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दिल्ली से लामडिंग- राजधानी एक्सप्रेस से

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20 जनवरी 2014
कल सुबह साढे नौ बजे नई दिल्ली से जब मैं डिब्रुगढ राजधानी में बैठ जाऊंगा, तभी मेरी मिज़ोरम यात्रा आरम्भ हो जायेगी। इतने दिन से यात्रा की योजना बनाने के बावजूद भी मैं अभी तक पूरी तरह तैयारी नहीं कर सका। चूंकि आज की पूरी रात अपनी है, इसलिये मैं निश्चिन्त था। रात दस बजे तक बैग तैयार हो चुका था। स्लीपिंग बैग, टैंट और पम्प साइकिल के पास रखे जा चुके थे। जब आखिर में जरूरी कागजात देखने लगा तो एक कागज नहीं मिला। यह गुम कागज हमारे पथ का दूरी-ऊंचाई नक्शा था जिसके बिना यात्रा बेहद कठिन हो जाती।
पुनः गूगल मैप से देखकर बारीकी से यह नक्शा बनाना आरम्भ कर दिया। मिज़ोरम काफी उतार-चढाव वाला राज्य है इसलिये हर पांच पांच दस दस किलोमीटर के आंकडे लेने पड रहे थे। जब यह काम खत्म हुआ तो दो बज चुके थे। अब अगर सोऊंगा तो सुबह पता नहीं कितने बजे उठूंगा। इसलिये न सोने का फैसला कर लिया। सुबह जब बिस्तर से उठा तो देखा कि वो गुम कागज पलंग के नीचे पडा था। खुशी भी मिली और स्वयं पर गुस्सा भी आया।
आठ बजे घर से निकल पडने का इरादा था लेकिन हमेशा की तरह लेट हो गया और पौने नौ बज गये। साढे नौ बजे नई दिल्ली से ट्रेन है। लोहे से पुल से यमुना पार करता हुआ राजघाट चौराहे से दाहिने मुडकर नौ बजकर दस मिनट पर नई दिल्ली स्टेशन पहुंचा। जब स्टेशन में प्रवेश कर रहा था तो उदघोषणा सुनाई दी- डिब्रुगढ जाने वाली राजधानी एक्सप्रेस प्लेटफार्म नम्बर सोलह पर खडी है। मेरी खुशी का ठिकाना नहीं रहा। प्लेटफार्म नम्बर सोलह पर जाने के लिये मुझे सीढियों पर नहीं चढना पडेगा। सुरक्षा द्वार से सीधे प्लेटफार्म पर प्रवेश कर जाऊंगा।
प्रवेश करते ही एक पुलिस वाले ने रोक दिया- उधर से घूमकर आओ। किधर से? उधर से, पार्सल गेट से। यह साइकिल पार्सल में बुक करानी पडेगी। मैंने कहा कि इसकी कोई आवश्यकता नहीं है। इसे खोलकर सीट के नीचे रखकर ले जाऊंगा। वो नहीं माना। सामने ट्रेन खडी थी। इसके चलने में मात्र पन्द्रह मिनट बचे थे। दस मिनट तो साइकिल को खोलने में ही लग जायेंगे। मैं साइकिल को प्लेटफार्म पर अपने डिब्बे के सामने खोलना पसन्द करता हूं। आखिरकार खूब बहसबाजी हुई। मैंने अपने समर्थन में खूब तर्क दिये लेकिन वो नहीं माना तो मुझे कहना पडा- कितने पैसे लेगा? पट्ठे ने बिना किसी संकोच के तुरन्त कहा- सौ रुपये दे देना। मैंने कहा- सौ रुपये बिल्कुल नहीं दूंगा। इससे कम में तो साइकिल ही बुक हो जाती।
