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गुवाहाटी से दिल्ली- एक भयंकर यात्रा

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अगले दिन सुबह साढे पांच बजे ही गुवाहाटी स्टेशन पहुंच गया। यहां से छह बजे लामडिंग पैसेंजर चलती है। लामडिंग यहां से 180 किलोमीटर दूर है। आज का काम लामडिंग तक जाकर शाम तक वापस लौटना था। स्टेशन पहुंचा तो धीरे का झटका जोर से लगा। ट्रेन पांच घण्टे की देरी से रवाना होगी। इस ट्रेन को लामडिंग पहुंचने में छह घण्टे लगते हैं। कब यह लामडिंग पहुंचेगी और कब मैं वापस आऊंगा? नहीं, अब इस ट्रेन की सवारी नहीं करूंगा। सात बजे चलने वाली बंगाईगांव पैसेंजर से बंगाईगांव जाता हूं। देखा यह ट्रेन सही समय पर रवाना होगी।
एक बात समझ नहीं आई। असोम में कोहरा नहीं पडता। कम से कम वे ट्रेनें तो ठीक समय पर चल सकती हैं जो असोम से बाहर नहीं जातीं। लामडिंग पैसेंजर ऐसी ही गाडी है। रात को यह ट्रेन लीडो इण्टरसिटी बनकर चलती है तो दिन में लामडिंग पैसेंजर। यानी लीडो इण्टरसिटी भी इतनी ही देर से चल रही होगी।
गुवाहाटी से बंगाईगांव जाने के दो रास्ते हैं। एक रंगिया होते हुए, दूसरा गोवालपारा टाउन होते हुए। रंगिया वाला रास्ता डेढ सौ किलोमीटर का है जबकि गोवालपारा वाला दो सौ किलोमीटर। इस वजह से रंगिया रूट पर ज्यादा ट्रैफिक होता है। गोवालपारा कम ही ट्रेनें जाती हैं। इसी वजह से रंगिया के रास्ते जाने वाली पैसेंजर डेढ सौ किलोमीटर को तय करने में पांच घण्टे लगाती है जबकि गोवालपारा के रास्ते जाने वाली पैसेंजर दो सौ किलोमीटर को साढे चार घण्टे में ही नाप देती है। सात बजे वाली पैसेंजर गोवालपारा के रास्ते जायेगी।
गुवाहाटी से चलकर कामाख्या जंक्शन आता है। रंगिया और गोवालपारा की लाइनें कामाख्या से अलग हो जाती हैं। कामाख्या से आजरा, मिर्जा, छयगांव, बामुणीगांव, बोको, शिंगरा, धूपधरा, रंगजुली, अमजोंगा, दूधनई, कृष्णाई, गोवालपारा टाउन, पंचरत्न, जोगीघोपा, अभयापुरी, माजगांव और न्यू बंगाईगांव जंक्शन हैं। न्यू बंगाईगांव में रंगिया की तरफ से आने वाली लाइन भी मिल जाती है और आगे कोकराझार की तरफ चली जाती है। पंचरत्न और जोगीघोपा के बीच में ब्रह्मपुत्र नदी पार करनी होती है। यहां नदी पर दो पुल ऊपर नीचे हैं, नीचे ट्रेन चलती है तो ऊपर सडक।
अब मुझे गुवाहाटी लौटना था। कामरूप एक्सप्रेस एक घण्टे की देरी से चल रही थी। यह रंगिया के रास्ते जाती है, मैंने इसी का एक जनरल टिकट ले लिया। लेकिन प्लेटफार्म पर जब कामरूप की जगह अवध असम एक्सप्रेस आई तो मेरे आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा। नेट पर गणित लगाकर देखा तो यह 13 घण्टे की देरी से चल रही थी। उत्तर भारत में भयंकर कोहरे ने उधर की सभी ट्रेनें लेट कर रखी थीं। यह ट्रेन यहां कल रात साढे ग्यारह बजे आनी चाहिये थी, आ अब रही है।
