अक्सर ऐसा होता है कि जब भी मैं कहीं जाने की योजना बनाता हूं तो पेट में मरोडे उठने लगते हैं। जी खुश हो जाता है कि इतने दिन और बचे हैं, मैं फलां तारीख को इतने बजे वहां पर रहूंगा। और उन मरोडों की वजह से पेट खराब हो जाता है, दस्त भी लग जाते हैं। उसी खराबी की वजह से मेरी कई यात्राएं कैंसिल हुई हैं। मई में ग्वालियर वाली नैरो गेज ट्रेन की सवारी करनी थी, पेट खराब और यात्रा कैंसिल। उसका सारा रिजर्वेशन करा लिया था, पक्की योजना बन गई थी, लेकिन ऐन टाइम पर पेट में मरोडे उठे। सोचा गया कि भयंकर गर्मी की वजह से ऐसा हो रहा है, तुरन्त रिजर्वेशन कैंसिल और यात्रा भी कैंसिल।
अपने एक और घुमक्कड दोस्त हैं- सन्दीप पंवार। उन्हें बीस मई के आसपास सारपास की ट्रेकिंग पर जाना था यूथ हॉस्टल की तरफ से। उनकी देखा-देखी मैंने भी अपने खुद के आधार पर सारपास पार करने की योजना बनाई। और कब बीस मई आई और कब चली गई, पता ही नहीं चला। ये भी ध्यान नहीं रहा कि सन्दीप भाई ने वो यात्रा की या नहीं। ... एक मिनट, पूछ लेता हूं उनसे....
... अभी बात की हैं मैंने उनसे, उन्होंने बताया कि उनके ताऊजी अचानक खत्म हो गये थे, 27 मई को उनकी तेरहवीं थी जबकि 22 मई को सारपास के लिये कसोल में रिपोर्ट करना था, इसलिये वे नहीं गये।
अब मेरी योजना बनी हर की दून की। और मात्र हर की दून ही नहीं बल्कि उससे भी आगे। या तो 5000 मीटर ऊंचा बाली पास पार करके यमुनोत्री या फिर करीब 5000 मीटर ऊंचा एक और दर्रा पार करके हिमाचल में छितकुल। और इस 5000 मीटर की वजह से घोषणा भी की गई कि भईया, अगर कोई साथ चलने का इच्छुक हो तो उसके लिये जरूरी है कि उसने कम से कम 4000 मीटर की ऊंचाई तक यात्रा कर रखी हो। इस 4000 की वजह से रोहतांग जाने वाले पर्यटक बाहर हो गये। किसी ने सम्पर्क नहीं किया। अगर मैं यह शर्त ना रखता तो बहुत सारे लोग साथ जाने को तैयार हो जाते। हालांकि हर की दून तक किसी को कोई दिक्कत नहीं होती, लेकिन असली दिक्कत दोनों दर्रे पार करने में होती है।
चलने से मात्र दो तीन दिन पहले एक ने सम्पर्क किया और सलाह दी कि गंगोत्री गौमुख चलो। वे एक प्रतिष्ठित समाचार पत्र में बढिया पोस्ट पर हैं और चूंकि जाट हैं तो मैं उन्हें चौधरी साहब लिखूंगा। खुद को मैं कभी भी चौधरी या चौधरी साहब नहीं लिखता हूं। मैं पहले कभी गंगोत्री नहीं गया था, तो उनकी सलाह मान ली गई। आखिरकार बाइक से जाना तय हुआ।
मैं पिछले साल सन्दीप के साथ बाइक से श्रीखण्ड गया था। मुझे बाइक चलानी नहीं आती और पीछे बैठना पडता है। पिछली यात्रा की कठिनाईयों को झेलकर मैंने घोषणा की थी कि कभी भी बाइक पर लम्बी यात्रा नहीं करूंगा लेकिन सब कुछ भूल गया और एक बार फिर से बाइक पर जा बैठा। आखिरकार नतीजा यह हुआ कि वापस लौटकर एक बार फिर से घोषणा कर ली कि कभी भी बाइक पर लम्बी यात्रा नहीं करूंगा। देखते हैं कि यह घोषणा कितने दिन तक असरकारी रहती है।