मैं अपने डिब्बे के सामने पहुंचा। फटाफट सामान उतारा। दोनों पहिये खोले, हैंडलबार खोलकर बॉडी पर बांध दिया। एक पैडल खोलकर बैग में रख लिया। साइकिल अब ट्रेन में चढने को तैयार थी। इतना होने के बाद उस पुलिसवाले ने कहा कि मुझे पैसे दे दे। मैंने कहा कि सारा सामान ट्रेन में चढाने पर ही दूंगा। अभी तक पांच मिनट बचे थे। संयोग से मेरी बर्थ थर्ड एसी में 70 नम्बर वाली थी। यह डिब्बे के आरम्भ में ही होती है। डिब्बे में ज्यादा अन्दर नहीं जाना पडता। तो पुलिसवाले को कहा कि मैं बैग ट्रेन में रखकर आ रहा हूं, तू तब तक साइकिल की रखवाली कर। बैग रखकर आया तो बेचारे ने बडी मासूमियत से कहा- भाई, मुझे पता है कि तेरा पैसे देने का मूड नहीं है लेकिन यार, चायपानी के तो दे दे। मैंने कहा कि ये दोनों पहिये उठाकर ले चल, मैं साइकिल की बॉडी ले चलता हूं। तू चिन्ता मत कर, चायपानी का खर्चा अवश्य दूंगा। मैं बॉडी उठाकर चला, वो पीछे पीछे दोनों पहिये उठाकर लाया। डिब्बे में जब सारा सामान पहुंच गया तो मैंने उसे बीस रुपये दे दिये। उसने चुपचाप लेकर रख लिये और बिना कुछ कहे सुने तुरन्त वहां से गायब हो गया।
ट्रेन चल पडी तो मिज़ोरम की यात्रा भी शुरू हो गई। मेरे कूपे में दो फौजियों को छोडकर सभी पूर्वोत्तर के ही रहने वाले थे। इनमें से एक नागालैण्ड का था जो गुडगांव में रहकर पढाई व नौकरी करता है। हर तीन चार साल बाद अपने घर नागालैण्ड जाता है। लम्बे समय से गुडगांव में रहने के कारण अच्छी हिन्दी बोलता है। अच्छी हिन्दी बोलने के कारण वह पूर्वोत्तर का लगता भी नहीं है। बाकियों से ज्यादा बात नहीं हो पाई। दो बर्थ खाली थीं, उनके यात्री मुरादाबाद से आयेंगे।
यह मेरी पहली राजधानी ट्रेन की यात्रा थी। आखिर एलटीसी के भरोसे यात्रा कर रहा हूं, जब इसमें राजधानी थर्ड एसी का किराया मिल जाता है तो इस मौके को क्यों छोडा जाये? सुना था कि राजधानी में फ्री में खाना मिलता है, तो उत्सुकता भी थी। गाडी में एक उदघोषणा भी हुई जिसमें यात्रियों का स्वागत किया गया और बताया गया था कि शीघ्र ही पानी की बोतल दी जायेगी। और ऐसा ही हुआ। सभी यात्रियों को पानी की एक-एक बोतल दे दी गई। कुछ लोकल गाडियों में अवश्य पहले उदघोषणा सुनी थी, लम्बी दूरी की ट्रेन में उदघोषणा सुनने का यह पहला मौका था। अच्छा लगा।
समय पर गाडी मुरादाबाद पहुंची। मुरादाबाद से दस मिनट पहले एक उदघोषणा और हुई- गाडी कुछ ही समय में मुरादाबाद पहुंचने वाली है। मुरादाबाद से मुझे दो सहयात्री और मिल गये। पचास की उम्र का एक जोडा था। सिल्चर के रहने वाले थे। व्यापारी हैं। अब गुवाहाटी जा रहे हैं। वहां से फ्लाइट से अगरतला जायेंगे और वहां अपना कुछ काम निबटाकर कुछ दिन बाद अपने घर सिल्चर चले जायेंगे। ये दोनों भी बिल्कुल सामान्य हिन्दी बोल रहे थे। मुझे भी चूंकि ट्रेन से सिल्चर तक जाना है, इसलिये वहां के बारे में इनसे बेहतर कौन बता सकता था? आइजॉल की गाडी कहां से मिलेगी, कितने बजे मिलेगी, इन्होंने सब बता दिया। साथ ही यह भी बताया कि दक्षिण असोम यानी सिल्चर के आसपास का इलाका यानी कछार जिला पूर्ण शान्त है। साथ ही सुरक्षित भी।
