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26 जनवरी 2014 यानी गणतन्त्र दिवस...
इसी दिन के मद्देनजर हमने मिज़ोरम यात्रा का कार्यक्रम बनाया था। इच्छा थी यह देखने की कि देश की मुख्यधारा से सैंकडों किलोमीटर दूर मिज़ोरम में गणतन्त्र दिवस पर क्या होता है। होने को यहां हमें तिरंगे के दर्शन की भी उम्मीद नहीं थी क्योंकि इस बार गणतन्त्र दिवस रविवार को था। रविवार को मुख्यभूमि पर भी कोई उल्लास नहीं होता। देश की राजधानी के आस-पास भी कोई रविवार को स्कूल या कार्यालय नहीं जाना चाहता। खूब देखा है कि ऐसे में ज्यादातर तो गणतन्त्र दिवस एक दिन पहले मना लिया जाता है, कभी-कभार अगले दिन भी मनाया जाता है। हम स्वयं भी रविवार को स्कूल जाना पसन्द नहीं करते थे।
फिर मिज़ोरम ईसाई प्रधान है। यहां रविवार का दूसरा ही अर्थ है। रविवार अर्थात पूर्ण छुट्टी, पूर्ण बन्दी। यह धार्मिक दिन है और इस दिन सभी लोग चर्च जाते हैं। इसलिये मुझे मिज़ोरम में तिरंगा दिखने की कोई उम्मीद नहीं थी। तीसरी बात, हमारे आसपास कोई बडा शहर नहीं था। बडा क्या, छोटा भी नहीं था। आठ किलोमीटर आगे कीफांग गांव है। गांव में क्या गणतन्त्र दिवस दिखने की कोई उम्मीद है?
उठे तो देखा कि सचिन की साइकिल के एक पहिये की हवा निकली पडी है। मेरी साइकिल ठीक थी। सचिन ने बताया कि इस ट्यूब में जन्मजात ही कुछ समस्या है। हमेशा पंक्चर होता ही रहता है। उसके पास अतिरिक्त ट्यूब थी लेकिन वह बेहद आपातकाल में उसका इस्तेमाल करना चाहता था। उसके अनुसार अभी आपातकाल नहीं आया था। उसने बिना पंक्चर ठीक किये ट्यूब में हवा भर ली।
साढे सात बजे यहां से चल पडे। यहां के साढे सात दिल्ली के साढे आठ के बराबर होते हैं। भूख लग ही रही थी हालांकि दोनों ने एक-एक पैकेट बिस्कुट खा लिये थे। रास्ता चढाई वाला था। कीफांग तक ऐसा ही रास्ता रहेगा। सुबह का समय था, मैं पूरी ताजगी महसूस कर रहा था इसलिये रात के मुकाबले अब आसानी से साइकिल चल रही थी।
साढे आठ बजे एक ढाबा देखकर जान में जान आई। हम पांच किलोमीटर चल चुके थे, कीफांग अभी भी तीन किलोमीटर आगे था हालांकि वह ऊपर पहाडी पर दिख भी रहा था। सडक आगे जाकर एक मोड लेकर ऊपर जाती भी दिख रही थी जो हमारे सिर के ठीक ऊपर से गुजर रही थी। ढाबे पर सचिन मुझसे काफी पहले पहुंच गया था, इसलिये वहां पहुंचते ही उसकी मुस्कुराहट देखकर मैं जान गया कि यहां हमें खाने को मिलेगा।
मिज़ोरम में भाषा की बडी समस्या है। हिन्दी तो दुर्लभ है ही, अंग्रेजी भी उतनी ही दुर्लभ है। कभी कभार एकाध इंसान हिन्दी या अंग्रेजी जानने वाला मिल भी जाता है तो उसकी हिन्दी हमारे पल्ले नहीं पडती और हमारी हिन्दी उसे समझ नहीं आती। बात वही की वही रह जाती है। होटल संचालिकाएं तीन महिलाएं थीं। एक लडका भी था जो सहायक के तौर पर काम करता था। लडका आसामी था इसलिये हिन्दी जानता था, संचालिकाओं में से एक ही हिन्दी जानती थी। कैसी हिन्दी जानती होगी, अभी बता चुका हूं। लडके के माध्यम से पता चला कि हमें दाल भात मिल जायेंगे। दाल भात सुनते ही मैं खुशी से उछल पडा। मेरे मुंह से निकला- आज तो हम शाही भोजन करने वाले हैं।
