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27 जनवरी, 2014
हम तुईवॉल नदी के किनारे बने एक मन्दिर में टैंट लगा कर रात रुके थे। साढे सात बजे सोकर उठे। बाहर झांककर देखा तो अदभुत नजारा दिखा। नीचे नदी घाटी में बादल थे जबकि ऊपर बादल नहीं थे। पहाडियों का ऊपरी हिस्सा आसमान में तैरता सा दिख रहा था। मुझे लगा कि यह नजारा अभी कुछ देर तक बना रहेगा। लेकिन जब तक टैंट उखाडा, तब तक सभी बादल हट चुके थे। जैसे जैसे नीचे घाटी में धूप पसरती जा रही थी, बादल भी समाप्त होते जा रहे थे।
मुझे नहाये हुए चार दिन हो चुके थे। कभी सिल्चर में ही नहाया था। सचिन को भी तीन दिन हो चुके थे। जहां मुझे सर्दी बिल्कुल नहीं लग रही थी, वही सचिन ठण्ड से कांप रहा था। सचिन ठहरा मुम्बई वाला। वहां बस दो ही मौसम होते हैं- गर्मी और बरसात। ठण्ड का उन्हें तब पता चलता है जब वे मुम्बई छोडकर उत्तर की ओर बढते हैं। जबकि मैं था दिल्लीवाला। हम जहां भयंकर गर्मी झेलते हैं, वहीं कडाके की ठण्ड भी झेलनी होती है। इसलिये मेरे लिये मिज़ोरम का यह मौसम खुशनुमा था। फिर भी नहाने की इच्छा उसकी भी थी।
पुल से नदी काफी नीचे है। पानी रुका हुआ दिख रहा था और काई के कारण गन्दा भी। नदी में उतरकर नहाने की योजना बनाई लेकिन गन्दा पानी दिखाई देने के कारण रद्द कर दी।
साढे आठ बजे यहां से चल पडे। तुईवॉल समुद्र तल से 500 मीटर की ऊंचाई पर है। इससे 14 किलोमीटर आगे दुल्ते 900 मीटर पर है। यह नदी आइजॉल और चम्फाई जिलों की सीमा भी बनाती है। अंग्रेजी में लिखा भी है- चम्फाई जिले में आपका स्वागत है।
आधे घण्टे बाद यानी करीब चार किलोमीटर आगे बांस का एक घर मिला। इसके दरवाजे खुले थे और भीतर कोई नहीं था। लेकिन देखने से स्पष्ट लग रहा था कि यहां कोई रहता अवश्य है। इसी घर के बराबर में एक हौद था। हौद में एक पाइप के माध्यम से पानी आ रहा था। हौद पूरा भरा था और पानी बाहर बहकर नीचे झाडियों में कहीं गुम हो रहा था। हौद के बराबर में ही पक्का चबूतरा बना था जहां आराम से बैठकर नहाया भी जा सकता था और कपडे भी धोये जा सकते थे। हमें एक दूसरे से कुछ कहने की आवश्यकता ही नहीं थी। दोनों ने साइकिल यहीं रोक ली। घर की एक अलमारी में दो लीटर की एक खाली बोतल रखी थी, उसे चाकू से काटकर मग्गा बना लिया। इसमें से दारू की बडी भयंकर गन्ध आ रही थी।
दोनों दो दो जोडी कपडे लेकर आये थे। बीस दिन की यात्रा के लिये केवल दो जोडी कपडे। इसलिये रास्ते में कपडे धोने तो पडेंगे ही। जब से दिल्ली से चला हूं, तब से मैंने कपडे नहीं बदले थे। अब इन्हें बदलूंगा। नहाऊंगा भी और गन्दे कपडे भी धोऊंगा। सडक के उस तरफ कपडे सुखाने के लिये बांस बंधे थे, कपडे धोये और यहीं टांग दिये। जब तक हम नहाये, कपडे सूख चुके थे। पानी बेहद ठण्डा था। अगर सचिन पहले न नहाता तो मैं कतई नहाने वाला नहीं था। दो घण्टे यहां लग गये। जब यहां से रवाना हुए तो ग्यारह बज चुके थे।