अभी कुछ ही दिन पहले असोम के कोकराझार में एक बस से पांच हिन्दीभाषियों को उतारकर गोली मार दी गई थी। वह बस सिलिगुडी से शिलांग जा रही थी। आतंकवादियों ने बस रोकी। उनमें से हिन्दीभाषियों की पहचान की और उन्हें मार दिया। कोकराझार असोम का प्रवेश द्वार है। वहां जाने वाली हर ट्रेन कोकराझार से ही गुजरती है। यह राजधानी एक्सप्रेस भी कोकराझार से न केवल गुजरती है बल्कि वहां रुकती भी है। कोकराझार पहले से ही इस तरह की घटनाओं के कारण सुर्खियों में रहा है।
रातभर का जगा था इसलिये नींद आनी लाजिमी थी। मेरी बर्थ ऊपर वाली थी। खाना खाने के बाद जाकर सो गया। बडी गहरी नींद आई। बरेली और लखनऊ कब निकल गये, पता ही नहीं चला। आंख खुली तो ट्रेन जौनपुर स्टेशन पर खडी थी। जौनपुर में इसका ठहराव नहीं है, तकनीकी वजह से रुक जाती है। मैं दरवाजा खोलकर बाहर देखने लगा तो कोच अटेंडेंट जो कि बिहारी था, ने टोक दिया- दरवाजा मत खोलो। क्यों? इसमें लोकल सवारियां चढ जाती हैं। तो उन्हें उतार देंगे कि यह राजधानी ट्रेन है। वैसे भी सबको पता है कि इसमें नहीं चढना है। बोला कि नहीं, यूपी में लोकल सवारियां जबरदस्ती चढ जाती हैं। मेरठ में मेरे ही सामने हुआ था एक बार ऐसा जब वहां राजधानी में चढ गये थे लोग। मैंने कहा कि मेरठ से तो कोई राजधानी ट्रेन गुजरती भी नहीं है। बोला कि गुजरती है, आपको नहीं पता। अरे, मैं मेरठ का ही हूं। मेरठ का मुझे नहीं पता होगा, तो क्या तुझे पता होगा?
जौनपुर से घण्टे भर बाद वाराणसी पहुंच गये। गाडी अभी तक ठीक समय पर चल रही थी। कोहरे के कारण ट्रेनें लेट होती हैं, अभी तक दिन की ही यात्रा रही, कोहरा मिला नहीं। आगे कोहरा पडेगा तो ट्रेन भी लेट हो जायेगी। वाराणसी में ट्रेन काफी देर तक खडी रही। अन्य यात्रियों के साथ मैं भी नीचे उतर गया और प्लेटफार्म पर टहलने लगा। रात के दस बजे थे। दो तीन कूडा बीनने वाले बच्चे आये और ट्रेन में चढने लगे। अटेंडेंट ने उन्हें मना किया। मना ही नहीं किया बल्कि गाली भी दे दी। गाली सुनकर लडका उस पर चढ गया। अटेंडेंट इस मद में था कि वो राजधानी ट्रेन का अटेंडेंट है। उधर वो लडका भी यहीं पला-बढा होगा, एक एक चीज से परिचित है। डर था नहीं किसी बात का। सामना करने को तैयार हो गया। अटेंडेंट ने एक थप्पड जड दिया तो लडके ने भी अपना बोरा एक तरफ पटककर अटेंडेंट पर वार कर दिया। जोरदार लडाई हुई। गलती अटेंडेंट की ही थी। जब वो लडका एक बार मना करने के बाद ट्रेन से उतर गया था तो गाली देने की क्या जरुरत थी?
इन सबमें एक कूडे वाला बच्चा भी था जो कुछ दूर खडा होकर इस तमाशे को देख रहा था। उसके साथी पर एक थप्पड पडता तो वो जोर से हंसता। बाद में वो अवश्य उसकी मजाक लेगा कि तुझे इतने थप्पड पडे। बडा प्यारा बच्चा था। परिस्थिति ने उसे कूडे के काम पर लगा दिया।
