18 फरवरी 2016
आज इस यात्रा का हमारा आख़िरी दिन था और रात होने तक हमें कम से कम हरिद्वार या ऋषिकेश पहुँच जाना था। आज के लिये हमारे सामने दो विकल्प थे - सेम मुखेम और नचिकेता ताल।
यदि हम सेम मुखेम जाते हैं तो उसी रास्ते वापस लौटना पड़ेगा, लेकिन यदि नचिकेता ताल जाते हैं तो इस रास्ते से वापस नहीं लौटना है। मुझे ‘सरकुलर’ यात्राएँ पसंद हैं अर्थात जाना किसी और रास्ते से और वापस लौटना किसी और रास्ते से। दूसरी बात, सेम मुखेम एक चोटी पर स्थित एक मंदिर है, जबकि नचिकेता ताल एक झील है। मुझे झीलें देखना ज्यादा पसंद है। सबकुछ नचिकेता ताल के पक्ष में था, इसलिये सेम मुखेम जाना स्थगित करके नचिकेता ताल की ओर चल दिये।
लंबगांव से उत्तरकाशी मार्ग पर चलना होता है। थोड़ा आगे चलकर इसी से बाएँ मुड़कर सेम मुखेम के लिये रास्ता चला जाता है। हम सीधे चलते रहे। जिस स्थान से रास्ता अलग होता है, वहाँ से सेम मुखेम 24 किलोमीटर दूर है।
उत्तराखंड के रास्तों की तो जितनी तारीफ़ की जाए, कम है। ज्यादातर तो बहुत अच्छे बने हैं और ट्रैफिक है नहीं। जहाँ आप 2000 मीटर के आसपास पहुँचे, चीड़ का जंगल आरंभ हो जाता है। चीड़ के जंगल में बाइक चलाने का आनंद स्वर्गीय होता है।
इसी स्वर्गीय आनंद का अनुभव करते हुए हम लंबगांव से डेढ़ घंटे में चौरंगीखाल पहुँच गये। ‘खाल’ का अर्थ होता है धार। कुछ धार ‘दर्रे’ जैसा काम भी करती हैं। चौरंगीखाल ऐसी ही एक ‘खाल’ है। ऐसी जगहें बेहद शानदार और खूबसूरत होती हैं। 2300 मीटर की ऊँचाई पर स्थित चौरंगीखाल में कुछ दुकानें हैं, चौरंगीनाथ का एक मंदिर है और ... और जंगल है। सड़क मार्ग से गंगोत्री से केदारनाथ जाने वाले यात्री कुछ देर यहाँ अवश्य रुकते हैं। यदि नहीं रुकते, तो वे बहुत कुछ गँवा देते हैं। रुकना चाहिये। यहीं से नचिकेता ताल के लिये पैदल रास्ता जाता है।
चाय के साथ आलू के पराँठे खाकर और सब सामान यहीं छोड़कर हम नचिकेता ताल की ओर चल दिए। यहाँ से ताल की दूरी करीब तीन किलोमीटर है और ज्यादा चढ़ाई भी नहीं है। ताल लगभग 2450 मीटर की ऊँचाई पर स्थित है। सड़क के पास ही एक प्रवेश द्वार बना है। वन विभाग की दस-दस रुपये की पर्ची कटती है। कर्मचारी की नीयत इसकी रसीद देने की नहीं होती, लेकिन आपको इसकी रसीद अवश्य लेनी चाहिये।
बहुत अच्छा पैदल रास्ता बना है। थोडा ही आगे चलने पर बरफ़ मिलने लगी। नरेंद्र और पूनम के लिये यह एकदम नई चीज थी। फिर तो हर मोड़ पर बरफ़ बढ़ने लगी। लेकिन चलता-फिरता रास्ता है, बरफ़ की वजह से कोई दिक्कत नहीं आई। पहाड़ के उत्तरी ढाल और घना जंगल होने के कारण यहाँ बरफ़ थी। ऊपर नचिकेता ताल पर बिलकुल भी बरफ़ नहीं थी।
झील कोई ज्यादा बड़ी तो नहीं है। लेकिन चारों ओर का घना जंगल इसे विशिष्ट बना देता है। छोटा-सा मंदिर बना है और बाबाजी की एक कुटिया है। बाबाजी ने भभूत मल रखी थी और अपने कुत्ते के साथ मजे से झील के किनारे बैठे थे। खूब बातें हुईं बाबाजी से। यहाँ अपनी कुटिया में हमें रुकने को भी कहा, लेकिन आज हम नहीं रुक सकते थे। चाय को भी कहा, जिसे हमने शालीनतापूर्वक मना कर दिया। बाबाजी से बात करते हुए ही पता चल गया कि पहुँचे हुए बाबा हैं। ‘पहुँचे हुए’ का यह अर्थ नहीं है कि वे जादू दिखाते होंगे और आदमी को कुत्ता और कुत्ते को आदमी बनाते होंगे। मेरे लिये ‘पहुँचे हुए’ का अर्थ है कि जिस काम के लिये बाबा बने, दुनिया छोड़ी; उस काम की कितनी जानकारी है। आप कभी नचिकेता ताल जाओ, तो थोड़ी देर उनसे बातचीत करना। मेरी किसी भी बाबा में श्रद्धा नहीं है, लेकिन ऐसे बाबा अच्छे लगते हैं। उन्हें नचिकेता ताल की, हिमालय की चिंता थी। कई सालों से यहीं पर हैं और फूस व तिरपाल की झोंपड़ी में रहते हैं। भालू और तेंदुए झील पर खूब आते हैं, लेकिन जिसे रहना जंगल में ही है, उसे इनसे कैसा डर?
