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15 अगस्त 2012
आज स्वतन्त्रता दिवस है। असोम से मेरे जो साथी तीन दिनों से साथ आ रहे थे, वे कल देर रात तक धीरे धीरे छोडकर चले गये। उनकी जगह और लोग आ गये, जिनकी यात्रा मात्र एक रात की ही होगी। कुछ सेलम से आये, कुछ ईरोड से, कुछ कोयम्बटूर से।
मेरी आंख खुली सुबह साढे छह बजे के आसपास। ट्रेन त्रिवेन्द्रम पहुंचने वाली थी। बाहर बारिश हो रही थी। सभी खिडकियां बन्द थीं। पंखे भी बन्द थे। नीचे वाली सवारियों को ठण्ड लगने लगी थी, इसलिये उन्होंने पंखे बन्द कर दिये थे।
केरल पश्चिमी घाट की पहाडियों के बीच बसा हुआ है। पश्चिमी घाट की पहाडियां मानसून में खूब बारिश के लिये मशहूर हैं। मेरी अभी तक की तटीय यात्रा पूर्वी घाट के साथ साथ हुई है। कहीं भी बारिश नहीं मिली। बल्कि कल तो आन्ध्र प्रदेश में इतनी गर्मी थी कि गर्म हवा लग रही थी। अब यात्रा पश्चिमी तट के साथ साथ होगी। कन्याकुमारी से मुम्बई और उससे भी आगे वडोदरा तक खूब बारिश का सामना करना पडेगा, ऐसा मेरा अन्दाजा है।
त्रिवेन्द्रम में गाडी बिल्कुल खाली हो गई। ठीक समय पर ट्रेन आगे के लिये चल पडी। इस गाडी का कन्याकुमारी पहुंचने का समय ठीक दस बजे है। तय कार्यक्रम के अनुसार अगर यह ट्रेन कन्याकुमारी सही समय पर पहुंच जाती है तो मुझे इसके आधे घण्टे बाद त्रिवेन्द्रम वाली ट्रेन पकड लेनी है। यह केवल एक ट्रेन यात्रा है, ना कि भारत यात्रा। इरादा है कि कन्याकुमारी में घूमना नहीं है। त्रिवेन्द्रम पहुंचना है, वहां से रात आठ चालीस की ट्रेन है मंगलौर की। इस दौरान थोडा बहुत त्रिवेन्द्रम में घूम-घाम लेना है खासकर पदमनाभस्वामी मन्दिर।
नागरकोविल पहुंचने से पहले इस ट्रेन को रोककर तीन ट्रेनों को पास दिया गया। तीनों में से दो पैसेंजर ट्रेनें थीं। ताज्जुब होता है कि भारत की सबसे लम्बी ट्रेन को रोककर पैसेंजर ट्रेनों को पास दिया जाये। नहीं तो कायदा बनता है कि पैसेंजरों को रोककर एक्सप्रेस को जाने दिया जाये। चिन्ता होने लगी कि पता नहीं कन्याकुमारी से साढे दस वाली ट्रेन पकड पाऊंगा या नहीं।
लेकिन जब यह गाडी बिल्कुल सही समय पर नागरकोविल पहुंची तो सुकून की सांस ली। अब तो कोई माई का लाल इसे सही समय पर कन्याकुमारी पहुंचने से नहीं रोक पायेगा। डिब्रुगढ से यहां तक एक मिनट भी लेट नहीं हुई तो अब क्या लेट होगी!