अगले दिन यानी 22 जनवरी को आंख खुली तो ट्रेन खगडिया से निकल चुकी थी। ठहराव न होने के बावजूद भी कुछ देर नौगछिया भी खडी रही। बाहर कोहरा था और ट्रेन डेढ घण्टे की देरी से चल रही थी। कटिहार दो घण्टे लेट पहुंची। इसके बाद रेलवे लाइन बिहार-बंगाल सीमा के साथ साथ है। कभी बिहार में होते तो कभी बंगाल में। स्टेशनों के नाम-बोर्डों से पता चल जाता कि यह बिहार में है या बंगाल में। जैसे जैसे ‘चिकन-नेक’ की ओर बढते गये, कोहरा भी साफ होता गया और मौसम में गर्मी आने लगी। किशनगंज और न्यू जलपाईगुडी के बीच का इलाका ‘चिकन-नेक’ यानी ‘मुर्गी की गर्दन की तरह’ कहलाता है। यह एक पतली सी बीस-तीस किलोमीटर चौडी पट्टी है जो शेष भारत को पूर्वोत्तर से जोडती है। इस पट्टी के एक तरफ नेपाल है तो दूसरी तरफ बांग्लादेश। और यह पूर्वोत्तर की सीमा भी कही जा सकती है। हालांकि इसके बाद बहुत दूर तक राजनैतिक रूप से पश्चिमी बंगाल है लेकिन सांस्कृतिक रूप से पूर्वोत्तर भी शुरू हो जाता है। न्यू जलपाईगुडी (एनजेपी) तो पूर्वोत्तर का प्रवेश द्वार है। चाहे किसी को सिक्किम जाना हो या असोम या और आगे, एनजेपी से गुजरना ही पडेगा। एनजेपी से ही दार्जीलिंग जाने वाली छोटी लाइन की ट्रेन भी चलती है।
एनजेपी में अच्छी धूप निकली थी और ठण्ड का नामोनिशान भी नहीं था। दिल्ली फोन किया तो पता चला कि वहां बारिश हो रही है और भयंकर ठण्ड हो रही है। सर्दियों में उत्तर भारत में पछुवा हवाओं से बारिश होती है और अगर आज दिल्ली में बारिश हो रही है तो ये हवाएं कुछ दिन बाद बिहार भी पहुंचेंगी और बंगाल भी और आगे पूर्वोत्तर में भी। इसलिये सम्भावना है कि हफ्ते भर बाद या दस दिन बाद मिज़ोरम का भी मौसम बिगड जाये। हालांकि इस बात की सम्भावना कम है। बीच में पडने वाले पहाड इन हवाओं की दिशा परिवर्तित कर सकते हैं।
ट्रेन में बहुत कम भोजन मिला। लंच में दो पतली पतली रोटियां, थोडे से चावल और थोडी सी सब्जी-दाल। मैंने और एक अन्य यात्री ने और रोटियों की फरमाइश की। लडके ने दो-तीन बार हां-हां कहा लेकिन आखिरकार हाथ खडे कर दिये कि रोटियां खत्म हो गई हैं। इस तरह लंच करने के बावजूद भी भूखा रह गया। यह भूख एनजेपी में मिटी। दस रुपये में काफी भोजन आ गया और पेट भर गया।
न्यू अलीपुरद्वार से गाडी चली तो ढाई घण्टे लेट हो चुकी थी और कोकराझार में तीन घण्टे। कोकराझार से आगे यह न्यू बंगाईगांव रुकती है, फिर गुवाहाटी और फिर अपना लामडिंग। अगर इसी तरह ट्रेन तीन घण्टे लेट चलती रही तो रात एक बजे लामडिंग पहुंचेगी। उसके कुछ ही देर बाद साढे चार बजे मीटर गेज की बराक घाटी एक्सप्रेस चलेगी जिसमें मेरा आरक्षण है। आज की रात खराब होनी ही होनी है। कल दिनभर जगना पडेगा, आखिर बराक घाटी एक्सप्रेस में रोज-रोज यात्रा थोडे ही करनी है। मन था कि शाम को छह साढे छह बजे भी अगर सिल्चर पहुंच गया तो आइजॉल की सूमो पकड लूंगा और रात बारह बजे तक आइजॉल पहुंच जाऊंगा। लेकिन अब मन बदल रहा है। मैं नहीं चाहता कि मेरी लगातार दो रातें खराब हों। अच्छी नींद लेना सभी के लिये आवश्यक है और मेरे लिये भी। कल सिल्चर रुक जाऊंगा, परसों आइजॉल पहुंच जाऊंगा। सचिन कल वहां पहुंच जायेगा। उसे बता दूंगा कि मैं एक दिन विलम्ब से चल रहा हूं।
