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10 नवंबर 2017
हम जब सत्तर की रफ्तार से दौड़े जा रहे थे, तो दाहिनी तरफ पुरातत्व विभाग का एक सूचना-पट्ट लगा दिखा - चराइदेव मैदाम। स्पीड़ सत्तर ही रही, लेकिन यह नाम दिमाग में घूमने लगा - पढ़ा है इस नाम को कहीं। शायद कल इंटरनेट पर पढ़ा है। शायद इसे देखने का इरादा भी किया था। बाइक रोक ली। दीप्ति से पूछा - “वो पीछे चराइदेव ही लिखा था ना?”
“कहाँ? कहाँ लिखा था? क्या लिखा था?”
“चराइदेव।”
“मैंने ध्यान नहीं दिया।”
मोबाइल निकाला। इंटरनेट चलाया - “हाँ, यह चराइदेव ही है। अहोम राजाओं की पहली राजधानी।”
कुछ ही आगे सड़क समाप्त हो गई। सामने दो द्वार थे - भारतीय पुरातत्व विभाग और असम राज्य पुरातत्व विभाग। पार्किंग थी। टिकट काउंटर था और कुछ यात्री टिकट भी खरीद रहे थे। बगल में जलपान हेतु कुछ दुकानें भी थीं। यह सब देखकर तसल्ली हुई कि हम एकदम सुनसान स्थान पर नहीं हैं। सामने ही एक किलोमीटर की दूरी पर नागालैंड की पहाड़ियाँ दिख रही थीं। देश का भी और असम का भी यह सुदूर कोना अगर सुनसान होता, तो हमें डर-सा लगता; लेकिन इतनी सारी दुकानें कह रही थीं कि डरने की कोई बात नहीं।
टिकट लेकर अंदर घूमकर आए। अच्छा लगा, बहुत अच्छा लगा। आधे घंटे बाद बाहर निकल रहे थे तो टिकट बाबू एकदम खाली बैठे थे। हमने बातचीत शुरू कर दी:
“आप कहाँ के रहने वाले हो, सर?”
“यहीं शिवसागर के पास का ही हूँ। आप लोग दिल्ली से बाइक पर ही आए हैं यहाँ?”
“नहीं, बाइक तो हमने ट्रेन से गुवाहाटी भेज दी थी। गुवाहाटी से हम बाइक चला रहे हैं।”
“तो आपको चराइदेव का कैसे पता चला?”
“आजकल ज्ञान इंटरनेट से मिलता है। लेकिन ज्यादातर बात अंग्रेजी में है। आप यहाँ के बारे में कुछ अपनी तरफ से बता दीजिए।”
“वर्ष 1228 में अहोम राजवंश की स्थापना यहीं चराइदेव में हुई थी। यह स्थान बहुत समय तक उनकी राजधानी भी बना रहा। तो यहाँ मैदाम में राजा लोगों की कब्रें हैं। जिस तरह मिस्र में हैं ना - पिरामिड़; ठीक उसी तरह यहाँ भी है। आपने देखी होंगी टीले जैसी संरचनाएँ, वे असल में कब्रे ही हैं।”
“हाँ, और एक टीले की खुदाई भी हुई पड़ी है और उसके अंदर सुरंग व कमरे जैसा भी है। लेकिन पानी भरा था, हम अंदर नहीं जा सके।”
“बिल्कुल वही। उस कमरे में शव रखे थे और कुछ अन्य सामान भी था। बाद में उसे षट्कोणीय पिरामिड़ की आकृति में मिट्टी से ढक दिया जो अब तक अर्ध-गोलाकार बन गए हैं।”
“हाँ, इनके चारों ओर दो फीट ऊँची षट्कोणीय दीवार भी है। उससे यही पता चलता है कि ये आरंभिक काल में षट्कोणीय ही रहे होंगे।”
“बिल्कुल।”
“लेकिन एक बात बताइये। सबसे पहले इनका पता कैसे चला होगा? वो सामने नागालैंड की पहाड़ियाँ हैं। असम में भी ऊँची-नीची जमीन है। तो ये छोटे-छोटे टीले तो नन्हीं-नन्हीं पहाड़ियों जैसे ही लगते हैं। तो किसी को क्या पड़ी थी कि वो इनकी खुदाई करे और अंदर तहखाने तक पहुँचे?”
“चराइदेव राजधानी रही है। यह स्थान पुरातत्व-वेत्ताओं की नजर में तो था ही। फिर इन टीलों के चारों ओर पत्थर की षट्कोणीय दीवार भी किसी ओर इशारा करती थी। और एक दीवार में एक दरवाजे लायक जगह भी बनी थी। दरवाजा नहीं था, लेकिन उस हिस्से में पत्थर नहीं थे और माना जा सकता था कि यह दरवाजा है। उस ‘दरवाजे’ को आधार मानकर एक टीले की खुदाई की गई और इनके रहस्य से पर्दा हटा।”
“जो सामान या ममी टीले के अंदर से निकला, वो कहाँ है अब?”
“कुछ शिवसागर है, कुछ गुवाहाटी है और कुछ दिल्ली भी पहुँच गया।”
“केवल एक ही टीले की खुदाई हुई है या अन्य टीलों की भी हुई है?”
