इस यात्रा का कोई इरादा नहीं था। अचानक इतनी जल्दी सबकुछ हुआ कि मैं समझ ही पाया कि हो क्या रहा है। पिछले महीने ही गौमुख तपोवन गया था, आठ दिन की छुट्टी ली थी, अगले महीने अगस्त में भारत परिक्रमा पर निकलना है, बारह दिन की छुट्टी चाहिये। एक शिफ्ट ड्यूटी करने वाले को छुट्टी उतनी आसानी से नहीं मिलती, जितनी कि सामान्य ड्यूटी करने वाले को मिल जाती है। इसलिये कोई मतलब नहीं बनता फिर से अचानक कई दिन की छुट्टी ले लेने का। लेकिन बडा प्रबल है पशुपतिनाथ, बुला ही लिया।
अपने एक दोस्त हैं भार्गव साहब। बडे शौकीन हैं हिमालय की ऊंचाईयों को छूने के। कभी भी फोन आ जाता है, कहते हैं कि फलां जगह चलना है। एक दिन बोले कि नीलकण्ठ चलेंगे। मैं हैरत में पड गया कि आज इस हिमालय की ऊंचाईयों वाले जीव को नीलकण्ठ की कैसे सूझ गई। यह तो ऋषिकेश के पास है, हजार मीटर के आसपास ऊंचाई है। फिर उन्होंने मेरी इस लघु-सी दिखने वाली शंका का समाधान करते हुए कहा कि भाई, एक नीलकण्ठ लाहौल में भी है। लाहौल यानी कुल्लू के पार का देश, मनाली के पार का देश, रोहतांग के पार का देश और आखिर में हिमालय के पार का देश। वाह मेरे भाई, कहां पंजा मारा है तुमने! जरूर चलेंगे।
और लाहौल वाले नीलकण्ठ की तलाश शुरू हो गई। किसी भी नक्शे में यह नहीं मिला। गूगल मैप भी खूब जूम कर-कर के देख लिया पर कहीं नीलकण्ठ नहीं मिला। आखिरकार एक बहुत छोटी सी जानकारी मिली कि केलांग से उदयपुर की दिशा में एक गांव है (नाम याद नहीं), वहां से एक छोटी सी सडक कहीं दूसरे गांव जाती है, वहां से बारह किलोमीटर पैदल जाना है। और यह भी पता चला कि वहां याक भी मिलते हैं। मतलब कि काफी रोमांचक जगह है। लेकिन मेरी और भार्गव साहब की छुट्टियों का तालमेल नहीं बना, यात्रा आगे कभी के लिये सरका दी गई।
उन्हीं दिनों सन्दीप भाई ने भी हिमाचल परिक्रमा करने की योजना बनाई। उसमें दस दिन के आसपास लगने थे, इसलिये मेरा कोई मतलब ही नहीं था। पिछले महीने आठ दिन की छुटियां, अगले महीने का बारह दिन का सारा रिजर्वेशन हो चुका है, ऐसे में इस महीने भी दस दिन की छुट्टी लेना ‘पाप’ था। ..... अब क्या था, कि उनकी परिक्रमा यात्रा उसी उदयपुर के पास वाले गांव से होकर गुजरनी थी। यहां मैंने अपना मतलब निकाल लेने की सोची। उनसे कह दिया कि मैं मनाली के रास्ते जाऊंगा और उदयपुर में आपकी प्रतीक्षा करूंगा, फिर सभी इकट्ठे नीलकण्ठ चलेंगे। तीन दिन की छुट्टी लेनी थी बस।
चलने से चार पांच दिन पहले पता चला कि वे लोग मणिमहेश भी जायेंगे। सात की शाम को दिल्ली से निकलकर आठ की सुबह तक नैना देवी, आठ की शाम तक भरमौर, नौ की सुबह भरमौर से मणिमहेश के लिये प्रस्थान और दस की शाम तक वापस भरमौर, ग्यारह की सुबह भरमौर से प्रस्थान और दोपहर तक साच पार पार करके पांगी में प्रवेश और रात तक उदयपुर। उधर मैं दस की शाम को दिल्ली से निकलकर ग्यारह की सुबह तक मनाली पहुंच जाता और शाम तक उदयपुर। यानी हमें ग्यारह की शाम को उदयपुर में मिलना था, उसके बाद अगले दिन नीलकण्ठ जाना था। इसी के हिसाब से तैयारियां होने लगीं।