शाम को नाश्ते में एक समोसा बल्कि समोसी, दो बिस्कुट, चाय और थोडी सी नमकीन आई। हालांकि इन सब के पैसे टिकट में शामिल हैं लेकिन खाना देने वाली कम्पनी यानी आईआरसीटीसी अपना मुनाफा बढाने के लिये हमारा पेट काट रही है। खाने की गुणवत्ता तो ठीक है लेकिन मात्रा भी तो बढनी चाहिये। क्या आईआरसीटीसी के नीति-नियन्ता जरा सा ही खाना खाते हैं? इसी तरह रात का खाना देने में तो हद ही कर दी। गाडी तीन घण्टे की देरी से चल रही थी, इसमें बडी संख्या गुवाहाटी के यात्रियों की भी थी। गाडी की समय-सारणी के हिसाब से गुवाहाटी वालों को डिनर नहीं मिलेगा। उनके चक्कर में हम बेचारे भूखे मर रहे हैं। मैंने सोच रखा था कि डिनर करके बारह एक बजे तक सो लूंगा लेकिन डिनर ही नहीं मिला तो सोऊं कैसे?
गुवाहाटी पहुंचे। बहुत से यात्री उतर गये, कुछ नये यात्री भी चढे जो निःसन्देह डिब्रुगढ जायेंगे। स्टेशन पर मुझे एक दक्षिण भारतीय भोजनशाला दिखी। तीस रुपये लगे लेकिन पेट भर गया। ट्रेन में ग्यारह बजे खाना दिया गया जब यह गुवाहाटी से भी पचास किलोमीटर आगे निकल चुकी थी।
खाना खाकर जब डेढ घण्टे बाद का अलार्म लगाकर सोने की कोशिश करने लगा तो एक नई आफत और गले आ पडी। कैटरिंग स्टाफ आकर टिप मांगने लगे- सर, कुछ सेवा पानी दे दो। मैंने सीधे मना कर दिया- ना, बिल्कुल नहीं दूंगा। नीचे दीमापुर वाले ने पचास रुपये दिये तो लेने से मना कर दिया- दो सौ रुपये दो। फौजियों ने भी नहीं दिये। कैटरिंग वाले दीमापुर वाले से कहने लगे कि सर, हमने आपको एक्स्ट्रा खाना दिया था। दीमापुर वाले ने तुरन्त कहा कि अगर न देते तो मैं तुम्हारी शिकायत करने वाला था। जब तुम खाना दे रहे थे तो मैं टॉयलेट में था। जब बाहर आया तो तुम्हें पता ही नहीं था कि मुझे खाना नहीं मिला है जबकि तुम कुछ समय पहले लिखकर ले गये कि मुझे मांसाहारी भोजन लेना है। मेरा भोजन किसको दिया तुमने? अगर मैं इस बात की शिकायत करता तो नुकसान किसका था? फौजी ने भी कहा कि मैंने तुमसे पानी की बोतल मांगी थी तो तुमने मना कर दिया था। नियम-पत्र लाकर दिखा दिया था कि एक बोतल के बीस घण्टे बाद दूसरी बोतल मिलेगी। अरे यार, उसी नियम-पत्र में पानी वाले नियम के नीचे लिखा है कि कोई टिप न दें। हम तो नहीं देंगे। अगर अभी के अभी यहां से दफा न हुए तो कम्पलेंट बुक लेकर आओ। तुम्हें टिप दूंगा मैं। जाओ, लाओ कम्पलेंट बुक। इसके बाद वे नहीं आये।
क्या भारत की सभी राजधानी ट्रेनों में ऐसा होता है या इसी रूट की ट्रेनों में ही ऐसा होता है। वैसे भी पूर्वी भारत के रूट ज्यादा बदनाम हैं।
रात एक बजे लामडिंग उतर गये। मेरे साथ एक बीआरओ के एक इंजीनियर सुभाष जोशी भी उतरे। उन्हें भी बराक घाटी एक्सप्रेस से सिल्चर तक जाना था। देहरादून के रहने वाले थे। लामडिंग स्टेशन पर मेरी उम्मीदों से ज्यादा चहल-पहल थी। मैं अन्दाजा लगा रहा था कि स्टेशन अन्धेरे में होगा और सन्नाटा पसरा होगा। लेकिन ऐसा नहीं था।