5 जून की सुबह सुबह छह बजे दिल्ली से निकल लेने की योजना थी। लेकिन चार तारीख को चौधरी साहब का फोन आया कि वे नहीं जा पायेंगे क्योंकि उन्हें छुट्टी नहीं मिली है। इससे मुझे हल्का सा झटका तो लगा लेकिन जल्दी ही मैं सम्भल गया। तुरन्त गंगोत्री छोडकर हर की दून जाने की सोचने लगा। शाम तक त्यूनी पहुंचने की योजना बनने लगी लेकिन कुछ ही घण्टों बाद पता चला कि चौधरी साहब पांच तारीख को नहीं निकल सकते बल्कि छह को चलेंगे। इससे मेरा एक दिन खराब हो रहा था, फिर भी मेरी तरफ से हां हो गई। पांच तारीख की शाम को मैं अपने गांव चला गया जो मेरठ के पास है। चौधरी साहब से कह दिया कि मैं अगले दिन सुबह सुबह मेरठ बाइपास पर मिलूंगा।
6 जून 2012 की सुबह साढे पांच बजे आधिकारिक रूप से मेरे लिये गंगोत्री यात्रा की शुरूआत हो गई जब मैंने गांव से प्रस्थान किया। कंकरखेडा बाइपास पर चौधरी साहब दो भारी भरकम बैग लेकर मेरा इंतजार कर रहे थे। इससे पहले मैं सोच रहा था कि उनके पास एक ही बैग होगा जिसे वे खुद ही अपने कन्धों पर या तो पीछे या फिर आगे लटकाये होंगे। लेकिन दो बैग देखते ही पता चल गया कि उनका एक बैग मुझे ही पकडना पडेगा। अपना बैग भी कम भारी नहीं था। यहीं पर पता चल गया कि यह बाइक यात्रा पिछले साल वाली बाइक यात्रा से ज्यादा कष्टकारी होने वाली है।
मेरठ से मुजफ्फरनगर तक सडक एकदम शानदार बनी हुई है। पूरे रास्ते भर बाइक 80 की स्पीड से दौडती रही। खतौली में भी बाइपास बन गया है। रामपुर चौराहे पर घण्टे भर बाद पहुंचे तो पहला विश्राम लिया गया। उसके बाद फिर से सडक दो लेन हो जाती है, वो भी बिना डिवाइडर के। अब हरिद्वार तक यानी करीब 80 किलोमीटर तक जान हाथ में लेकर चलाना पडेगा। पता नहीं कब सामने से ओवरटेक करती हुई गाडी आ जाये। खैर, जैसे तैसे हरिद्वार पहुंचे। नौ बज चुके थे।
हरिद्वार से ऋषिकेश 24 किलोमीटर दूर है, सडक भी ठीक-ठाक है लेकिन ऋषिकेश पहुंचने में एक डेढ घण्टा लग ही जाता है। क्योंकि हरिद्वार-ऋषिकेश रोड पर हमेशा हैवी ट्रैफिक रहता है। ऊपर से देहरादून भी अड जाता है। हरिद्वार से 12 किलोमीटर आगे रायवाला है जहां से देहरादून के लिये रास्ता अलग हो जाता है। तो हरिद्वार से रायवाला तक जो ट्रैफिक होता है, उसकी भयंकरता का अंदाजा लगा सकते हो। ऊपर से हरिद्वार- रायवाला के बीच में एक फाटक भी पडता है, जो बहुत जल्दी-जल्दी बन्द होता रहता है।
इसके अलावा ऋषिकेश जाने का एक रास्ता और है, जो लगभग खाली पडा रहता है लेकिन वो सिंगल लेन ही है। उस रास्ते के लिये गंगा पार करनी पडती है। फिर चीला होते हुए नहर के किनारे किनारे वीरभद्र बैराज पर जाकर फिर से गंगा पार करके इधर आ जाते हैं।