पौने एक बजे दुल्ते पहुंच गये। इसे हम अक्सर दुलत्ती भी कह देते थे। दुलत्ती कहने से हमें बडा सुकून मिलता था, हिन्दी यहां दुर्लभ जो है। इसे DULTE लिखा जाता है लेकिन मिज़ो भाषा में ट, ठ आदि न बोलने के कारण दुल्ते पढा जाता है। यह छोटा सा गांव है। यहां से नौ किलोमीटर आगे बडा गांव कालकुल (Kalhkulh) है जो यहां से ऊपर पहाडी पर दिखता भी है। दुल्ते में खाना मिलने की उम्मीद तो नहीं थी लेकिन फिर भी एक ढाबा मिल गया। सचिन मुझसे पहले पहुंच गया था। जब मैं पहुंचा तो वह चिकन-चाऊ खा रहा था। मेरी इच्छा चाऊ खाने की बिल्कुल नहीं थी इसलिये चावलों के बारे में पूछा। ढाबा संचालिका हिन्दी तो समझ ही नहीं रही थी, अंग्रेजी भी नहीं समझ रही थी। आखिरकार रसोई में घुसकर बर्तनों में झांककर देखा। चावल नहीं मिले।
निराश होकर कोल्ड ड्रिंक और नमकीन ले लिये। भयंकर भूख लग रही थी। कल सुबह कीफांग में चावल खाये थे। उसके बाद से बिस्कुटों पर ही जी रहे हैं। बराबर में तीन महिलाएं भी चिकन-चाऊ खा रही थीं। साथ ही मिज़ो में बकर-बकर बतियाए भी जा रही थीं। अनजानी भाषा को सुनने का भी एक अलग ही आनन्द होता है। उनका लहजा और आवृत्ति का उतार-चढाव सुनना बडा मजेदार होता है। कभी कभी तो लगता है कि हम हिन्दी वाले ऐसा कभी नहीं बोल सकते। इसी बीच मुझे एक परिचित सा शब्द सुनाई दिया- पराता। इस शब्द को सुनते ही लगा कि यह परांठा है। भूखे को क्या चाहिये? अनजानी भाषा में बात हो रही है, वे कुछ से कुछ बोले जा रही हैं, मन में भोजन है तो भोजन से सम्बन्धित ही सुनाई देगा। एक बार तो मन को समझाया कि यहां चाऊ की धरती पर परांठा कहां से आ गया? यह तो ठेठ उत्तर भारतीय है।
सचिन से कहा कि उस महिला अभी परांठे का नाम लिया है। सचिन संकोच रहित स्वभाव का है। मैं महिलाओं से बोलने में संकोच कर रहा था, सचिन ने फटाक से हिन्दी में ही पूछ लिया- परांठा मिलेगा? मैं सचिन को धिक्कारने ही वाला था कि यहां कहां परांठा होगा? लेकिन उन तीन में से एक महिला ने हिन्दी में जवाब दिया- हां, मिलेगा। उसी ने संचालिका से मिज़ो में कुछ कहा और एक प्लेट में परांठे हाजिर हो गये। मैं हैरान था।
लेकिन ये उत्तर भारतीय परांठों जैसे नहीं थे। थे तो रोटी जैसे ही, तैलीय भी थे लेकिन इन्हें बनाने की विधि कुछ अलग रही होगी। ये नर्म पापड जैसे थे। हिन्दी परांठे तवे पर बनते हैं, तवे की गर्मी से ये जगह जगह जल जाते हैं और छोटे छोटे काले चकत्ते पड जाते हैं। साथ ही सेंकते समय फूल भी जाते हैं। लेकिन मिज़ो परांठों में न जले का निशान था और न फूले होने का। स्वाद में बिल्कुल फीके थे। यानी इन्हें मिर्च चटनी के साथ खाना पडेगा।
यह चटनी खाना हम दोनों के लिये बडा जानलेवा था। मुझे याद है जब मैं श्रीखण्ड गया था तो शिमला के पास चाऊमीन खाते समय धोखे से सॉस की जगह लाल मिर्च की चटनी खा बैठा था। तब से छाछ को भी फूंक फूंक कर पीता हूं। यह मिज़ो चटनी हर जगह हर मेज पर कटोरियों में रखी मिलती है। आइजॉल में ही सचिन ने आगाह कर दिया था कि इसे चख भी मत लेना, बडी खतरनाक है। बस, मैंने चखी ही नहीं। अब जबकि फीके परांठे खाने मुश्किल होने लगे तो हाथ अपने आप चटनी पर चला गया। इसका एक ‘अणु’ भर चखकर देखा। उतना तीखा मालूम नहीं पडा। हिम्मत और बढी तो और ले ली। मिर्च तो इसमें जबरदस्त थी लेकिन इससे भोजन का स्वाद निःसन्देह बढ ही रहा था।