खैर, इसी ट्रेन में चढ लिया। यह भी रंगिया के ही रास्ते जायेगी, इसलिये मैं टिकट की तरफ से निश्चिन्त था। दिन ढलने तक गुवाहाटी पहुंच गया और सीधे होटल में।
कल सुबह छह बजे मेरी पूर्वोत्तर सम्पर्क क्रान्ति एक्सप्रेस है जिससे मुझे दिल्ली जाना है। इसमें मैंने दो दिन पहले टिकट बुक कराया था जिसमें वेटिंग मिली थी। सुबह चलने वाली गाडियों का चार्ट रात को ही बन जाता है। इसलिये सोने से पहले जब नेट पर चेक किया तो पता चला कि सीट कन्फर्म नहीं हुई है। यह मेरे लिये एक बडा झटका था। दो हजार किलोमीटर की यात्रा साधारण डिब्बे में कभी भी आसान नहीं होती, खासकर पूर्वी भारत के मार्गों पर। लेकिन कोई और चारा भी तो नहीं था, जाना तो पडेगा और इसी ट्रेन से।
लगे हाथों एक शुभ काम और कर लिया। शुभ काम करने के बाद पता चला कि अब मुझे सुबह पांच बजे उठने की आवश्यकता नहीं है। आराम से दोपहर को उठूंगा। ट्रेन आठ घण्टे की देरी से रवाना होगी यानी दोपहर बाद दो बजे। कुछ विचार और भी आये। गुवाहाटी से दिल्ली के लिये मुख्यतः चार ट्रेनें हैं- सम्पर्क क्रान्ति, नॉर्थ ईस्ट, ब्रह्मपुत्र मेल और अवध असम। सम्पर्क क्रान्ति सप्ताह में तीन दिन चलती है जबकि बाकी ट्रेनें रोजाना। सम्पर्क क्रान्ति के ठहराव भी बहुत कम हैं; बिहार में तो मात्र कटिहार में ही रुकती है। इसलिये लग रहा था कि इस ट्रेन में बाकी ट्रेनों के मुकाबले कम भीड मिलेगी। इसके तीन घण्टे बाद ही यानी नौ बजे नॉर्थ ईस्ट एक्सप्रेस चलती है। फिर बारह बजे ब्रह्मपुत्र मेल। चूंकि यह ट्रेन अब दो बजे चलेगी तो इस ट्रेन की साधारण सवारियां नॉर्थ ईस्ट व ब्रह्मपुत्र मेल से चली जायेंगीं। मुझे बैठने को सीट तो मिल ही जायेगी। इस गणित से मैं खुश था।
अगले दिन ग्यारह बजे ही स्टेशन पहुंच गया। वहां पूछताछ काउण्टर पर जहां सबसे पहले मेरी निगाह पडी वो था कि नॉर्थ ईस्ट एक्सप्रेस आज रद्द है। यानी एक पूरी ट्रेन की सारी सवारियां स्टेशन पर हैं। हालांकि कुछ ही देर में ब्रह्मपुत्र मेल आने वाली है लेकिन दिल्ली और यूपी जाने वाला कौन यात्री उससे जाना पसन्द करेगा? वह मालदा और भागलपुर का एक लम्बा चक्कर काटकर आती है। यानी अब सम्पर्क क्रान्ति में भीड मिलेगी। कुछ ही समय में ब्रह्मपुत्र मेल आ गई और चली भी गई। देखा कि उसके साधारण डिब्बों में ज्यादा भीड नहीं थी। मस्तिष्क में सकारात्मक सन्देश गया कि सम्पर्क क्रान्ति में भी ज्यादा भीड नहीं मिलेगी।
