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19 अगस्त 2012
ठीक समय पर ट्रेन चल पडी। यह थी जन्मभूमि एक्सप्रेस (19107) जो अहमदाबाद से ऊधमपुर जाती है। यह गाडी तकरीबन सालभर पहले ही चलना शुरू हुई है। यह एक ऐसी ट्रेन है जो तटीय राज्य से चलकर राजस्थान के धुर मरुस्थलीय इलाके से होती हुई हिमालय की ऊंचाईयों तक जाती है। इसके रास्ते में पंजाब का विशाल उपजाऊ मैदान भी पडता है। वैसे तो अहमदाबाद-जम्मू एक्सप्रेस (19223) भी लगभग इसी रास्ते से चलती है लेकिन वो अर्द्ध मरुस्थलीय रास्ते से निकलकर मात्र जम्मू तक ही जाती है। पहली वाली जोधपुर से जैसलमेर वाली लाइन पर चलकर फलोदी से दिशा परिवर्तन करके लालगढ (बीकानेर) और फिर भटिण्डा के रास्ते जाती है जबकि दूसरी वाली जोधपुर से मेडता रोड, नागौर और बीकानेर के रास्ते भटिण्डा जाती है। दोनों में मुख्य अन्तर बस यही है।
अहमदाबाद से मेहसाना यानी करीब सत्तर किलोमीटर तक डबल गेज की लाइनें हैं यानी मीटर गेज और ब्रॉड गेज की लाइनें साथ साथ बराबर बराबर में। अहमदाबाद से फलोदी होते हुए भटिण्डा एक हजार किलोमीटर से भी ज्यादा है और कुछ साल पहले यह सब मीटर गेज हुआ करता था। अब गुजरात में अहमदाबाद से मेहसाना और उसके आसपास की कुछ लाइनें मीटर गेज की बची हैं। मेहसाना और अहमदाबाद के बीच में मीटर गेज की पांच छह ट्रेनें चलती हैं। मेहसाना से तरंगा हिल के लिये मीटर गेज की डीएमयू भी चलती हैं। मेरी बडी इच्छा है कि मीटर गेज की डीएमयू में यात्रा करूं। बडी लाइन की डीएमयू में कई बार घूम चुका हूं।
पहले चेन्नई के आसपास मीटर गेज की ईएमयू भी चलती थीं, जो गेज परिवर्तन के बाद अब बडी हो गई हैं। शायद अब भारत में कहीं भी मीटर ईएमयू नहीं चलती।
जन्मभूमि एक्सप्रेस के ठहराव काफी दूर दूर हैं। अहमदाबाद से चलकर आबू रोड, उसके बाद जोधपुर, फलोदी, लालगढ...। लेकिन स्पीड नहीं दी गई है इस ट्रेन को। नतीजा यह रहता है कि मरी मरी चाल से चलती हुई भी ट्रेन सही समय पर अगले स्टेशन पर पहुंच जाती है। साबरमती में इसका ठहराव नहीं है लेकिन फिर भी एक घण्टे तक रुकी रही, इस दौरान नई दिल्ली से आने वाली राजधानी एक्सप्रेस को निकाला गया। घण्टे भर तक साबरमती में खडे रहने और फिर धीरे धीरे चलती हुई भी सही समय पर आबू रोड पहुंच गई। अगर कहीं लोको पायलट को लगता कि ट्रेन लेट हो रही है तो स्पीड थोडी सी बढा देता, मसलन पचास से बढाकर साठ कर देता, सत्तर कर देता, फिर से सही समय पर चलने लगती।
असल में होता क्या है कि नई ट्रेन चलाने से पहले उसे कुछ समय तक स्पेशल के तौर पर चलाया जाता है। ट्रेन अगले स्टेशन पर कितने बजे पहुंचेगी, इसके लिये कई गणनाएं करनी पडती हैं। जैसे कि सिंगल ट्रैक है तो स्पीड कम होगी, डबल है तो बढ जायेगी, नॉन-इलेक्ट्रिक है तो कम होगी, इलेक्ट्रिक है तो ज्यादा। साथ ही किसी खण्ड पर अगर किसी खास समय पर कई ट्रेनें चल रही हैं, तो स्पीड कम रखी जायेगी। ट्रैक कितनी स्पीड के लिये डिजाइन किया गया है, यह भी देखा जाता है। यानी बहुत सारे फैक्टर होते हैं किसी ट्रेन के टाइम टेबल में। स्पेशल ट्रेन जब चलाई जाती हैं, तो इन्हीं