और भारतीय रेल जिन्दाबाद घोषित हो गई जब विवेक एक्सप्रेस 4273 किलोमीटर की यात्रा करके, 82 घण्टों में आठ राज्यों को पार करती हुई एक मिनट भी लेट हुए बिना कन्याकुमारी पहुंच गई। आज स्वतन्त्रता दिवस के मौके पर भारतीय रेल को भी जयहिन्द।
रास्ते में कई जगह 15 अगस्त मनाया जा रहा है। और वो भी बडे मजेदार अन्दाज से। चौराहों पर या किसी खाली मैदान के आसपास तिरंगी झण्डियां लगी हैं और लाउडस्पीकर से गीत बज रहे हैं। गीत तमिल में बज रहे हैं, इसलिये मेरे पल्ले नहीं पड रहे लेकिन इतना पक्का है कि देशभक्ति गीत ही हैं। कहीं कहीं हिन्दी में भी बज रहे हैं। सुदूर दक्षिण में, तमिलनाडु में जहां के बारे में कहा जाता है कि वे लोग घोर हिन्दी विरोधी हैं, हिन्दी देशभक्ति गीत सुनना बडा रोमांचक है।
कन्याकुमारी स्टेशन पर मैं उतरा तो साढे दस वाली ट्रेन बगल वाले प्लेटफार्म पर तैयार खडी है। रेलवे वाले उसे तिरंगे झण्डों, झण्डियों और सजावटी चीजों से सजा रहे हैं। यहां मेरा मन परिवर्तन हुआ। सोचने लगा कि कन्याकुमारी यानी भारत की मुख्यभूमि के सुदूरतम दक्षिणी भाग में स्वतन्त्रता दिवस कैसा मनाया जा रहा है। साढे दस वाली ट्रेन से जाने की इच्छा छोड दी। बस से चला जाऊंगा।
मैं 11 तारीख को डिब्रुगढ में ही नहाया था, उसके बाद कहीं भी नहाने का मौका नहीं मिला। सबसे पहला काम नहाने का था जो यहीं प्रतीक्षालय में निपटा लिया गया। तरोताजा होकर कन्याकुमारी के भ्रमण पर निकल पडा।
मोबाइल पर नेट चलाकर पहले ही देख लिया था कि कन्याकुमारी स्टेशन से विवेकानन्द चट्टान तक रास्ता कहां से जाता है, तो उसी हिसाब से चल पडा। स्टेशन से कुछ ही दूर चला कि एक चर्च का बोर्ड दिखाई दिया। वो चर्च समुद्र ही दिशा में था, तो मैं चल पडा उसी तरफ। अब उसका नाम ध्यान नहीं लेकिन देखने में बडा शानदार दिख रहा था।
विवेकानन्द स्मारक- यानी योग-साधना करने वालों के लिये एक दर्शनीय जगह। इसी कारण यहां साधु-सन्त भी खूब आते हैं। उत्तर भारतीय लोग ज्यादातर वे आते हैं, जो सरकारी नौकरी में हैं। एलटीसी लेते हैं और सबसे लम्बी दूरी वाली राजधानी एक्सप्रेस में बैठकर त्रिवेन्द्रम आ जाते हैं और दक्षिण भारत घूमते हैं। मेरा भी नम्बर लगने वाला है अगले तीन चार महीनों में एलटीसी लेने का। इसमें मुझे राजधानी थर्ड एसी में फ्री में यात्रा करने को मिलेगी। अगर मैं पूर्वोत्तर जाना चाहूंगा तो फ्री में हवाई जहाज भी मिलेगा। साथ ही घूमने और खाने-पीने और रुकने का खर्चा भी। ऐशो-आराम की यात्रा होती है एलटीसी वाली लेकिन मिलती चार साल में एक बार है।
खैर, अब लगता ही नहीं कि यहां कोई चट्टान है जिसपर कभी विवेकानद बैठे थे। भयंकर विकास कर दिया लेकिन अभी भी एक गडबड कर रखी है कि यह मुख्य भूमि से करीब डेढ सौ मीटर दूर है, जहां आराम से पुल बनाया जा सकता है। अभी फेरी सर्विस चलती है, जिसका किराया प्रति व्यक्ति तीस रुपये है। इतना तो ठीक है लेकिन इस फेरी के लिये बडी लम्बी लाइन में लगना पडता है। पहले तो मुख्य भूमि पर, फिर चट्टान से वापस वापस लौटने के लिये, चट्टान के और मुख्य भूमि के बीच में एक बाबा की भव्य मूर्ति है, अगर उस मूर्ति पर भी जाना है तो फिर से लाइन। यहां एक ही पुल से बल्कि पुलिया से तीनों जगहों की लम्बी लाइनों से बचा जा सकता था। रही बात पैसे कमाने की तो तीस तीस रुपये वहां भी चार्ज ले सकते हैं।