दोपहर बारह बजे सूचना प्रसारित हुई कि सम्पर्क क्रान्ति अब शाम छह बजे रवाना होगी यानी बारह घण्टे लेट। गुस्सा तो बहुत आया लेकिन कर भी क्या सकता था? साइकिल साथ में थी ही। कभी मन में आता कि इसकी लगेज में बुकिंग करा दूं; कभी सोचता कि नहीं, ऐसे ही सीट के नीचे रखकर ले जाऊंगा। नेट पर चेक किया तो पाया कि सम्पर्क क्रान्ति में चार साधारण डिब्बे होते हैं- दो आगे और दो पीछे। अन्दर से आवाज आई कि काफी हैं।
अभी तक ट्रेन का प्लेटफार्म घोषित नहीं किया गया था, इसलिये मुझ समेत काफी यात्री प्लेटफार्म नम्बर एक पर ही पसरे थे। साइकिल एक कोने में खडी कर दी थी अगले कई घण्टों के लिये। इसकी तरफ देखने का अब मन भी नहीं था। अगर साइकिल न होती तो मैं गुवाहाटी से एनजेपी तक का मार्ग पैसेंजर ट्रेनों से नाप देता और सम्पर्क क्रान्ति के इस बर्ताव का मुझे बिल्कुल भी दुख नहीं होता। भगवान! कोई इसे उठाकर ले जाये। इससे दूर पन्नी बिछाकर सोया भी लेकिन इसे शायद किसी ने नहीं देखा।
बेंचों पर पेंटिंग हो रही थी। काला पेंट लगाया जा रहा था। पूरे प्लेटफार्म की सभी बेंचों को एक जगह या दो तीन जगह इकट्ठा करके उनकी पुताई कर रहे थे। बाद में एक कर्मचारी पहरा देता ताकि कोई यात्री उन पर न बैठे। लेकिन फिर भी लोग बैठ ही जाते। उनके बैठने से पहले ही कर्मचारी चिल्लाकर उन्हें टोकता, लेकिन जल्दबाज तब तक बैठ चुका होता। बैठते ही उसे भी पता चल जाता कि कुछ गडबड हो गई है। उठ जाता लेकिन तब तक उसके पीछे स्थायी ठप्पा लग चुका होता। मुझ समेत तमाशबीनों की भीड लगी रही कि कोई आये और ठप्पा लगवाये।
भूख लगी तो भोजनालय में चला गया। वेज बिरयानी का ‘टिकट’ ले लिया और एक लम्बी लाइन में जा खडा हुआ। मुझसे आगे एक बडा सा ग्रुप था। कर्मचारी उस ग्रुप को चावल देने लगा तो मुझे भी उसी का सदस्य समझ लिया और फ्री में चावल मिल गये। बिरयानी का टिकट जेब में पडा रह गया। कुछ घण्टों बाद जब मैं पुनः वहां गया और टिकट दिखाकर बिरयानी मांगी तो उन्होंने कहा कि यह टिकट प्रातःकालीन शिफ्ट का है, जो सायंकालीन शिफ्ट में नहीं चलेगा।
पांच बजे पता चला कि ट्रेन प्लेटफार्म नम्बर चार से जायेगी। सभी लोग उधर ही लपक लिये। मैं भी अपनी साइकिल को उठाकर चल पडा। जाते ही होश उड गये। प्लेटफार्म तो दूर, फुट-ओवर-ब्रिज पर भी पैर रखने की जगह नहीं। किसी तरह नीचे उतरा। बराबर वाला प्लेटफार्म नम्बर पांच भी ठसाठस भरा था। सभी यात्री सम्पर्क क्रान्ति वाले ही थे। मैंने मन ही मन कहा कि ब्रह्मपुत्र मेल खाली गई है, उससे नहीं जा सकते थे?
साइकिल खोली। इसके दोनों पहिये एक साथ बांध दिये; बाकी बॉडी, हैण्डलबार और चेन भी कपडे से मजबूती से बांध दिये। पीछे कमर पर बैग लटका था। कई बार रिहर्सल किया कि किस तरह इस भीड में मुझे साइकिल भी उठाकर डिब्बे में घुसना है।
