Skip to main content

“मेरा पूर्वोत्तर” - ढोला-सदिया पुल - 9 किलोमीटर लंबा पुल

इस यात्रा-वृत्तांत को आरंभ से पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक करें
15 नवंबर 2017
सदिया शहर पहले सूतिया राज्य की राजधानी था। यह लोहित और दिबांग के संगम पर बसा हुआ था। एक बार भयानक बाढ़ आई और पूरा शहर समाप्‍त हो गया। उस पुराने शहर के अवशेष अब कहीं नहीं मिलते। या शायद कहीं एकाध अवशेष बचे हों। लेकिन इस स्थान को अभी भी सदिया ही कहते हैं। असम का यही छोटा-सा इलाका है, जो लोहित के उत्‍तर में स्थित है। एक तरफ लोहित और एक तरफ दिबांग व सियांग नदियाँ। बाकी तरफ अरुणाचल, जहाँ के लिए असम वालों को भी इनर लाइन परमिट लेना होता है। इनर लाइन परमिट के लिए भी लोहित पार करके डिब्रुगढ़ जाना पड़ता था। कुल मिलाकर असम के इस क्षेत्र के लोग इस छोटे-से इलाके में ‘बंद’ थे। बरसात में बाढ़ आने पर और भी बंद हो जाते होंगे।
लेकिन अब यहाँ 9 किलोमीटर से भी लंबा पुल बन गया है। भारत का सबसे लंबा सड़क पुल। पिछले दिनों प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इसका उद्‍घाटन किया था। सदिया और सदिया के परे अरुणाचल देखने की उतनी इच्छा नहीं थी, जितनी इस पुल को देखने और इस पर मोटरसाइकिल चलाने की थी। आज वो इच्छा पूरी हो रही थी।





पुल अंग्रेजी के ‘S’ जैसा का है। इस पर खड़े होकर लोहित को देखना बेहद रोमांचक होता है। और अगर नीचे मछुआरे भी हों, तो फिर कहना ही क्या! यह नदी ही मछुआरों का जीवन है। नावें ‘हाउसबोट’ होती हैं। इनमें इनके दैनिक जीवन की प्रत्येक वस्तु उपलब्ध रहती है। खाना भी, छत भी, बिस्तर भी और आग भी। पीने और खाना बनाने के लिए नदी के पानी का ही प्रयोग होता है।
उत्‍तर में अरुणाचल ज्यादा दूर नहीं। बर्फीली चोटियाँ तक यहाँ से दिख रही थीं। दक्षिण में भी पहाड़ियाँ दिखती हैं। वे भी अरुणाचल की ही पहाड़ियाँ हैं। कुछ नागालैंड की भी। यहाँ बस इतना-सा ही असम है। लोहित और ब्रह्‍मपुत्र के इर्द-गिर्द।
पुल पार करके कुछ ढाबे थे। इन्हें देखते ही भूख लग आई। रोटी-सब्जी मिल गई।

ये हाल ही में प्रकाशित हुई मेरी किताब ‘मेरा पूर्वोत्तर’ के ‘असम के आर-पार फिर से’ चैप्टर के कुछ अंश हैं। किताब खरीदने के लिए नीचे क्लिक करें:






पुल के उस तरफ दिखतीं अरुणाचल की पहाड़ियाँ



लोहित में मछुआरों के जाल








लोहित ही मछुआरों का जीवन है




नाव में ही रहना, नाव में ही खाना और नाव में ही सोना









तिनसुकिया में स्कूल की छुट्टी हुई तो छात्राओं ने स्वयं मानव-श्रंखला बनाकर बाकी सभी छात्राओं को सड़क पार कराई... इस दौरान सभी गाड़ियाँ चुपचाप खड़ी रहीं...

तिनसुकिया से डिब्रुगढ़ तक सड़क और रेलवे लाइन एक साथ हैं... पता नहीं चलता कि सड़क रेलवे की जमीन पर है या रेल सड़क की जमीन पर...






अगला भाग: “मेरा पूर्वोत्तर” - बोगीबील पुल और माजुली तक की यात्रा






1. “मेरा पूर्वोत्तर”... यात्रारंभ
2. “मेरा पूर्वोत्तर”... गुवाहाटी से शिवसागर
3. “मेरा पूर्वोत्तर” - शिवसागर
4. “मेरा पूर्वोत्तर” - चराईदेव: भारत के पिरामिड
5. “मेरा पूर्वोत्तर” - अरुणाचल में प्रवेश
6. “मेरा पूर्वोत्तर” - नामदफा नेशनल पार्क
7. “मेरा पूर्वोत्तर” - नामदफा से नामसाई तक
8. “मेरा पूर्वोत्तर” - तेजू, परशुराम कुंड और मेदू
9. “मेरा पूर्वोत्तर” - गोल्डन पैगोडा, नामसाई, अरुणाचल
10. “मेरा पूर्वोत्तर” - ढोला-सदिया पुल - 9 किलोमीटर लंबा पुल
11. “मेरा पूर्वोत्तर” - बोगीबील पुल और माजुली तक की यात्रा
12. “मेरा पूर्वोत्तर” - माजुली से काजीरंगा की यात्रा
13. “मेरा पूर्वोत्तर” - काजीरंगा नेशनल पार्क




Comments

  1. नीरज भाई, इस पोस्ट में जो पुल दिखाया है और अगले लेख में जो ब्रहमपुत्र नदी पर जो पुल है ! कृपया इनके बारे में थोडा विस्तार से बताइए, ये दोनों एक ही नदी पर बने अलग-2 पुल है क्या ?

