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मैं रक्सौल स्टेशन पर था और थोडी देर में सीमा पार करके नेपाल में प्रविष्ट हो जाऊंगा। रक्सौल का नेपाली भाई बीरगंज है। यानी सीमा के इस तरफ रक्सौल और उस तरफ बीरगंज। स्टेशन से करीब एक किलोमीटर दूर सीमा है। इस बात की जानकारी मुझे गूगल मैप से मिल गई थी। मैं अपने मोबाइल के उसी नक्शे के अनुसार रक्सौल स्टेशन से सीमा की तरफ बढ चला।
स्टेशन पर कई तांगे वाले खडे थे, जो मुझे देखते ही पहचान गये कि यह नेपाल जायेगा। मैंने उन सभी को नजरअन्दाज किया और आगे बढ गया। तभी पीछे से एक तांगे वाला आया और खूब खुशामद करने लगा कि मैं तुम्हे सीमा पार करा दूंगा। पैसे पूछे तो उसने अस्सी रुपये बताये। मैंने एक किलोमीटर के लिये अस्सी रुपये देने से मना कर दिया। तब वो बोला कि सीमा से भी दो-तीन किलोमीटर आगे काठमाण्डू की बसें मिलती हैं। चूंकि शाम के छह बज रहे थे और तांगे वाले के अनुसार सीमा बन्द होने का समय नजदीक आ रहा था, मैं पचास रुपये तय करके उसके साथ हो लिया। साथ ही यह भी तय हुआ कि जहां से काठमाण्डू की बस मिलेगी, वो मुझे वहीं ले जाकर छोडेगा। मैंने उससे पक्का बोल दिया कि काठमाण्डू वाली बस में बैठकर ही मैं तुम्हें पैसे दूंगा। अगर मुझे काठमाण्डू की बस नहीं मिली तो पैसे नहीं दूंगा। वो मान गया।
सीमा पर गाडियों खासकर ट्रकों की लम्बी लाइन, ऊपर से सडक भी टूटी-फूटी, फिर धूल भी काफी उड रही थी। कुल मिलाकर जिस शान्तिपूर्ण तरीके से नेपाल प्रवेश की मानसिकता थी, उस हिसाब से नेपाल प्रवेश नहीं हुआ। मैं तांगे पर पीछे बैठा हुआ था। तांगे वाले ने यह कहकर मेरा बैग आगे अपने पैरों के बीच में छुपाकर रख लिया कि सीमा पर कस्टम वाले परेशान करेंगे। मैंने उसे बताया कि मेरे पास तीन कैमरे हैं (दो खराब), अगर मैं अभी बिना चेक कराये ले जाता हूं, तो वापसी में मुझे पकडा जा सकता है। उसने कहा कि वापसी में भी तांगे वाले से बोल देना। खैर, एकाध पुलिस वाले ने आवाज देकर तांगे वाले को रोकने की कोशिश भी की थी, लेकिन कोई खास घटना नहीं हुई। चुपचाप नेपाल में घुस गया मैं।
एक ट्रैवल एजेंसी की दुकान के सामने तांगा रोक दिया। वहां काठमाण्डू की आवाज लगा रहे थे, बस कहीं दिख नहीं रही थी। वहीं उस दुकान वाले ने कहा कि पौने आठ बजे बस रवाना होगी और सुबह पांच बजे काठमाण्डू पहुंचेगी। साथ ही एडवांस टिकट लेने का भी सुझाव दिया। किराया था तीन सौ भारतीय रुपये यानी पांच सौ नेपाली रुपये और दूरी लगभग दो सौ किलोमीटर।
