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11 जुलाई की सुबह छह बजे का अलार्म सुनकर मेरी आंख खुल गई। मैं ट्रेन में था, ट्रेन गोरखपुर स्टेशन पर खडी थी। मुझे पूरी उम्मीद थी कि यह ट्रेन एक घण्टा लेट तो हो ही जायेगी लेकिन ऐसा नहीं हुआ। ठीक चार साल पहले मैं गोरखपुर आया था, मेरी ट्रेन कई घण्टे लेट हो गई थी तो मन में एक विचारधारा पैदा हो गई थी कि इधर ट्रेनें लेट होती हैं। इस बार पहले ही झटके में यह विचारधारा टूट गई।
यहां से सात बजे एक पैसेंजर ट्रेन (55202) चलती है- नरकटियागंज के लिये। वैसे तो यहां से सीधे रक्सौल के लिये सत्यागृह एक्सप्रेस (15274) भी मिलती है जोकि कुछ देर बाद यहां आयेगी भी लेकिन मुझे आज की यात्रा पैसेंजर ट्रेनों से ही करनी थी- अपना शौक जो ठहरा। इस रूट पर मैं कप्तानगंज तक पहले भी जा चुका हूं। आज कप्तानगंज से आगे जाने का मौका मिलेगा।
चार साल पहले मैं तीन दिनों के लिये गोरखपुर आया था- रेलवे का पेपर देने। उन तीन दिनों तक मैं स्टेशन पर ही रुका रहा। प्लेटफार्म नम्बर एक के एक सिरे पर बहुत बडा हाल है, पंखे भी चलते हैं, एक कोने में शौचालय भी है। तब मैं पूरी रात सोकर उठता और यहीं पर फ्रेश होकर अगले दिन पेपर देने चला जाता। तीन दिनों में दो पेपर थे। तब आनन्द नगर की तरफ यहां से मीटर गेज की लाइन थी, आज उससे भी आगे नौतनवा तक बडी लाइन बन गई है। एक दिन मैंने आनन्द नगर जाने के लिये टिकट भी ले लिया था, लेकिन मीटर गेज की ट्रेन के दो घण्टे लेट हो जाने के कारण यात्रा रद्द कर दी। इसी तरह एक बार मैं मौर्य एक्सप्रेस से छपरा तक भी गया था, जहां से वापस लौटते समय मुझ पर जुर्माना लगा। एक्सप्रेस का टिकट लेकर सुपरफास्ट में जा बैठा था- जानबूझकर। एक दिन वाराणसी का टिकट लिया पैसेंजर ट्रेन का लेकिन सोता रह जाने के कारण ट्रेन चली गई, तब अपनी खीझ मिटाने को कप्तानगंज का चक्कर काट आया। और हां, कप्तानगंज से थावे होते हुए छपरा तक मीटर गेज की लाइन थी। आज वो भी बडी हो गई है। एक ही झटके में वो पुरानी गोरखपुर यात्रा याद हो आई।
ठीक सात बजकर बीस मिनट पर ट्रेन चल पडी नरकटियागंज के लिये। पिछली बार जब इधर आया था तो धान की बुवाई हो चुकी थी, लोग गड्ढों में पानी रोक कर मछलियां पकड रहे थे। इस बार यह इलाका पूरी तरह धानमय हो गया है। हर तरफ बस धान की रोपाई ही दिखाई दे रही है। मानसून की शुरूआत है, इसलिये धरती पर पहली बारिश की महक बरकरार है, हालांकि कहीं कहीं पानी भरा रह जाने के कारण बदबू भी आती है।