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नक्शे को जूम-इन या जूम-आउट किया जा सकता है।

अगला भाग: बराक घाटी एक्सप्रेस

मिज़ोरम साइकिल यात्रा
1. मिज़ोरम की ओर
2. दिल्ली से लामडिंग- राजधानी एक्सप्रेस से
3. बराक घाटी एक्सप्रेस
4. मिज़ोरम में प्रवेश
5. मिज़ोरम साइकिल यात्रा- आइजॉल से कीफांग
6. मिज़ोरम साइकिल यात्रा- तमदिल झील
7. मिज़ोरम साइकिल यात्रा- तुईवॉल से खावजॉल
8. मिज़ोरम साइकिल यात्रा- खावजॉल से चम्फाई
9. मिज़ोरम से वापसी- चम्फाई से गुवाहाटी
10. गुवाहाटी से दिल्ली- एक भयंकर यात्रा




Comments

  1. नार्थ ईस्ट की अधिकतर गाड़ियां लेट हो जाती हैं, लेकिन पैंट्री वालों का टिप मांगने का नया रिवाज देखा। दो-चार जूते लगाने चाहिए थे। :)

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    1. शर्मा जी नार्थ ईस्ट एक्सप्रेस का तो रिकॉर्ड ही खराब है इसलिए राजधानी एक्सप्रेस से njp जाऊंगा

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  2. मजा आ गया
    पुलिस वाले से मजदूरी करवा ली
    अभी इतना ही पढा है

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  3. बेहद रोचक। मजा आ रहा है.

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  4. चलिये पहुँच गये, अब आनन्द आयेगा।

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  5. भाई बहुत खूब ! पुलिस वाले से आपने कार्य लिया ये भी खूब रही ! आनन्द आ गया !

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  6. जी हाँ सारी राजधानी और शताब्दी गाड़ीयों में टिप लेने का रिवाज है, और वो भी धौंस से.. खाने के पैसे फ़ाईव स्टार वाले और खाना बिल्कुल कम.. इसी कारण से हम तो रेल्वे की इन प्रीमियम ट्रेनों से खासे खफ़ा हैं, अब तो हम ट्रेवलखाना.कॉम से ऑर्डर करते हैं और अच्छा खाना खाते हैं वो भी ठीक दाम चुकाकार :)

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  7. A totally new experience for me ..and thrilling too .Narration is excellent as ever Neeraj seth.

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  8. Whatever you have written is not at all exaggerated. Food quality, quantity and beggar attendant are menace these days. That begging was earlier quite novel. The attendant used to stand at the door with a plate of toffees and if some one tips him he wouldn't demand for more. But in all these Rajdhanis to North East these beggars fix their alms. Just like you have mentioned 200 bucks. platform food is far better than Rajdhani food. But in some stations vendors don't just come thinking Rajdhaniwale humse kya kharidenge. Sometimes I just crave for a cup of good tea from platform. But prestigious (?) train disappoints me.

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  9. wah sab kuli wo bhi khaki mein...aapka jawab nahi neeraj ji

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  10. नीरज भाई राम राम, बेचारा पुलिस वाला सोच रहा होगा की आज किस से पाला पडा जान बची.भाई ट्रैन मे ऐसा होता है यह आज ही पता चला,एक बार जम्मू जाते वक्त हिजडो ने जबरदस्ती पैसे एठै हम से.

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  11. नीरज भाई राम राम, बेचारा पुलिस वाला सोच रहा होगा की आज किस से पाला पडा जान बची.भाई ट्रैन मे ऐसा होता है यह आज ही पता चला,एक बार जम्मू जाते वक्त हिजडो ने जबरदस्ती पैसे एठै हम से.

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  12. Bahut khoob likha hai....maza aa gya pad kar

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  13. पेंट्री वाले इस तरह से भीख मांग रहे थे आश्चर्य है --

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46 रेलवे स्टेशन हैं दिल्ली में

