ज्यादा दूर नहीं चलना पडा और एक कच्ची सडक ऊपर की तरफ जाती दिख गई। आधे घण्टे से ज्यादा और एक घण्टे से कम लगा मुझे पैदल शान्ति स्तूप तक जाने में। इसे इंग्लिश में पीस पैगोडा (Peace Pagoda) कहते हैं। यहां से पोखरा शहर का एक बडा हिस्सा और फेवा ताल भी दिखता है। समुद्र तल से ऊंचाई लगभग 1100 मीटर है।
जापानियों की एक संस्था ने इसका निर्माण किया। इसके निर्माण के समय बुद्ध विरोधियों ने एक जापानी की हत्या भी कर दी थी, उसकी यादगार भी पैगोडा के पास ही बनी हुई है। झक सफेद रंग का स्तूप बडा शानदार लगता है। स्तूप की चार दिशाओं में बुद्ध की विभिन्न मुद्राओं की मूर्तियां भी हैं। आज जब चारों तरफ बादल थे, यह और भी निखर आया था। बादलों की वजह से अन्नपूर्णा श्रंखला की चोटियां भी नहीं दिख रही थीं।
यहां से जब मैं नीचे उतर रहा था, तो मेरे साथ दो भारतीय नेपाली गाइड के साथ साथ नीचे ही जा रहे थे। लहजे से वे मुझे मेरठ के आसपास के लगे। मैंने उनसे पूछा कि आप कहां के रहने वाले हो। उन्होंने हिन्दी भाषी को देखकर तुरन्त समझ लिया कि बन्दा भारतीय है। बोले कि यूपी के। यूपी में कहां से? बताने की बजाय उल्टा मुझसे ही पूछ लिया कि तुम कहां के हो। मैंने कह दिया कि तुम्हारा पडोसी हूं। मतलब? मतलब मेरठ का हूं। उन्होंने बताया कि वे मुजफ्फरनगर के हैं।
अडोसी-पडोसी मिले तो बातचीत भी होने लगी। उन्हें आज हवाई जहाज से पोखरा से काठमाण्डू जाना था, लेकिन मौसम खराब होने के कारण हवाई सेवा बन्द थी। इसलिये आज का समय काटने शान्ति स्तूप चले आये। उनका गाइड कह रहा था कि कल मौसम ठीक हो जायेगा तो हवाई सेवा सामान्य हो जायेगी। लेकिन जिस तरह आज मौसम था, उसे देखते हुए कल के मौसम की भविष्यवाणी करना गलत ही होगा। बेचारे इसी चिन्ता में थे। मैंने सुझाव दिया कि बस से चले जाओ, छह घण्टे लगेंगे और रास्ता भी ज्यादा पहाडी नहीं है। दोनों राजी हो गये लेकिन उनका गाइड नहीं माना। जिद पर अडा रहा कि कल मौसम साफ हो जायेगा। ये गाइड ऐसे ही होते हैं। जब भी कोई पर्यटक या बाहरी आदमी इनकी बात काटता है तो इनका अहम उछलने लगता है। फिर ये अच्छा बुरा नहीं सोचते, अपने मन की चलाते हैं।
खैर, बेचारे बोले कि यार, तुम खाने पीने का इंतजाम कैसे कर रहे हो। मैंने बताया कि चाऊमीन-समोसे खा-खाकर नेपाल घूम रहा हूं। फिर उन्होंने बताया कि यहां रोटी का बडा झंझट है। काफी खोजबीन करके एक पंजाबी ढाबा ढूंढा लेकिन वहां एक रोटी 190 रुपये की और एक कटोरी दाल 700 रुपये की है। मैंने पूछा कि फिर खाई या नहीं? बोले कि खानी ही पडेगी। हालांकि मैंने रोटी नहीं खाई लेकिन दाल भात खूब खाया। भरपेट दाल- भात 100 रुपये के आसपास का मिला हर जगह। और मीट तो यहां खाने की हर दुकान पर मिलता है। दाल-भात लेते समय होटल वाले को बताना पडता है कि मीट नहीं खायेंगे, केवल दाल-भात। कभी कभी दाल के साथ साथ आलू की सब्जी भी मिल जाती है।
करीब तीन बजे मैं शान्ति स्तूप से वापस नीचे उतर आया। डेविस फाल के सामने सडक पर पहुंचा। ऊपर जाने से पहले मैंने गौर किया था कि हर पन्द्रह मिनट में यहां से सुनौली की बस जा रही है। मैं सोच रहा था कि बुटवल चला जाता हूं, पांच छह घण्टे लगेंगे। रात बुटवल में रुककर कल सुबह लुम्बिनी देखकर सुनौली चला जाऊंगा और वहां से सीमा पार करके नौतनवा और ट्रेन पकडकर गोरखपुर।
चलिये, एक बार इन जगहों पर निगाह मार लेते हैं कि ये जगहें कहां कहां हैं। गोरखपुर के पास नेपाल का जो प्रवेश द्वार है- वो है सौनोली, नौतनवा स्टेशन से थोडा आगे। बिल्कुल सीमा पर है सौनोली, दोनों देशों में फैला हुआ। भारत में इसे सौनोली कहते हैं, तो नेपाल में सुनौली। मैदानी इलाका है सुनौली। नेपाल में प्रवेश करके करीब बीस किलोमीटर बाद बुटवल आता है। यहां से एक सडक सीधे पोखरा जाती है, एक जाती है काठमाण्डू और एक चली जाती है पश्चिमी नेपाल की तरफ यानी नेपालगंज की ओर। बुटवल से अगर पोखरा की तरफ चलें, तो पहाडी रास्ता शुरू हो जाता है। बुटवल से करीब सात किलोमीटर की दूरी पर ही लुम्बिनी है, जहां गौतम बुद्ध का जन्म हुआ था।
तो मेरा इरादा था कि रात होने तक बुटवल चला जाऊंगा, आराम से सोऊंगा। इसलिये यहीं से बुटवल की बस की प्रतीक्षा करनी शुरू कर दी। दस मिनट हो गये, बस नहीं आई। एक भुट्टे वाला था पास में ही। अपनी तसल्ली के लिये पूछा कि बुटवल की बस यहीं से मिलेगी क्या। सकारात्मक उत्तर मिला। आधा घण्टा हो गया, बस नहीं आई। पच्चीस रुपये का एक भुट्टा ले लिया, गर्मागर्म और नींबू नमक लगा हुआ। खाने में मजा तो आ रहा था लेकिन बस नहीं आ रही थी। थोडी दूर ही एक बुढिया फल सब्जी बेच रही थी। जब एक घण्टा हो गया, साढे चार बजने को हो गये, मैं केले खाने बुढिया के पास गया। एक दर्जन केले उसने 45 रुपये के बताये। और केले मेरे हाथों की उंगलियों के बराबर थे। मन तो नहीं था इतने महंगे केले लेने का लेकिन खाने का मन था। एक दर्जन ले लिये। पैसे देने लगा तो बुढिया बोली कि तुम भारतीय हो, इसलिये मैंने तुम्हें भारतीय करेंसी में रेट बताये हैं। नेपाली में ये केले 70 रुपये के हैं। यह सुनकर मेरे दोनों पैरों के नीचे से धरती खिसकती-खिसकती रह गई।