कप्तानगंज आया, मैं बडी तेजी से उतरकर पूरी वाले के पास गया और दस रुपये की आठ पूरियां, सब्जी और जलेबी ले आया। जी हां, दस रुपये में पूरियां, सब्जी और जलेबी का एक छल्ला मिला। जी खुश हो गया। पहले पूरी सब्जी खाओ और फिर मुंह मीठा करते हुए जलेबी खाओ। ऐसा पहली बार देखा है। और कप्तानगंज (Kaptanganj/ CPJ) से मुझे बरेली वाला कलट्टरबकगंज (Clutterbuckganj/ CBJ) याद आ जाता है। दोनों की स्पेलिंग देखिये- एक तो ठेठ हिन्दी वाली स्पेलिंग- कप्तान मतलब Kaptan कैप्टेन (Captain) नहीं। और दूसरा इतना ठेठ अंग्रेज कि मेरे जैसे पढने में असमर्थ हैं।
उत्तर प्रदेश को छोडकर ट्रेन कब बिहार में प्रवेश कर गई, पता ही नहीं चला। और किसे नहीं पता? अच्छी तरह पता है कि पनियहवा के बाद वाल्मिकीनगर रोड और ट्रेन बिहार में। दूसरी बात कि सीमा के इस तरफ भी भोजपुरी और उस तरफ भी भोजपुरी। पता कैसे चलेगा कि अब तक उत्तर प्रदेश था, अब बिहार है? दो भिन्न भाषाओं वाले राज्यों का यही फायदा है कि पता चल जाता है कि ट्रेन अब किस राज्य में है। मैं एक बार रेवाडी से फाजिल्का वाली पैसेंजर ट्रेन में बैठा। सिरसा तक तो वही हरियाणवी बोली रही, उसके बाद धीरे धीरे पंजाबी का असर आना शुरू हो गया। जैसे ही ट्रेन ने रामां स्टेशन पार किया, गाडी पूरी तरह पंजाबी हो गई। लेकिन यह फर्क आपको पैसेंजर ट्रेन में ही पता चलेगा, किसी बडी एक्सप्रेस में यह अन्तर मालूम नहीं पडेगा। आप हिमसागर एक्सप्रेस में बैठकर चलो, आपके पडोसी अगर दक्षिण भारतीय होंगे तो आपको जम्मू से ही लगने लगेगा कि पहुंच गये दक्षिण में, लेकिन अगर आपके पडोसी उत्तर भारतीय हुए और वे केरल घूमने जा रहे हैं तो आप केरल पहुंच जाओगे, पता भी नहीं चलेगा, भाषा बदली हुई नहीं लगेगी। लेकिन यहां तो दोनों तरफ एक ही भाषा है- भोजपुरी, तो पता नहीं चलता कि बिहार आ गया। ऐसा नहीं है कि पूरे उत्तर प्रदेश में भोजपुरी का वर्चस्व है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में हरियाणवी बोली जाती है, जबकि केवल पूर्वी उत्तर प्रदेश में ही भोजपुरी है।
नरकटियागंज स्टेशन। मैं सोच रहा हूं कि अगर नरकटियागंज है तो नारीकटडागंज भी होगा। नर-कटिया-गंज से नारी-कटडा-गंज।
यहां से रक्सौल जाने के लिये दो रेल लाइनें हैं। एक तो है बडी लाइन जो अररिया होते हुए सुगौली और उसके बाद रक्सौल चली जाती है। और दूसरी लाइन है मीटर गेज जो सीधे रक्सौल जाती है। मुझे अपनी यात्रा मीटर गेज से करनी थी, इसलिये बडी लाइन पर आने वाली सत्यागृह एक्सप्रेस पर कोई ध्यान नहीं दिया। शाम सवा तीन बजे यहां से मीटर गेज की पैसेंजर गाडी (52512) रवाना होनी थी।