एक महिला ने अपने मोबाइल पर मिज़ो गाना चला रखा था। हिन्दी के अलावा किसी दूसरी भाषा के गाने मुझे कभी समझ नहीं आते लेकिन संगीत अवश्य अच्छा लगता है। पंजाबी संगीत इसी वजह से भारत भर में धूम मचाये हुए है। मिज़ो संगीत में वाद्य-यन्त्रों का शोर ज्यादा है। सचिन ने ब्लू-टूथ से पांच मिज़ो गाने अपने मोबाइल में ले लिये। उसे मिज़ोरम यात्रा पर एक प्रेजेंटेशन बनानी है। उसमें मिज़ो संगीत काम आयेगा।
दुल्ते से दूसरी पहाडी पर ऊपर कालकुल दिखाई देता है। वैसे तो यह काल्हकुल्ह है लेकिन आम बोलचाल में कालकुल बोला जाता है। दुल्ते से कालकुल की दूरी नौ किलोमीटर है। पहले तीन किलोमीटर तो ढलान है, फिर चढाई है। आज साइकिल यात्रा का तीसरा दिन है तो पहले दिन के मुकाबले कुछ आसानी से भी साइकिल चल रही है। अब चढाई उतनी कठिन महसूस नहीं होती जितनी पहले दिन हो रही थी। सिंगल गियर में भी कोई दिक्कत नहीं हो रही।
कालकुल दुल्ते के मुकाबले काफी बडा है। यहां होटल भी हैं और खाने पीने की कई दुकानें भी। हमेशा की तरह सचिन मुझसे पहले पहुंच गया और एक होटल पर बैठा मिला। होटल महिलाओं के ही जिम्मे था, एक पुरुष बाहर सीढियों पर बैठा था। उसने खूब पी रखी थी। मिज़ोरम में दारूबन्दी है। फिर भी पडोसी राज्यों से जमकर दारू आती है। और लोग इसे हाथों हाथ पी जाते हैं। न सुबह ना दोपहर, कोई समय नहीं, जब भी मिले, तभी पी जाते हैं। हालांकि उसने खूब पी रखी थी, फिर भी वह ठीक बात कर रहा था। जैसे कि घोर शराबी होते हैं, या तो वे गाली गलौच करते रहेंगे, या फिर सबसे मीठी मीठी बातें करेंगे। वह दूसरी श्रेणी का शराबी था। वह कैमरे के पीछे पड गया। कहने लगा कि मुझे यह कैमरा खरीदना है, जितने पैसे कहोगे, उतने दूंगा। मैंने कहा कि मुझे यह बेचना ही नहीं है। बोला कि कोई बात नहीं, लेकिन मुझे खरीदना है। पैसे अभी दूंगा। आखिरकार मैंने कहा कि मैं चम्फाई जा रहा हूं। तीन दिन बाद जब इधर से लौटूंगा तो आपको दे दूंगा। वह राजी हो गया।
एक महिला-वेटर हिन्दी जानती थी। हमसे पहले वहां मिज़ो गाने चल रहे थे, हमारे जाने पर हिन्दी गाने बजने लगे। स्वयं वह महिला भी हिन्दी गाने जानती थी। सचिन कोई गाना गुनगुनाता तो वह अगली लाइन गाने लगती। यहां किसी को हिन्दी बोलते देखना ही सुकून देता है, हिन्दी गाने सुनना तो और भी सुकून की बात है।
कालकुल आइजॉल और चम्फाई के लगभग बीच में पडता है। इसलिये इन दोनों शहरों के बीच चलने वाली सभी गाडियां और सूमो आदि यहां रुककर खाना खाकर ही आगे बढते हैं। यहां इस होटल पर इसी तरह की भीड थी। एक गाडी आती, कुछ देर बाद दूसरी गाडी और इसी तरह गाडियों का आना-जाना लगा रहता। कई बार तो यहां जाम भी लग जाता।
चलते समय जब मैं सडक के दूसरी तरफ जाकर साइकिल लेने जा रहा था और सचिन होटल में बोतल में पानी भर रहा था तो उसी हिन्दी जानने वाली लडकी ने सचिन से कहा- तुम्हारा वो दोस्त काफी हैंडसम है। सचिन ने कहा- हां, उसकी शादी भी नहीं हुई है अभी। तभी सचिन मेरे पास आया और बोला- नीरज, कुछ देर और यहीं रुकते हैं। वो लडकी ऐसे-ऐसे कह रही है। खैर, हम नहीं रुके।