जब मैंने टिकट ले लिया, तब तांगे वाले को उसका किराया पचास रुपये देने लगा। लेकिन अब तुरन्त उसका रंग-ढंग बदल गया। पैसे वापस करते हुए बोला कि 300 रुपये लूंगा। मैं चक्कर में पड गया कि यह वही तांगे वाला है या कोई और। क्यों भाई, बात तो 50 रुपये की हुई थी, अब 300 किस बात के मांग रहा है? बोला कि 50 तो तांगे का किराया है, बाकी 250 रुपये तुम्हारे बैग को कस्टम वालों से बचाकर सीमा पार कराने के हैं। मैं उसकी सब चाल समझ गया। पैसे वापस ले लिये और कहा कि नहीं दूंगा 300 रुपये। मेरे बैग में बस कपडे हैं, जोकि हर घुमक्कड के पास होते हैं। कपडों और कैमरे से कोई कस्टम वाली परेशानी नहीं होती। और मैंने तुमसे कहा भी था कि सामान को चेक हो जाने दो, तुम ही नहीं माने। अच्छी खासी बहस हुई। किसी नेपाली ने टोकाटाकी नहीं की। कोई दूसरा तांगे वाला भी नहीं आया। मुझे अंदेशा था कि इन लोगों का अच्छा खासा गैंग हो सकता है, जो हर पर्यटक के साथ ऐसा ही करते होंगे। शायद यह अपने गैंग के लोगों को बुलाकर भी ला सकता है। लेकिन जब ऐसा कुछ नहीं हुआ तो मेरा भी हौंसला बढता गया और अपने हरियाणवी स्टाइल में उससे सीधे सीधे मना कर दिया कि 300 तो दूर, अब मैं तुझे 50 रुपये भी नहीं दूंगा। वो भी भगवान का वास्ता देकर चला गया कि वो सबकुछ देख रहा है। उसे नहीं पता था कि मैं भगवान की कितनी ‘इज्जत’ करता हूं।
साढे सात बजे बस आ गई, मैंने खुद को अपनी सीट पर रख दिया। तांगे वाला फिर आया और फिर से भगवान की दुहाई देते हुए 300 रुपये मांगने लगा। मैंने उसे कुछ नहीं कहा और उसे बोलते रहने दिया। आखिर में उससे कहा कि आखिरी बार 50 रुपये दे रहा हूं, लेने हैं या नहीं? हां या नाम? उसने यही दोहराते हुए 50 रुपये ले लिये कि भगवान सब देख रहा है। मैंने कहा कि हां, तुम भी अपने उस भगवान से जाकर शिकायत करना, मैं भी तो देखूं कि तुम्हारा भगवान क्या देख रहा है।
तो जी, यह था अपनी पहली विदेश यात्रा का पहला अनुभव। शानदार अनुभव! इससे पहले मैंने 2500 भारतीय रुपये उसी दुकान पर देकर 4000 नेपाली रुपये प्राप्त कर लिये थे। 100 भारतीय रुपये 160 नेपाली रुपये के बारबर होते हैं। वैसे नेपाल में भारतीय करेंसी भी खूब चलती है। अगर कोई चीज 16 नेपाली की है तो वो 10 भारतीय में मिल जायेगी। अगर कोई चीज 6 नेपाली की है तो 10 भारतीय देकर 10 नेपाली वापस मिल जाते हैं।
12 जुलाई 2012 की सुबह साढे पांच बजे बस काठमाण्डू पहुंच गई। वीडियो बस थी, रास्ते में राउडी राठौड पिक्चर भी देख ली- बढिया लगी।
मैं चूंकि इस यात्रा की कोई तैयारी करके नहीं आया था। मुझे काठमाण्डू और पोखरा के अलावा किसी भी अन्य नेपाली जगह के बारे में नहीं पता था। फिर भी मेरा रुझान पोखरा की ओर था। मैं केवल पशुपति के दर्शन करने ही काठमाण्डू आया था- सावन में शिवजी के दरबार में।
पता नहीं किस स्थान पर बस ने हमें उतार दिया। वहीं कुछ होटल थे। बस में ज्यादातर सवारियां भारतीय ही थी। सभी उन धर्मशाला तुल्य होटलों में चले गये। मैंने होटल के एक कर्मचारी से बात की कि मुझे बस नहाना है, कुछ पैसे ले लेना। उसने मेरा ऐसा बेवकूफ बनाया कि आधा घण्टा बर्बाद हो गया और नहाना नसीब नहीं हुआ। मैं परसों दिल्ली से चलते समय ही नहाया था और तब से लगातार सफर कर रहा था। मौसम भी गर्मी का, तो नहाने की जबरदस्त तलब लग रही थी। कहने लगा कि मुख्य शहर में चले जाओ, वहां हमारा होटल है, मात्र 1500 रुपये किराया है। हम आपको काठमाण्डू की सैर भी करायेंगे। 800 रुपये उसका किराया है। और यहां से उस होटल तक पहुंचने का टैक्सी का खर्चा हम ही खर्च करेंगे। मैंने उससे मना कर दिया ... कुल मिलाकर आधे घण्टे तक इसी पर बहस होती रही।