अब किस्मत का खेल देखिये। उन्हें आठ की सुबह नैना देवी के दर्शन करके शाम तक भरमौर पहुंचना था। मैंने इस उम्मीद से उन्हें फोन किया कि वे भरमौर पहुंच गये होंगे। पता चला कि वे आठ की शाम को नूरपुर में हैं। मैंने तभी कह दिया कि आप तो चौबीस घण्टे लेट हो गये हो। कल भरमौर तक पहुंचने में शाम हो जायेगी क्योंकि बीच में डलहौजी और चम्बा कुण्डली मारे बैठे हैं, तेज नहीं चलने देंगे। और अचानक हुए इस परिवर्तन की वजह से मुझे भी कम से कम एक दिन लेट होना था, आखिरकार मैंने नीलकण्ठ का इरादा छोड दिया।
अब कहां? नाइट ड्यूटी चल रही थीं उन दिनों। नौ को पूरे दिन सोता रहा, रात को सोचने लगा कि अगले दिन कहां निकलूंगा। छुट्टियां लगा ही रखी थीं। और तब अचानक विचार आया कि नेपाल चला जाये। उत्तर भारतीय हिमालय तो काफी देख चुका हूं, अब हिमालय की एक विदेशी झलक भी देख ली जाये। ऊपर से सावन का महीना और बाबा पशुपतिनाथ के दर्शन हो जायें तो आनन्द ही आ जायेगा। पशुपतिनाथ के लिये काठमाण्डू जाना पडेगा और काठमाण्डू के लिये रक्सौल। यानी बिहार रूट की ट्रेनों में कुछ घण्टों बाद मुझे चौबीस घण्टे से भी ज्यादा सफर करना है, कोई आरक्षण नहीं। अब तो तत्काल टिकट भी नहीं मिलेगा।
और बिहार रूट की ट्रेनों में सीट कन्फर्म मिलना भी एक चमत्कार ही होता है। एडवांस रिजर्वेशन समय अब 120 दिन होता है। आज अठारह जुलाई को मैं यह सब लिख रहा हूं। आज से 120 दिन बाद यानी 15 नवम्बर को बिहार रूट की सभी ट्रेनों में वेटिंग शुरू हो गई है, वो भी सौ सौ तक। जबकि भारत के किसी दूसरे हिस्से की ट्रेनों में यह हाल नहीं होता। तो ऐसे में दिल्ली से रक्सौल तक चौबीस घण्टे की यात्रा कैसे की जाये, वो भी तब जब यात्रा में कुछ ही घण्टे बचे हों।
लेकिन यह जाट खोपडी बडे काम की है। ट्रेनों से सम्बन्धित इस तरह के मामलों में कम ही मार खाती है। पहले चलते हैं लखनऊ तक गोमती एक्सप्रेस (12420) से। इस ट्रेन में चेयरकार होती हैं और सेकण्ड सीटिंग होती है यानी बैठने की सीटें मिलती हैं। कोई दुर्लभ मौका ही होता होगा कि इसमें वेटिंग चल पडे। लखनऊ से गोरखपुर करीब 300 किलोमीटर है। कोई ना कोई नाइट ट्रेन मिल ही जायेगी। गोरखपुर से आगे रक्सौल तक तो किसी भी ट्रेन के जनरल डिब्बे में भी लटक लेंगे, आखिर दिन का सफर दिन का ही होता है।
और मिल गई। एक ट्रेन (15008) मिल गई लखनऊ से गोरखपुर तक लेकिन उसमें कुछ वेटिंग चल रही थी। तत्काल कोटे में देखा तो एक सीट खाली थी। तुरन्त वक्त गंवाये बिना उस सीट को हथिया लिया गया। यानी जिस रात की दिक्कत थी, वो खत्म। अब आराम से सोते हुए जायेंगे। असल में यह ट्रेन लखनऊ से गोरखपुर होते हुए मण्डुआडीह जाती है। मण्डुआडीह वाराणसी के पास है। अगर किसी को लखनऊ से वाराणसी जाना हो, तो वो इस ट्रेन का इस्तेमाल कभी नहीं करेगा। सीधे सुल्तानपुर वाले रूट से दूरी 300 किलोमीटर है, जबकि यह ट्रेन सवा पांच सौ किलोमीटर का चक्कर लगाकर जाती है। और इसीलिये इसमें बर्थ मिल गई। सुबह छह बजे गोरखपुर पहुंचकर सात बजे वाली पैसेंजर (55202) से नरकटियागंज जाऊंगा और वहां से रक्सौल तक बडी लाइन के अलावा मीटर गेज की लाइन भी है। नरकटियागंज से रक्सौल तक मीटर गेज (52512) से जाना तय हुआ। शाम छह साढे छह बजे तक रक्सौल पहुंचूंगा।