बारह केले ले लिये थे, तुरन्त छह वापस लौटा दिये। मैंने बुढिया से पूछा कि केले आते कहां से हैं। बोली कि तराई से। यानी मैदानी नेपाल से। तब मैंने बुढिया को बताया कि मैदान में तो हमारे यहां भी होते हैं। तुम्हारे यहां के केले मेरी उंगलियों जितने बडे हैं, लेकिन हमारे यहां के केले इतने बडे होते हैं, इतने बडे होते हैं कि तुम्हारा बिलांद भी छोटा पड जायेगा। और सस्ते भी होते हैं, मीठे भी ज्यादा होते हैं, नरम मुलायम भी होते हैं आदि आदि। खैर फिर उसने बात पलटते हुए पूछा कि तुम्हें यहां पीछे कमर पर झोला टांगकर खडे हुए घण्टे भर से ज्यादा हो गया, मामला क्या है। मैंने उसे सारा मामला बता दिया। उसने बताया कि तुम गलत जगह पर खडे हो। बुटवल जाने के दो रास्ते हैं- एक पहाडी यानी यह रास्ता और दूसरा लम्बा लेकिन मैदानी। इसलिये दोपहर बाद की बसें मैदानी रास्ते से जाती हैं, जोकि पृथ्वी चौक से मिलेंगी। अब मुझे सारा माजरा समझ में आ गया।
यहां से हर पांच पांच मिनट में दो दो बसें पृथ्वी चौक के लिये जाती हैं। चढ लिया एक बस में। पन्द्रह मिनट में पृथ्वी चौक। पूछाताछी करके पता चला कि साढे सात बजे सुनौली की बस जायेगी। मैंने साढे चार सौ रुपये देकर एडवांस में खिडकी के पास वाली सीट बुक करा ली। वो बस सुबह पांच बजे बुटवल पहुंचेगी।
अभी साढे पांच ही बजे थे। मेरे पास टिकट तो आ ही चुका था, टिकट पर बस नम्बर के साथ साथ समय भी लिखा हुआ था। मेरे पास पूरे दो घण्टे थे। इन दो घण्टों में क्या किया जाये? यही सोचता सोचता घूम रहा था कि एक लोकल बस दिखाई पडी- बेगनासताल जाने वाली। लोकल बस? यानी यह ताल ज्यादा दूर नहीं है। इस ताल का नाम भी मैंने सुना था लेकिन मुझे पता नहीं था कि कहां है, कितना दूर है। कंडक्टर से पूछा तो उसने बताया कि आधे घण्टे में बस बेगनासताल पहुंच जायेगी। मैंने हिसाब लगाया कि आधा घण्टा जाने का और आधा घण्टा आने का और आधा घण्टा ताल के आसपास घूमने का, फोटो खींचने का। चल पडे अपन बेगनास की ओर।
बेगनासताल- यह भी फेवाताल की तरह ही है यानी नदी के रास्ते में। इसके मुहाने पर एक बांध बना दिया ताकि इसकी ऊंचाई और क्षेत्रफल और बढ जाये। मुझे यह फेवा ताल से ज्यादा बडा लगा। जल्दी जल्दी कुछ फोटो खींचे और वापस पोखरा के लिये चल पडा।
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पोखरा शहर शान्ति स्तूप के रास्ते से |
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शान्ति स्तूप जाने के कई रास्ते हैं- एक यह रहा। |
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पोखरा में हवाई उडान |
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पोखरा |
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शान्ति स्तूप से दिखाई पडती फेवाताल |
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शान्ति स्तूप जाने का रास्ता |
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शान्ति स्तूप |
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शान्ति स्तूप |
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शान्ति स्तूप |
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शान्ति स्तूप |
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शान्ति स्तूप में बुद्ध |
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शान्ति स्तूप परिसर |
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शान्ति स्तूप में बुद्ध प्रतिमा |
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बुद्ध और बुद्धू |
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शान्ति स्तूप के पास ही एक जापानी की कब्र है। |
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शान्ति स्तूप |
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बेगनासताल |
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बेगनासताल |
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बेगनासताल |
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बेगनासताल |
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बेगनासताल |
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बेगनासताल |
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बेगनासताल |
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बेगनासताल |
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बेगनासताल |
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बेगनासताल |
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बेगनासताल |
अगला भाग: नेपाल से भारत वापसी
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bhagwan,hamesha ki tarah behad khoobsurat.thanks.