कल जब आइजॉल छोड दिया तो हमें कहीं भी चावल तक नहीं मिले। चाऊ खाकर तो आइजॉल में ही ऊब गया था। कल भी अण्डा-चाऊ ही खाना पडा। आज एक तो रविवार होने के कारण कोई होटल या ढाबा खुले होने की उम्मीद नहीं थी, फिर अगर कोई खुला मिलता भी तो हम चाऊ ही खाने को तैयार थे, ऐसे में जब पता चला कि दाल-चावल मिलेंगे तो खुशी होनी ही थी। ये दाल-चावल हमारे लिये शाही भोज से कम नहीं थे।
मिज़ोरम में सडकों के किनारे ही ज्यादातर आबादी बसी है। होटल व घर सडकों के किनारे ही बनाये जाते हैं। पहाडी राज्य होने के कारण समतल जमीन कम ही मिलती है इसलिये मोटे व मजबूत बांसों को आधार बनाकर उनके ऊपर घर व होटल बनाये जाते हैं। जब हम इन घरों के पिछवाडे जाकर देखते हैं तो शानदार नजारा दिखता है। दूर-दूर तक एक के बाद एक पहाडियां और भयंकर हरियाली। सभी घर एक कतार में होते हैं, इसलिये किसी भी घर के पीछे खडे होकर देखने पर आदमी का कोई चिह्न नजर नहीं आता। यहां भी ऐसा ही था।
जब भोजन परोसा गया तो जी खुश हो गया। दाल-चावल तो थे ही, साथ में उम्मीद के विपरीत आलू की सब्जी भी थी, रायता भी था, सलाद भी था और उबली हुई बन्दगोभी के टुकडे भी। बन्दगोभी को चार हिस्सों में काटकर उन्हें पानी में उबाल दिया और परोस दिया। यह देखने में ही अच्छी नहीं लग रही थी, इसलिये हमने नहीं खाई लेकिन आलू की सब्जी पर जमकर हाथ मारा। जब से मिज़ोरम में आए हैं, आलू दिखा ही नहीं। मैंने ठूंस-ठूंस कर खाया। इतना खाया कि शाम तक मुझे कुछ भी खाने की आवश्यकता मालूम नहीं पडी।
बाकी का तो पता नहीं लेकिन एयरटेल का यहां अच्छा नेटवर्क है। गुडगांव से विकास का फोन आया। हम साथ ही पढे हैं, काफी समय तक साथ साथ रहे भी हैं। लेकिन वह फोन तभी करता है जब उसे कोई काम हो। उसने बताया कि वह आज मेरे पास आने वाला था। मैंने कहा कि स्वागत है, आ जा। जब मिज़ोरम का नाम लिया तो आम भारतीय की तरह उसने सबसे पहले यही पूछा कि यह कहां है। वो तो अच्छा था कि उसके पास भारत का बडा वाला नक्शा था, तुरन्त खोलकर बैठ गया। मैंने बताना शुरू किया- ‘‘सबसे दाहिनी तरफ देख, असोम दिख रहा होगा।”
“हां, दिख गया।”
“अब असोम के नीचे देख, मिज़ोरम दिखेगा।”
“मिज़ोरम... नहीं दिखा।”
“अरे असोम के नीचे बांग्लादेश और बर्मा के बीच में एक पूंछ सी दिख रही होगी।”
“हां, दिख गया। मिज़ोरम... हां, है... हे भगवान! यह तो बिल्कुल लास्ट में है। तू अभी कहां है मिज़ोरम में?
