आंख खुली दीमापुर जाकर। ट्रेन से नीचे उतरा। नागालैण्ड में घुसने का एहसास हो गया। असोम में और नागालैण्ड के इस इलाके में जमीनी तौर पर कोई फर्क नहीं है। हां, नागालैण्ड में दूर पहाडों की लम्बी श्रंखला दिख रही थी। स्टेशन का नाम डिमापुर लिखा हुआ था।
पहले जब पूर्वोत्तर में असोम को छोडकर बाकी राज्यों में इनर लाइन परमिट की जरुरत होती थी तो लोगों को इस लाइन पर यात्रा करने में बडी परेशानी होती थी। कारण था दीमापुर। गुवाहाटी से तिनसुकिया जा रहे हैं, डिब्रुगढ जा रहे हैं यानी असोम से असोम में जा रहे हैं, तो इस दीमापुर की वजह से परमिट बनवाना पडता था या फिर जुरमाना।
गुवाहाटी से डिब्रुगढ जाने वाले ज्यादातर लोग रेल का इस्तेमाल नहीं करते, बस से जाते हैं, जल्दी पहुंच जाते हैं। कारण है कि रेल पहले लामडिंग व दीमापुर होते हुए तिनसुकिया जायेगी, फिर डिब्रुगढ। जबकि अगर बस से जा रहे हैं तो रास्ते में ना तो लामडिंग आयेगा, ना दीमापुर बल्कि डिब्रुगढ पहले आयेगा, उसके बाद तिनसुकिया।
हालांकि डिब्रुगढ से एक लाइन सीधे सिमालुगुडी तक बना दी गई है, जिससे तिनसुकिया तक चक्कर लगाकर नहीं जाना पडता लेकिन अभी भी ज्यादातर ट्रेनें तिनसुकिया वाले लम्बे रूट से ही जाती हैं। इसका कारण शायद फौजी हैं, जो अपने घर जाने के लिये बडी संख्या में तिनसुकिया आते हैं।
ट्रेन बिल्कुल खाली चल रही है। गुवाहाटी के कोटे की सब सीटें खाली पडी हैं। मेरे वाले डिब्बे में भी 15-20 के करीब सवारियां हैं- सभी तमिनलाडु व केरल जाने वाले हैं। एक फौजी भी है जो तमिलनाडु के जोलारपेट्टई का रहने वाला है, महीने भर की छुट्टी पर घर जा रहा है। हिन्दी बोल लेता है, लेकिन उसकी हिन्दी मेरे पल्ले नहीं पडती। वो तिनसुकिया से बैठा था। आधी रात को एक पैग लगाया और सुबह देर तक सोता रहा। सुबह उठकर फिर से पी ली और दोपहर बाद तक सोया।
चार जने और हैं जो डिब्रुगढ के रहने वाले हैं, काम के लिये केरल जा रहे हैं। वेटिंग थी लेकिन आखिरी समय में आरएसी हो गई। जनजातीय नस्ल के हैं यानी देखने में नेपाली-भूटानी से लगते हैं। सुबह मैं बिस्कुट खा रहा था, पडोसी होने के नाते उन्हें भी टोक दिया। अगलों ने पूरा पैकेट ले लिया और मुझसे पूछने लगे कि भईया, बिस्कुट लोगे क्या? इसके बाद मैंने अगले तीन दिनों तक उन्हें नहीं टोका।
एक टीटी आया, हिन्दीभाषी था। नैन-नक्श भी हिन्दी-भाषी ही थे। उन चारों से टिकट मांगा, उन्होंने दे दिया। बोला कि इसमें तुम्हारी उम्र ज्यादा है। अच्छा हां, उनके पास रेलवे वाला टिकट था, ई-टिकट नहीं। इसलिये उन्हें अपना परिचय पत्र दिखाना जरूरी नहीं था। उन चारों की उम्र बीस से छब्बीस के बीच लिखी थी, जबकि वे दिख रहे थे मासूम बच्चे से। टीटी उनसे उम्र प्रमाण-पत्र मांगने लगा, चारों से अलग-अलग। एक के पास था, जिसमें उसकी जन्मतिथि 1982 लिखी थी यानी तीस साल। अब मामला फर्जी टिकट का बनने लगा। कहां तो वे बच्चे से लग रहे थे, कहां अब वे टीटी से भी ज्यादा उम्र के सिद्ध हो गये। टीटी ने फर्जी टिकट का मामला चला दिया और 850 रुपये जुर्माने की बात करने लगा। लडके कहने लगे कि हमने यह टिकट खुद लाइन में लगकर बनवाया है, यह फर्जी नहीं है। टीटी नया नया भर्ती था, जोश में था, नहीं माना। ट्रेन से उतारने की धमकी देने लगा।
टीटी के पास जुर्माने वाली रसीद तो थी लेकिन चार्ट नहीं था। मैंने टीटी से कहा कि अगर इनके टिकट फर्जी हैं, तो चार्ट में इनके नाम भी फर्जी ही होंगे। तुम यहां एक कागज पर इनके नाम लिखो और चार्ट में जाकर मिलाओ, अगर मिल गये तो ठीक है, नहीं मिले तब जुर्माना लगाना। उम्र दो-चार साल ऊपर नीचे होना बडी बात नहीं है। टीटी ने ऐसा ही किया। नाम सही निकले।