हर की पैडी के सामने राष्ट्रीय राजमार्ग- 34 (पहले एनएच- 58) पर थे हम और हमारे सामने ऋषिकेश की दिशा में एक अर्द्धवृत्ताकार पुल था। वहीं से एक पतली सी सडक दाहिने की तरफ चली जाती है। उस पर करीब सौ मीटर चलते ही भीमगोडा बैराज आता है। यहीं से गंगनहर निकलती है, जिसपर हर की पैडी बनी हुई है। बैराज पार करते ही हम गंगा की मुख्य धारा जिसे यहां नीलधारा कहते हैं, को भी पार कर लेते हैं। इसी के साथ हम राजाजी राष्ट्रीय पार्क के जंगल में घुस जाते हैं। करीब तीन किलोमीटर आगे जाने पर चीला नामक स्थान आता है, जहां से राजाजी पार्क में और अन्दर जाने के लिये आधिकारिक गेट है। उस गेट के बाहर कई जीप वाले खडे रहते हैं जो वहां से गुजरने वाले या रुकने वाले हर किसी को घेर लेते हैं कि क्या जंगल में सैर करनी है। वैसे हर राष्ट्रीय पार्क की तरह उनका खर्चा भी बहुत ज्यादा होता है। मैं जब हरिद्वार में रहता था, तो अक्सर इस सडक पर चहलकदमी करने चला आता था।
यहां से निकलकर चीला नहर पार करके करीब पन्द्रह बीस किलोमीटर तक रास्ता नहर के किनारे किनारे ही है। इक्का-दुक्का गाडियां ही दिखती हैं। हमारी बाइक आराम से अस्सी की स्पीड से चल रही थी। आखिर में वीरभद्र बैराज को पार करके हम गंगा के इस तरफ आ जाते हैं और कई किलोमीटर लगभग खाली सडक पर चलते हुए मुख्य राजमार्ग पर जा मिलते हैं। फिर बायें मुडकर ऋषिकेश रेलवे स्टेशन के सामने से होते हुए बाइपास पर पहुंच जाते हैं, जहां से सीधे चम्बा रोड मिल जाती है।
ऋषिकेश से निकलते ही पहाडी रास्ता शुरू हो जाता है। 16 किलोमीटर के बाद नरेन्द्रनगर आता है, जहां हमने हल्का नाश्ता किया। नरेन्द्रनगर से निकलकर चम्बा पहुंचते हैं, जहां लंच किया। ऋषिकेश से चम्बा तक सडक फाइव स्टार रेटिंग की है। चम्बा के बाद सीधे नई टिहरी के लिये रास्ता चला जाता है। एक रास्ता बायें मुडकर धरासू, उत्तरकाशी के लिये जाता है।
टिहरी बांध बनने के बाद पुराना टिहरी शहर तो डूब ही गया है, साथ ही पुरानी गंगोत्री रोड भी डूब गई है, इसलिये चम्बा से चिन्यालीसौड तक छोटी छोटी ग्रामीण सडकों को और अच्छा बनाकर उन्हें नया राजमार्ग बना दिया गया। इस नये राजमार्ग से टिहरी बांध नहीं के बराबर दिखता है। अगर बांध देखना है तो उसके लिये नई टिहरी जाना पडेगा, फिर वापस चम्बा आना पडेगा। पहले जहां चम्बा से धरासू 56 किलोमीटर था, वहीं अब 80 किलोमीटर हो गया है। अगर रास्ते में एक-दो पुल बन जायें तो यह दूरी घटकर फिर से 50 तक आ जायेगी।
अब थोडी टिहरी बांध की बात करते हैं। बेशक यह राष्ट्र का गौरव है। लेकिन फिर भी कुछ लोग इसके विरोध में खडे हैं, कुछ समर्थन में। मैं बांध बनाने के समर्थन में हूं। एक तो आबादी इतनी है कि संसाधन कम पडते जा रहे हैं। हर किसी को चौबीस घण्टे बिजली चाहिये। मैं आजकल रोज देख रहा हूं दिल्ली और आसपास के शहरों में कि कितना हाहाकार मच जाता है जब बिजली चली जाती है। सरकार को कोसते हैं जैसे कि वही बिजली ना देने के लिये जिम्मेदार हो। फिर अगर कहीं बिजली संयन्त्र स्थापित होता है तो और भी ज्यादा विरोध करते हैं- कभी पर्यावरण के नाम पर, कभी संस्कृति के नाम पर। नदियों पर बांध बनाने से जो बिजली बनती है, उसका विरोध; कोयले या डीजल के संयन्त्र लगायें तो उसका विरोध; परमाणु बिजली का भी विरोध। हर किसी को बिजली चाहिये और हर कोई बिजली बनाने का विरोध कर रहा है। है ना अजीब बात!