“राजधानी दिख रही होगी मिज़ोरम की... आइजॉल।”
“नहीं, मुझे लु... लु... लुंगलाई दिख रहा है।”
“बस तो इसके ऊपर देख थोडा सा... आइजॉल दिखेगा।”
“नहीं, सेलिंग दिख रहा है।”
“बस, अब सेलिंग से दाहिने देख। चम्फाई दिखेगा।”
“हां, है।”
“मैं अभी सेलिंग और चम्फाई के बीच में हूं और बर्मा की तरफ जा रहा हूं।”
यहां सचिन ने साइकिल की ट्यूब बदल ली। पुरानी ट्यूब में कम से कम दस बार पंक्चर हो चुका था। नई ट्यूब बिल्कुल नई थी। इस वजह से यहां हमें दो घण्टे लग गये और साढे दस बजे यहां से रवाना हुए। ऊपर कीफांग में संगीत की आवाज सुनाई दे रही थी जिससे मुझे लग रहा था कि अवश्य गणतन्त्र दिवस मनाया जा रहा है। या फिर चर्च में भी हो सकता है।
आधे घण्टे में ही तीन किलोमीटर दूर कीफांग के मुख्य चौराहे पर पहुंच गये। चौराहे की बराबर में ही एक चर्च था जहां काफी चहल-पहल थी। बच्चों ने हमें घेर लिया, बातचीत करने लगे और साइकिल में उंगली भी। रविवार इनके लिये आनन्द मनाने का दिन होता है। सभी अपनी अपनी पसन्द के कपडे पहनते हैं और जमकर मौज-मस्ती करते हैं। हालांकि यहां की पूरी आबादी जनजाति है लेकिन ये फैशनेबल कपडे पहनते हैं खासकर लडकियां। छोटी बडी ज्यादातर लडकियां स्कर्ट पहने घूम रही थीं जो मुझे बडी अच्छी लग रही थीं। मैं मुख्यभूमि-वासी होने के कारण इनके फोटो खींचने से घबरा रहा था लेकिन यहां के समाज में ऐसा कोई प्रतिबन्ध नहीं है। कहने भर की देर होती है, लडकियां स्वयं फोटो खिंचवाने के लिये पोज देती हैं। सचिन ने कई फोटो खींचे लेकिन मेरी हिम्मत नहीं पडी।
यहां से दाहिने वाली सडक चम्फाई जाती है और सीधे तमदिल झील। झील यहां से 14 किलोमीटर दूर है और रास्ता भी ज्यादा उतराई-चढाई वाला नहीं। यह झील हमारे यात्रा-नक्शे में थी। तमदिन जाकर हमें वापस यहीं आना पडेगा और फिर चम्फाई की तरफ जाना होगा।
कीफांग और इससे दो-तीन किलोमीटर आगे सैतुअल दोनों मिलकर इस स्थान को काफी बडा बना देते हैं। पता भी नहीं चलता कि कब कीफांग से निकल गये और सैतुअल में प्रवेश कर गये। सैतुअल में मिज़ोरम पर्यटन का टूरिस्ट लॉज भी है। प्रारम्भिक योजना के अनुसार हमें कल सैतुअल या कीफांग में ही रुकना था।
मेरी आंखें तिरंगे को देखने के लिये लालायित थीं। लेकिन इसकी कोई उम्मीद नहीं थी। कारण पहले बता चुका हूं। पूरी आबादी के बीच रास्ता कभी समतल है, तो कभी उतराई वाला। इसलिये अच्छी स्पीड मिल रही थी। फिर बच्चे भी सडकों पर ही खेलते रहते हैं। उनका भी ध्यान रखना होता है। तिरंगा देखने के लिये इधर उधर ज्यादा गर्दन नहीं घुमा सकता था। लेकिन खुशी तब मिली जब एक बन्द दरवाजे के पास तिरंगा दिखा। तुरन्त रुका और इसका फोटो लिया। दरवाजा बन्द था, अन्दर किसी स्कूल आदि के लक्षण भी नहीं दिख रहे थे।