    ReplyDelete

Post a Comment

Popular posts from this blog

लद्दाख बाइक यात्रा- 13 (लेह-चांग ला)

(मित्र अनुराग जगाधरी जी ने एक त्रुटि की तरफ ध्यान दिलाया। पिछली पोस्ट में मैंने बाइक के पहियों में हवा के प्रेशर को ‘बार’ में लिखा था जबकि यह ‘पीएसआई’ में होता है। पीएसआई यानी पौंड प्रति स्क्वायर इंच। इसे सामान्यतः पौंड भी कह देते हैं। तो बाइक के टायरों में हवा का दाब 40 बार नहीं, बल्कि 40 पौंड होता है। त्रुटि को ठीक कर दिया है। आपका बहुत बहुत धन्यवाद अनुराग जी।) दिनांक: 16 जून 2015 दोपहर बाद तीन बजे थे जब हम लेह से मनाली रोड पर चल दिये। खारदुंगला पर अत्यधिक बर्फबारी के कारण नुब्रा घाटी में जाना सम्भव नहीं हो पाया था। उधर चांग-ला भी खारदुंगला के लगभग बराबर ही है और दोनों की प्रकृति भी एक समान है, इसलिये वहां भी उतनी ही बर्फ मिलनी चाहिये। अर्थात चांग-ला भी बन्द मिलना चाहिये, इसलिये आज उप्शी से शो-मोरीरी की तरफ चले जायेंगे। जहां अन्धेरा होने लगेगा, वहां रुक जायेंगे। कल शो-मोरीरी देखेंगे और फिर वहीं से हनले और चुशुल तथा पेंगोंग चले जायेंगे। वापसी चांग-ला के रास्ते करेंगे, तब तक तो खुल ही जायेगा। यह योजना बन गई।

डायरी के पन्ने-32

ध्यान दें: डायरी के पन्ने यात्रा-वृत्तान्त नहीं हैं। इस बार डायरी के पन्ने नहीं छपने वाले थे लेकिन महीने के अन्त में एक ऐसा घटनाक्रम घटा कि कुछ स्पष्टीकरण देने के लिये मुझे ये लिखने पड रहे हैं। पिछले साल जून में मैंने एक पोस्ट लिखी थी और फिर तीन महीने तक लिखना बन्द कर दिया। फिर अक्टूबर में लिखना शुरू किया। तब से लेकर मार्च तक पूरे छह महीने प्रति सप्ताह तीन पोस्ट के औसत से लिखता रहा। मेरी पोस्टें अमूमन लम्बी होती हैं, काफी ज्यादा पढने का मैटीरियल होता है और चित्र भी काफी होते हैं। एक पोस्ट को तैयार करने में औसतन चार घण्टे लगते हैं। सप्ताह में तीन पोस्ट... लगातार छह महीने तक। ढेर सारा ट्रैफिक, ढेर सारी वाहवाहियां। इस दौरान विवाह भी हुआ, वो भी दो बार। आप पढते हैं, आपको आनन्द आता है। लेकिन एक लेखक ही जानता है कि लम्बे समय तक नियमित ऐसा करने से क्या होता है। थकान होने लगती है। वाहवाहियां अच्छी नहीं लगतीं। रुक जाने को मन करता है, विश्राम करने को मन करता है। इस बारे में मैंने अपने फेसबुक पेज पर लिखा भी था कि विश्राम करने की इच्छा हो रही है। लगभग सभी मित्रों ने इस बात का समर्थन किया था।

अदभुत फुकताल गोम्पा

इस यात्रा-वृत्तान्त को आरम्भ से पढने के लिये यहां क्लिक करें ।    जब भी विधान खुश होता था, तो कहता था- चौधरी, पैसे वसूल हो गये। फुकताल गोम्पा को देखकर भी उसने यही कहा और कई बार कहा। गेस्ट हाउस से इसकी दूरी करीब एक किलोमीटर है और यहां से यह विचित्र ढंग से ऊपर टंगा हुआ दिखता है। इसकी आकृति ऐसी है कि घण्टों निहारते रहो, थकोगे नहीं। फिर जैसे जैसे हम आगे बढते गये, हर कदम के साथ लगता कि यह और भी ज्यादा विचित्र होता जा रहा है।    गोम्पाओं के केन्द्र में एक मन्दिर होता है और उसके चारों तरफ भिक्षुओं के कमरे होते हैं। आप पूरे गोम्पा में कहीं भी घूम सकते हैं, कहीं भी फोटो ले सकते हैं, कोई मनाही व रोक-टोक नहीं है। बस, मन्दिर के अन्दर फोटो लेने की मनाही होती है। यह मन्दिर असल में एक गुफा के अन्दर बना है। कभी जिसने भी इसकी स्थापना की होगी, उसी ने इस गुफा में इस मन्दिर की नींव रखी होगी। बाद में धीरे-धीरे यह विस्तृत होता चला गया। भिक्षु आने लगे और उन्होंने अपने लिये कमरे बनाये तो यह और भी बढा। आज इसकी संरचना पहाड पर मधुमक्खी के बहुत बडे छत्ते जैसी है। पूरा गोम्पा मिट्टी, लकडी व प...