काठमाण्डू में लोकल बस सेवा बडी अच्छी है। छोटी छोटी लोकल बसें चलती हैं, जिन्हे मिनी माइक्रो बस सेवा कहते हैं। मैं उस होटल के सामने से ही एक लोकल बस में चढ गया। कंडक्टर ने पूछा कि कहां जाना है, तो बताया कि अगले चौक पर ही जाना है, किराया दस नेपाली। अगले एक चौराहे पर उतर गया। किसी से पूछा कि पशुपति मन्दिर कहां है, तो उसने रास्ता बता दिया। आधा किलोमीटर दूर था, पैदल ही चला गया।
चलिये एक कहानी सुना देता हूं। ऐसा हुआ कि महाभारत की लडाई हुई। कौरव हारे और पाण्डव जीत गये। लेकिन जीतते ही बेचारे परेशान हो गये कि अपने ही भाई-बन्धु मार दिये। खुद ही अपने ऊपर पाप चढा लिया। चलो, प्रायश्चित करते हैं। बनारस पहुंचे विश्वनाथ जी के दरबार में। पता चला कि शंकर जी हिमालय पर है, बनारस में नहीं हैं। अब उन्होंने हिमालय जाने की योजना बनाई। जैसे ही हरिद्वार पहुंचे, तो उन्हें शंकर जी दिख गये। शंकर जी ने सोचा कि ये तो पापी हैं, इनसे बचकर भाग लेने में ही भलाई है, सो भाग लिये। पाण्डव भी भागे उनके पीछे। एक स्थान पर जाकर शंकर ने सोचा कि यार, बडे बुरे फंसे। अन्तर्ध्यान हो जाता हूं, हो गये अन्तर्ध्यान। वो जगह आज गुप्तकाशी नाम से जानी जाती है, जो केदारनाथ जाने के रास्ते में आती है।
अब हुआ ये कि पाण्डव निराश हो गये। अच्छे खासे शंकर जी मिल गये थे, अगर पकड लेते तो पापों का प्रायश्चित करवा ही लेते। फिर भी बेचारों ने हिम्मत नहीं हारी, हिमालय की ओर चल पडे। गौरीकुण्ड तक पहुंचे कि उन्हें एक भैंसा दिखाई पडा। कुछ लोग कहते हैं कि भैंसा नहीं दिखा, बल्कि बैल दिखा। चलिये, कुछ भी हो, हम भैंसा देखेंगे। पाण्डवों ने कुछ मन्तर वन्तर पढा और पता कर लिया कि वो भैंसा ही शंकर है। एक बार फिर से पीछा करने का सिलसिला शुरू हो गया। आखिरकार भीम ने उसकी पूंछ पकड ली। अब वो भैंसा अपनी शक्ति से अण्डरग्राउण्ड होने लगा लेकिन भीम भी कोई ऐसा वैसा आदमी नहीं था। पूंछ थी ही हाथ में, ऐसा जोर लगाया कि भूमिगत भैंसा जमीन से उखडकर बाहर आ गया लेकिन बेचारे की गर्दन टूट गई। जैसे ही भीम ने उस भैंसे को कंट्रोल करने के लिये पूंछ पकडकर घुमाया तो फिजिक्स वाले सेंट्रीफ्यूगल बल के कारण सिर टूट गया और बहुत दूर जा पडा। भीम के हाथ में भैंसे का सिर रहित शरीर रह गया। अब तो शिवजी को दर्शन देना ही था। वो जगह केदारनाथ के नाम से प्रसिद्ध हुई।