सैतुअल से निकले तो आबादी समाप्त हो गई। यह सडक दिलखान होते हुए आगे कहीं जा रही थी। जब दिलखान चार किलोमीटर रह गया तो एक तिराहा मिला। कई सूचना पट्ट लगे थे जो बता रहे थे कि तीसरी सडक तमदिल झील जाती है। झील यहां से सात किलोमीटर दूर थी। इस सात किलोमीटर की सडक कुछ खराब अवश्य थी लेकिन फिर भी साइकिल यहां अच्छी चल रही थी। ये सात किलोमीटर पूरी तरह ढलानयुक्त हैं।
मिज़ो भाषा में ‘दिल’ का अर्थ होता है झील। ‘तम’ का मुझे पता नहीं। यहां टूरिस्ट लॉज भी है। झील में बोटिंग की सुविधा भी। भीड तो बिल्कुल नहीं थी हालांकि कुछ लोग अवश्य बोटिंग कर रहे थे। दोपहर हो चुकी थी, जनवरी होने के बावजूद भी ठण्ड बिल्कुल नहीं थी। सचिन को नहाने की तलब लग रही थी लेकिन इसकी कोई व्यवस्था नहीं हो सकी। वह टूरिस्ट लॉज में भी गया, उन्होंने मना कर दिया। एक बार तो उसका मन झील में ही गोता लगाने का था लेकिन पानी में पडी पत्तियां व काई देखकर पीछे हट गया।
एक घण्टे रुककर अब बारी थी वापस चलने की। झील से कुछ ही दूर एक फार्म-हाउस था जिसके द्वार पर लिखा था कि यहां पिकनिक आदि मनाने के लिये आयें। हमने सोचा कि यह पर्यटन विभाग का है और यहां कोई मैदान-वैदान होगा। कुछ दूर बांस के बने घर भी दिख रहे थे, उन्हें हमने दुकानें समझा। अन्दर घुस गये। कुछ ही दूर तीन आदमी बैठे मिले। दो नीचे और एक पेड पर बन्दूक लिये हुए, चिडियों के शिकार के लिये। उनसे पता चला कि यह प्राइवेट जमीन है, न कि कोई पिकनिक स्पॉट। वापस मुडने से पहले यहां से पानी की एक बोतल भर ली।
साइकिल की चेन फिर समस्या करने लगी। कल जब गियर-चेंजर टूट गया था तो चेन को आगे पहले गियर पर व पीछे दूसरे गियर पर सेट कर दिया था। इसके लिये चेन काटकर छोटी भी करनी पडी थी। अब हालत यह थी कि चेन आगे किसी भी बडे गियर पर नहीं चढाई जा सकती। पीछे भी इसे तीसरे पर तो रख सकते हैं लेकिन पहले पर कतई नहीं। अब चलते हुए कुछ खटका सा हुआ, उतरकर देखा तो चेन पहले गियर पर चढ गई है। हाथ से उतारने की कोशिश की तो यह हिली भी नहीं। पैर की शक्ति और शरीर के वजन से इसे इतना बल मिल गया था कि यह पहले गियर पर चढ जाये। अगर यही काम हाथ से करता तो कभी नहीं कर सकता था। इस समय चेन अत्यधिक तनाव में थी। साइकिल चल तो अभी भी सकती थी लेकिन अत्यधिक तनावयुक्त चेन और एक्सल को नुकसान पहुंच सकता था। इसे उतारने के लिये हाथों की पूरी ताकत झोंक दी लेकिन यह टस से मस भी नहीं हुई। एक बार तो लगा कि सामान उतारकर पिछला पहिया खोलकर चेन उतारनी पडेगी। लेकिन यह भी इसका कोई स्थायी इलाज नहीं था। अब उतार दूंगा, कुछ देर बाद फिर चढ जायेगी। क्या बार बार मैं पिछला पहिया खोलता रहूंगा? अब हालत ऐसी हो गई कि इसे हाथ से ही उतारना पडेगा। जैसे जब हमारे पीछे कोई कुत्ता दौडता है तो हमारी दौडने की शक्ति बढ जाती है, इसी तरह कोई और चारा न देखकर मेरी भी शक्ति बढ गई और चेन उतर गई।