यहां एक दुर्घटना हो गई कैमरे के साथ। मैंने कैमरे को कवर में डालकर बेल्ट में टांग रखा था। नरकटियागंज में एक जगह मैं बैठा और जब उठकर चलने लगा तो पीछे से किसी की आवाज आई कि तुम्हारा कैमरा गिर गया है। पता चला कि कवर का नाडा टूट गया है। ऊपर वाले को धन्यवाद कहा। इसके बाद उस भले आदमी को भी दिल से बहुत शुभ वचन कहे। कैमरा तो पहले से ही खराब था, पुराना भी हो गया था लेकिन उसमें जो मेमोरी कार्ड था, उसमें फोटो के अलावा भी बहुत सी काम की चीजें पडी थीं। अगर वो आदमी मुझे आवाज ना लगाता, तो कैमरा मिलना असम्भव था।
पहले कभी पूर्वी उत्तर प्रदेश और उत्तर बिहार में पूर्ण रूप से मीटर गेज की रेलवे लाइन हुआ करती थी, आज मीटर गेज कहीं नहीं बची। बची तो है, लेकिन ढूंढनी पडती है। उत्तर प्रदेश में कासगंज-बरेली-पीलीभीत-मैलानी-सीतापुर-ऐशबाग, शाहजहांपुर-पीलीभीत-टनकपुर, मैलानी-नेपालगंज रोड-गोण्डा ही बची हुई है जबकि बिहार में नरकटियागंज-भिखना ठोरी, नरकटियागंज-रक्सौल और एकाध जगह और छोटे छोटे रूट पर मीटर गेज चलती है। और ये भी बडी तेजी से सिमट रही हैं।
साढे तीन बजे ट्रेन रक्सौल के लिये चल पडी। ज्यादा भीड नहीं थी लेकिन ट्रेन की लम्बाई और रूट की लम्बाई के हिसाब से ज्यादा ही कही जायेगी। क्योंकि इस रूट पर कोई भी शहर नहीं है, रूट की लम्बाई भी मात्र चालीस किलोमीटर ही है।
बडा मजेदार अनुभव होता है किसी नये रूट पर इस तरह की पैसेंजर ट्रेनों में घूमना। नये नये नाम वाले स्टेशन मिलते हैं। इस रूट पर सबसे मजेदार स्टेशन है- मर्जदवा। वैसे तो इधर ज्यादातर नामों के साथ ‘वा’ लगाने का रिवाज है। काफी सारे स्टेशन भी ‘वा’ पर खत्म होते है- नौतनवा, सहजनवा, पनियहवा, सिसवा, गुरली रामगढवा। इसी तरह मर्जदवा भी हो सकता है- मर्जद-वा लेकिन मैं इसे मर्ज-दवा कहूंगा यानी हर मर्ज की दवा। और भारत में कुछ बीमार स्टेशन भी हैं जैसे कि पथरी, टीबी, फफूंद आदि, तो यह स्टेशन उनका इलाज है। अरे हां, एक बात और ध्यान आई कि फफूंद (कानपुर के पास) भले ही एक ‘बीमार’ और ‘इंफैक्शन’ वाला स्टेशन हो, लेकिन इसका कोड बडा धांसू है- PHD.
मुझे एक बात समझ नहीं आती कि भारत का यह इलाका इतना गरीब क्यों है? प्रकृति ने यहां की जमीन बेहद उपजाऊ बनाई है। बाढ आती है हर साल मानसून में। बाढ आने का अर्थ ही होता है कि जमीन उपजाऊ है। और बाढ भी क्यों आती है? इसका भी कारण मिल गया है मुझे। रक्सौल की समुद्र तल से ऊंचाई लगभग 80 मीटर ही है। यानी नेपाल सीमा 80 मीटर पर है। इसके बाद कई सौ किलोमीटर चलने के बाद नदियां समुद्र तक पहुंचती हैं। कहने का मतलब है कि यह कई सौ किलोमीटर एक तरह से नदियों के डेल्टा का काम करता है। पानी को बहते रहने के लिये पर्याप्त ढलान चाहिये। यहां कई सौ किलोमीटर तक ढलान ही नहीं है, तो नदियां बहेंगी कैसे? थोडा सा पानी बढते ही बाढ आनी तय है। रक्सौल के आसपास जहां गण्डक का ‘डेल्टा’ शुरू हो जाता है, तो जयनगर के आसपास कोसी का।