सब की गणना करके बाद में उसे स्थायी कर देते हैं। यह ट्रेन अभी नई चली है लेकिन इससे पहले स्पेशल नहीं चली थी। पूरा रूट सिंगल लाइन है। आमने-सामने से ट्रेन आने पर एक ट्रेन को रोकना पडेगा। मारवाड तक इधर काफी ज्यादा ट्रैफिक है, जोधपुर तक भी बहुत है। इसलिये इसे ज्यादा स्पीड नहीं दी गई। ऊधमपुर तक 1539 किलोमीटर की दूरी 33 घण्टे 15 मिनट में तय करती है यानी औसत स्पीड 46 किलोमीटर प्रति घण्टा बनती है जो इस तरह की कम ठहरावों वाली ट्रेन के लिये कम ही कही जायेगी।
मेरे वाले कूपे में एक परिवार बैठा था जिसमें एक आदमी, उसकी घरवाली और उनके तीन बच्चे थे- दो लडके और एक लडकी। सब बच्चे पन्द्रह साल से ऊपर के थे। सब के सब बडे शान्तिप्रिय थे। मैं जब भी उन्हें देखता तो सोते हुए ही मिलते। अहमदाबाद से ही उन्होंने सोना शुरू कर दिया था और जम्मू तक सोते हुए ही गये। हालांकि खाने-पीने का समय निकाल लेते थे।
ट्रेन जोधपुर पहुंची। रुकते ही प्रशान्त का फोन आया। वे जोधपुर के ही रहने वाले हैं और कुछ दिन पहले तक मदुरई में नौकरी करते थे। एक बार वे जोधपुर आये थे और वापस मदुरई जाते समय नई दिल्ली से मदुरई तक का आरक्षण हिमसागर एक्सप्रेस से कराया था। तब उन्होंने बताया था कि वे फलां तारीख को नई दिल्ली स्टेशन पर पहुंच जायेंगे। हिमसागर एक्सप्रेस असल में दो ट्रेनों का सम्मिश्रण है- एक मुख्य यानी त्रिवेन्द्रम के रास्ते कन्याकुमारी जाने वाली और दूसरी तिरुनेलवेली जाने वाली। दोनों जम्मू से सेलम तक साथ-साथ जाती हैं। सेलम में दोनों अलग अलग हो जाती हैं। कन्याकुमारी वाली कोयम्बटूर की तरफ चलती बनती है और लिंक एक्सप्रेस मदुरई की तरफ। मैंने सोचा कि महाराज को मदुरई ही जाना है तो वे मदुरई वाले डिब्बों में मिलेंगे।
मैं नई दिल्ली स्टेशन पहुंचा, उन्हें फोन किया तो स्विच ऑफ मिला। सोचा कि बैटरी खत्म हो गई होगी। मैं उन्हें नहीं पहचान सकता था जबकि वे पहचान सकते थे। मैं मदुरई वाले डिब्बों के इर्द-गिर्द चक्कर लगाता रहा। हर चक्कर में लगता कि महाराज अब आवाज लगायेंगे लेकिन अपने समय पर ट्रेन चली गई, ना तो प्रशान्त मिला और ना ही उनकी आवाज सुनाई दी। मैंने उन्हें सन्देश भेजा कि आज की मुलाकात शानदार रही।
बाद में पता चला कि स्टेशन पर उनका फोन चोरी हो गया था।
तो आज जोधपुर स्टेशन पर उनका फोन आया कि वे मेरे डिब्बे के सामने खडे हैं। हम मिले। इससे पहले हमारी केवल कभी कभार बातचीत ही होती थी, मिले कभी नहीं थे। वे मोटे-तगडे और हट्टे कट्टे शरीर के मालिक हैं। पन्द्रह बीस मिनट तक ट्रेन स्टेशन पर खडी रही, हम बातें ही करते रहे। ध्यान नहीं कि क्या क्या बातें हुईं। अब पता चला कि उन्होंने मदुरई वाली नौकरी छोड दी है और जोधपुर में ही लग गये हैं। इस गरीब को अगर कभी जोधपुर जाना होगा तो वे बडे काम आयेंगे।
जोधपुर से भी चल पडे। गाडी ने मेडता वाली लाइन छोड दी और जैसलमेर वाली लाइन पकड ली। मुझे पता था कि अब रेगिस्तान की रेत का सामना करना पडेगा। एक बार पहले इस रेत को भुगत चुका हूं। गाडी में रेत का तूफान चलने लगता है। बुखार तो हालांकि अब नहीं था लेकिन वो खांसी दे गया था। इस खांसी में हवा में उडते रेत के कण बडे खतरनाक साबित हो सकते थे इसलिये मैंने अपने तौलिये को पानी से भिगोकर निचोड लिया और उसमें मुंह लपेटकर अपनी बर्थ पर लेट गया।
