12 जून 2018
मैं जब भी धराली के पास सातताल के बारे में कहीं पढ़ता था, तो गूगल मैप पर जरूर देखता था, लेकिन कभी मिला नहीं। धराली के ऊपर के पहाड़ों में, अगल के पहाड़ों में, बगल के पहाड़ों में, सामने के पहाड़ों में जूम कर-करके देखा करता, लेकिन कभी नहीं दिखा। इस तरह यकीन हो गया कि धराली के पास सातताल है ही नहीं। यूँ ही किसी वेबसाइट ने झूठमूठ का लिख दिया और बाकी वेबसाइटों ने उसे ही कॉपी-पेस्ट कर लिया।
फिर एक दिन नफेराम यादव से मुलाकात हुई। उन्होंने कहा - “हाँ, उधर सातताल झीलें हैं।”
“झीलें? मतलब कई झीलें हैं?”
“हाँ।”
“लगता है आपने भी वे ही वेबसाइटें पढ़ी हैं, जो मैंने पढ़ी हैं। भाई, उधर कोई सातताल-वातताल नहीं है। अगर होती, तो सैटेलाइट से तो दिख ही जाती। फिर आप कह रहे हो कि कई झीलें हैं, तो एकाध तो दिखनी ही चाहिए थी।”
“आओ चलो, तुम्हें दिखा ही दूँ।”
उन्होंने गूगल अर्थ खोला। धराली और...
“ये लो। यह रही एक झील।”
“हाँ भाई, कसम से, यह तो झील ही है।”
“अब ये लो, दूसरी झील।”
इस तरह मुझे पक्का भरोसा हो गया कि धराली के पास सातताल है। दूरी और चढ़ाई भी कोई ज्यादा नहीं। हद से हद एक तरफ 4 किलोमीटर।
हमें असल में ब्रह्मीताल ट्रैक करना था। अच्छी सेहत वालों के लिए यह एक दिन का काम है, लेकिन हम जैसों के लिए दो दिन चाहिए। फिर सुमित ने कहा - “मैं नी जा पाऊँगा ब्रह्मीताल।”
“नहीं जा पाएगा तो मत जाना। लेकिन चलने से पहले ही निगेटिविटी क्यों फैला रहा है?”
“मैं जा ही नहीं पाऊँगा।”
“अबे तुझे पता है कितनी दूर चलना है, कितनी हाइट है? ज्यादा नहीं है, हो जाएगा।”
“मैं जा ही नहीं सकता।”
“भाई, टैंट ले जाएंगे। कैंपिंग करेंगे। पकौड़ियाँ खाएंगे। बोनफायर करेंगे। झील में बोटिंग करेंगे।”
“मैं नी।”
और इस तरह आपके सामने लगभग 4000 मीटर की ऊँचाई पर स्थित अनजान ब्रह्मीताल झील का वर्णन और फोटो आने से रह गए। इसके लिए पूरी तरह सुमित जिम्मेवार है। आप सुमित को इसके लिए भरपूर गालियाँ दे सकते हैं। मैं नहीं टोकूंगा।
और आज...
“सातताल तो चलेगा ना?”
“कितना दूर है?”
“वो रहा बस।”
“वो कहाँ?”
“वो... वो... वो जो कौवा उड़ रहा है, वहीं है बस।”
“अच्छा?”
फिर उसने होटल वाले को बुलाया - “सातताल कितना दूर है?”
“भैजी... मैं कभी नहीं गया, लेकिन दूर है।”
मैं चिल्लाया - “ओये, तेरी ऐसी की तैसी। चाय में नमक क्यों डाला बे तूने?”