कालकुल से अगला कस्बा खावजॉल है जिसकी दूरी 31 किलोमीटर है। शुरू के 15 किलोमीटर तक ढलान है, फिर शेष रास्ता चढाई भरा है। चार बजे हम कालकुल से चले। 15 किलोमीटर तक पहुंचने में अन्धेरा होने लगेगा, फिर खावजॉल तक अन्धेरे में चलना पडेगा या फिर पिछले दो दिनों की तरह कहीं जंगल में ही रुकना पडेगा।
जब 15 किलोमीटर चल चुके और वो पुल भी आ गया जिसके बाद खावजॉल की चढाई शुरू हो जायेगी, सचिन ने कहा कि अब अन्धेरा हो चुका है, कहीं टैंट लगाने की जगह ढूंढते हैं। मैं चूंकि अभी तक थका नहीं था, लग रहा था कि खावजॉल तक चल सकता हूं। इसलिये जब कहा कि अभी खावजॉल तक की हिम्मत जुटा सकता हूं तो सचिन बडा खुश हुआ।
आठ बजे खावजॉल पहुंचे। यह काफी बडा कस्बा है। यहां से एक सडक नगोपा भी जाती है जो मिज़ोरम-मणिपुर सीमा पर है। जहां पांच बजते ही अन्धेरा हो जाता है, वहां आठ बजे तक सन्नाटा भी पसर जाता है। यही हाल यहां पर था। अब जबकि हम एक बडे शहर में आ ही चुके तो आज टैंट नहीं लगायेंगे। दो दिन टैंट में सोते हो गये। टैंट और स्लीपिंग बैग में सोना कभी भी आरामदायक नहीं होता। सडकों पर लोग थे अवश्य लेकिन कोई होटल खुला नहीं था। साथ ही रेस्टॉरेंट भी बन्द थे। मैं आखिरी के कुछ किलोमीटर बडी मुश्किल से चला था। हर किलोमीटर के पत्थर पर रुकता और दूरी कम होने का जश्न मनाता- शाबाश नीरज! बस चार किलोमीटर और। इस जश्न में सचिन भी शरीक होता।
खावजॉल से आगे जाने की तो हिम्मत ही नहीं थी। सचिन भी इस बात को समझता था। इसलिये अपनी साइकिल मेरे हवाले करके वह खाने की तलाश में लग गया और सफल होकर लौटा। एक बन्द होने ही वाले रेस्टॉरेंट में हमें बचे-खुचे दाल-चावल खाने को मिले।
रुकने के बारे में पता किया तो बताया गया कि कुछ आगे चलकर जंगल विभाग का रेस्ट हाउस है। हम आगे बढ चले। कुछ आगे एक चर्च मिला। विचार आया कि चर्च में रुकते हैं। मुझे चर्च के बारे में कोई जानकारी नहीं है। बाहर घूम रहे एक आदमी को पकडा। अंग्रेजी में उसे किसी तरह समझाया कि हम चर्च में रुकना चाहते हैं। भला मानस था, बोला कि अभी रुको, पता करके आता हूं। थोडी देर बाद वो आया तो हमारे लिये अच्छी खबर नहीं थी। आगे बढना पडा। मेरी हालत इस समय तक ऐसी थी कि हम यहां चर्च के प्रांगण में टैंट लगाने तक को भी तैयार थे।
जंगल विभाग का रेस्ट हाउस मिला। यहां भी बिल्कुल सन्नाटा पसरा था। कोई नहीं दिखा तो सचिन अन्दर गया। पता नहीं किस किस दरवाजे में झांका, किस किस को जगाया, काफी देर बाद बाहर आया। बोला कि अभी रुका रह, लग रहा है कि काम हो जायेगा। फिर अन्दर चला गया। मुझे काफी सर्दी लग रही थी। सडक पर चहल-पहल तो खत्म हो ही गई थी, इक्का दुक्का लोग भी दिखने बन्द हो गये थे। करीब आधे घण्टे बाद सचिन फिर दिखाई दिया और मुझे बुलाया। बात असल में ये थी कि यहां रेस्ट हाउस में कई कमरे थे, सभी भरे थे। कोई भी खाली नहीं था। रेस्ट हाउस का मैनेजर भला आदमी था। जब हम पहुंचे, वो सो चुका था। हमारे बारे में पता चला तो उसने हमारे लिये जी-जान लगा दी। बुक हो चुके रेस्ट हाउसों में गया, लेकिन