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25 जनवरी 2014 की सुबह थी और हम थे मिज़ोरम की राजधानी आइजॉल में। आज हमें साइकिल यात्रा आरम्भ कर देनी थी और हमारा आज का लक्ष्य था 75 किलोमीटर दूर सैतुअल में रुकने का। दूरी-ऊंचाई मानचित्र के अनुसार हमें आइजॉल (1100 मीटर) से 20 किलोमीटर दूर तुईरियाल (200 मीटर) तक नीचे उतरना था, फिर सेलिंग (800 मीटर) तक ऊपर, फिर 300 मीटर की ऊंचाई पर स्थित और 15 किलोमीटर दूर एक पुल तक नीचे व आखिर में कीफांग (1100 मीटर) तक 20 किलोमीटर की चढाई पर साइकिल चलानी थी। कीफांग से सैतुअल 3 किलोमीटर आगे है। सैतुअल में टूरिस्ट लॉज है जहां हमारी रुकने की योजना है।
अच्छी तरह पेट भरकर और काफी मात्रा में बिस्कुट आदि लेकर हम चल पडे। हम रात को जिस होटल में रुके थे, वह आइजॉल से बाहर एयरपोर्ट रोड पर था। वैसे तो हमें राजधानी भी देखनी चाहिये थी लेकिन मिज़ो जनजीवन को देखने का सर्वोत्तम तरीका गांवों का भ्रमण ही है। साइकिल यात्रा में हम जमकर ग्राम्य भ्रमण करने वाले हैं।
आठ बजे यहां से चल पडे। निकलते ही ढलान शुरू हो गया जो 20 किलोमीटर दूर तुईरियाल में ही समाप्त होगा। यह राष्ट्रीय राजमार्ग 54 है जो मिज़ोरम के धुर दक्षिण में तुईपांग तक जाता है। हम सेलिंग तक इसी पर चलेंगे, उसके बाद इसे छोड देंगे। यह मार्ग बेहद शानदार बना है। चौडा है और एक भी गड्ढा तक नहीं। कल जब सिल्चर से आइजॉल आया था, तो उस खराब सडक ने बता दिया था कि मिज़ोरम में अच्छी सडकें नहीं मिलने वाली लेकिन इस सडक ने यह भ्रम तोड दिया। गौरतलब है कि मिज़ोरम पीडब्ल्यूडी इस सडक की देखरेख करता है। पहले सीमा सडक संगठन के पास थी यह। सीमा सडक संगठन की खासियत है कि वे सडकों के किनारे जगह जगह बडे अच्छे अच्छे नारे लिखते हैं। ये नारे कंक्रीट की छोटी छोटी दीवारों पर अभी भी लिखे थे। इन पर पीडब्ल्यूडी ने बीआरओ को मिटाकर अपना नाम लिख दिया है। इसका अर्थ है कि हस्तान्तरण हुए ज्यादा समय नहीं हुआ।
इस शानदार सडक का नतीजा हुआ कि घण्टे भर में तुईरियाल पहुंच गये। मिज़ो भाषा में तुई कहते हैं पानी को। नदियों के नाम भी तुई पर होते हैं और नदियों के किनारे बसे गांवों के नाम भी। तुईरियाल भी एक नदी के किनारे स्थित है। मिज़ोरम एक पर्वतीय राज्य है। इसकी पहाडियों की दिशा उत्तर से दक्षिण की तरफ है। यानी अगर आपको पूर्व-पश्चिम दिशा में यात्रा करनी है तो काफी उतार-चढावों का सामना करना पडेगा। हम भी आज आइजॉल की पूर्व दिशा में जा रहे थे तो हमें भी उतार-चढावों से गुजरना पडेगा। एक उतार के बाद चढाई आयेगी और बीच में एक नदी भी। हर जगह ऐसा ही है।