जाने का तो हो गया, अब वापस कैसे आयेंगे। चलिये, जैसे भी आयेंगे लेकिन गोरखपुर से दिल्ली तक का इंतजाम करते हैं। 15 जुलाई की दोपहर बाद दो बजे से मुझे ड्यूटी करनी थी। इसलिये 14 की शाम को गोरखपुर से चलने वाली ट्रेनों में देखा तो वही कई सौ वेटिंग। अब फिर से यात्रा को टुकडों में करना पडेगा। लखनऊ से दिल्ली की ट्रेनों में भी वेटिंग। एक बार मन में आया कि छोडो, बस से आयेंगे। गोरखपुर से सीधे दिल्ली तक बसें भी चलती हैं। नहीं तो लखनऊ से बस पकड लेंगे। फिर भी मन नहीं माना। ट्रेनों से छेडछाड करता ही रहा और एक सुखद नतीजा निकला कि लखनऊ से रामपुर तक बाघ एक्सप्रेस (13019) में सीटें खाली मिल गईं। यह ट्रेन गोरखपुर से होते हुए ही आती है लेकिन गोरखपुर से लखनऊ और गोरखपुर से रामपुर तक इसमें वेटिंग थी। अब इस ट्रेन में मैंने दो रिजर्वेशन कराये- एक तो गोरखपुर से लखनऊ जोकि वेटिंग था लेकिन शाम छह बजे से रात बारह बजे तक की बात है, सीट कन्फर्म ना भी हुई तो चलेगा, दूसरा लखनऊ से रामपुर जोकि कन्फर्म था। रामपुर से दिल्ली आना कोई बडी बात नहीं है। बरेली इण्टरसिटी (14315) है, आला हजरत (14311/14321) है, नहीं तो बसें है। कम से कम रात तो सुधर जायेगी।
चूंकि मेरी जुलाई में कहीं जाने की योजना नहीं थी, जो भी योजना बनी- पहले नीलकण्ठ और अब नेपाल, सब आनन फानन में ही बनी। मेरा कैमरा खराब था। वो खराब कैसे हुआ, इसकी भी एक मजेदार कथा है। हुआ ये कि बहुत दिन पहले इसके अन्दर वाले लेंस पर धूल के दो चार कण जमकर बैठ गये थे। जितना जूम करते, धूल के कण फोटो में उतने ही बडे दिखाई देते। उसकी सफाई कराई गई। चार सौ रुपये लग गये। गंगोत्री से वापस आकर एक दिन मुझे एक फोटो में धब्बा दिखाई दिया। लेंस चेक किया तो फिर से धूल का कण मिला। यानी अब फिर चार सौ रुपये खर्च करने पडेंगे। नहीं, मैं इस बार इसे खुद साफ करूंगा। बारीक वाला पेंचकस तो है नहीं हमारे पास कि कैमरे के नन्हे नन्हे पेंचों को खोल सके। आलू छीलने वाला चाकू लिया और उसकी नोंक से खोल डाले सब पेंच। अच्छा, ये और बता दूं कि मैं पढाई लिखाई के मामले में मैकेनिकल इंजीनियर हूं। लोहे लक्कड में तोडफोड और जोड जुगाड करना अपना काम है। कहां पेंच लगाना है और कहां का पेंच उखाडना है, यह अपने बायें हाथ का काम है। तो जी, सब पेंच उखाड दिये गये। सोचिये कि एक मैकेनिकल इंजिनियर कैमरा ठीक करने बैठेगा तो क्या नतीजा निकलेगा? यह तो वही बात हुई कि लुहार को हथौडा और छैनी देकर सोने के आभूषण बनाने बैठा दिया जाये। सौ सुनार की, एक लुहार की- यह कहावत झूठी नहीं है।
पेंच सब खोल दिये गये, कैमरे का खोल भी खोल दिया गया। तभी बडे जोर का झटका लगा- बिजली का झटका। कैमरा हाथ से छूटकर गिर गया। समझ नहीं आया कि क्या हुआ। बैटरी तो मैंने पहले ही निकाल दी थी, फिर झटका क्यों लगा? बाद में पता चला कि कैपेसिटर की वजह से ऐसा हुआ। आखिरकार मैं लेंस तक पहुंचने में सफल हो गया। कैमरे की सबसे नाजुक चीज लेंस ही होती है। इसी से कैमरे की कीमत और औकात भी निर्धारित होती है। लेंस को भी चाकू से खोलकर आराम से उसकी सफाई