और माहौल तो आध्यात्मिक है ही। जिन्हें कुछ भी आध्यात्मिक अक्ल नहीं है, उन्हें यहां नहीं आना चाहिये। इसका एक कारण है। वे कभी नहीं समझ पायेंगे कि क्यों विवेकानन्द यहां आये थे और उन्होंने क्या हासिल किया। पल्ले उनके कुछ पडेगा नहीं और वे इस जगह की अहमियत जाने बिना ही, फोटो खींचकर और पिकनिक मनाकर यहां से चले जायेंगे। पिकनिक ही मनाना है तो यहां क्यों आये, किसी बीच पर चले जाते, या नदी किनारे चले जाते, पूरा केरल पिकनिक मनाने के लिये है। यह चट्टान पिकनिक की जगह नहीं है।
वापस मुख्य भूमि पर लौटने के लिये फिर से लम्बी लाइन में लगना पडा। घण्टे भर में नम्बर आया। यहां जो फेरी चलती है, वो मुख्य भूमि से चलकर पहले विवेक मेमोरियल पर जाती है, फिर उसी की बगल में छलांग भर की दूरी पर स्थित उस बाबा की मूर्ति पर जाती है, उसके बाद मुख्य भूमि पर लौट जाती है। इस दौरान इसमें यात्री चढते उतरते रहते हैं। मेरा मन बाबा की मूर्ति तक जाने का नहीं था, इसलिये मैं मेमोरियल से चलकर बाबा के यहां नहीं उतरा और थोडी देर में मुख्य भूमि पर आ गया।
एक राजस्थानी होटल पर सत्तर रुपये की रोटी- दो सब्जी- दो दाल- चावल की थाली मिल गई। यहीं से पता कर लिया कि त्रिवेन्द्रम की बस कहां से मिलेगी। उन्होंने बताया कि मेन रोड से। मेन रोड के बारे में मुझे किसी से पूछने की जरुरत नहीं थी, इस तकनीक से पूरी तरह लैस था मैं।
मैं तमिलनाडु आने से डरता था क्योंकि मैंने सुना था कि वहां के लोग हिन्दी भाषियों को पसन्द नहीं करते। यह भी सुना था कि वे हिन्दी जानते हैं लेकिन अगर उनसे कोई हिन्दीभाषी टकरा जाये तो वे जान-बूझकर अनजान बन जाते हैं। कभी कभी तो गुमराह भी करते हैं। यह बात मेरे दिमाग में अच्छी तरह घुसी हुई थी, क्योंकि एक से नहीं मैंने यह बात कई लोगों से सुनी थी। कन्याकुमारी तमिलनाडु में है तो इस तथ्य को परख रहा था। लेकिन अभी तक इसमें कहीं भी सच्चाई नहीं मिली। ज्यादातर आदमी हिन्दी जानते वाले मिले और उन्होंने गुमराह भी नहीं किया।
बस स्टैण्ड पर एक लोकल आदमी भी खडा था। देखने में बिल्कुल ऐसा लग रहा था कि यह पक्का हिन्दी नहीं जानता होगा। चलो, इससे इंग्लिश में पूछते हैं। इंग्लिश में पूछने ही वाला था कि हिन्दी मुंह से निकल पडी- भाई, त्रिवेन्द्रम की बस यहीं से मिलेगी क्या? बोला कि हां, मिलेगा... मिलेगा... मिलेगा ना... बस यहीं से मिलेगा...। अब मैं बेफिक्र हो गया कि जब बस आयेगी, यह महाराज मुझे बतायेगा जरूर।
जैसे ही एक बस आई, उसपर तमिल में कुछ लिखा था कि कहां जायेगी, तो महाराज बोले कि इसमें चले जाओ... नगरकोइलै से बदल लेना...।
उस समय तो मुझे उसके द्वारा बोला गया नगरकोइलै समझ नहीं आया, लेकिन जब सुचिन्द्रम से आगे निकल गये तो समझ में आया कि वो नगरकोइलै (नागरकोविल) कह रहा था।