अभी तक साइकिल टॉप गियर में चल रही थी लेकिन अब गियर अनुपात घटाना पडेगा, चढाई आरम्भ हो गई। यह चढाई 16 किलोमीटर की है। दो ढाई घण्टे में पहुंच जाने का इरादा था। चढाई शुरू होते ही सचिन का पसन्दीदा मार्ग आरम्भ हो गया और वो शीघ्र ही आगे निकल गया व नजरों से ओझल हो गया। मुझे भी जैसे जैसे थकान बढती गई, वैसे वैसे गियर एक एक कर गिरने लगे। इसी तरह जब एक बार गियर बदला, तो तेज खटके की आवाज आई व साइकिल रुक गई। देखा तो होश उड गये। गियर चेंजर टूट गया था। अब तक मैं तुईरियाल से दो किलोमीटर आगे आ गया था, सचिन का कुछ अता-पता नहीं था।
फोन किया तो समय अच्छा था कि मिल गया। अन्यथा मिज़ोरम के निचले इलाकों में यानी नदियों के आसपास नेटवर्क नहीं मिलता। उससे मैंने सिर्फ इतना ही कहा- भाई, बहुत बडा नुकसान हो गया है। तुरन्त वापस आ जाओ।
यहीं पास में ही एक घर था। इसके आस-पास कोई घर नहीं था। जैसे कि सभी घर होते हैं, यह भी बांस का ही था। बाहर सूअरों का बाडा बना था। दो बच्चे बाहर खेल रहे थे, मालिक भी बाहर ही था। एक छप्पर के नीचे कार खडी थी, जो तिरपाल से ढकी हुई थी। चूल्हे पर एक बहुत बडा मटका रखा था। इसमें या तो पानी गर्म हो रहा था या फिर कुछ और। कार वाले छप्पर से टिकाकर मैंने साइकिल खडी कर दी। कुछ देर में सचिन आ गया। बोला- इसे बाद में देखेंगे, पहले फोटो लेंगे।
पिछले पहिये पर सात गियर लगे थे। इन पर चेन को सही तरीके से चढाने व बनाये रखने के लिये एक यन्त्र भी फिट होता है, इसे मैं गियर चेंजर कहता हूं। सचिन इसे डीरेलर (Derailer) कह रहा था। डीरेलर यानी डी-रेल करने वाला यानी पटरी से उतार देने वाला। यह चेन को एक गियर से उतार देता है, जिसके फलस्वरूप यह दूसरे गियर पर जा गिरती है। यह डीरेलर ही टूट गया था।
इसके बिना चेन किसी भी गियर पर नहीं टिक सकती और न ही साइकिल चल सकती। चेन बहुत ढीली हो जाती है और इतनी लटक जाती है कि जमीन को छूने लगती है। साइकिल के अन्य पुर्जों के साथ साथ यह भी मुख्यतः एल्यूमीनियम एलॉय का बना था। पहला विचार आया कि इसकी वेल्डिंग करा दी जाये। लेकिन हर जगह एल्यूमीनियम की वेल्डिंग नहीं हो सकती। पास में तुईरियाल गांव तो था लेकिन वहां एल्यूमीनियम तो क्या, साधारण वेल्डिंग भी होने पर सन्देह था। एकमात्र इलाज यही था कि आइजॉल जाया जाये।
यह हमारी यात्रा का पहला ही दिन था। मेरी पूरी कोशिश थी कि साइकिल की वजह से हमारी यात्रा का सत्यानाश न हो। आइजॉल में वेल्डिंग हो जाने की सम्भावना तो थी, साथ ही मुझे वहां नई साइकिल भी मिल जाने की उम्मीद थी। मैंने सोच लिया था कि इसे वहीं दुकान पर खडी करके या बेचकर नई साइकिल खरीद लूंगा।