इसका एक तर्क और दिया जाता कि छोटे संयन्त्र लगाये जायें, या पुराने लगे हुए संयंत्रों को दुरुस्त किया जाये। यानी कहने का मतलब है कि बडी परियोजनाएं ना चलाई जायें। छोटी परियोजनाओं से छोटे कस्बों या गांवों का काम तो चल जायेगा, लेकिन बडे शहरों और महानगरों का क्या होगा? दिल्ली को ही देख लो। पानी ना मिले तो हरियाणा-यूपी जिम्मेदार, बिजली ना मिले तो हरियाणा-यूपी जिम्मेदार, दूध, फल, सब्जी, अनाज की दिक्कत तो भी हरियाणा-यूपी जिम्मेदार। सीधी सी बात है कि दिल्ली यानी बडे शहरों की इन बेसिक जरुरतों के लिये पडोसी ही जिम्मेदार होते हैं। क्योंकि बडों में इन चीजों का उत्पादन खुद करने की औकात नहीं है।
यही हाल बिजली का भी है। दिल्ली जैसे बडों में बिजली पैदा करने की कोई सम्भावना नहीं है। जहां सम्भावना है, जहां परियोजनाएं चल सकती हैं, वहां ये बडे ही जाकर टांग अडाते हैं कि नहीं, इससे गंगा रुक जायेगी, अपवित्र हो जायेगी, पर्यावरण का सवाल है। गंगा की छोडिये, बाकी सभी नदियों का यही हाल है। नर्मदा के सरदार सरोवर का क्या हाल किया इन बडों ने! अगर आप बिजली परियोजनाओं का विरोध कर रहे हैं तो आपको खुद बिना बिजली के रहने की आदत डालनी चाहिये। अगर बिजली हमारी जरुरत है, तो परियोजनाएं भी हमारी जरुरत हैं।
नदी कभी रुक नहीं सकती। सूख सकती है लेकिन रुक नहीं सकती। जब तक गौमुख से भागीरथी में पानी आता रहेगा, चाहे कितने भी बांध बना लो, गंगा कभी नहीं रुकेगी। गंगा क्या, कोई भी नदी। नदी में अपार ऊर्जा होती है। अगर उसे रोकोगे तो वो ऊर्जा संचयित होने लगेगी। और आखिर में एक ऐसा लेवल आयेगा कि उस ऊर्जा का और ज्यादा संचय नहीं किया जा सकता। वो ऊर्जा तबाही मचा देगी। बांधों में ऊर्जा संचय की कोशिश की जाती है। लेकिन तबाही के लेवल से पहले ही उसे मुक्त करना पडता है। और उससे बनती है बिजली। इसमें थोडा बहुत विस्थापन भी हो जाता है। इतना तो करना ही पडेगा।
खैर, धरासू तक अच्छी सडक बनी हुई है। धरासू बैंड से एक रास्ता बडकोट यानी यमुनोत्री चला जाता है। यहां से करीब पांच छह किलोमीटर तक सडक खराब थी, कहीं कहीं ऊपर से पत्थर भी गिर रहे थे। आखिरकार, शाम पांच बजे तक हम उत्तरकाशी में थे।
गौमुख तपोवन यात्रा
1. गंगोत्री यात्रा- दिल्ली से उत्तरकाशी
2. उत्तरकाशी और नेहरू पर्वतारोहण संस्थान
3. उत्तरकाशी से गंगोत्री
4. गौमुख यात्रा- गंगोत्री से भोजबासा
5. भोजबासा से तपोवन की ओर
6. गौमुख से तपोवन- एक खतरनाक सफर
7. तपोवन, शिवलिंग पर्वत और बाबाजी
8. कीर्ति ग्लेशियर
9. तपोवन से गौमुख और वापसी
10. गौमुख तपोवन का नक्शा और जानकारी
चल भैया मानसून की तरह इंतजार करते हुए आखिर तुम्हारी पोस्ट आई तो ............मुझे लग रहा है 'चौधरी साब' सामने नहीं आना चाहते ...कोई फोटू -वोटू नहीं है .
ReplyDeleteउत्तरकाशी दो बार गया हूँ, इस बार आपके वर्णनों के साथ घूमूँगा..