कुछ दूर चलकर फिर चेन पहले गियर पर चढ गई। इस बार भी अत्यधिक ताकत लगाकर उतार दी। जब चेन उतार रहा होता तो हाथों की पूरी शक्ति लगा देनी होती थी। लगता था कि कुछ न कुछ टूट-फूट अवश्य हो जायेगी। कई बार तो इस तनावयुक्त चेन और गियर के बीच में उंगली भी आने से बाल-बाल बची। संयोग से इसके बाद फिर ऐसा नहीं हुआ। इसका कारण था अगले गियर और पिछले गियर के बीच कोई एलाइनमेंट न होना। गियर चेंजर था तो वह चेन को उपयुक्त गियर पर एलाइन किये रखता था। उसके जाने से चेन अपनी मर्जी की मालिक हो गई।
आगे दिलखान वाले तिराहे पर सचिन बैठा मिला। उसे भूख लग रही थी, बिस्कुट और नमकीन खाने शुरू कर दिये। तमदिल की तरफ से एक टम्पू आया। उसकी सवारियों ने हालचाल पूछा और फोटो भी खिंचवाये।
अब बारी थी कीफांग पहुंचने की और फिर चम्फाई वाली सडक पर चलने की। सचिन आगे निकल गया। रास्ता चढाई भरा था, मैं पीछे ही रहा। जब साढे चार बजे मुख्य कीफांग चौराहे पर पहुंचा तो सचिन नहीं दिखा। फोन किया तो पता चला कि वह अभी पीछे है। रास्ते में रुककर मेरी प्रतीक्षा कर रहा था, लेकिन मैं कब निकल गया, उसे पता ही नहीं चला। कुछ देर बाद फिर फोन किया तो पता चला कि वह रास्ता भटक गया है। सैतुअल-कीफांग मिलकर एक कस्बे का रूप ले लेते हैं। कई रास्ते निकलते हैं तो कई आकर मिलते भी हैं। सभी देखने में एक जैसे लगते हैं तो सचिन गलत रास्ते पर चल पडा। आखिरकार पूछते-पाछते काफी देर बाद वह आया।
यहां से लगभग पन्द्रह-सोलह किलोमीटर तक ढलान है, उसके बाद फिर चढाई है। दिन छिपने लगा था, कुछ देर में अन्धेरा भी हो जायेगा। सोच लिया कि पन्द्रह किलोमीटर बाद जब ढलान खत्म हो जायेगा, वहीं हम रात्रि विश्राम करेंगे। जहां ढलान खत्म होकर चढाई शुरू होती है, वहां हमेशा एक नदी मिलती है और नदी पर पुल भी। पुल के आसपास ही कहीं टैंट लगा लेंगे। खाने को नहीं मिलेगा, इसलिये यहीं से कोटा पूरा लेकर चलना पडेगा। रविवार होने के कारण कीफांग के सभी होटल बन्द थे, गनीमत थी कि स्थानीय बाजार खुला था। यहां से बिस्कुल, नमकीन व कोल्ड ड्रिंक ले लिये।
पांच बजे यहां से चल दिये। कुछ ही दूर गये कि अन्धेरा हो गया। सिर पर हैड लाइटें लगानी पडीं। ढलान था, सडक भी ठीक थी, इसलिये अच्छी स्पीड मिली। जब कीफांग सोलह किलोमीटर पीछे छूट गया तो लगने लगा कि पुल अब आया, अब आया। आखिरकार वो पुल आ ही गया। यह बीआरओ का बनाया कंक्रीट का बडा विशाल पुल था। इसके आसपास किसी भी आदमजात का कोई निशान नजर नहीं आया। शरीर में ऊर्जा अभी भी बची थी इसलिये आगे बढ चले। क्या पता कल की तरह कोई शेल्टर ही मिल जाये।
लेकिन चढाई अभी भी शुरू नहीं हुई थी। कुछ दूर दूसरा उसी तरह का पुल मिला। यहां भी कोई आदमजात नहीं। घोर जंगल और रात होने के कारण यह और भी भयानक लग रहा था। शेल्टर की तलाश में आगे बढ चले। फिर एक तीसरा पुल मिला। यहां अपेक्षाकृत वातावरण कुछ खुला हुआ था। पास में दो तीन बांस के घर भी बने थे। एक मोटरसाइकिल भी खडी थी। उस पार भी मानव आबादी के कुछ चिह्न नजर आ रहा था। निःसन्देह यही वह पुल था जिसके बाद चढाई शुरू हो जायेगी। पुल के उदघाटन पत्थर पर लिखा था- तुईवॉल पुल।