छह बज गये, साढे छह भी बज गये और सात भी बज गये लेकिन ट्रेन का कोई अता-पता नहीं। कोई उदघोषणा भी नहीं हो रही थी। नेट पर चेक किया कि कहीं ट्रेन को और लेट तो नहीं कर दिया लेकिन वहां भी ट्रेन के प्रस्थान का समय छह बजे ही दिखता रहा। अन्धेरा हो ही चुका था। आखिरकार सवा सात बजे प्लेटफार्म के उस तरफ दूर से एक लाइट दिखनी शुरू हुई जो नजदीक आती जा रही थी। सभी यात्रियों में हलचल मच गई। ज्यादातर फौजी थे जिनके पास बडे बडे ट्रंक थे। मैंने भी साइकिल लादी और मोर्चे का सामना करने को तैयार हो गया। कुछ यात्री अपने सहयात्रियों से यह कहते हुए उस लाइट की दिशा में दौड पडे कि हम वहीं से सीट घेरकर लायेंगे। यह बात मेरे कानों में पडी तो ठीक ही लगी। मैंने भी आगे बढने की सोची लेकिन भीड की वजह से एक कदम भी आगे नहीं बढा सका। जैसे जैसे लाइट नजदीक आती गई, माहौल में उत्तेजना भी बढती गई। मैं ट्रेन में चढने के लिये अपना पूरा अनुभव झोंक देना चाहता था। मुझे पता था कि ऐसे में एक मामूली सी चूक भी भारी पड सकती है। साइकिल होने की वजह से और भी दिक्कत आने वाली थी।
आखिरकार जब लाइट इतनी नजदीक आ गई कि उसके पीछे का नजारा दिख सके तो तनावपूर्ण माहौल हल्का हो गया और सभी हंसने लगे। यह एक इंजन था। इसके पीछे कुछ भी नहीं था। लेकिन इसने दिखा दिया कि जब ट्रेन आयेगी तो माहौल कैसा होगा। मैं सिर पकडकर बैठ गया। सिर में तेज दर्द होने लगा था। क्या करूं, कुछ समझ नहीं आ रहा था। अगर ट्रेन सुबह सही समय पर चली होती तो कल दोपहर तक दिल्ली पहुंच गई होती यानी एक रात लगाती। अब यह निश्चित तौर पर दो रातें लगायेगी। रास्ते में भी कुछ लेट अवश्य होगी। ऐसे में नीरज, तू दो रातें कैसे काटेगा? साइकिल पर भी गुस्सा आ रहा था- चल तू दिल्ली, देख तेरी कैसी हालत बनाता हूं। तेरी ही वजह से मैं यहां फंसा हुआ हूं। आसामी बडे ही ईमानदार हैं, कोई साइकिल को उठाकर ही नहीं ले जा रहा। दिनभर जैसा मैंने इसके साथ बर्ताव किया है, कहीं और होती तो पक्का उठ जाती। अब के बाद साइकिलिंग बन्द। ट्रेन यात्रा करेंगे, पैदल यात्रा करेंगे, बस यात्रा करेंगे लेकिन साइकिल यात्रा अब कभी नहीं।
आठ बज गये। ट्रेन नहीं आई और न ही कोई सूचना प्रसारित की गई। यह शायद मेरे लिये अच्छा ही था। आ जाती तो मुझे इसमें चढना पडता और मैं जो अब यहां सिर पकडे बैठा सोच रहा हूं, वो नहीं सोच पाता। लोहे पर भी जब तनाव डालते हैं तो वो टूट जाता है। मेरे साथ भी ऐसा ही हुआ। जब तनाव चरम पर पहुंच गया तो मैं टूट गया और वाकई बडा आराम महसूस हुआ। फैसला लिया कि ट्रेन से नहीं जाऊंगा। हवाई जहाज से जाऊंगा। यहीं बैठे बैठे मोबाइल में उंगली करनी शुरू की, कुछ देर बाद एटीएम कार्ड जेब से निकला और सारा तनाव समाप्त। साढे ग्यारह हजार रुपये तो लगे, लेकिन अब न तो कोई सिरदर्द था, न ही कोई चिन्ता। पूरे प्लेटफार्म पर शायद मैं ही अकेला यात्री था, जो अब तनावमुक्त था।