ReplyDeleteभाई टूर रिपोर्ट तो अच्छी है पर नदियों और बड़े बाँध पर लेक्चर कुछ मजा नहीं आया . यार तुम्हारे जैसे नेचर प्रेमी (Nature Lover)नदियों को बाँधने और बड़े बाँध बनाने की वकालत करे तो कुछ मजा नहीं आता . यार कभी भी बरसात छोड़कर गंगा के निचले इलाको में ( मध्य यू पी, पूर्वांचल और बिहार ) जाओ और गंगा की हालत देखो . कई जगह पैदल ही गंगा पार कर सकते हो . मेरा गांव गंगा के किनारे है पिछले पचीस साल से गंगा को बारीके से देख रहा हूं . हर साल पानी कम होता जा रहा है . वजीराबाद के बाद यमुना का हाल किसी से छिपा नहीं है . भाई , तुम्हारी बात सही है कि बिजली जरूरी है , विकास जरूरी है , पर कुछेक बची सांस्क्रतिक बिरासत जैसे गंगा को विकास के नाम पर क्या शहीद कर दे ? सवाल और जबाब दोनों इसी पीढ़ी के है .
ReplyDeleteमृत्युंजय जी,
Deleteआपने कहा है कि गंगा सूखती जा रही है। नदियों के सूखने का बांध बनाने से ज्यादा सम्बन्ध नहीं है। हर बांध की एक क्षमता होती है, उसमें क्षमता से ज्यादा जल संचय नहीं किया जा सकता। जब बांध नया बनता है और उसमें पानी भरा जाता है, तब तो समझ में आता है कि हां, आगे नदी में पानी कम है या नहीं है। लेकिन जब बांध भर जाता है तो जितना पानी पीछे से आयेगा, उतना ही पानी आगे छोडना पडेगा। हिमालय मे चूंकि नहर बनाने की ज्यादा सम्भावना नहीं है, इसलिये सारा पानी नदियों में ही छोडना होता है। मैदानी भागों में नदी का कुछ पानी नहरों में चला जाता है। नहरें भी जरूरी हैं।
बांधों का विरोध केवल दो वजहों से ही किया जाता है- एक तो पर्यावरण और दूसरा संस्कृति। संस्कृति की बात तो ठीक है। जिन नदियों को हम मां कहते हैं, उन्हें रोका जाता है, बांधा जाता है, कुदरती तरीके को छोडकर इंसानी तरीके से बहने को मजबूर किया जाता है। लेकिन एक सत्य यह भी है कि जल विद्युत बाकी अन्य तरीकों से पैदा की गई विद्युत के मुकाबले ज्यादा इको फ्रेण्डली होती है। एक सौर विद्युत भी है लेकिन उससे उतनी बिजली पैदा नहीं की जा सकती जितनी हमें चाहिये।
अब मेरी बात। मैं भले ही नेचर प्रेमी हूं, लेकिन एक महानगरवासी (दिल्लीवासी) होने के नाते मुझे चौबीस घण्टे बिजली चाहिये। एक आम दिल्लीवासी की तरह मुझे भी एसी चाहिये, कूलर चाहिये, फ्रिज चाहिये, गीजर चाहिये, पंखे चाहिये, लाइट चाहिये...... मतलब सबकुछ चाहिये। बिना बिजली के मेरा काम नहीं चल सकता। इस नाते मेरी यह मजबूरी बनती है कि मैं बिजली उत्पादन का समर्थन करूं।
संयोग देखिये आपकी इस बात का उत्तर भाई केवल राम की इस पोस्ट में है !