खैर, सुमित चलने को राजी हो गया - “एक शर्त पर।”
“मंजूर है।”
“मीठी लस्सी लेकर चलेंगे।”
धराली समुद्र तल से लगभग 2500 मीटर की ऊँचाई पर स्थित है। यहीं से एक चौड़ी पक्की पगडंडी ऊपर जाती है, इसी पर चलते जाना है। पहले यह पगडंडी गाँव से होकर गुजरती है, फिर जंगल में घुस जाती है। देवदार का घना जंगल है और उत्तर-पूर्व की ओर देखने पर भागीरथी के उस तरफ छितकुल तक के बर्फीले पहाड़ दिखते हैं।
पहली झील 2850 मीटर पर है। बेहद छोटी-सी झील। बिल्कुल भी आकर्षक नहीं। अगर आप बड़ी झील देखने के शौकीन हैं, तब तो आपको यहाँ बिल्कुल भी नहीं आना चाहिए। लेकिन हम ऐसी झीलों के भी शौकीन हैं। उस तरफ बर्फीले पहाड़ और राजमे के खेत। देवदार का जंगल पार करके इस झील के आसपास कुछ खेत हैं और एक निर्माणाधीन घर भी।
“भाई जी, पहले यहाँ सात झीलें थीं। एक तो यह रही, दूसरी इससे थोड़ा ऊपर है, लेकिन वह पूरी तरह सूख चुकी है। तीसरी उससे भी थोड़ा ऊपर है और चौथी भी थोड़ा ही आगे है। पाँचवीं और छठीं झीलें आगे घने जंगलों में हैं। सातवीं झील को गुप्तताल कहते हैं। वह केवल नसीब वालों को ही मिलती है। पहले इन झीलों में बहुत पानी होता था, लेकिन अब बारिश भी गड़बड़ होती है और बर्फ भी कम पड़ती है, इसलिए सब सूखने लगी हैं। एक दिन ऐसा आएगा, जब ये पूरी तरह सूख जाएंगी।” अपने राजमे के खेत में काम रहे एक आदमी ने बताया।
अब आप पूछेंगे कि धराली से पहली झील कितनी दूर है, तो चलिए इसका उत्तर कैलकुलेट करते हैं। धराली 2500 मीटर पर है और यह पहली झील 2850 मीटर पर। यानी धराली से 350 मीटर ऊपर। चढ़ाई अच्छी-खासी है, तो हम कह सकते हैं कि पहली झील धराली से तीन - साढ़े तीन किलोमीटर दूर है।
फिर से देवदार के घने जंगल में चल दिए। कच्ची पगडंडी है, लेकिन चौड़ी है और स्पष्ट बनी है। रास्ता भटकने का डर नहीं है। कुछ ही देर में सामने खुला मैदान दिखाई पड़ा। क्या यही दूसरी झील है, जो सूख चुकी है?
जी हाँ, यही दूसरी झील है। यह बहुत बड़ी झील थी। पहली झील के मुकाबले बहुत बड़ी। अभी भी इसकी मिट्टी में बहुत पानी है और इसके ऊपर चलने पर मिट्टी गद्दे की तरह दबती है। यह 2980 मीटर की ऊँचाई पर है यानी पहली झील से 140 मीटर ऊपर और डेढ़ किलोमीटर दूर।
इसी के किनारे एक जला हुआ टूटा घर है।
“वह असल में एक साधु महाराज की कुटिया थी। फिर एक दिन उसमें आग लग गई और साधु महाराज उसे छोड़कर चले गए।” उसी राजमे वाले ने बताया था।
इससे आगे एक टीला-सा दिख रहा था। शायद तीसरी झील उधर हो। बताने वाला कोई भी नहीं था। हम महीन-सी पगडंडी के साथ-साथ उस पर चढ़ने लगे।
और इस पर चढ़ते ही...
तीसरी झील दिख गई। ऊँचाई 3000 मीटर। दूसरी झील से केवल 20 मीटर ऊपर और 400-500 मीटर दूर। छोटी-सी झील, लेकिन इसमें पानी था।
फिर 3020 मीटर की ऊँचाई पर चौथी झील है। यह पहली और तीसरी से बड़ी थी।
यानी चौथी झील धराली से लगभग 5 किलोमीटर दूर है और 500 मीटर ऊपर है। हमें यहाँ तक आने में कितना समय लगा, पता नहीं। लेकिन धूप निकली थी और छाया के लिए पेड़ भी थे। झील के उस तरफ घना जंगल है, जो बहुत आगे ऊपर तक चला गया है। जंगल के ऊपर एक बुग्याल दिख रहा था, बुग्याल के पार बर्फीली चोटी। लेकिन हम आज केवल यहीं तक के लिए आए थे, इसलिए कुछ देर यहीं धूप-छाँव में पड़े रहेंगे और मौसम खराब होता देख वापस चल देंगे।
एक गड़रिया था और उसकी बकरियाँ थीं। गड़रिया झील के उस तरफ एक शिला पर आराम से बैठा था और बकरियाँ में-में करती हुई झील में पानी पी रही थीं।
“सुमित, ले लस्सी पी।”
“अरे हाँ, मैं तो भूल ही गया था। झीलें भले ही छोटी हों, लेकिन नैनीताल, भीमताल की झीलों से ज्यादा खूबसूरत हैं।”
“अच्छा, अब एक काम कर। वो गड़रिया बैठा है ना?”