ReplyDeleteवाह फ़िर वापिस बस पकड़ पाये ? समय का बहुत अच्छा सदुपयोग
ReplyDeleteसुंदर चित्र. वैसे बुद्धू शब्द बुद्ध से ही व्युत्पन्न माना जाता है.
ReplyDeleteनीरज भाई राम राम, आप की पोस्ट और फोटो की खूबसूरती देखकर अब तो शब्द भी कम पड़ने लगे हैं. क्या लिखू, क्या कहू. बुद्धं शरणं गच्छामि. भगवान बुद्ध बहुत सुन्दर चित्र गज़ब..
ReplyDeleteनेपाल के बारे में आपका एक अच्छे विवरण से भरा यात्रा वृतांत , नए तथा सुंदर फोटो . घुमने का होसला . फेवा ताल , डेविस ताल, बेग्नास ताल नए नाम लगे
ReplyDeleteडेविस ताल नही जी डेविस फाल
Deleteप्रकृति और अध्यात्म, दोनों ही साथ साथ..
ReplyDeleteरमणीय स्थलें और रमणीय यात्रा. शान्ति स्तोप्प की तीसरी और चौथी तस्वीरें बेहद सुन्दर आयीं हैं.
ReplyDeleteवाह.... फोटोग्राफ्स देखकर लग रहा है यात्रा बहुत ही बढ़िया रही.... फोटो देखकर और यात्रा वृतांत पढ़कर हमें भी मज़ा आगया...
ReplyDeleteLOL बुद्धु और बुद्ध... क्या बात है.
ReplyDeleteहम तो भारत की मंहगाई को रोते है..नेपाल तो हमसे बहुत ज्यादा मंहगा है.. लोग कैसे रहते होंगे तभी नेपाली भाग-2 कर भारत आते है चौकीदारी करने को
नेपाली लोग भारतमे चौकीदारी तो करते है मगर इमान्दारीके साथ
Deleteलेकिन देशी (भारतिय) लोग नेपाल लगायत दुनियामे कुल्लीके काम करते है मगर बेइमानीके साथ,
नेपाली लोग मंहगाइ बाद भी अच्छा खाना खाते है लेकिन अधिकांस भारतिय लोग नमक, प्याज और सुखी रोटी से गुजारा चलाते है ।
नीरज जी नेपाल के बारे में आपका यात्रा वृतांत बेहद सुंदर है लेकिन आप ने यहाँ पर जो बात लिख्खि है उस मे से – “वहां एक रोटी 190 रुपये की और एक कटोरी दाल 700 रुपये की है ।” ये बात सच नहि है यहाँ पर नेपाली रुपैया २०० मै भरपुर दाल रोटि मिलती है । मै यहि पोखरा के नजदीक का ही रहने वाला हूँ । [ ने रु १६० = भा रु १०० ]
ReplyDeleteसायद नीरज जी आपका दिमाग तो सही है ना
Deleteनीरज जी,
ReplyDeleteआप की फोटो का शीर्षक बुद्ध और हीरो होना चाहिए. अबिनाश भाई तो ढाबे और पाँच सितारा के चक्कर में पड़ गए. अगर ध्यान से पढते, आप ने तो दाल भात 100 रुपये का लिखा है.
पोस्ट बहुत सुंदर है धन्यवाद
बिना गए यात्रा का मजा आ रहा है
ReplyDeleteअरे भाई तुम्हारी अंगुली जैसे केले? गजब रहे होंगे,छिलका उतार कर तो खाने के लिए कुछ बचा ही नहीं होगा? केले के बच्चे तो नहीं थे?
Omlette nahi thi kya, breakfast me ho to dinner tak chal zaye
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