सचिन ने बताया कि पहले भी एकाध साइकिलिस्टों के साथ ऐसा हो चुका है। इसलिये वो जब लद्दाख गया था तो एक अतिरिक्त डीरेलर लेकर गया था। इस बार अतिरिक्त नहीं लाया। लाया होता तो अब वो काम आ जाता। फिर भी मैं वापस आइजॉल जाने को तैयार नहीं था। मन नहीं कर रहा था ऐसा करने को।
मकान मालिक यदा कदा हमें देख लेता था लेकिन पास नहीं आया था। इसका कारण यही था कि मिज़ो लोग आमतौर पर दूसरों के मामलों में दखलअन्दाजी नहीं करते। मुझे उनका यह व्यवहार बहुत अच्छा लगा। चूंकि हमारे मुंह पर लिखा था कि हम बाहरी हैं, फिर भी उसने कोई पूछा-ताछी या जिज्ञासा जाहिर नहीं की। बच्चे अवश्य हमारे पास आ जाते थे।
आखिरकार मैंने फैसला ले लिया- मैं इसी पर आगे बढूंगा। इसकी चेन को आगे पहले गियर पर व पीछे दूसरे गियर पर स्थायी रूप से लगा देते हैं। यह काटकर छोटी करनी पडेगी। ऐसा करने से यह थोडी टाइट हो जायेगी और मुझे यकीन है कि उतरेगी नहीं। आगे की यात्रा सिंगल गियर पर होगी। सचिन ने सन्देह व्यक्त किया- तू सिंगल गियर पर चला सकेगा? मैंने कहा- हां, चला लूंगा। इस अनुपात पर चढाई पर ज्यादा परेशानी नहीं आयेगी, ढलान पर पैडल मारने की कोई आवश्यकता ही नहीं। सचिन बोला- ग्रेट! तू पहला ऐसा इंसान होगा जो इतनी लम्बी दूरी, वो भी पहाडों में बिना गियर के तय करेगा।
और हम काम पर लग गये। उसके पास चेन जोडने का छोटा सा यन्त्र था। उससे चेन की पिन आसानी से निकल गई। चेन इच्छित छोटी करके अब बारी उसे जोडने की थी। इस जोडने के काम ने पूरे दो घण्टे लगा दिये। यन्त्र असल में चेन की पिन को बाहर निकालने या अन्दर सेट करने के लिये था। पिन अन्दर सेट तब होगी जब वह चेन की कडी व यन्त्र के साथ ठीक एलाइनमेंट में आ जाये। यह काम हाथ से करना था। काम काफी बारीकी भरा था, इसलिये उंगलियां इसे करने में असमर्थ थीं। कुछ देर बाद प्लास से करने की कोशिश की, फिर पत्थर और आखिरकार हथौडा भी आ गया, लेकिन पिन एलाइनमेंट में नहीं आई। मकान मालिक अब तक हमारे काम में दिलचस्पी लेने लगा था। वह न हिन्दी समझता था, न अंग्रेजी और हम मिज़ो नहीं जानते थे। फिर भी उसने हमारी आवश्यकता समझ ली और घर से ‘नोज प्लायर’ ले आया। निःसन्देह नोज प्लायर से पिन पकडने में आसानी हो गई लेकिन काम फिर भी नहीं बना। तीनों ने खूब जोर आजमाइश कर ली लेकिन असफल रहे।
दो घण्टे बाद जब काम हो गया तो हम ऐसे निढाल होकर बैठ गये जैसे हिमालय पर चढकर थक गये हों। एक बार साइकिल चलाकर देखी, सबकुछ ठीक लगा तो आगे बढने पर सहमति हो गई। दोपहर के बारह बज चुके थे। सवा नौ बजे साइकिल खराब हुई थी, पौने तीन घण्टे लग गये। साइकिल खराब न होती तो अब तक सेलिंग पहुंच गये होते।