की। धूल के कई कण लेंस के कोने में मिले। ये कण नंगी आंखों से नहीं दिखाई पड रहे थे, लेकिन दोनों लेंसों के संयोजन से दिख रहे थे। उन्हें भी साफ किया और आखिर में सबकुछ सही सलामत जोड दिया गया। बैटरी लगाकर जैसे ही ऑन किया तो ऑन होकर तुरन्त ऑफ हो गया। लेंस बाहर निकला और तुरन्त अन्दर चला गया। इसे कम्प्यूटर से जोडा तो पाया कि इसका इलेक्ट्रोनिक सिस्टम ठीक काम कर रहा है। यानी कैमरा अब कार्ड रीडर बन गया है।
इसका मतलब है कि इसके लेंस को जोडते समय कुछ गडबडी हो गई। चलिये, इसे और विस्तार से बताता हूं। असल में लेंस असेम्बली में एक छोटी सी मोटर होती है, कुछ गियर होते हैं। जैसे ही हम जूम बटन दबाते हैं तो मोटर को सप्लाई मिलती है, मोटर घूमता है, उससे लगे हुए नन्हें नन्हें गियर भी घूमते हैं और ये सब मिलकर लेंस को आगे पीछे करते हैं, जिससे कोई चीज पर्दे पर छोटी या बडी दिखाई देती है। जब मैं लेंस खोल रहा था तो एक गियर भी निकल गया था। उसे वापस लगाने में मेरे पसीने छूट गये थे। बेहद नन्हा सा होता है कैमरे के लेंस का गियर। इसे पतली चिमटी से ही पकडा जा सकता है। जबकि मैं उंगली और चाकू से उसे पकडकर लगा रहा था। उसी दौरान कुछ गडबडी हो गई और लेंस ने घूमने से मना कर दिया। हालांकि कैमरा और भी खराब हो गया लेकिन एक बात का सुकून है कि धूल का कण साफ हो गया।
आज 10 जुलाई की सुबह थी। दोपहर साढे बारह बजे नई दिल्ली से लखनऊ जाने के लिये गोमती एक्सप्रेस थी। कैमरा खराब था। कई जगह फोन किया, आखिरकार मनदीप से एक कैमरा मिला। जल्दबाजी में ले तो लिया लेकिन बाद में पता चला कि वो भी खराब है। बैटरी फुल थी लेकिन ऑन नहीं हो रहा था। अब आखिरी चारा यही है कि दस बजे चांदनी चौक जाया जाये। यहां कैमरों की बडी मार्किट है।
ग्यारह बजे तक मैं चांदनी चौक पहुंचा। दो तीन दुकानों पर अपनी समस्या बताई, लेकिन सब ने कहा कि शाम तक ठीक करके देंगे। मेरे पास इतना समय नहीं था। आखिरकार इरादा बना लिया कि नया कैमरा लूंगा।
चौधरी साहब को फोन किया- वही गंगोत्री वाले चौधरी साहब, पत्रकार। वे कैमरों के महाजानकार हैं। उन्होंने बताया कि सोनी का 100 HX कैमरा ले लो। बीस हजार के आसपास आयेगा। बीस हजार सुनते ही अपनी हवा निकल गई। अमित को फोन मिलाया। अमित अपना एक बेहद नजदीकी दोस्त है, एक बार पराशर झील भी गया था। उससे अपनी पैसों की समस्या बताई। बोला कि बीस की जगह पच्चीस हजार वाला ले ले और जब तेरा हिसाब बने, पैसे दे देना। और उसका एटीएम कार्ड उस दिन मेरे पास ही था, लाखों रुपये थे उस दिन उस कार्ड में। मेरा कंगाल कार्ड उसके पास था। नेपाल जाने के लिये मैंने उसका धनी कार्ड लिया था।
एक दुकान पर गया तो पता चला कि सोनी का 100 HX बीते जमाने की बात है, अब 200 HX का जमाना है। कुल मिलाकर छब्बीस हजार का पडेगा। इसके फीचर देखे तो कैमरा मुझे पसन्द भी आ गया। मैंने दुकान वाले के सामने एक शर्त रखी कि कैमरा मैं लूंगा लेकिन एक घण्टे के अन्दर मेरा खराब वाला कैमरा सही करना पडेगा। उसने हां और ना करते हुए मेरी शर्त मान ली।