जब बात नहीं बनी तो अपने क्वार्टर में ले गया। उसके यहां दो कमरे थे। अपनी पत्नी को सारी बात बताई, वह सहमत थी। हम उसे कई बार बता चुके थे कि हमारे पास स्लीपिंग बैग है, हमें टैंट लगाने भर को जगह चाहिये। हमारी इस बात से वह अवश्य राहत महसूस कर रहा होगा। उसने कहा कि हमारे पास कोई भी अतिरिक्त रजाई गद्दा नहीं है। सचिन ने कहा कि कोई बात नहीं, हम स्लीपिंग बैग में सो लेंगे। उसकी पत्नी हमारे लिये चटाई बिछाने लगी तो सचिन ने कहा कि रहने दो, हम ऐसे ही सो लेंगे। मैंने तुरन्त हिन्दी में सचिन से कहा- ओये, ये लोग जो भी कुछ भी दे रहे हैं, ले ले। चटाई के अलावा अगर ये कोई कम्बल भी दें तो अच्छा ही है। तब तक सचिन के कहने से उन्होंने चटाई उठा ली थी और कोने में रख दी थी। हालांकि मैंने पुनः इन्हें उठा लिया, बिछाया और सोफे के गद्दे को तकिये की जगह लगा लिया।
आज हम टैंट में जंगल में ऊबड खाबड जगह पर नहीं थे लेकिन स्लीपिंग बैग में सोने के बावजूद भी काफी अच्छी नींद आई।
तुईवॉल में यहीं मन्दिर में रुके थे। |
यहां नहाना-धोना करेंगे। |
झूम खेती का एक नमूना। इसके बारे में विस्तार से अगली बार बताऊंगा। |
दुल्ते में खाने की शुरूआत |
दुल्ते में |
दुल्ते |
अगला भाग: मिज़ोरम साइकिल यात्रा- खावजॉल से चम्फाई
मिज़ोरम साइकिल यात्रा
1. मिज़ोरम की ओर
2. दिल्ली से लामडिंग- राजधानी एक्सप्रेस से
3. बराक घाटी एक्सप्रेस
4. मिज़ोरम में प्रवेश
5. मिज़ोरम साइकिल यात्रा- आइजॉल से कीफांग
6. मिज़ोरम साइकिल यात्रा- तमदिल झील
7. मिज़ोरम साइकिल यात्रा- तुईवॉल से खावजॉल
8. मिज़ोरम साइकिल यात्रा- खावजॉल से चम्फाई
9. मिज़ोरम से वापसी- चम्फाई से गुवाहाटी
10. गुवाहाटी से दिल्ली- एक भयंकर यात्रा
आपने लद्दाख यात्रा वृतांत में एक बात कही थी कि स्त्री स्नेह से आप बचे हुए हैं।
ReplyDeleteलगता है अडिग हैं आप अपने शब्दों पर :)
साईकिल यात्रा का एक अलग ही आनन्द है... न अधिक तेज न अधिक धीमे... और जहाँ शाम हो जाए वहीं अपना आशियाना...
ReplyDeleteबहुत खूब नीरज जी... चलते रहिए...
सभी ढाबों में संचालक एवं कर्मी महिलायें हैं लगता है उन्हें किसी भी प्रकार से भय नहीं है
ReplyDeleteChoti choti aur door tak pheli mounting ki photo bahut shaandar hain.
ReplyDeleteलेख पढ़कर अच्छा लगा..... आपके साथ-साथ मिजोरम की साइकिल यात्रा का लुफ्त ले रहे सुन्दर चित्रों के साथ
ReplyDeleteBindaas yatra hot I h apki
ReplyDeleteKyun bhai Neeraj, Ye photo me Sachin ki Tshirt kyun ragad rahe?? Apni shirt kya dry cleaning ker di thi??
ReplyDeleteएक बेहतरीन ब्लॉग और ब्लॉग लेखक
ReplyDeleteदो जोड़ी कपड़ों में पूरी यात्रा, गजब है भाई।
ReplyDeleteहंडसम तो आप है ही नीरज जी , सुंदर फोटो और शानदार यात्रा ,
ReplyDeleteनीरज जी यह चाऊ होता क्या है ?
ReplyDeleteस्वाद?
दिखता ?
यात्रा बढिया चल रही है हम पुरे मन से आपके साथ है इस यात्रा पर.
लड़की सुंदर थी क्या नीरज ? शादी कि बात तो चला देनी थी सचिन ---- हा हा हा हा
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