खैर चलिये, बॉर्डर की तरफ चलते हैं।
गोरखपुर स्टेशन |
पिपराइच |
कप्तानगंज स्टेशन। |
खड्डा स्टेशन। हमारे यहां खड्डे का मतलब गड्ढा होता है। |
भैरोंगंज |
हमारे दिन लद गये, अब हम भी लद जाते हैं- मीटर गेज का इंजन (YDM4) |
नरकटियागंज- रक्सौल पैसेंजर |
यह रहा मर्जदवा। अंग्रेजी स्पेलिंग से पता चलता है कि इसका उच्चारण मर्जद-वा होगा, ना कि मर्ज-दवा। |
यह है यहां का परम्परागत तरीका। ऐसा तरीका मैंने और कहीं नहीं देखा। पूरी ट्रेन इसी तरीके से लदी होती है। |
रक्सौल- भारत नेपाल सीमा के पास स्थित स्टेशन। |
नेपाल यात्रा
1. नेपाल यात्रा- दिल्ली से गोरखपुर
2. नेपाल यात्रा- गोरखपुर से रक्सौल (मीटर गेज ट्रेन यात्रा)
3. काठमाण्डू आगमन और पशुपतिनाथ दर्शन
4. पोखरा- फेवा ताल और डेविस फाल
5. पोखरा- शान्ति स्तूप और बेगनासताल
6. नेपाल से भारत वापसी
Bhagwan,Bahut si sunder barnan aur photo,aapki videsh yatra me hum bhi saath saath.Thanks.
ReplyDelete"फफूंद (कानपुर के पास) भले ही एक ‘बीमार’ और ‘इंफैक्शन’ वाला स्टेशन हो, लेकिन इसका कोड बडा धांसू है- फड" यह भी खूब रही.
ReplyDeleteIt is लेकिन इसका कोड बडा धांसू है- PHD. Mr. P.N.Subramanian दादा कोंडके की पिक्चर मत बनाओ. संसार के हर कोने से नीरज भाई की पोस्ट को बड़े चाव से भाई बहन पढ़ते हैं.
Deleteनीरज,
ReplyDeleteआपकी इस नेपाल यात्रा में मैं भी पुरे समय आपके साथ रहूँगा. सड़क मार्ग से नेपाल जाने की मेरी भी बहुत तीव्र इच्छा है, लेकिन मैंने सुना है की गोरखपुर के पास सुनौली बोर्डर सड़क मार्ग से नेपाल जाने वालों के लिए ज्यादा सुरक्षित एवं सुखद है, आपका क्या कहना है?
भारतीयों के लिये नेपाल जाने के कई रास्ते हैं। और हर रास्ते से नेपाल की हर बडी जगह जैसे कि काठमाण्डू और पोखरा की बसें आसानी से मिल जाती हैं। सभी सुरक्षित हैं।
Deleteदूसरी बात, (ईच) के साथ समाप्त होनेवाले गाओं के नाम भी मैंने मैंने उत्तर प्रदेश में सुने हैं जैसे बहराईच, पिपराईच. क्या इस तरह के और भी नाम हैं?
ReplyDeleteऐसा मैंने नहीं सुना है। लेकिन ‘वा’ बडे पैमाने पर बोला जाता है। जैसे कि मेरा नाम यहां नीरजवा, आपका नाम मुकेशवा बोला जायेगा। पानी को भी बदलकर पनिया कर दिया गया है।
Deleteबहराईच और पिपराइच में ईच जरूर है लेकिन मुझे इसकी जानकारी नहीं है।
हम भी एक बार छपरा से सिवान और गोपालगंज के रास्ते बस से रक्सौल और नेपाल के वीरगंज तक गए थे....| याद ताज़ा हो गयी...| काठमांडू तो नही गए पर अब आपके लेख से वो भी घूम ही लेगें..|
ReplyDeleteरेल यात्रा तो मुझे हमेशा से आकर्षित करती है... खास कर छोटे-2 स्टेशन जो पता ही नही लगते स्टेशन है या जंगल के बीच गाड़ी खड़ी है.