और बारह बजकर दस मिनट पर खराब वाला कैमरा ठीक होकर मेरे पास था, उधर छब्बीस हजार वाला कैमरा भी बैग में था। अब मेरे पास मात्र बीस मिनट थे नई दिल्ली स्टेशन तक पहुंचने में। यहां से जो सफल दौड लगाई... जो दौड लगाई.. वो अब भी याद है। ठीक साढे बारह बजे मैं गोमती एक्सप्रेस के अन्दर था। यह फायदा होता है रास्ता पता होने का। अगर मुझे चांदनी चौक, मेट्रो और नई दिल्ली का पता नहीं होता तो मैं कभी भी ट्रेन नहीं पकड सकता था। और नई दिल्ली स्टेशन पर एक पंगा और होने लगा है। एण्ट्री करने से पहले गेट पर इतनी लम्बी लाइन होती है कि देखते ही घबराहट होने लगती है। लेकिन वो लाइन सुरक्षा की वजह से होती है, जल्दी जल्दी आगे बढती है।
गाजियाबाद तक ट्रेन बढिया चली, मारीपत तक भी ठीक रही लेकिन मारीपत, उसके बाद दादरी में बिना ठहराव के इतनी देर तक रोके रखी कि खुर्जा एक घण्टे लेट पहुंची। हालांकि उसके बाद अच्छी स्पीड से चलती रही और कानपुर तक आधा घण्टा कवर कर लिया था। उसके बाद लखनऊ के आउटर पर पूरे घण्टे भर तक रुकी रही और डेढ घण्टे देरी से लखनऊ पहुंची।
यहां से ग्यारह बजे गोरखपुर वाली ट्रेन थी। वो ट्रेन एनईआर वाले प्लेटफार्म से मिलती है। जिस तरह मुम्बई में दादर नाम के दो स्टेशन हैं, एक सेण्ट्रल रेलवे का (कोड- DR) और दूसरा वेस्टर्न रेलवे का (कोड- DDR), उसी तरह लखनऊ में भी लखनऊ नाम के दो स्टेशन हैं- एक उत्तर रेलवे का (कोड- LKO) और दूसरा पूर्वोत्तर (एनईआर) रेलवे का (कोड- LJN)। दादर में दोनों एक ही स्टेशन लगते हैं, दोनों के एक ही पैदल पुल हैं, जबकि लखनऊ में दोनों स्टेशन पास पास होने के बावजूद अलग अलग लगते हैं, दोनों का कोई साझा पुल तक नहीं है। एक स्टेशन के बाहर निकलकर सामने दूसरे स्टेशन का गेट दिख जाता है। पूर्वोत्तर वाले लखनऊ से गोण्डा- गोरखपुर रूट की ट्रेनें चलती हैं। पहले कभी यह स्टेशन मीटर गेज था, अब बडा हो गया है।
अपने एक दोस्त बाराबंकी के रहने वाले हैं- लखनऊ से 30 किलोमीटर दूर। मैंने उन्हें बुला लिया था। कहा तो खाना लेकर आने को था लेकिन वे शक्ल दिखाने चले आये, खाना नहीं लाये। अगर इस तरह की कोई घटना होती है, तो इसका मतलब यही बनता है कि घर में हवा ठीक नहीं चल रही है। मियां-बीवी में झगडा है। भगवान करे मेरा यह अन्दाजा गलत हो।
पूर्वोत्तर वाले लखनऊ पर अपनी ट्रेन प्लेटफार्म नम्बर एक पर खडी थी, आराम से जा धरे अपन उसमें। दोस्त साहब बाराबंकी तक साथ गये उसी ट्रेन से। घण्टे भर बाद बाराबंकी आने पर उन्होंने कहा भी कि उतर जाओ, घर चलो, कल चले जाना.... लेकिन ऐसा होना सम्भव नहीं था, सो नहीं उतरे। बाराबंकी से चले तो सो गये। छह बजे गोरखपुर पहुंचती है, तो मैंने छह बजे का ही अलार्म लगा लिया।
नेपाल यात्रा
1. नेपाल यात्रा- दिल्ली से गोरखपुर
2. नेपाल यात्रा- गोरखपुर से रक्सौल (मीटर गेज ट्रेन यात्रा)
3. काठमाण्डू आगमन और पशुपतिनाथ दर्शन
4. पोखरा- फेवा ताल और डेविस फाल
5. पोखरा- शान्ति स्तूप और बेगनासताल
6. नेपाल से भारत वापसी
विदेश यात्रा बढ़िया है
ReplyDeleteBhagwan,kab ki programme banate ho aap ye to network me hi nahi tha.kabhi kabhi aap bhi ramayan ke yug ke ho jaate ho,Achanak se prakat hokar sakshat darshan.Thanks.