साइकिल ने पूछा- मैं? मैंने कहा- भाड में जाए तू। तुझे हवाई जहाज में तो ले जाने वाला नहीं हूं। तुझे इसी ट्रेन में रख दूंगा, तेरे नसीब में दिल्ली पहुंचना होगा, पहुंच जायेगी; नहीं होगा, मेरा पीछा छूटेगा। ट्रेन आई तो लोग पागलों की तरह उस पर टूट पडे। मेरी जानकारी के अनुसार इसमें आगे-पीछे दो-दो साधारण डिब्बे होने चाहिये थे लेकिन मैं गलत था। इसमें आगे एक ही डिब्बा था और उस पर लिखा था- फौजियों के लिये आरक्षित। ‘सिविलियन’ यह देखकर पीछे वाले डिब्बे की तरफ दौड लगाते गये। और फौजी भी कोई मजे में नहीं थे। उनकी संख्या भी बहुत ज्यादा थी, फिर भारी भरकम बडे-बडे ट्रंक। एक के ऊपर एक ट्रंक रखे गये, छत तक पहुंच गये। उनके लिये टॉयलेट जाने तक की जगह नहीं बची।
इसी के पीछे शयनयान डिब्बा था- एस वन। आरक्षित डिब्बे एक दूसरे से जुडे होते हैं लेकिन यह चूंकि पहला डिब्बा था इसलिये एक तरफ से बन्द था। यहीं मैंने साइकिल रख दी। इसकी बॉडी और दोनों पहियों को चेन से इस तरह बांधकर ताला लगा दिया कि उठाने वाले को काफी मशक्कत करनी पडे। दोनों शौचालयों के बीच में यह आराम से आ गई। मुझे कोई सम्भावना नहीं लग रही थी कि बिहार और पूरे यूपी का सफर करने के बाद यह मुझे मिलेगी, इसलिये अब विदाई के समय कुछ लगाव और दया भी महसूस हो रही थी। आखिर मेरी मिज़ोरम यात्रा इसी की वजह से तो हुई है। फिर भी चलते समय मैंने इससे हाथ मिलाया और कहा- दिल्ली मिलेंगे।
स्टेशन से बाहर निकला, एक कमरा लिया और साइबर कैफे पर जाकर हवाई टिकट का प्रिंट आउट भी। गो एयर की फ्लाइट बुक की थी। पहले सोचा था कि इस यात्रा की एलटीसी लूंगा लेकिन अब नहीं लूंगा। वैसे भी केवल एयर इंडिया के आठ हजार तक के टिकट के पैसे ही मिलते हैं। गो एयर के साढे ग्यारह हजार कभी नहीं मिलेंगे। भविष्य में लूंगा एलटीसी।
अगले दिन उठा और साढे छह बजे स्टेशन पहुंच गया। वही बंगाईगांव पैसेंजर पकडी और आजरा स्टेशन पर उतर गया। आजरा से एयरपोर्ट करीब तीन किलोमीटर दूर है। ज्यादातर दूरी पैदल तय की, कुछ ऑटो में। फ्लाइट एक बजे के आसपास थी। यह मेरी तीसरी हवाई यात्रा थी। इससे पहले मैं दिल्ली से लेह और लेह से दिल्ली की हवाई यात्रा कर चुका हूं। तय समय पर हवाई अड्डे में प्रवेश कर गया।
एक एयरलाइन वाले किसी अब्दुल नामक यात्री को ढूंढ रहे थे। अब्दुल का टिकट उस फ्लाइट में बुक था, उसने चेक-इन भी कर लिया था लेकिन विमान में नहीं चढा था। बडी देर तक कर्मचारी वेटिंग लाउंज समेत हर जगह अब्दुल-अब्दुल चिल्लाते रहे। एनाउंसमेंट भी हुआ। पता नहीं अब्दुल मिला या नहीं।
