुई... और फिर पगडंडी में बदल गई... हमें वापस मुड़ना पड़ा... |
सड़क किनारे जगह-जगह बौद्ध पैगोड़ा बने हैं... |
अगला भाग: “मेरा पूर्वोत्तर” - तेजू, परशुराम कुंड और मेदू
1. “मेरा पूर्वोत्तर”... यात्रारंभ
2. “मेरा पूर्वोत्तर”... गुवाहाटी से शिवसागर
3. “मेरा पूर्वोत्तर” - शिवसागर
4. “मेरा पूर्वोत्तर” - चराईदेव: भारत के पिरामिड
5. “मेरा पूर्वोत्तर” - अरुणाचल में प्रवेश
6. “मेरा पूर्वोत्तर” - नामदफा नेशनल पार्क
7. “मेरा पूर्वोत्तर” - नामदफा से नामसाई तक
8. “मेरा पूर्वोत्तर” - तेजू, परशुराम कुंड और मेदू
9. “मेरा पूर्वोत्तर” - गोल्डन पैगोडा, नामसाई, अरुणाचल
10. “मेरा पूर्वोत्तर” - ढोला-सदिया पुल - 9 किलोमीटर लंबा पुल
11. “मेरा पूर्वोत्तर” - बोगीबील पुल और माजुली तक की यात्रा
12. “मेरा पूर्वोत्तर” - माजुली से काजीरंगा की यात्रा
13. “मेरा पूर्वोत्तर” - काजीरंगा नेशनल पार्क
शानदार यात्रा.... पूर्वोत्तर भारत को जानने का मौका देने के लिए ...धन्यवाद
ReplyDeleteबहुत ही बढ़िया
ReplyDeleteविस्थापन हो जाता है और पुनर्वास होता नहीं।
ReplyDeleteबहुत गहरी कही।