“कहाँ?”
“वो।”
“हाँ।”
“उसके पास जा। दो-तीन टॉफी देना उसे। और पता करना कि पाँचवीं झील कहाँ है। अगर आसपास ही हुई तो चलेंगे।”
“हाओ।”
सुमित चला गया। कुछ देर बाद लौट आया।
“अरे नीरज, वहाँ मुझे गड़रिया मिला ही नहीं।”
“अरे, कैसे नहीं मिला? वो देख, वहीं बैठा हुआ है।”
“हाँ यार, बैठा तो वहीं है। लेकिन जब मैं वहाँ गया तो था ही नहीं। हो सकता है, इधर-उधर हो गया हो।”
“नहीं, वो वहीं बैठा है। कहीं नहीं हिला।”
सुमित फुसफुसाते हुए बोला - “पहाड़ों में भूत भी होते हैं ना?”
“हाँ, होते हैं, लेकिन वे रात में मिलते हैं। तू उस शिला के पीछे गया था। अगर आवाज लगा लेता तो गड़रिया मिल जाता।”
तो हम इन चार झीलों के दर्शन करके ही खुश हो गए।
“देख डाक्टर, नीचे उधर भागीरथी वैली है। उधर गंगोत्री है और उधर उत्तरकाशी। वो रिज दिख रही है ना? उसके नीचे बगोरी है। रिज के उस तरफ वाली घाटी में एक कुंड है, जिसके पास बैठकर अगर बोलोगे, तो उसका पानी उबलता है, चुप हो जाओगे, तो शांत हो जाता है। उसके बाएँ तरफ वाली वैली में क्यारकोटी झील है। उस झील से आगे लमखागा पास है, जिसके उस तरफ हिमाचल का छितकुल है। उससे बायीं घाटी में धूमधारकंडी पास है, जिसे पार करके हर की दूर जाया जा सकता है। कितना कुछ यहीं बैठकर दिख रहा है। है ना?”
“हाओ।”
फिर तो जिस तरह यहाँ आए थे, उसी तरह वापस धराली पहुँच गए। जाते ही सुमित ने होटल वाले के कान उमेठ दिए - “ओये, तू तो कह रहा था कि बहुत दूर है।”
मनरेगा जिंदाबाद... प्रथम सिंह के बगीचे की घेरबाड़... 1 लाख रुपये |
सातताल के रास्ते से दिखतीं क्यारकोटी झील की तरफ की चोटियाँ |
पहली झील |
पहली झील |
पहली झील |
तीसरी झील |
तीसरी झील |
चौथी झील |
चौथी झील |
हिमालय की ऊँचाइयों पर... झील के किनारे... फुरसत के क्षणों में... |
और यह है सूख चुकी दूसरी झील |
लेंगडा... इसकी सब्जी भी बनाई जाती है... |
हरी-भरी वसुंधरा... नीला नीला ये गगन... नीली नीली झील भी... |
धराली और उधर भागीरथी |
धराली |
गूगल मैप के सैटेलाइट व्यू में चारों झीलों की स्थिति... पॉइंटर दूसरी झील पर लगा है... इसके उत्तर में पहली झील एक बड़े काले धब्बे की तरह दिख रही है... दक्षिण-पश्चिम में दो धब्बे हैं, यानी तीसरी और चौथी झीलें... दूसरी झील इन सभी में सबसे बड़ी है, लेकिन उसमें पानी नहीं है, इसलिए उसका रंग काला न होकर कुछ अलग है...
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6. बाइक यात्रा: गिनोटी से उत्तरकाशी, गंगनानी, धराली और गंगोत्री
7. धराली सातताल ट्रैकिंग
8. मुखबा-हर्षिल यात्रा
9. धराली से दिल्ली वाया थत्यूड़
बढ़िया। पहले के बाद सीधे तीसरी झील के दर्शन हुए तो आँखें मली और दो चार बार स्क्रॉल किया। मैने सोचा यह क्या जादू है? दूसरी झील किधर गई। फिर बाद में नीचे दिखी। अच्छी पोस्ट और बेहतरीन फोटोज।
ReplyDeleteरोचक यात्रा वृतांत
ReplyDeleteसुंदर दादा
ReplyDeleteबहुत सुंदर वर्णन .....
ReplyDeleteलेकिन ब्रह्मी ताल न जाने का मलाल मुझे भी रहेगा..
...
खूबसूरत नजारे, आभार जी।
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