सेलिंग से पांच किलोमीटर पहले जब भूख बर्दाश्त से बाहर हो गई तो मैंने सचिन से रुकने को कहा। सचिन को भी भूख लगी थी। सडक के किनारे ही बैठकर बिस्कुटों पर टूट पडे। हालांकि जहां हम बैठे थे, वहां से आधा किलोमीटर आगे ही फाईबॉक गांव था जहां हमें केले मिल जाते। फाइबॉक में पेट्रोल पम्प भी है।
ढाई बजे सेलिंग पहुंच गये। जोर की भूख लग ही रही थी। यहां से यह राजमार्ग सीधे लुंगलेई चला जाता है। एक सडक बायें मुडकर चम्फाई जाती है। हमें अब चम्फाई वाली सडक पर चलना है। सेलिंग काफी बडा कस्बा है, जैसा कि मिज़ोरम के ज्यादातर स्थान होते हैं। जब मिज़ो नेशनल फ्रण्ट ने देशविरोधी विद्रोह किया था तो यहां के हालात सेना ने संभाले थे। विद्रोही सेना से बचने के लिये जंगल में चले गये और इधर-उधर बिखरे गांवों में आम लोगों के बीच रहने लगे व अपनी गतिविधियां भी जारी रखीं। तब सेना ने मुख्य मार्गों के किनारे आम लोगों के रहने का प्रबन्ध किया। गांव के गांव खाली हो गये व जनता यहां सडकों के किनारे रहने लगी। इसने मिज़ोरम में छन्नी का काम किया। सेना को विद्रोहियों को पकडने व बेफिक्र होकर हमला करने में सहूलियत हो गई। बाद में जब सबकुछ शान्त हो गया, तब तक ये अस्थायी ठिकाने स्थायी हो चुके थे। इसी वजह से मिज़ोरम में जितने भी सडकों के किनारे गांव हैं, सभी काफी बडे बडे हैं।
सेलिंग में होटल भी हैं जहां खाना-पीना मिल जाता है और रात-बेरात को ठहरना भी। यहां चावल नहीं मिले लेकिन सर्वसुलभ ‘चाऊ’ मिल गई। कुछ इसे खाया, कुछ आमलेट खाया, कुछ फ्रूटी पी, कुछ बिस्कुट खाये; कुल मिलाकर पेट भर गया। यहां से चलते चलते साढे तीन बज गये।
सेलिंग के बाद पन्द्रह किलोमीटर तक ढलान है। अब हम राष्ट्रीय राजमार्ग पर नहीं चल रहे थे। यह सडक सिंगल लेन थी, राजमार्ग के मुकाबले कुछ ऊबड-खाबड भी और ट्रैफिक लगभग नगण्य था। इसका लाभ यह हुआ कि हमने पैंतीस मिनट में ही यह पन्द्रह किलोमीटर की दूरी तय कर ली। एक बात और, सेलिंग से इधर की सडक अभी भी बीआरओ के पास है। मुझे बीआरओ के नारे बडे अच्छे लगते हैं। यहां पुल के पास एक बडा सा बोर्ड लगा था- Pushpak and Mizoram made for each other. गौरतलब है कि पुष्पक बीआरओ की मिज़ोरम में काम करने वाली परियोजना का नाम है।
पुल पार करते ही फिर चढाई शुरू हो गई जो 20 किलोमीटर बाद कीफांग जाकर ही समाप्त होगी। हमें आठ बजे तक कीफांग पहुंच जाने की उम्मीद थी। यहां दिन जल्दी छिप जाता है। कल जब हम आइजॉल में थे, तो सात बजे ही वहां की सडकों पर सन्नाटा पसर गया था। राजधानी से 70 किलोमीटर दूर कीफांग में भी ऐसा ही होने की उम्मीद थी। आठ बजे तक तो लग रहा है कि गांव में कोई भी आदमजात जगती नहीं दिखेगी। दूसरे गांवों की तरह कीफांग भी बहुत बडा है। उससे तीन किलोमीटर आगे सैतुअल है। सैतुअल भी बहुत बडा है।