अब जो सिर उडकर चला गया था, वो पडा जाकर आज के नेपाल की राजधानी काठमाण्डू में। पशु का सिर था, इसलिये पशुपति कहलाया। एक तरह से देखा जाये तो केदारनाथ और पशुपति दोनों मिलकर एक ही ज्योतिर्लिंग बनते हैं। यानी बारह ज्योतिर्लिंगों में से साढे ग्यारह तो भारत में है और शेष आधा ज्योतिर्लिंग है नेपाल में। मैं केदारनाथ तो पहले जा चुका हूं, इस बार पशुपतिनाथ भी हो आया।
मन्दिर के अन्दर फोटो खींचने की मनाही है। मन्दिर बागमती नदी के किनारे बना है। दूसरी तरफ से मन्दिर का फोटो खींचा जा सकता है। मैं नहीं गया दूसरी तरफ। मन्दिर में दर्शनों के लिये लाइन लगी थी। हर मन्दिर की तरह यहां भी मैं बिना प्रसाद के गया। मन्दिर के अन्दर नहीं जाने दे रहे थे, बाहर से मन्दिर के अन्दर जो भी दिख सकता था, खूब आराम से बाहर खडे होकर देखा। लेकिन ना तो उस भैंसे का सिर दिखा और ना ही कोई शिवलिंग। चलिये, खैर कुछ भी हो, पशुपतिनाथ मन्दिर भी मेरे खाते में जुड गया।
वैसे मैं जब केदारनाथ गया था तो ऑफ सीजन में गया था। केदार भगवान उन दिनों ऊखीमठ में विराजमान थे। मैं उनके ग्रीष्मकालीन निवास केदारनाथ पहुंचा। कोई दान नहीं, कोई दक्षिणा नहीं, कोई प्रसाद नहीं। यहां भी मेरे हाथों इस तरह का कोई पुण्य काम नहीं हुआ। देखा जाये तो पशुपति अपने भारतीय भाई के मुकाबले बडे घाटे में रहता है। केदार को हम अगर 101 रुपये चढाते हैं, तो कायदा बनता है कि पशुपति को 162 रुपये चढाये जायें। भारतीय करेंसी और नेपाली करेंसी।
यहां केवल हिन्दू ही प्रवेश कर सकते हैं। वैसे किसी के पास अपना धर्म प्रमाण पत्र नहीं होता, साधारण कपडे पहनकर कोई भी जा सकता है। मुझसे किसी ने नहीं पूछा कि तेरे हिन्दू होने का सबूत क्या है। फोटो खींचने की मनाही है तो फोटो भी नहीं खींचे।
मन्दिर के पास ही दो समोसे और चाय ली गई। कुल पैंतीस रुपये खर्च हुए। मैंने पचास नेपाली का नोट दिया तो उसने मुझे दस भारतीय लौटा दिये। दस भारतीय मतलब सोलह नेपाली।
मेरा काठमाण्डू आने का मन बिल्कुल भी नहीं था, केवल पशुपति ने ही मुझे यहां बुलाया था। पहली बार बुलाया और मैं तुरन्त चला गया। पता नहीं क्या बात है कि सभी देवी-देवता मुझे अपने यहां बुलाने को आतुर रहते हैं। जबकि मेरे सब जानकार कहते हैं कि जब वैष्णों देवी का बुलावा आयेगा तो जायेंगे, जब शिवजी का बुलावा आयेगा तो बनारस जायेंगे, जब गंगा मैया बुलायेगी तो हरिद्वार जायेंगे। मेरे पास बुलावे थोक में आते हैं।
मेरा मन पोखरा में था। काठमाण्डू से पोखरा की बस नये बस पार्क से मिलती है। जब तक नये बस पार्क पहुंचा तो बारिश होने लगी थी। काठमाण्डू से पोखरा करीब दो सौ किलोमीटर दूर है। बस का किराया लगा साढे चार सौ रुपये। शाम पांच बजे तक मैं पोखरा पहुंच गया।
पशुपतिनाथ मन्दिर (साभार गूगल) फोटो बागमती नदी के दूसरी तरफ से लिया गया है, यानी यह मन्दिर का पिछवाडा है। |
पशुपतिनाथ का मुख्य प्रवेश द्वार |
बागमती के उस पार |
बागमती के उस पार के घाट पर |
बागमती के उस पार के घाट पर |
बागमती के उस पार |
बागमती के उस पार |
प्रवेश केवल हिन्दुओं के लिये |
एक और नोटिस |