बारह बजे यहाँ से वापस चल दिये और घंटे-भर में चौरंगीखाल आ गये। सामान उठाया और वापसी के लिये बाइक स्टार्ट कर दी। दसेक किलोमीटर चलने पर नींद आने लगी। चीड़ के जंगल में कौन नहीं सोना चाहेगा? मैं और नरेंद्र अपने-अपने हेलमेट में मुँह घुसाकर सड़क से थोड़ा हटकर लेट गये - कम से कम आधे घंटे के लिये। निशा ने कैमरा संभाल लिया और वह इधर-उधर के फोटो लेने लगी। निशा भी मेरी ही तरह एकांतवासिनी है और जंगल के एकांत का भरपूर आनंद लेती है। उसके हाथ में कैमरा हो, तो वह चुपचाप घंटों फोटो खींचती रहेगी - आसपास के पहाड़ों के, सड़क के, बाइक के, सोते हुए नीरज के, अपने नाखूनों के, चिड़ियों के, घास की पत्तियों के, छोटे-छोटे फूलों के, चींटियों के, पेड़ों की जड़ में लगी फंगस के, ...।
और पूनम? उसके बारे में इतना ही कहना चाहूँगा कि सोते समय नरेंद्र ने उससे एक ही बात कही - आधे घंटे तक मुझे बिलकुल भी डिस्टर्ब मत करना। अगर डिस्टर्ब किया तो नीचे फेंक दूँगा।
उत्तरकाशी से थोड़ा-सा पहले ही एक रास्ता अलग हो जाता है, जो धरासू बैंड़ के पास मेन रोड़ में जा मिलता है। इससे हम उत्तरकाशी जाने से भी बच जाते हैं और कुछ दूरी भी कम हो जाती है। एक बार मेन रोड़ पर आने के बाद तो आराम से 50 की स्पीड़ मिल जाती है। फिर भी चार बजे हम धरासू में ‘लंच’ कर रहे थे।
अगर हमारे हाथ में एक दिन और होता, तो हम इस समय धरासू से कभी नहीं चलते, लेकिन चूँकि आज ही हमें हरिद्वार या ऋषिकेश पहुँच जाना था, ताकि कल दोपहर तक दिल्ली पहुँचकर अपनी ड्यूटी जॉइन कर सकूँ; इसलिये साढ़े चार बजे निकल जाना पड़ा। दिन के उजाले में ही अधिक से अधिक दूरी तय कर लेना चाहते थे, कम से कम चंबा तक तो पहुँच ही जाना चाहते थे। इसलिये थोड़ा तेज भी चले। फिर भी चंबा पहुँचते-पहुँचते पर्याप्त अंधेरा हो गया था। सात बज गये थे। यहाँ से ऋषिकेश 60 किलोमीटर दूर है, दो घंटे और लगेंगे।
जब नरेंद्रनगर के बाद ऋषिकेश दीखने लगा, तो एक जगह हमने बाइक रोक दी। भयंकर सन्नाटा था और सामने ऋषिकेश और हरिद्वार तक की रोशनियाँ अच्छी लग रही थीं। ऋषिकेश में ही एक जगह इतना ट्रैफिक था और उसकी रोशनियों की लंबी लाइन से हमें लगा कि वहाँ ट्रेन आ रही है। लेकिन यह तो किसी भी ट्रेन का समय नहीं था ऋषिकेश आने का। बड़ी देर बाद यकीन हुआ कि वह ट्रेन नहीं है, बल्कि सड़क है।
पुलिस की एक गाड़ी आकर रुकी। अब पुलिस वाला है, तो शिष्टाचार से तो बात करेगा नहीं। अपने उसी ‘शिष्टाचार’ से उन्होंने मामूली-सी पूछताछ की और तुरंत यहाँ से चले जाने को कहा - ‘तुम्हें पता है कि यहाँ जंगल में शेर भी होते हैं?’ मैंने कहा - ‘नहीं, यहाँ तो एक भी शेर नहीं है, बल्कि तेंदुए जरूर हैं।’ बोला- ‘अबे शेर-चीते सब हैं। यहाँ से जाओ और जंगल में कहीं मत रुकना। नहीं तो हमें जवाब देना पड़ जायेगा।’ मुझे इन बेचारों पर हँसी भी आई और दया भी। जो ले-देकर दसवीं पास करते हैं और कहीं भी नौकरी की संभावना नहीं दीखती, वे पुलिस में जाते हैं। ऐसे में इनसे शालीनता, सभ्यता और शिष्टाचार की बात करना बेकार है।