ReplyDeleteबड़े किस्मत वाले हो जो ईश्वर ने समय और पैसा दिया इतना कि दबा के घुमक्कड़ी कर सको...और हमारे जैसे जो उस समय आर्थिक तंगियो व नोकरियां ढूंढने के कारण नही जा पाये... तुम्हारी यात्रा पढ़ कर मजे ले लेते हैं
तुस्सी छा गये भाप्पे
नीरज बाबु ये पूरी जलेबी ज्यादा न खाया करो मैदा होता है पेट ख़राब करता है ........पहले पेट ख़राब के चक्कर में आपकी यात्रा लेट हुई . भारत नेपाल सीमा आ गई चलो अब नेपाल में घुसेंगे बस द्वारा .
ReplyDeleteट्रेन स्टेशन पर भीड़ बहुत है
साइकिल वाला फोटो अच्छा लगा . अपुन का फोटो नहीं लगाया
सर्वेश जी, आपका कहना बिल्कुल ठीक है। लेकिन आज दिनांक 28 जुलाई 2012 की शाम सात बजे तक इधर उधर की चीजें खाकर मुझे कुछ नहीं हुआ। सब हजम हो गईं। एक बार अंगूर खाकर दस्त लग गये थे, तो उसके बाद अंगूर खाने बन्द कर दिये। जब जलेबी खाकर पेट खराब हो जायेगा, तो जलेबी भी बन्द कर देंगे।
Deleteनीरज भाई लगता है कि भारतीय रेल व तुम्हारा कुछ ज्यादा ही याराना है जो आज भी उस मजेदार घटना के कारण रेल निकल जाती है फ़िर सुनने पडते हम दोनों को ताने, वो शुक्र मानो कि केवल दो/तीन मिनट पहले हम पहुँच गये?
ReplyDeleteनर-कटिया-गंज नारी-कटडा-गंज :) वाह
ReplyDeleteफफूंद, टीबी, पथरी और मर्ज-दवा
मजेदार नाम है, वाह!
दो बार नेपाल गया हूं और दोनों बार बहराईच-रुपहडिया के रास्ते सडक मार्ग से यादें ताजा कर दी आपने
प्रणाम
waah bhai ab Nepal yatra bhi ....sachmuch maza aayega......
ReplyDeleteवाह, पहले चित्र में डायमंड क्रॉसिंग दिख रही है।
ReplyDeleteji wo GKP yard ki diamond hai..pehle MG ki bhi thi...
Deletefor more rail enthusiam keep in touch with my blog page.
abhishek-kashyap-trainman.blogspot.com
jabardast...being a die heart meter gauge and YDM4 lover this page is like a treat for my eyes...
ReplyDeleteGKP and whole ECR-MG u seems to coverd...
"साढे तीन बजे ट्रेन रक्सौल के लिये चल पडी। ज्यादा भीड नहीं थी लेकिन ट्रेन की लम्बाई और रूट की लम्बाई के हिसाब से ज्यादा ही कही जायेगी। क्योंकि इस रूट पर कोई भी शहर नहीं है, रूट की लम्बाई भी मात्र चालीस किलोमीटर ही है।" From: Gorakhpur, Uttar Pradesh
ReplyDeleteTo: Raxaul, Bihar
Time: 3 hours 37 minsDistance
219.3 km
Route
SH 64 तो किस तरह से ये दूरी ४० किमी० के रुट में बदल गयी नीरज जाट जी ....
केयर नमन, आपने ध्यान से नहीं पढा।
Deleteरक्सौल की दूरी नरकटियागंज से चालीस किलोमीटर है, ना कि गोरखपुर से।
भाई वाह ! स्टेसनो के नाम का खूब अध्यन किया है आपने मजेदार ! और आपके कैमरे मरम्मत की बात बहुत खूब ! सुंदर सुंदर तस्वीरों को शेयर करके आपने अपने साथ हमे भी यात्रा करवा दिया भाई धन्यवाद !
ReplyDeleteKabhi Bihar Rajgir ,Gaya me Lord Buddha ko bhi visit k
ReplyDeletearne aaye jaat Ji.
Nice ji my choice sir ji nepal tour
ReplyDeleteJaipur se direct train hai kya pura rout type karo JAIPUR TO NEPAL