पशुपतिनाथ का मुख्य प्रवेश द्वार |
मन्दिर जाने बाटो यानी मन्दिर जाने का रास्ता |
पास में स्थित कोई दूसरा मन्दिर |
पशुपति के बाहर हनुमान जी |
नेपाली नम्बर प्लेट- बा का अर्थ है बागमती सम्भाग |
अगला भाग: पोखरा- फेवा ताल और डेविस फाल
नेपाल यात्रा
1. नेपाल यात्रा- दिल्ली से गोरखपुर
2. नेपाल यात्रा- गोरखपुर से रक्सौल (मीटर गेज ट्रेन यात्रा)
3. काठमाण्डू आगमन और पशुपतिनाथ दर्शन
4. पोखरा- फेवा ताल और डेविस फाल
5. पोखरा- शान्ति स्तूप और बेगनासताल
6. नेपाल से भारत वापसी
नीरज भाई आप से ऐसी उम्मीद नहीं थी, आप हमारी धार्मिक भावनाओं से खिलवाड़ कर रहे हो. आप यदि नहीं मानते हो तो कम से कम हम लोगो की भावनाओं को ठेस तो मत पहुंचाओ, शिव्लिगम को भैंसे का सर और पता नहीं क्या बता रहे हो. मुझे तो लगता हैं आप आर्य समाजी या फिर निरंकारी हो गए हो. हिंदू धर्म का नुक्सान विधर्मियों से ज्यादा हमारे हिंदू भाइयो ने ज्यादा किया हैं. वन्देमातरम
ReplyDeleteगुप्ता जी, आपकी धार्मिक भावनाओं को मेरी वजह से ठेस पहुंची है, क्षमा करना।
Deleteलेकिन मैंने कुछ भी अपनी तरफ से नहीं लिखा है। यह तो केदारनाथ और पशुपतिनाथ की कथा है, जिसमें मैंने ज्यादातर जगह पढा है कि शंकर जी पांडवों के सामने भैंसे का रूप धारण करके आये थे, बहुत कम जगह भैंसे की जगह बैल भी पढा है। भीम की वजह से भैंसे के दो टुकडे हो गये। पीछे का हिस्सा पूंछ समेत वही केदारनाथ बन गया और आगे का हिस्सा दूर जाकर गिरा और पशुपतिनाथ बन गया। इसमें अगर कुछ भी गलत है तो बताना। मैंने चूंकि ज्यादातर जगह भैंसा ही पढा है, तो भैंसा लिख दिया। और मैंने यह भी नहीं लिखा है कि शिवलिंग भैंसे का सर है... बल्कि कहा है कि मुझे ना तो मन्दिर के बाहर खडे होकर शिवलिंग दिखा, ना ही भैंसे का सिर। कृपया गलत मत पढिये।
मैं ना तो आर्यसमाजी हूं और ना ही निरंकारी। लेकिन हां, पूजा पाठ नहीं करता बस।
वैसे आपका यात्रा वर्णन, टाँगे वाले की धोकाधडी, और पशुपतिनाथ के फोटो अच्छे हैं. और आपकी पोस्ट तो हमेशा की ही तरह लाज़वाब है. पोखरा के दर्शन भी आपके द्वारा अब हो ही जायेंगे. धन्यवाद. वन्देमातरम..
Deleteयही सत्य है जो नीरज जी कह रहे है।
Deleteचलिए आपके साथ बिन प्रसाद के पशुपति नाथ भी हो लिए. पोखरा का इंतज़ार है.
ReplyDeleteसही है अपने यहाँ भी दक्षिण भारत में बहुत सारे ऐसे मंदिर हैं जहाँ अंदर नहीं जाने देते और बाहर से ही देख लो, अंदर जाने की बहुत महँगी फ़ीस है, पता नहीं फ़ीस भगवान तक पहुँचती है या नहीं, क्योंकि भगवान ने तो फ़ीस लगाई नहीं ना ।
ReplyDeleteवैसे नेपाल में करंसी का खेल जबरदस्त लगा, और लूटपाट तो हर जगह है, बस हमें सजग और निर्भीक रहना होता है। बधाई आपको ।
इस यात्रा वर्णन से नेपाल के बारे में भी जान लिया जाएगा की वहाँ पर कैसी-कैसी आफत आती है?
ReplyDeleteठग तो वहाँ भरे पड़े है मैं तो बनारस वाले ठग के बारे में ही मानता था?