साढे पांच बजे जब अन्धेरा हो गया तो हमने हैड लाइटें निकाल लीं। पहले सोच रखा था कि मिज़ोरम में अन्धेरा होने के बाद बिल्कुल नहीं चलेंगे। लेकिन पहले ही दिन यह नियम टूट गया। सडक किनारे अगला गांव कीफांग ही है जो ढाई घण्टे बाद आयेगा। यानी हमें ढाई घण्टे तक घोर जंगल में साइकिल चलानी है। सचिन न होता तो मैं ऐसा बिल्कुल नहीं करता। नीचे पुल के पास ही रुक जाता, वहां बीआरओ का एक छोटा सा कैम्प था। इसी तरह अगर मैं न होता तो सचिन भी अन्धेरे में नहीं चलता, वो कभी का कीफांग पहुंच गया होता।
जब कीफांग दस किलोमीटर रह गया, मैं थकने लगा। पहली बार मन में आया कि कीफांग से पहले ही रुक जाते हैं। हर पैडल के साथ यह भावना बढती ही चली गई। विचार आते गये- कीफांग में हमें कोई जगा नहीं मिलेगा। खाना भी नहीं मिलेगा। कमरा भी नहीं मिलेगा। आठ बजे तक तो यहां आधी नींद ले लेते हैं। किसका दरवाजा पीटेंगे हम?
इन्हीं विचारों के साथ साथ रुक जाने की भावना भी प्रबल होती गई। सचिन से रुकने का जिक्र किया तो उम्मीद के विपरीत उसने कोई विरोध नहीं किया। हालांकि सचिन के थकने का तो कोई सवाल ही नहीं था, वो इसी तरह पूरी रात भी साइकिल चला सकता था लेकिन यह उसकी अच्छाई ही थी कि उसने मेरा प्रस्ताव तुरन्त मंजूर कर लिया। मुझे लग रहा था कि सचिन एक बार मना करेगा, कुछ उत्साहवर्धन भी करेगा ताकि मैं एक घण्टे और साइकिल चला सकूं। लेकिन जब उसने मेरा रुकने का समर्थन किया तो शरीर ने बिल्कुल ही काम करना बन्द कर दिया। जैसे ही सडक के किनारे पहला शेड दिखा, हमने साइकिलें रोक दीं। इस तरह के शेड जगह जगह मिल जाते थे। ये दूर-दराज के यात्रियों के लिये प्रतीक्षालय थे।
हैड लाइट की रोशनी में ही टैण्ट लगाया। पास ही किलोमीटर का एक पत्थर था जिससे पता चल रहा था कि हम कीफांग से आठ किलोमीटर पहले हैं। इस समय मुझे किसी भी तरह का कोई डर नहीं लग रहा था। न आदमी का, न जानवरों का और न भूतों का। अकेला होता तो डर के मारे मर गया होता। टैण्ट लगाकर कुछ देर बाहर ही टहलते रहे। भूख लगी ही थी, बिस्कुट खा लिये, पानी पी लिया। बोतल खाली हो गई तो इधर उधर लाइटें मारकर पानी का कोई निशान ढूंढने की कोशिश की, लेकिन घनी झाडियों के सिवाय कुछ नहीं दिखा।
कुछ देर बाद एक मोटरसाइकिल आकर रुकी। इस पर दो व्यक्ति सवार थे। उनके हाथों में बन्दूकें थीं। निश्चित तौर पर वे पुलिस वाले नहीं थे। वे शिकारी थे। यहां पक्षियों का जमकर शिकार होता है। लोग खुले आम दिन में भी बन्दूकें हाथ में लिये जंगलों में व सडकों पर घूमते रहते हैं। साइकिलें व टैण्ट देखकर उन्हें पता चल ही गया था कि हम यहां क्यों रुके हैं। हमने उन्हें बिस्कुट दिये। पहले तो मुझे एक सन्देह भी हुआ था कि कहीं वे हमारे लिये मुसीबत न बन जायें। धीरे धीरे बातचीत होती रही तो सन्देह मिटता गया। एक ने फोन पर बात की तो कुछ देर बाद जंगल में से तीसरा आदमी प्रकट हुआ। तीनों मोटरसाइकिल पर बैठकर चले गये।