ReplyDeleteसफर ऐसा हो तभी मजेदार होता है.
ReplyDeleteनीरज जी, नये कैमरे से कुछ फोटो भी खींच लेते
ReplyDeleteIntersting narration
ReplyDeleteवाह धनी कार्ड पास है फ़िर क्या बात है, यात्रा तो अब मजेदार होगी ।
ReplyDeleteमुश्किलों को पार कर गंतव्य की ओर चल पड़े , घुमक्कड़ी जिंदाबाद !
ReplyDeleteआप अपना कार्यक्रम नहीं बदल रहे हैं तो आपसे मिलने सेलम आना होगा।
ReplyDeleteबहुत किस्मत वाले हो भाई, ऐसी घुमक्कडी तो किसी किस्मत वाले को ही मिलती हैं, लगे रहो और हमें भी साथ में देश विदेश घुमाते रहो. वन्देमातरम
ReplyDeletenaye camre ki mubarakbaad
ReplyDeletejaat devta jalan hoti hai aap se aap kitna ghoomte ho or hum ghom hi nihi paate hain
ReplyDeletelage raho
jai shri ram
अब तो अपने नीरज बाबु भी रोमांटिक व्यंग वाले लेख लिख रहें हैं . एक साथ दो दो कैमरे दो दो धनी कंगाल कार्ड ऊपर से विदेश यात्रा वो भी चाकू चलाने वाले मेकेनिकल इंजिनियर की लगा की बहुत सुंदर फोटो देखने को मिलेंगे लेकिन सारा वर्णन लुहार सुनार स्टेशन के कोड वेटिंग लिस्ट खा गई .
ReplyDeleteउम्मीद है की दूसरा दिन अच्छा गुजरेगा
सुन्दर यात्रा वृ्तान्त। धन्यवाद।
ReplyDeleteनए कमेरे के लिए मुबारकबाद, अगली पोस्ट का इंतज़ार रहेगा॥!
ReplyDeleteऔर भाई कमेरा के फीचर्स ज़रा बताओ हम भी एक नया लेने की सोच रहें हैं॥
ऐसे दोस्त भगवान हर किसी को दे॥!!!
नीरज बाबु तुम्हारे लेखन की एक खासियत है , वो ये कि अपनी समस्या को इस ढंग से रखते हो कि पाठक भी उस के साथ जुड़ता चला जाता है और अपनी समस्या ही मान बैठता है , ऐसा लगता है वो घटना उसी के साथ घट रही है ......"आखिर में सबकुछ सही सलामत जोड दिया गया। बैटरी लगाकर जैसे ही ऑन किया तो ऑन होकर तुरन्त ऑफ हो गया। लेंस बाहर निकला और तुरन्त अन्दर चला गया। इसे कम्प्यूटर से जोडा तो पाया कि इसका इलेक्ट्रोनिक सिस्टम ठीक काम कर रहा है। यानी कैमरा अब कार्ड रीडर बन गया है।" ऐसा अक्सर सभी लोगों के साथ होता है . मुझे अच्छा लग रहा है कि तुम्हारी भाषा कि रोचकता बढ़ती जा रही है . छब्बीस हजार के कैमरे से खिंची गई फोटुओं का इंतजार रहेगा !!!
ReplyDeleteनए केमरे के लिए बधाई.
ReplyDeleteCamera ki barikiya aapne behtarin samjayi hai
ReplyDeletebahut majedaar likhate ho sir.
ReplyDeletebhut khub bhai ji
ReplyDeleteladdakh bike yatra padkhar bahut maza aaya aise lag raha hain neeraj bhai jaise wo yatra main bhi kar rahaan hoon
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