"वो भी भगवान का वास्ता देकर चला गया कि वो सबकुछ देख रहा है। उसे नहीं पता था कि मैं भगवान की कितनी ‘इज्जत’ करता हूं।"
ReplyDeleteक्या कहना चाह रहे हैं आप की आप भगवान की बिलकुल इज्ज़त नहीं करते? नहीं करते तो मत कीजिये लेकिन अपनी इन भावनाओं को जगजाहिर करके दूसरों की धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुँचाने से आपको क्या हासिल होगा?
पोस्ट मजेदार थी वर्णन तथा चित्र दोनों को इंजॉय किया. अगले भाग के इंतज़ार में...............
मुकेश जी, यहां इज्जत का मतलब वो वाली इज्जत नहीं है जो आप सोच रहे हैं। और इसीलिये इस शब्द को ‘...’ के अन्दर लिखा गया है। भगवान की कितनी ‘इज्जत’ करता हूं- इसका मतलब यह नहीं है कि मैं मूर्तियों को ठोकर मारता फिरता हूं या भगवान के अस्तित्व को नकारता हूं या उसे गाली देता हूं या दूसरों को उसकी पूजा पाठ करने से रोकता हूं। बल्कि मतलब यह है कि उससे डरता नहीं हूं। उस तांगे वाले ने आखिर में निराश होकर जिस अन्दाज से कहा था कि आप भले ही 50 की बजाय 300 रुपये मत दो, भगवान सब देख रहा है- तो आमतौर पर लोगबाग इस भगवान के नाम से डर जाते हैं और पैसे दे देते हैं। मैंने पैसे नहीं दिये यानी उसके कथित भगवान की इज्जत नहीं की।
Deleteचित्र बहुत कुछ व्यक्त करते हुये..
ReplyDeleteबहुत बढ़िया यात्रा वर्णन है नीरज भईया.. पर ये समझ नही आया अचानक पशुपति का प्रोग्राम बना कैसे ...क्या EBC जाने की सोच कर निकले थे...
ReplyDeleteदूसरा इतनी छुट्टियां कैसे मिल जाती हैं तुम लोगो को..हमारे तो कई प्रोग्राम छुट्टी न मिलने से ही कैसिल हो जाते है
कहानियां तो सारी बामणों की बनाई हुई है और मै इनमे खास श्रद्धा नही रखता पर असली कहानी ये है- शिव बैल का रुप धर कर वहां बाकि पशुओमें मिल गये तो भीम चौड़ी टांगे करके खड़ा हो गया और नकुल पशुओं को खदेड़ कर भीम की तरफ ले आया...बाकि पशु तो भीम की टांगो के नीचे से निकल गये..बैल रुपी शिव नही निकले व दूसरी तरफ से जाकर धरती मे समाने लगे तो भीम ने उन्हे पीछे से पूंछ से पकड़ लिया और धरती में समाने से रोक लिया...बैल का सिर पशुपति से बाहर निकला
ठगबाजी नेपाल में भी है.. बलकि कुछ एरिया तो ऐसे है जहां कत्ल भी कर दिया जाता है... नेपाल कुछ समय पहले तक विश्व का एकमात्र हिन्दु राष्ट्र था जो अब माओवादियों ने खत्म कर दिया.
शिवम जी,
Deleteमैं ना तो EBC के लिये निकला था और ना ही ABC के लिये। मैं पोखरा के लिये निकला था लेकिन सावन का महीना होने के कारण काठमाण्डू भी चला गया।
रही बात छुट्टियों की तो यही प्रश्न मुझसे सबसे ज्यादा पूछा जाता है। सरकारी नौकरी है, साढे तीन साल हो गये, सौ के करीब छुट्टियां अभी भी बची हुई हैं। इन सौ के अलावा CL, सरकारी छुट्टियां और साप्ताहिक अवकाश भी मिलते हैं। तो छुट्टियों की कमी नहीं है। और इतने समय को कैसे मैनेज करना है, इस बात की भी दिक्कत नहीं है। आमतौर पर लोगों में यही दिक्कत होती है कि समय को कैसे मैनेज करें। ज्यादातर लोग छुट्टियों को अपने घर-परिवार के साथ बिताना पसन्द करते हैं, लेकिन मेरे साथ ऐसी मजबूरी नहीं है।
jai ho
ReplyDeleteसही कहा शिवम जी, नेपाल ही विश्न का एकमात्र हिन्दू राष्ट्र था लेकिन अब नहीं हैं ........खैर
ReplyDeleteनीरज भाई आपको नेपाल के यात्रा बोहुत मुबारक हो...