गुवाहाटी पहुंचे। हमारा पूरा डिब्बा गुवाहाटी की सवारियों से भर गया। अपने कूपे में चार जने और आ गये- चारों के चारों विशुद्ध पूर्वोत्तरी। उनमें तीन लडके थे, एक बूढा था। कहने को तो वो उनका पापा हो सकता था लेकिन चारों की शक्ल मैच नहीं कर रही थी। इसलिये कह नहीं सकता कि वे बाप-बेटे थे या अडोसी-पडोसी। चलो, बाप-बेटे ही मान लेते हैं।
इनमें एक चश्माधारी है- बोलने में नम्बर वन। कोई उसकी बात सुने या ना सुने, उसे बोलना ही बोलना है। और बोलते समय चेहरे पर कोई हाव-भाव नहीं, इसका मतलब यह है कि वो कुछ भी काम की बात नहीं कर रहा है।
डिब्रुगढ से गुवाहाटी तक यात्रा में पूर्ण आनन्द आ रहा था। इन बाप-बेटों ने सारे आनन्द का क्रिया-कर्म कर दिया। मैंने पूछा कि कहां जाओगे, तो बाप ने इस स्टाइल में जवाब दिया जैसे एहसान कर रहा हो। फिर मैंने उनसे कुछ नहीं पूछा। एक तरफ की दोनों खिडकियां ‘बाप’ और चश्माधारी ने कब्जा ली। मैं अपना खिडकी-शौक पूरा करने के लिये दूसरी खिडकी पर चला जाता, जहां चारों डिब्रुगढी ‘बच्चे’ और दक्षिण भारतीय फौजी विराजमान थे। उन सबके पास आरएसी वाली तीन सीटें थीं।
पिछले तीन दिनों से मैं असोम में था। जाने से पहले मन में एक डर था। मैं अपने साथ एक बडे कैमरे के अलावा छोटा कैमरा भी ले गया था। डर था कि कहीं असोमी लोग लूट-पाट या छीना-झपटी ना कर दें। बडी बडी नकारात्मक खबरें थी असोम के बारे में। उस पर ऊपर से कोकराझार के दंगे जो पिछले कई दिनों से चल रहे थे।
शुरूआती दो दिनों में मैंने छोटा कैमरा ही इस्तेमाल किया, वो भी लोगों से बचकर और छिपकर। योजना थी कि वापसी में जब पश्चिमी बंगाल से गुजरूंगा, तब बडा कैमरा निकालूंगा। लेकिन आज यात्रा के पांचवे दिन बडा कैमरा निकल ही गया। लैपटॉप भी निकल गया। हालांकि चार्ज ना हो पाने के कारण यह जल्दी बैठ भी गया।
अब बात विवेक एक्सप्रेस की। भारत परिक्रमा का सबसे बडा आकर्षण मेरे लिये इस ट्रेन से यात्रा करना भी था। कारण कि यह भारत की सबसे लम्बी दूरी (4273 किलोमीटर) तय करने वाली ट्रेन है। मेरा आरक्षण एस-छह में था। ट्रेन में यही डिब्बा था जो आम डिब्बों से कुछ अलग था। इसमें हर कूपे में चार्जिंग के दो-दो पॉइण्ट लगे थे। यानी पूरे डिब्बे में बीस से भी ज्यादा चार्जिंग पॉइण्ट थे। मैं डिब्रुगढ से चढते ही खुश हो गया कि अब चार दिनों की यात्रा में ना तो मोबाइल खत्म होगा और ना ही लैपटॉप। लेकिन चार्जिंग का मेन स्विच बन्द था, इसलिये इतने सारे पॉइण्ट बे-काम के थे। न्यू जलपाईगुडी पहुंचकर टीटी से कहा भी लेकिन कुछ फायदा नहीं हुआ। आखिरकार पूरी यात्रा बिना चार्जिंग के ही करनी पडी। लैपटॉप की तो कोई दिक्कत नहीं थी, हो जा खत्म। मोबाइल की भी दो बैटरियां थीं जो डिब्रुगढ से चलते समय फुल चार्ज थीं। दिक्कत थी कैमरे की, उससे काफी किफायत से काम लेना पड रहा था।
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दीमापुर स्टेशन |
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दीमापुर नागालैण्ड में है। |
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नागालैण्ड के नजारे |
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नागालैण्ड से गुजरती हुई ट्रेन |
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नागालैण्ड की पहाडियां |
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नागालैण्ड की पहाडियां |
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बांस के झुरमुट |
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लामडिंग जंक्शन- असोम का एक मुख्य जंक्शन |
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लामडिंग में मीटर गेज के मालडिब्बे |
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लामडिंग से कई किलोमीटर तक मीटर गेज और बडी लाइन साथ साथ चलती हैं। |