मुझे पता था कि प्रेम फ़कीरा आजकल ऋषिकेश में ही हैं। उनसे संपर्क किया तो बोले कि आ जाओ, रुकने का अच्छा इंतजाम हो जायेगा। रात दस बजे वे रामझूला के पास अपनी ‘मॉडीफाइड़’ कार में मिले। इसे ही उन्होंने अपना घर बना रखा है और इसमें दो लोगों के सोने का भी इंतजाम है। इसी में रसोई है।
प्रेम फ़कीरा हमें ले गये लक्षमणझूला से भी सात-आठ किलोमीटर आगे ओशोधाम में। इसके मालिक फ़कीरा के जानकार थे। मैंने धीरे से फ़कीरा के कान में कहा - यहाँ तो बहुत पैसे लगेंगे। बोले - सुबह जो मन करे, दे देना। हमें दो कमरे मिल गये।
रात साढ़े ग्यारह बजे मैं और फ़कीरा जब ओशोधाम की सीढ़ियों पर गंगा किनारे बैठे तो यह बड़ा आध्यात्मिक अनुभव था। उस समय मुझे एक ही चीज विचलित कर रही थी कि ओशोधाम में पता नहीं हमें कितने पैसे देने होंगे। भारत में बहुत सारे ओशोधाम हैं और सभी के सभी पैसे वाले लोगों के लिये हैं। मैं जितना ओशो का प्रशंसक हूँ, उतना ही इन ‘ओशोधामों’ का आलोचक। मेरे छोटे से पुस्तकालय में ओशो की कम से कम पचास किताबें रखी हैं।
तो हम गंगा किनारे बैठे रहे। निशा, नरेंद्र और पूनम को आध्यात्मिकता से कोई लेना-देना नहीं है। वे कमरों में ही रहे। यहाँ मैं और फ़कीरा ही थे। फ़कीरा ने बताया कि ऋषिकेश में कहीं ठिकाना नहीं मिलता था, तो वे यहाँ अक्सर इन सीढ़ियों पर सो जाया करते थे। इसी तरह ओशोधाम के मालिक से जान-पहचान हो गई। फिर तो ओशोधाम उनके लिये ‘फ्री’ हो गया। आज उनके पास अपना ‘घर’ था, इसलिये अब वे उसी कार में सोया करते हैं।
सुबह उठे तो फ़कीरा भी वहीं टहल रहे थे। वही अपनी चिर-परिचित मुस्कान बिखेरते हुए मिले। ओशोधाम के मालिक से भी मिलना हुआ। वे मुजफ़्फ़रनगर के रहने वाले थे। हालाँकि फ़कीरा ने इनकी खूब तारीफ़ की थी, लेकिन यहाँ पूरी तरह व्यापार का ही माहौल था। रेट लिस्ट देखी तो होश उड़ गये। एक व्यक्ति का वातानुकूलित कमरे का चौबीस घंटे का किराया 1000 रुपये से ऊपर था। डोरमेट्री ही 700 रुपये की थी। यानी हम चारों के 4000 रुपये से ऊपर लगने थे। मैंने फ़कीरा से मना कर दिया कि हम इतने पैसे नहीं देंगे। आपके लिये तो यह फ्री है, लेकिन हमारे लिये नहीं। बोले - जितने मन कर दे देना, इसके मालिक बहुत अच्छे हैं। मैंने जी पर पत्थर रखकर कहा - हम 1000 रुपये देंगे। बोले - ठीक है, 1000 ही दे देना। फ़कीरा ने मालिक से मौका देखकर बता दिया कि हम ज्यादा पैसे नहीं देंगे। अगर वे नहीं बताते तो मैनेजर हमसे 4000 से ऊपर ही लेता।