मैंने चेक-इन करते समय कह दिया था कि खिडकी के पास वाली सीट चाहिये, इसलिये मिल गई। यह फ्लाइट दिल्ली तक पहुंचने के लिये पांच घण्टे लगाती है। इसका कारण था कि यह बागडोगरा में भी रुकती है। गुवाहाटी से जब उडे तो शीघ्र ही भूटान के बर्फीले पर्वत दिखने लगे। धुंध थी, फिर भी सफेद चोटियां दिख रही थीं। नीचे सडक और कभी कभार रेलवे लाइन भी दिख जाती थी। भूटान से आने वाली कई नदियां दिखीं। उन्हीं में तीस्ता भी होगी।
बागडोगरा में कुछ यात्री उतरे तो कुछ चढे भी। यहां से उडे तो जल्दी ही ‘चिकेन नेक’ को पार कर मुख्य भूमि में प्रवेश कर गये। नीचे कुछ भी नहीं दिख रहा था। हर जगह कोहरे का साम्राज्य था। दूर नेपाल हिमालय की चोटियां दिख रही थीं। इनमें कंचनजंघा और एवरेस्ट भी होंगी।
भूख लग रही थी। उम्मीद थी कि बागडोगरा के बाद कुछ खाने को मिलेगा। खाने को मिला भी लेकिन मैं नहीं खा सकता था। वे स्नैक्स और ड्रिंक्स बेच रहे थे। बडे महंगे दामों पर। लेह की फ्लाइट याद आ गई। पौन घण्टे की उडान में फ्री में खाने को दिया था। यहां पांच घण्टे की उडान है, कुछ तो देना चाहिये था। एयर होस्ट व होस्टेस ट्रॉली लेकर विमान में चक्कर काटते रहे। मैंने पीछे सिर टिकाकर आंख बन्द कर ली। शीघ्र ही नींद आ गई।
आज दो फरवरी थी। शाम सात बजे तक मैं अपने ठिकाने पर शास्त्री पार्क पहुंच चुका था। ट्रेन की ट्रेकिंग की तो वह बीस घण्टे की देरी से चल रही थी और अभी तक पटना भी नहीं पहुंची थी। यही हाल रहा तो वह कल भी दिल्ली नहीं आने वाली। साइकिल की कोई चिन्ता नहीं थी। आ जायेगी तो ठीक, नहीं आयेगी तो पीछा छूटेगा।
अगला पूरा दिन ट्रेन देखता रहा, लगातार लेट होती जा रही थी। रात ग्यारह बजे जब यह गाजियाबाद पहुंच गई तो मैं घर से निकल पडा। कश्मीरी गेट की आखिरी मेट्रो सवा ग्यारह बजे है, वह आंखों के सामने छूट गई। बस पकडकर कश्मीरी गेट पहुंचा। जाते ही नई दिल्ली स्टेशन की बस मिल गई और बारह बजे तक मैं नई दिल्ली पहुंच गया था। मुझे प्लेटफार्म टिकट लेने की जरुरत ही नहीं थी। गुवाहाटी से लिया गया दिल्ली तक का टिकट जेब में रखा था। साधारण टिकट को तीन घण्टे के अन्दर ही रद्द करा सकते हैं, इसलिये रद्द नहीं करा सका। पूछताछ पर गया। वहां गुवाहाटी जाने वाली सम्पर्क क्रान्ति के बारे में तो लिखा था कि सुबह चार बजे जायेगी लेकिन यह कहीं नहीं मिला कि आने वाली किस प्लेटफार्म पर आ रही है?
खैर, उदघोषणा हुई। ट्रेन आई। यह 36 घण्टे की देरी से आई थी। उतर रहे यात्रियों के चेहरे देखने लायक थे और उन फौजियों के चेहरे भी। अगर मैं भी इसी से आता; खुदा न खास्ता मेरा टिकट कन्फर्म हो गया होता तो मैं भी इन्हीं की तरह इसी तरह उतरता। जब एस-वन खाली हो गया, मैं अन्दर घुसा। दोनों शौचालयों के बीच में जाकर देखा...
...साइकिल वहीं उसी तरह रखी मिली।