कुछ देर बाद एक बुलडोजर आया। इस पर भी दो तीन आदमी थे। जैसा कि आम मिज़ो का स्वभाव होता है, उन्होंने हमें देखा और कुछ नहीं कहा। बगल में ही सडक से हटाकर उन्होंने बुलडोजर झाडियों में घुसा दिया और बन्द कर दिया। वे जाने लगे तो हमने उनसे पानी मांगा। उनके पास भी पानी नहीं था लेकिन उनकी दो बोतलों से दो दो घूंट पानी निकल आया और हमारी बोतल थोडी सी तर हो गई।
रात को अच्छी नींद आई।
चलने से पहले मानचित्र का अध्ययन |
आइजॉल में |
तुईरियाल नदी |
तुईरियाल पुल |
साइकिल का गियर चेंजर टूट गया |
जोडने की कोशिश |
स्थानीय साइकिलिस्ट |
जोडने के बाद यह ऐसी हो गई। अब साइकिल सिंगल गियर बन गई है। |
मिज़ोरम की पहाडियां |
सेलिंग |
सेलिंग |
सेलिंग से चम्फाई की सडक अलग हो जाती है। |
सेलिंग में दुकानें |
अगला भाग: मिज़ोरम साइकिल यात्रा- तमदिल झील
मिज़ोरम साइकिल यात्रा
1. मिज़ोरम की ओर
2. दिल्ली से लामडिंग- राजधानी एक्सप्रेस से
3. बराक घाटी एक्सप्रेस
4. मिज़ोरम में प्रवेश
5. मिज़ोरम साइकिल यात्रा- आइजॉल से कीफांग
6. मिज़ोरम साइकिल यात्रा- तमदिल झील
7. मिज़ोरम साइकिल यात्रा- तुईवॉल से खावजॉल
8. मिज़ोरम साइकिल यात्रा- खावजॉल से चम्फाई
9. मिज़ोरम से वापसी- चम्फाई से गुवाहाटी
10. गुवाहाटी से दिल्ली- एक भयंकर यात्रा
अपूर्व!!! अद्वितीय, रोमांचक. . . . .
ReplyDeletenice mizo mizo mizo hills
ReplyDeleteभाई साईकिल स् सफर बडा कठीन होने वाला है .पर आपकी हिम्मत को सलाम
ReplyDeleteNikal pade he khulli sadak par ,
ReplyDeleteApana sina tane......
Manzil kaha ? Kaha rukna he -
Uparvala jane ...!
किसी फ़िल्म की तरह दिन निकल गया।
ReplyDeleteभाई नीरज आपके संस्मरण बहुत दिलचस्प होते है मुझे इनका बहुत इंतजार रहता है
ReplyDeleteबहुत बुरा हुआ कि आपके गाडी का गियर चेंजर टूट गया फिर भी हिम्मत नहीं हारी। आपकी दाद देते हैं.
ReplyDeleteजाट और डर समझ से परे है , जो भी हो यात्रा व्रतांत आनंददायक है
ReplyDeleteवाह ! नीरज मजा आ गया, साईकिल के खराब होने का दुख भी हुआ, और आप दोनों की बहादुरी देखकर भी, कि किसी भी अंजाने स्थान पर ऐसे टेंट लगाकर रहना ही बहुत बहादुरी है ।
ReplyDeleteरोमांचक....
ReplyDeletePhoto hamesha ki tarah shaandar, photo no. 5, 14, 23 ka jawab nahi.
ReplyDeleteThanks.
GOOD JOB NEERAJ....................YOGENDRA SOLANKI
ReplyDeleteप्रभु आगे भी लिखो भगवान् !!
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