Deleteआज धरती के वातावरण को जब हम देखते हैं तो एक अजीब सा अहसास होता है . ऐसे लगता है कि हम प्रकृति से कोसों दूर चले गए हैं, हमारे जहन में प्रकृति के लिए कोई प्रेम नहीं रहा, अब हम भौतिक साधनों के इतने गुलाम बन गए हैं कि प्रकृति के करीब रहकर जीवन जीने की कल्पना ही नहीं कर सकते . बस यहीं से घुटन और टूटन शुरू होती है और आज जिस कगार पर हम खड़े हैं वह आने वाले समय में निश्चित रूप से मानवीय अस्तित्व के लिए खतरे की घंटी है . हमारे पूर्वजों ने जीवन जीने की जो पद्धति हमें सिखाई थी हम उसे तो भूल ही गए , अब हम वातानुकूलित वातावरण को तरजीह दे रहे हैं और यह भूल गए हैं कि इस वातानुकूलित वातावरण के लिए भी तो प्रकृति का साथ चाहिए , वर्ना हमारे सारे प्रयास निष्फल सिद्ध होंगे और हो भी रहे हैं . हमनें प्रकृति को भूलकर जब जीवन जीने की सोची तो इसने भी हमें भुलाना शुरू कर दिया और आये दिन प्रकृति के कोपों का भाजन हमें करना पड़ता है . कहीं पर भीषण गर्मी पड़ रही है तो , कहीं पर बाढ़ और तूफ़ान आ रहे हैं , कहीं पर लोग वर्षा के लिए तरस रहे हैं तो कहीं उसके रोकने के प्रयास किये जा रहे हैं . सब कुछ एकदम सोच, समझ और जरुरत के उलट घट रहा है . यह प्रकृति की चेतावनियाँ हमारे लिए हैं लेकिन हम हैं कि सब कुछ नजरअंदाज कर बस आगे बढ़ने की होड़ में लगे हैं और इसी होड़ के परिणाम आज धीरे - धीरे हमारे सामने आ रहे हैं . आने वाला कल कैसे होगा यह सोच जा सकता है , और अगर उस कल को बेहतर बनाना है तो आज से बिना देर किये ही गंभीर और लक्ष्य तक पहुंचाने वाले प्रयास किये जाने आवश्यक हैं .
http://www.chalte-chalte.com/2012/06/blog-post.html
"अब मेरी बात। मैं भले ही नेचर प्रेमी हूं, लेकिन एक महानगरवासी (दिल्लीवासी) होने के नाते मुझे चौबीस घण्टे बिजली चाहिये। एक आम दिल्लीवासी की तरह मुझे भी एसी चाहिये, कूलर चाहिये, फ्रिज चाहिये, गीजर चाहिये, पंखे चाहिये, लाइट चाहिये...... मतलब सबकुछ चाहिये। बिना बिजली के मेरा काम नहीं चल सकता। इस नाते मेरी यह मजबूरी बनती है कि मैं बिजली उत्पादन का समर्थन करूं।"
Deleteफिर तुम 'नेचर प्रेमी' नहीं हो, 'बिजली प्रेमी' हो 'नेचर' तुम्हे अच्छा लगता है बस !!
विधान भाई,
Deleteकेवल ने बाकी सभी की तरह केवल समस्या पर ध्यान केन्द्रित किया है। पूरी दुनिया समस्या पर गाल बजाई कर रही है। कोई यह नहीं बताता कि इसका समाधान क्या है। कोई यह क्यों नहीं बताता कि समाधान क्या है?
एक उदाहरण से मैं अपनी बात स्पष्ट करूंगा। हमें बिजली चाहिये। बिजली के लिये बडी बडी परियोजनाएं चाहियें, उससे हर हाल में पर्यावरण प्रदूषण होगा, पर्यावरण बिगडेगा। अगर हम पर्यावरण को बचाने के नाम पर गाल बजाई कर सकते हैं, तो यह क्यों नहीं कहते कि बिना बिजली के रहना चाहिये। हमें अगर पर्यावरण की चिन्ता है, तो क्यों एक घण्टा भी पावर कट जाने पर चिल्लाते हैं? क्यों अपने घरों में दुनिया भर की बिजली चालित मशीनें इकट्ठी कर रखी हैं?
इतनी गर्मी हो रही है। मेरा इन पर्यावरण के शुभचिन्तकों से इतना ही कहना है कि जिस बात की उम्मीद आप दूसरों से लगा रहे हो, वो काम पहले खुद करके देखिये। कुछ दिन बिना बिजली के रहकर देखिये। दूसरों को शिक्षा देने से पहले उस शिक्षा को पहले खुद पर आजमाकर देखिये, उसके बाद उसे दूसरों को परोसिये।
नमस्कार चौधरी साहब , आपके बिजली उत्पादन के विचारों से सहमत हूँ . कब तक हरयाणा उत्तर प्रदेश को दोष देते रहेंगे . वैसे भी शीला जी का फ़ोन हुदा जी उठाते नहीं , बेचारी परेशान हैं .