अनुमान के मुताबिक अच्छी खासी रेत मिली। हर आदमी मुंह लपेटे नजर आया।
रात आठ बजे फलोदी पहुंचे। यहां गाडी का इंजन इधर से उधर होना था और इसके चलने का समय था आठ पचपन। यानी लगभग एक घण्टे बाद। फलोदी हालांकि एक जंक्शन है लेकिन कम ट्रेनें आने के कारण इसकी उतनी अहमियत नहीं है। इस ट्रेन में रसोईयान भी नहीं था, जिसकी वजह से खाने की दिक्कत पड रही थी। फलोदी ने खाना खिला दिया।
इन दिनों रामदेव जी का मेला चल रहा था। जोधपुर से लेकर फलोदी तक भीड ही दिखाई पडी। चूंकि यह ट्रेन रामदेवरा नहीं जाती, इसलिये यह भीड से बच गई। रामदेव जी की राजस्थान के साथ साथ गुजरात और मध्य प्रदेश में बडी मान्यता है, दूर दूर से लोग आते हैं। जोधपुर से रामदेवरा तक एक स्पेशल पैसेंजर ट्रेन नियमित चक्कर लगाती रहती है। फलोदी भी पूरी तरह रामदेवमय था। शायद स्टेशन से बाहर कहीं भण्डारा भी लगा हो।
यहां मैंने अपने सोतडू साथियों से कह दिया कि गाडी घण्टे भर बाद चलेगी, तो वे उठे और बाहर निकले। एक लडके से बातचीत हुई तो उसने बताया कि वे गुजराती हैं। हालांकि मुझे वे गुजराती नहीं लगे। क्यों नहीं लगे, यह नहीं बताऊंगा।
ट्रेनों में पानी की बारह रुपये की बोतल को पन्द्रह रुपये में खरीदने और बेचने का रिवाज है। यहां यह रिवाज थोडा और बढा हुआ था। दो जने टब में पानी की बोतलें बेच रहे थे बीस बीस रुपये की। और वे भी जमकर बिक गईं। दो बोतलें खरीदने पर दस रुपये का डिस्काउण्ट भी दे रहे थे वे। हालांकि स्टेशन पर लगे एक स्टॉल पर यही बोतलें पन्द्रह पन्द्रह की थीं।
गाडी ठीक आठ पचपन पर फलोदी से लालगढ से लिये रवाना हो गई। मैंने फिर से गीले तौलिये में मुंह लपेटा और सो गया। सुबह भटिण्डा पहुंचकर उठेंगे।
अगला भाग: भारत परिक्रमा- तेरहवां दिन- पंजाब व जम्मू कश्मीर
ट्रेन से भारत परिक्रमा यात्रा
1. भारत परिक्रमा- पहला दिन
2. भारत परिक्रमा- दूसरा दिन- दिल्ली से प्रस्थान
3. भारत परिक्रमा- तीसरा दिन- पश्चिमी बंगाल और असोम
4. भारत परिक्रमा- लीडो- भारत का सबसे पूर्वी स्टेशन
5. भारत परिक्रमा- पांचवां दिन- असोम व नागालैण्ड
6. भारत परिक्रमा- छठा दिन- पश्चिमी बंगाल व ओडिशा
7. भारत परिक्रमा- सातवां दिन- आन्ध्र प्रदेश व तमिलनाडु
8. भारत परिक्रमा- आठवां दिन- कन्याकुमारी
9. भारत परिक्रमा- नौवां दिन- केरल व कर्नाटक
10. भारत परिक्रमा- दसवां दिन- बोरीवली नेशनल पार्क
11. भारत परिक्रमा- ग्यारहवां दिन- गुजरात
12. भारत परिक्रमा- बारहवां दिन- गुजरात और राजस्थान
13. भारत परिक्रमा- तेरहवां दिन- पंजाब व जम्मू कश्मीर
14. भारत परिक्रमा- आखिरी दिन
रेलगाड़ियों की माँग अधिक है, काश सब ट्रेन के अन्दर ही बैठते।
ReplyDeleteपता नहीं हमारी रेल व्यवस्था कब सुधरेगी...काश इसे सुधारने के लिए भी कोई श्रीधरन आ जाए..वन्देमातरम
ReplyDeleteगुप्ता जी, गडबड क्या है?
Deleteआप किस सुधार की बात कर रहे हैं?
आपको क्या कमी लगती है जो सुधरनी चाहिये?