ब्रह्मपुत्र नदी पार करने के लिये सडक और रेल पास आते हुए।


ब्रह्मपुत्र पुल




हवाई जहाज से दिखते भूटान के पहाड


बागडोगरा एयरपोर्ट पर

बिहार में कोहरे की चादर

जायें कहीं भी, आना आखिर दिल्ली ही है।


मिज़ोरम साइकिल यात्रा
1. मिज़ोरम की ओर
2. दिल्ली से लामडिंग- राजधानी एक्सप्रेस से
3. बराक घाटी एक्सप्रेस
4. मिज़ोरम में प्रवेश
5. मिज़ोरम साइकिल यात्रा- आइजॉल से कीफांग
6. मिज़ोरम साइकिल यात्रा- तमदिल झील
7. मिज़ोरम साइकिल यात्रा- तुईवॉल से खावजॉल
8. मिज़ोरम साइकिल यात्रा- खावजॉल से चम्फाई
9. मिज़ोरम से वापसी- चम्फाई से गुवाहाटी
10. गुवाहाटी से दिल्ली- एक भयंकर यात्रा




Comments

  1. साइकिल पर भी गुस्सा आ रहा था- चल तू दिल्ली, देख तेरी कैसी हालत बनाता हूं
    साइकिल ने पूछा- मैं? मैंने कहा- भाड में जाए तू। तुझे हवाई जहाज में तो ले जाने वाला नहीं हूं।
    चलते समय मैंने इससे हाथ मिलाया और कहा- दिल्ली मिलेंगे।

    नीरज की इस अजब भाषा -शैली और बेबाक लेखन के ही तो हम जैसे लाखो पाठक कायल है। आपकी इस पोस्ट ने मिजोरम यात्रा पूरी ना होने का सारा गम भुला दिया।
    वास्तव मे नीरज भाई अदभुद एवं अविस्मरणीय पोस्ट।

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  2. ha ha ha.
    a travel story with a good sense of humor.
    sahi hai neerajbhai, lage raho.

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  3. क्या बात है ...... साइकिल को ट्रेन से दिल्ली लाने की युकित अच्छी लगी..... लेख तो हमेशा की तरह शानदार लगा.....

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    1. सही कहा रितेश। … नीरज का भाग्य अच्छा था जो साइकिल दोबारा मिल गई---क्या रास्तें में .t.t. ने टिकट नहीं पूछा ? काश ,के उस पर कैमरा लगा होता --

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  4. Oh god ????????? Kuch shabd hi nahi he . Padhna aacha laga par dukh bhi hua aap ki taklif par . Lekh padh k jarur coment karni chahiae . Coment aapka inam he . Great niraj baba .

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  5. गुवाहाटी से दिल्ली भयंकर यात्रा आपके लिए तो बिलकुक नहीं थी ...........सायकिल के लिए जरूर थी , जिसे लाये तो राजधानी में थे और लेकर गए लेट्रिन के पास लावारिस छोड़ के !! आप तो हवाई जहाज से आये नीरज बाबु !!
    आपके शब्दों में , "जबकि घुमक्कडी इसके ठीक विपरीत है। यहां पर आप देखेंगे किस तरह कम समय और सस्ते में बेहतरीन घुमक्कडी की जा सकती है।" ये यात्रा खरी नहीं उतरती !!

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    1. विधान जी नौकरी भी तो जरूरी है

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  6. असली घुम्मकडी तो साईकिल कर आई.वो भी अकेले पता नही रास्ते मे क्या क्या सहना पडा होगा.
    अच्छी यात्रा रही.

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  7. अपनी चिंता को इस तरह पेश करना की पढने वाले के चेहरे पर मुस्कान दौड़ जाये, मेरी नजर में यही लेखन है।

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  8. नीरज भाई , काश 1 लास्ट फोटो उस बांधी हुई साइकल की भी लगा देते तो पोस्ट मे चार चांद लग जाते

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    1. सही कहा , पोस्ट पढ़ते समय मुझे उसी साइकिल का ध्यान था की उसकी फोटु तो जरूर लगी होगी। .पर क्यों समझ नहीं आया ???

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  9. सारी मिजोरम यात्रा बहुत बढ़िया रही हा, साईकिल ने परेशान जरूर किुया --पर यदि कुछ रूपये साइकिल की दवा -दारु पर भी लगा देते तो यात्रा पूरी हो जाती ---और 'वापसी' इतनी मँहगी पड़ेगी तो शायद कंजूस नीरज कभी मिज़ोरम यात्रा न करता --क्यों नीरज :)

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  10. Is baar asali ghumakkadi to cycle ne kee hai.

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  11. साईकिल की फोटो मिस कर दी आपने

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  12. गौहाटी प्लेटफॉर्म पर अपने इंतज़ार का जो सजीव वर्णन किया है वह मन को बांध ळेता है। बिहार की भीड़ से बचने की कोशिश में आपने ११ हजार का नुकशान उठाया। पूर्वाग्रह से मुक्ति आसान तो नहीं मगर ध्यान रखना चाहिए,

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  13. बहुत हिम्मत का काम है ऐसी यात्रा करना ... हालांकि साइकिल की स्थिति से ये तो स्पष्ट है कि आतंकवादी कहीं भी बम फिट करके जा सकते हैं, कोई देखने वाला तक नहीं है...

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