ReplyDeleteये मरोड़ पेट के लिए परमानेंट इलाज ढूंढे , हमे तो यात्रा के लेख चाहिए . चौधरी साहब ये आधे कपरों में किस तरह बेंठे हैं साब
नमस्कार चौधरी साहब , आपके बिजली उत्पादन के विचारों से सहमत हूँ . कब तक हरयाणा उत्तर प्रदेश को दोष देते रहेंगे . वैसे भी शीला जी का फ़ोन हुदा जी उठाते नहीं , बेचारी परेशान हैं .
ReplyDeleteये मरोड़ पेट के लिए परमानेंट इलाज ढूंढे , हमे तो यात्रा के लेख चाहिए . चौधरी साहब ये आधे कपरों में किस तरह बेंठे हैं साब
बहुत अच्छी प्रस्तुति!
ReplyDeleteइस प्रविष्टी की चर्चा कल रविवार (17-06-2012) के चर्चा मंच पर भी होगी!
सूचनार्थ!
दिल्ली से हरिद्वार से ऋषिकेश कम से कम 17 बार जा चुका हूं, लेकिन रास्तों के बारे में इतनी जानकारी आज ही पता लगी है, आपके द्वारा :)
ReplyDeleteपरियोजनाओं के बारे में भी सही मुद्दा छेडा
इस यात्रा विवरण के पढना भी मजेदार रहेगा
प्रणाम
आखिर राम राम करते हुए आपकी पोस्ट आ ही गयी,अब तो आपकी पोस्ट की आदत ऐसी हो गयी हैं, जैसे की वेड प्रकाश शर्मा के उपन्यास. ये चीला वाला मार्ग आपने अच्छा बताया हैं. सुन्दर और सुरम्य मार्ग हैं. कृपया ये भी बता देते की आपकी बाइक कौन सी हैं. ये बात तो बिलकुल ठीक कही आपने जब कही जाना होता हैं तो पेट में घुरड घुरड होने लगती हैं. और जब चल देते हैं तो वो खत्म हो जाती हैं. आपके चीला में फोटो अच्छे हैं. अगलो पोस्ट की प्रतीक्षा रहेगी. धन्यवाद
ReplyDeleteनयी यात्रा में आनंद आ रहा है और ज्ञान भी बढ़ रहा है...आप महान हैं
ReplyDeleteनीरज
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बेहतरीन यात्रा वृतांत
दंतैल हाथी से मुड़भेड़
सरगुजा के वनों की रोमांचक कथा
♥ आपके ब्लॉग़ की चर्चा ब्लॉग4वार्ता पर ! ♥
♥ पढिए पेसल फ़ुरसती वार्ता,"ये तो बड़ा टोईंग है !!" ♥
♥सप्ताहांत की शुभकामनाएं♥
ब्लॉ.ललित शर्मा
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नीरज भाई नमस्कार...... आख़िरकार एक बेहतरीन यात्रा कि शुरुवात कर ही डाली.... अभी जो नदियों पर बांध बनाने कि चर्चा चल रही है इसमे मेरा मानना है कि इन बांधों का विरोध वे लोग कर रहे हैं जो सस्ती लोकप्रियता पाना चाहते हैं उनके विरोध से कुछ होने वाला नहीं है, यदि कुछ हो सकता है तो इन विरोधो से देश का विकास जरुर अवरुद्ध हो सकता है. और जो लोग विरोध कर रहे हैं ये वहीँ नस्ल के लोग है जो कि प्राचीन कल में समुद्र को लांघकर उस पर जाने का विरोध कर रहे थे और कह रहे थे कि इससे सर्वनाश हो जायेगा इसी कारण हम इतने दिनों तक गुलाम रहे. मैं तो यहाँ तक कहूँगा कि इस विरोध में कुछ बूढ़े अपने बुढौती कि खुजली मिटा रहे है और उन्हें देश दुनिया से कोई मतलब नहीं है.