हमारे ये ओशोधाम किसी काम के नहीं। बल्कि सड़क किनारे के ढाबे, चीड़ के सुनसान जंगल, हिमालयी झीलें ही ओशोधाम हैं। जो अनुभव मुझे ऐसी जगहों पर होता है, वह किसी ओशोधाम में नहीं हो सकता। हालाँकि यहाँ सुबह का नाश्ता बहुत अच्छा था।
उधर फ़कीरा ‘स्प्राउट’ बेचने की तैयारियाँ कर रहे थे। स्प्राउट यानी अंकुरित दालें। इसके लिये उन्होंने अपनी कार में कुछ डिब्बों में कई तरह की दालें कई दिनों से भिगो रखी थीं। अब इनमें बड़े-बड़े अंकुर निकल आये थे। वे मनमौजी इंसान हैं। पिछले साल भी कुछ दिन उन्होंने यहाँ स्प्राउट बेचे थे। आज ऐसा करने का उनका पहला दिन था। हमने प्याज काटी, मूली काटी, अनार छीला, टमाटर काटे और स्प्राउट की पहली ही प्लेट हमें मिली - एकदम फ्री। वैसे फ़कीरा इसके लिये पचास रुपये तक लेते हैं और ऋषिकेश में इस रेट में भी उनके स्प्राउट आसानी से बिक जाते हैं।
जैसी जिंदगी की हम सब कल्पना करते हैं, उससे भी बेहतरीन जिंदगी फ़कीरा जी रहे हैं। वह बंधा हुआ इंसान नहीं है। और खुशियाँ बिखेरने में तो वह माहिर है ही। आप कितने भी उदास हों, उनसे मिलकर सब उदासी अपने-आप ख़त्म हो जायेगी।
जल्दी करते-करते भी हमें निकलने में नौ बज गये। ऋषिकेश बाईपास से निकले और फिर हरिद्वार तक बेहतरीन सड़क है। राजाजी नेशनल पार्क के अंदर से एक फ्लाईओवर बन रहा है, ताकि जानवर उसके नीचे से स्वच्छंद आवागमन कर सकें।
चार बजे दिल्ली पहुँचे और दो घंटे देरी से ऑफिस में हाज़िरी लगा दी।
आलू का पराँठा और चाय - दुनिया का सबसे खूबसूरत और स्वादिष्ट भोजन |
नचिकेता ताल की ओर |
धरासू बैंड़ में भोजन |
यह असल में रतनौगाड़ है, जिसे लिखने वाले ने शैतानी-वश या अज्ञानता-वश बहुत गलत लिख दिया है। |
प्रेम फ़कीरा की कार |
अंकुरित दालें |
‘फ़कीरा स्प्राउट’ के लिये तैयारी करते हुए, पीछे गंगाजी हैं। |
और यह थी फ़कीरा स्प्राउट के इस सीजन की पहली खेप |
सुबह नाश्ता ओशोधाम में बहुत अच्छा और स्वादिष्ट था। |
1. गढवाल में बाइक यात्रा
2. चंद्रबदनी मंदिर और लंबगांव की ओर
3. नचिकेता ताल
1dam aadhyatmik post . Read karte samay kahi kho gye aapke sath . Aapne starting me likha tha ki man nahi lagta likhne me par ae post ko aapke lekh ki bahetarin post manta hu . Khushi ki talash me log bhatakte he par aap har jagah khushi pa lete ho . Yahi jindagi he . Khush raho aap dono . Aashirvad maa ka aap par bana rahe prathna sah . Umesh joshi
ReplyDeleteधन्यवाद उमेश भाई...
Deleteप्रेम का फकीर , बहुत बढ़िया जाट।
ReplyDeleteधन्यवाद गोयल साहब...