घूमते रहो...!!!
यात्रा वृत्तान्त अच्छा लगा. हम कभी जायेंगे तो काम आएगा. वैसे एक बार जा चुके हैं 1991 में इसलिए बहुत कुछ भूल गए हैं.
ReplyDeleteबाकी, भगवान् की हम भी उतनी ही 'इज्जत' करते हैं जितनी आप करते हो. भगवान् का डर दिखाकर रुपया ऐंठने वालों को ठेंगा दिखाता हूँ तो वे हैरान हो जाते हैं.
बूढा नीलकंठ भी देख आते. कुछ ख़ास दूर नहीं है वहां से.
नीरज जी देखा भाषा विचारों का कितना महत्त्व होता है . आज आपके शब्दों की यहाँ पर भी तथा वहां पर भी आलोचना हुए ... आपके ज्ञान बहादुरी की सभी प्रशंसा करतें हैं .
ReplyDeleteपोस्ट काफी अच्छी है , १-२ घंटे में काठमांडू घूम लिए
भाई कोई और जगह के फोटो तो दिखा सकते थे
आलोचना करने वाले सब राजनीति कर रहे है. एक ग्रुप बना कर किसी को भी बदनाम करना उसके खिलाफ इकट्ठे मिल कर लिखना व उसे प्रताड़ित करना, ये घटीया राजनीती है और कुछ नही
Deleteये कूढ़ा फैलाने वाले यहां भी एकजुट है और घुमककड़ पर भी. कुत्तों का काम है भौकना नीचे देखो Annomous नाम से जिस महाशय ने बदबू फैलाई है क्या हम नही जानते वो कौन है और किसके इशारे पर ये सब कर रहा है
यार, आप लोग क्यों बार बार नीरज के ज्ञान का उल्लेख करते हैं? एक बार किसी ने कह दिया कि नीरज ज्ञानी है, तो आपने तो वही बात पकड ली।
Deleteलेकिन ध्यान रखिये कि उसी ने नीरज को ज्ञानी कहने के साथ साथ किसी और को कूटनीतिज्ञ भी कहा था। उन कूटनीतिज्ञ के बारे में आप क्यों नहीं लिखते?
बहुत ख़ूब!
ReplyDeleteआपकी यह ख़ूबसूरत प्रविष्टि कल दिनांक 30-07-2012 को सोमवारीय चर्चामंच-956 पर लिंक की जा रही है। सादर सूचनार्थ
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ReplyDeleteलगे रहो नीरज भाई हम तुम्हारे साथ हैं
Deletebhagwan,kuch to log kahenge logo ka kam hai kahna,lage raho,chalo pokhra abhiyaan.thanks
ReplyDeleteneeraj ji daro mat, lage raho, ham tumhare saath hain, vandematram
ReplyDeleteबहुत जानकारियाँ मिलीं -आभार !
ReplyDeleteनीरज! जब तुम्हारी आलोचना होने लगे तो समझो कि तुम आगे बढ़ रहे हो ! बधाई हो ! अच्छा ये बता कौन है ये नीच कौन है जो उस तांगे वाले की तरह बकवास कर रहा है !
ReplyDeleteयह मेरा दूसरा कमेन्ट है, पहला भी इसी नीच की वजह से था सहायता वाले लिंक पर ! पहचान कौन !
आपके इस सचित्र संस्मरण से मुझे भी पिछले वर्ष की गयी काठमांडू की सैर याद ताज़ी हो चली..
ReplyDeleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति के लिए आभार
neeraj bhai, aapne suna to hoga hi, ki HAATHI chalte rehte h aur KUTTE bhonkte rehte h.aap apni masti me lage rahiye. all the best N post k liye thanks.
ReplyDeletegoooooooodddddddd
ReplyDeleteलगे रहो नीरज भाई हम तुम्हारे साथ हैं
DeleteBhai nepal ki sair bhi aap ke sath ho gayi, waie currency ka gyan accha laga
ReplyDeleteबहुत खूब पसंद आ गई आपका संस्मरण
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