एक बार मैं गोरखपुर से लखनऊ जा रहा था। ट्रेन थी वैशाली एक्सप्रेस, जनरल डिब्बा। जाहिर है कि ज्यादातर यात्री बिहारी ही थे। उतनी भीड नहीं थी, जितनी अक्सर होती है। मैं ऊपर वाली बर्थ पर बैठ गया। नीचे कुछ यात्री बैठे थे जो दिल्ली जा रहे थे। ये लोग मजदूर थे और दिल्ली एयरपोर्ट के आसपास काम करते थे। इनके साथ कुछ ऐसे भी थे, जो दिल्ली जाकर मजदूर कम्पनी में नये नये भर्ती होने वाले थे। तभी एक ने पूछा कि दिल्ली में कितने रेलवे स्टेशन हैं। दूसरे ने कहा कि एक। तीसरा बोला कि नहीं, तीन हैं, नई दिल्ली, पुरानी दिल्ली और निजामुद्दीन। तभी चौथे की आवाज आई कि सराय रोहिल्ला भी तो है। यह बात करीब चार साढे चार साल पुरानी है, उस समय आनन्द विहार की पहचान नहीं थी। आनन्द विहार टर्मिनल तो बाद में बना। उनकी गिनती किसी तरह पांच तक पहुंच गई। इस गिनती को मैं आगे बढा सकता था लेकिन आदतन चुप रहा।

जिम कार्बेट की हिंदी किताबें

इन पुस्तकों का परिचय यह है कि इन्हें जिम कार्बेट ने लिखा है। और जिम कार्बेट का परिचय देने की अक्ल मुझमें नहीं। उनकी तारीफ करने में मैं असमर्थ हूँ क्योंकि मुझे लगता है कि उनकी तारीफ करने में कहीं कोई भूल-चूक न हो जाए। जो भी शब्द उनके लिये प्रयुक्त करूंगा, वे अपर्याप्त होंगे। बस, यह समझ लीजिए कि लिखते समय वे आपके सामने अपना कलेजा निकालकर रख देते हैं। आप उनका लेखन नहीं, सीधे हृदय पढ़ते हैं। लेखन में तो भूल-चूक हो जाती है, हृदय में कोई भूल-चूक नहीं हो सकती। आप उनकी किताबें पढ़िए। कोई भी किताब। वे बचपन से ही जंगलों में रहे हैं। आदमी से ज्यादा जानवरों को जानते थे। उनकी भाषा-बोली समझते थे। कोई जानवर या पक्षी बोल रहा है तो क्या कह रहा है, चल रहा है तो क्या कह रहा है; वे सब समझते थे। वे नरभक्षी तेंदुए से आतंकित जंगल में खुले में एक पेड़ के नीचे सो जाते थे, क्योंकि उन्हें पता था कि इस पेड़ पर लंगूर हैं और जब तक लंगूर चुप रहेंगे, इसका अर्थ होगा कि तेंदुआ आसपास कहीं नहीं है। कभी वे जंगल में भैंसों के एक खुले बाड़े में भैंसों के बीच में ही सो जाते, कि अगर नरभक्षी आएगा तो भैंसे अपने-आप जगा देंगी।

ट्रेन में बाइक कैसे बुक करें?

अक्सर हमें ट्रेनों में बाइक की बुकिंग करने की आवश्यकता पड़ती है। इस बार मुझे भी पड़ी तो कुछ जानकारियाँ इंटरनेट के माध्यम से जुटायीं। पता चला कि टंकी एकदम खाली होनी चाहिये और बाइक पैक होनी चाहिये - अंग्रेजी में ‘गनी बैग’ कहते हैं और हिंदी में टाट। तो तमाम तरह की परेशानियों के बाद आज आख़िरकार मैं भी अपनी बाइक ट्रेन में बुक करने में सफल रहा। अपना अनुभव और जानकारी आपको भी शेयर कर रहा हूँ। हमारे सामने मुख्य परेशानी यही होती है कि हमें चीजों की जानकारी नहीं होती। ट्रेनों में दो तरह से बाइक बुक की जा सकती है: लगेज के तौर पर और पार्सल के तौर पर। पहले बात करते हैं लगेज के तौर पर बाइक बुक करने का क्या प्रोसीजर है। इसमें आपके पास ट्रेन का आरक्षित टिकट होना चाहिये। यदि आपने रेलवे काउंटर से टिकट लिया है, तब तो वेटिंग टिकट भी चल जायेगा। और अगर आपके पास ऑनलाइन टिकट है, तब या तो कन्फर्म टिकट होना चाहिये या आर.ए.सी.। यानी जब आप स्वयं यात्रा कर रहे हों, और बाइक भी उसी ट्रेन में ले जाना चाहते हों, तो आरक्षित टिकट तो होना ही चाहिये। इसके अलावा बाइक की आर.सी. व आपका कोई पहचान-पत्र भी ज़रूरी है। मतलब