Deleteपहुचे हुएं बाबा से क्या बात चित हुआ ये नही बताए । मुझे किसी दूर अनजान जगह के स्थानिय से बात चित करना या किसी से सुनना बहुत ही पसंद है ।
ReplyDeleteमुझे बातचीत शब्दशः तो याद नहीं। लेकिन जो भी बात हुई, उससे मुझे बडा अच्छा लगा। सही बताऊँ तो मुझे अब याद भी नहीं है।
DeleteHamesha ki tarah bahut sunder.
ReplyDeleteधन्यवाद विकास जी...
DeleteNice Neeraj Bhai..........Dil khush ho gaya apka lekh padhkar......
ReplyDeleteBahut Bahut Dhanyawad................
Amit
धन्यवाद अमित जी...
DeleteKya khoob varnan aur chitran kiya hai Neeraj jee....
ReplyDeleteSprauts ka swad kaisa tha.....
बेशक स्प्राउट शानदार थे...
Deleteधन्यवाद आपका...
अति सुंदर पोस्ट नीरज भाई | कई बार आपके यात्रा वृतांत पड़ कर लगता है की अभी तो अपना उत्तराखण्ड ही नहीं देखा कुछ भी | देड़ साल से मुंबई मे हूँ तो अब तो कुछ ज्यादा ही लगता है |
ReplyDeleteकुछ तस्वीरों पर दीप्ति सिंह का टैग कैसे?
निशा ही दीप्ति सिंह है... वे फोटो उसने खींचे हैं, तो उसका नाम दे दिया...
Deleteधन्यवाद आपका...
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कलमंगलवार (09-08-2016) को "फलवाला वृक्ष ही झुकता है" (चर्चा अंक-2429) पर भी होगी।
ReplyDelete--
मित्रतादिवस और नाग पञ्चमी की
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत ही सुन्दर वर्णन किया है आपने, फोटोग्राफी भी शानदार है
ReplyDeleteधन्यवाद मन्ना जी...
DeleteShaandar, zabardast, Zindabad, Ghumakari Zindabad. Bahut badiya pics. Dhanyawad Neeraj ji. Rohit from Chandigarh :)
ReplyDeleteआपका भी बहुत-बहुत धन्यवाद रोहित जी...
Deleteप्रेम फ़कीरा ने खूब सैर कराई ....
ReplyDeleteमनोरम तस्वीरों के साथ सुन्दर प्रस्तुति ...
धन्यवाद कविता जी...
DeletePrembhai se milna padega hi
ReplyDeleteआपकी ब्लॉग पोस्ट को आज की ब्लॉग बुलेटिन प्रस्तुति जन्मदिवस : भीष्म साहनी और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। सादर ... अभिनन्दन।।
ReplyDeleteनीरज जी, इस बार भी हमेशा की ही तरह बहुत सुन्दर वर्णन किया है आपने, बहुत बहुत धन्यवाद , प्रेम फकीर जी आजकल फेसबुक से गायब है , क्या आप उनका मोबाइल नंबर दे सकते हैं ,ऋषिकेश जाना हुआ तो उनसे जरुर मिलुगा
ReplyDeleteहाँ जी, वे पिछले कुछ दिनों से फेसबुक से गायब थे। अब लौट आये हैं। आप उनसे फेसबुक पर संपर्क कर सकते हैं।
Deletesahi kaha aapne,aaj hi dekha unko
DeleteAISA KAHA JATA HAI KI JODHPUR SIDE KAI CHAAY (TEA) WALE CHAAY ME THODI SI AFIM MILA DETE HAIN JIS SE UNKA GRAHAK UNKI CHAAY KA AADI HO JAYE AUR USE WAHAN AAKAR CHAAY PINI HI PADATI HAI
ReplyDeleteSAME TO SAME AAPKI POST ME BHI HAI DOOSARI CHAHE KITNI BHI PADH LO LEKIN HAMARE NEERAJ BHAI KI POST PADHANE ME JO MAJA HAI WO KISI ME BHI NAHI HAI
JAI HO
बहुत बढ़िया नीरज भाई,
ReplyDeleteनचिकेता ताल के बारे में बाबा जी ने कुछ नहीं बताया क्या ?
इस ताल की कुछ इतिहास,कहानी भी है ?
Nice tips - to get shared the Nachiketa tal Uttarakhand.
ReplyDeleteEk aur fakira ki pic hai aapke blog mein.. Duniya se Anjaan.. Bahut aacchi pic hai
ReplyDeleteमहोदय आप हमें दिल्ली से सेंम मुखेन नागराज मंदिर बस द्वारा कैसे पहुचे , जय भोले की
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