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इसे क्या कहेंगे? मालगाडी या कुछ और। |
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ट्रेन से असोम के नजारे |
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एक सहयात्री |
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असोम में धान के लिये खेत की तैयारी |
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धान के लिये खेत की तैयारी |
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असोम का ग्रामीण वातावरण |
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हल ले जाता हुआ एक किसान |
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असोमी ग्रामीण वातावरण |
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धान की रोपाई |
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एक पूर्वोत्तरी ‘बच्चा’ |
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बादल |
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धान के खेत और बादल |
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दढियल जाटराम |
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जागी रोड स्टेशन |
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नारंगी स्टेशन |
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गुवाहाटी में प्रवेश |
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गुवाहाटी में एक ट्रेन |
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यह है गुवाहाटी स्टेशन |
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गुवाहाटी स्टेशन |
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दूआर के जंगलों में- पश्चिमी बंगाल |
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दूआर, पश्चिमी बंगाल |
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दूआर में शाम की हलचल |
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कन्याकुमारी के लिये दौडती ट्रेन |
अगला भाग: भारत परिक्रमा- छठा दिन- पश्चिमी बंगाल व ओडिशा
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maja aaya nagaland dekha kar.
ReplyDeleteचेन्नई से कब गुजरना होगा भाई?
ReplyDeleteAdhbhut Poorv..
ReplyDeleteये बावळी ट्रेनें भी कहां कहां हो आती हैं.
ReplyDeleteअच्छा है आपका यात्रा वृतांत.
पहाड़ के नीचे बादल, बादल के नीचे जंगल..
ReplyDeleteइसी तरह चलती रहे गाड़ी आपकी.
ReplyDeleteकिर्पया दलाई लामा शब्द का पर्योग किसी व्यक्ति विशेष के लिए न करे |आदरणीय दलाई लामा जी तिब्बती धरम गुरु है ,जो की वर्षों से तिब्बती लोगो के अधिकारों के लिए चीनी सरकार से अहिंसक तरीके से लड़ रहे है|किर्पया उनका सम्मान करें|आशा है आप अन्य लोगो की धार्मिक भावनाओ का सम्मान करंगे और ब्लॉग मे की गयी तुलना को हटा देंगे |धन्यवाद| डॉ. शिरिंग चामलिंग , (धर्मशाला , हि. प्.)
ReplyDeleteबाप दलाई लामा का हमशक्ल लग रहा है। एक तरफ की दोनों खिडकियां ‘दलाई लामा’ और चश्माधारी ने कब्जा ली।
ReplyDeleteपहली बार पता चला की विवेक एक्सप्रेस सबसे लम्बी दुरी करने वाली ट्रेन है, आभार, बाकि फोटोग्राफस बढ़िया रहे
ReplyDeletemaja aa gaya kya likha he "इनमें एक चश्माधारी है- बोलने में नम्बर वन। कोई उसकी बात सुने या ना सुने, उसे बोलना ही बोलना है। और बोलते समय चेहरे पर कोई हाव-भाव नहीं, इसका मतलब यह है कि वो कुछ भी काम की बात नहीं कर रहा है। बाप दलाई लामा का हमशक्ल लग रहा है" very funny.
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