“योजना चल रही है, लेकिन यह स्थान इतनी दूर है कि किसी को दिखाई नहीं पड़ता। अगर यहाँ की भली प्रकार देख-रेख हो तो यहाँ से पुरातत्व को अच्छी आमदनी हो सकती है।”
“यह हालत पूरे देश में लगभग हर पुरा-स्थल की है।”
ये हाल ही में प्रकाशित हुई मेरी किताब ‘मेरा पूर्वोत्तर’ के ‘असम के आर-पार’ चैप्टर के कुछ अंश हैं। किताब खरीदने के लिए नीचे क्लिक करें:
कौन कहता है असम में हिंदी नहीं है?... हिंदी असम की प्रमुख भाषा है... |
इन्हीं पिरामिडों को ‘मैदाम’ कहते हैं... ऐसे ही दो ‘मैदाम’ के बीच से रास्ता निकलता हुआ... |
इस पिरामिड की खुदाई हो चुकी है। सबसे बाहर एक मोटी दीवार है, जिसमें दरवाजे के तौर पर स्थान है... फिर आगे बढ़ते हैं, तो अंदर एक तहखाना है, जो इस फोटो में नहीं दिख रहा। अगले किसी फोटो में दिखेगा। |
पिरामिड षट्कोणीय दीवार से घिरे हैं। यह इसी दीवार का एक कोना है। किसी जमाने में दीवार के पास से ही पिरामिड बनते होंगे, लेकिन वर्षा और मौसम की मार के कारण अब ये काफी छोटे हो गए हैं। |
यह है तहखाने के अंदर जाने का रास्ता, जिसमें फिलहाल पानी भरा है। |
स्कूली बच्चे, जो यहाँ स्कूल की तरफ से भ्रमण पर आए थे। |
यहाँ बहुत सारे छोटे-छोटे ‘मैदाम’ भी हैं। इनके अंदर भी कुछ है या नहीं, पता नहीं। |
एक और मैदाम के अंदर जाने का रास्ता। यह सूखा था और हम भीतर तक गए भी थे। लेकिन इसके अंदर कुछ भी नहीं था। जो भी कुछ खुदाई में मिला था, उसे पुरातत्व वाले उठाकर ले गए। |
मैदाम देखने के बाद बारी है केक खाने की... |
हथकरघे तो असम में घर-घर में होते हैं। |
जागुन के रास्ते में चाय मजदूर |
हम असम में हैं, पहाड़ियाँ अरुणाचल में हैं... दिल्लीघाट के आसपास कहीं... |
डिगबोई जाने वाली सड़क, जिस पर ऑयल इंडिया का लोगो भी है... |
डिगबोई-लीडो सड़क... |
डिगबोई-लीडो सड़क... |
भारत के सबसे पूर्वी स्टेशन पर ‘डिस्कवर’... |
लेखापानी स्टेशन पर मीटरगेज की पटरियाँ... |
लेखापानी स्टेशन की इमारत... |
असमिया साड़ी पहने दीप्ति जागुन में गीताली सइकिया के साथ... |
गीताली का भतीजा पुचकू... जिसका जिक्र वे अपनी फेसबुक पोस्टों में करती रहती हैं... |
शाकाहारी अतिथियों के लिए शाकाहारी भोजन... |
गीताली की माताजी के साथ... |
अगला भाग: “मेरा पूर्वोत्तर” - अरुणाचल में प्रवेश
1. “मेरा पूर्वोत्तर”... यात्रारंभ
2. “मेरा पूर्वोत्तर”... गुवाहाटी से शिवसागर
3. “मेरा पूर्वोत्तर” - शिवसागर
4. “मेरा पूर्वोत्तर” - चराईदेव: भारत के पिरामिड
5. “मेरा पूर्वोत्तर” - अरुणाचल में प्रवेश
6. “मेरा पूर्वोत्तर” - नामदफा नेशनल पार्क
7. “मेरा पूर्वोत्तर” - नामदफा से नामसाई तक
8. “मेरा पूर्वोत्तर” - तेजू, परशुराम कुंड और मेदू
9. “मेरा पूर्वोत्तर” - गोल्डन पैगोडा, नामसाई, अरुणाचल
10. “मेरा पूर्वोत्तर” - ढोला-सदिया पुल - 9 किलोमीटर लंबा पुल
11. “मेरा पूर्वोत्तर” - बोगीबील पुल और माजुली तक की यात्रा
12. “मेरा पूर्वोत्तर” - माजुली से काजीरंगा की यात्रा
13. “मेरा पूर्वोत्तर” - काजीरंगा नेशनल पार्क
bahut badiya Neeraj ji...
ReplyDeleteकाफी रोचक जानकारी और सभी फोटो लाजबाब। सब मिलाजुला कह सकते हैं कि यह अलग ही दुनिया लगती है। विश्वास भी नहीं होता कि ऐसा सुंदर और हराभरा एरिया हो सकता है।
ReplyDeleteबहुत ही रोचक और अनूठी जानकारी। धन्यवाद और शुभकामनाऐं।
ReplyDeleteबहुत ही रुचिकर यात्रा संस्मरण का आलेख ।
ReplyDeleteगिताली सेकिया जी मेरी फेसबुक मित्र है ,,,,अच्छा लिखती है ,,,,उन्हें भी पढ़ता रहता हूं ।
और
नीरज मुसाफिर तो सदा बहार है बहुत मेहनती और अच्छे यात्रा संस्मरण लेखक भी है ।
Badhiya jaqnkaqri, poorvotar mein bhi mishr jaise pyramid hai jankar achha laga...
ReplyDeleteअनोखी जानकारियां मिली आपकी इस पोस्ट से और यह जानकर सुखद आश्चर्य हुआ कि हिन्दी असम की मुख्य भाषा है।
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