ReplyDeleteतो चौधरी साहब ने 2 बैग के अलावा कोई और काण्ड नहीं किया
ReplyDeleteअरे भाई कहा था कि बाइक चलानी सीख ले नहीं तो ............ आ गया ना मजा
ReplyDeleteअब भी कहता हूँ कि सीख ले अभी बहुत जगह बाकी है जहाँ बाइक पर ही ज्यादा सही रहता है फोटो संख्या तीन हटा कर और भी फोटो लगाए जा सकते थे क्या हुआ सिर्फ इतने फोटो???????????
सही कहा संदीप ..फोटू न हो तो मज़ा आधा हो जाता है ...
Deleteneeraj babu,shubhaarambh to aapne kar diya,aage aage dekhte hai hota hai kya.
ReplyDeleteनीरज भाई....काफी दिनों बाद आपकी पोस्ट पढ़कर प्रसन्नता हुई....|
ReplyDeleteआपकी बाइक से दूसरी यात्रा हैं..परेशानी तो हुई होगी पीछे बैठकर....जल्दी सीख लो भाई बाइक चलाना.....बहुत काम आएगा |
आपकी घूमना भी लाजबाब हैं......बिना योजना के पुरानी योजना केन्सल करके नई जगह की सैर....|
प्रकृति प्रेमी तो में भी हूँ पर हमें बिजली तो चाहिए, बिना बिजली के कल्पना भी नहीं कर सकते .... विकास और मानवता की भलाई के बांध जरुरी हैं....|
चलो आगे के लेख में क्या होता हैं......
फोटू लगाना कोई हमसे सीखे ..हा हा हा हा ..यात्रा शुरू होने से पहले ही इतना आराम .?....मरोड़े अब भी उठ रहे है क्या नीरज ....
ReplyDeletemr.Neeraj ji.....
ReplyDeleteDekh liya na piche baithkar yatra karne ka anjaam photo no.3 or 4 dekhkar hi haalat ka pata chal raha hai..
इतने कम फोटो.... कंजुस जाट....
ReplyDeleteजाट भाई बहुत इंतज़ार कराया. खैर देर आये दुरुस्त आये. मज़ा आ गया. २००९ में मैं भी गंगोत्री गौमुख तक यात्रा कर चूका हूँ. यादें ताज़ा हो गयी. पर अब पोस्ट फटाफट करते रहना. फोटो की कमी खली. लगता है चौधरी साहब का सामान उठाने में फोटो खींचना भूल गए. मैं भी आपके बाँध के सम्बन्ध में विचारों से सहमत हूँ. उत्तर प्रदेश में रहता हूँ न. बिजली संकट हमारी रोज़ की कहानी है.
ReplyDeleteपेट संकट का भी इलाज है. आप शास्त्री पार्क में रहते हो तो मेट्रो पकड़ कर सीलमपुर चले जाना. वहां जाकर हफ्ते भर तक रोज़ आलू की टिक्की और गोलगप्पे खाना. एक दो हफ्ते तक पेट काफी ख़राब रहेगा फिर आदत हो जायेगी. उसके बाद ऐसी इम्यूनिटी हो जायेगी किसी माई के लाल बक्टेरिया में दम नहीं की आपका पेट ख़राब कर सके.
ReplyDeletesahi he es baar paryavaran par bhi kuch kaha aapne ,yatra ke varnan yuhi sunate raho
ReplyDeleteNeeraj buddy, keeping the debate on saving the environment aside,please publish the rest of the travelogue and itinerary soon.
ReplyDelete"...जब भी मैं कहीं जाने की योजना बनाता हूं तो पेट में मरोडे उठने लगते हैं। जी खुश हो जाता है कि इतने दिन और बचे हैं, मैं फलां तारीख को इतने बजे वहां पर रहूंगा। और उन मरोडों की वजह से पेट खराब हो जाता है, दस्त भी लग जाते हैं। उसी खराबी की वजह से मेरी कई यात्राएं कैंसिल हुई हैं। ..."
ReplyDeleteबहुत पहले मेरे साथ भी ऐसा ही कुछ होता था. तो पता चला कि यह इमोशनल डायरिया की एक किस्म है!
अभी भी घर से बाहर निकलते समय वॉशरूम का प्रयोग अकसर करना ही पड़ता है!
अतः घवराएं नहीं, और कोई माइल्ड एंडी डायरियल साथ लेकर निकल पड़ें. शायद दवाई की जरूरत ही न पड़े.