सचिन को उस पार की टोह लेने भेजा और मैं इधर ही हैड लाइट की रोशनी में टैंट लगाने के लिये उपयुक्त जगह ढूंढने लगा। तभी एक छोटा मन्दिर नजर आया। मिज़ोरम में मन्दिर बडी दुर्लभ चीज है। पास गया तो शिवजी महाराज विराजमान मिले। मन्दिर में ही इतनी समतल और पक्की जगह थी कि टैंट लग सकता था। सचिन लौटकर आया, उसने बताया कि उस पार भी कुछ घर हैं, सभी खाली हैं, उनमें सोया जा सकता है। लेकिन मन्दिर को देखकर कहने लगा कि यहीं टैंट लगाना ज्यादा सही रहेगा।
यह पुल बनाना एक बडा प्रोजेक्ट रहा होगा। बीआरओ में मजदूर ज्यादातर बिहारी व झारखण्डी होते हैं। उनकी धार्मिकता को देखते हुए यह मन्दिर बनाया होगा। अब पुल बन चुका, मजदूर भी जा चुके इसलिये मन्दिर भी विस्मृत हो गया।
शिवजी महाराज को धन्यवाद देते हुए हम सो गये।
आज की यात्रा यहां से आरम्भ हुई |
‘शाही भोज’ |
यही वो ढाबा था |
कीफांग |
कीफांग में सचिन को बच्चों ने घेर लिया |
आखिरकार तिरंगा मिल ही गया |
दाहिने दिलखान, बायें तमदिल |
तमदिल झील |
यह एक पान-मसाले का रैपर था- सचिन पान मसाला। मिज़ोरम में अपना नाम देखकर सचिन बडा खुश हुआ। |
चेन की समस्या |
बांस ही बांस |
अगला भाग: मिज़ोरम साइकिल यात्रा- तुईवॉल से खावजॉल
मिज़ोरम साइकिल यात्रा
1. मिज़ोरम की ओर
2. दिल्ली से लामडिंग- राजधानी एक्सप्रेस से
3. बराक घाटी एक्सप्रेस
4. मिज़ोरम में प्रवेश
5. मिज़ोरम साइकिल यात्रा- आइजॉल से कीफांग
6. मिज़ोरम साइकिल यात्रा- तमदिल झील
7. मिज़ोरम साइकिल यात्रा- तुईवॉल से खावजॉल
8. मिज़ोरम साइकिल यात्रा- खावजॉल से चम्फाई
9. मिज़ोरम से वापसी- चम्फाई से गुवाहाटी
10. गुवाहाटी से दिल्ली- एक भयंकर यात्रा
भारत के चारों कोनो का विस्तार नाप रहे हैं आप, लगे रहें।
ReplyDeleteमिजोरम को अंदर से देखकर और जानकर अच्छा लगा। लड़कियो के फ़ोटो न ले पाने की झिझक मे अच्छी तरह समझ सकता हुँ। आगे की यात्रा का इंतजार रहेगा।
ReplyDeleteyou are great Neerajjaatji
ReplyDeleteचलिए हमें भी ख़ुशी हुई, तिरंगा दिख ही गया
ReplyDeleteनीरज जी आपके ब्लाग के माध्यम से हम भी भारत भ्रमण पर हैं.. बहुत-बहुत धन्यवाद..
ReplyDeleteनीरज जी तमाम समस्याओ के वावजूद भी आपका सफर जारी है इसके लिए आपको बहुत बहुत शुभकामनाएं.आशा हे की आप अपना मुकाम सफलतापूर्वक प्राप्त करेगे.
ReplyDeleteneeraj babu ladkiyon ke sandle bahut sundar lag rahe hain
ReplyDeleteउत्कृष्ट घुमक्कड़ी …… वैसे सायकिल का गेयर और चैन खतरनाक स्थिति में दिख रही है। आगे रब राखा।
ReplyDeleteवाह !
ReplyDeleteचेन को तो 'चैन' से देख फिर आगे बढ़। कम से कम अपने वाहन का तो ध्यान रख --
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