नागरकोविल एक जिला मुख्यालय भी है। जिले का नाम है कन्याकुमारी। मुख्य बस अड्डा बिल्कुल ऐसा ही था जैसे कि उत्तर भारत के बडे बस अड्डे होते हैं। हर तरफ तमिल ही दिखाई पड रही थी। इससे पहले कि मैं किसी को पकडकर डिस्टर्ब करता कि बता त्रिवेन्द्रम, मुझे कोवलम बीच जाने वाली बस मिल गई। कोवलम बीच अंग्रेजी में लिखा था। तमिलनाडु रोडवेज की बस थी। मेरे बैठते ही बस चल पडी। बारह रुपये लगे कन्याकुमारी से नागरकोविल तक जाने के और पचास रुपये लगे नागरकोविल से त्रिवेन्द्रम जाने के। त्रिवेन्द्रम सेण्ट्रल रेलवे स्टेशन के सामने ही उतर गया मैं। रास्ते में कई जगह हिन्दी गाने बजते मिले- इश्क इश्क करना है कर ले....। पन्द्रह अगस्त अभी भी मन रहा था। जब बस तमिलनाडु से केरल में घुसी तो केरल वालों ने हिन्दी में स्वागत किया- केरल राज्य में आपका स्वागत है। यहां महसूस हुआ कि हमारा भी कोई है।
नारियल की बडी भयंकर पैदावार है यहां। जो काम हमारे यहां नीम, आम, पोपलर, यूकेलिप्टस, पीपल, बरगद, जामुन, खजूर, कीकर सब मिलकर करते हैं, उससे ज्यादा काम अकेला नारियल कर देता है। कबीरदास अगर यहां आये होते तो ‘फल लागे अति दूर’ पंक्ति तो लिख देते लेकिन ‘पंथी को छाया नहीं’ कभी नहीं लिखते बल्कि उसकी जगह लिखा जाता ‘पंथी को छाया ही छाया’।
कबीरदास से याद आया कि मैं रविदास का भयंकर विरोधी हूं। वे कहते थे कि ‘मन चंगा तो कठौती में गंगा’। यानी घर में पडे रहो। मन को चंगा रखोगे तो गंगा नहाने की, बाहर निकलने की जरुरत ही नहीं है। पक्का ध्यान नहीं कि यह जुमला रविदास का है या किसी और का है।
चलो, वापस केरल पहुंचते हैं। नारियल का जिक्र चल रहा था। नारियल का साथ निभाता है केला। बडे लम्बूतरे भाई के नीचे ठिगना केले का पेड हर जगह मिलता है। खेतों में गेहूं धान की नहीं बल्कि नारियल-केले की खेती होती है। केले का पेड एक बार ही फलता है, जब उसमें फल आ जाते हैं तो तने समेत काटकर बाजार में पहुंचा देते हैं। यहां यह बजरंगी की गदा की तरह दिखता है। पुराने जमाने में बजरंगी की गदा कोई नहीं झेल सकता था, आज भी वहीं हालात हैं, ‘बजरंगी की गदा’ कोई नहीं झेल सकता। पांच छह दर्जन केले होते हैं एक गदा में और सब बडे बडे लम्बे लम्बे। कोई खुद को कितना भी बडा भुक्कड समझता हो, एक गदा नहीं खा पायेगा। और मजे की बात ये भी है कि केले हर जगह मिलते हैं, जैसे कि मेडिकल स्टोर पर, कोल्ड ड्रिंक की दुकान पर...। हरे और पीले केले के साथ लाल केले भी होते हैं।
दिल्ली में जब पानी वाला नारियल आता है तो वो हरा होता है, यहां भी ज्यादातर हरे ही होते हैं लेकिन बैंगनी नारियल भी मिल जाते हैं। अगर बैंगनी नारियल दिल्ली में मेरे सामने पड जाये तो मैं सबसे पहले उससे पूछूंगा कि भाई, बैंगन क्या भाव है? वो सोचेगा कि मुर्गा फंस रहा है। बोलेगा चालीस रुपये किलो। मैं तुरन्त उससे कहूंगा कि तौल दे एक किलो। बिल्कुल बडे बडे साफ बैंगन जैसा ही दिखता है यह।
त्रिवेन्द्रम सेण्ट्रल स्टेशन पर एसी वेटिंग रूम का किराया लगता है- दो घण्टे के दस रुपये। यहां मुझे तीन घण्टे बैठना था। स्टेशन से डेढ किलोमीटर दूर पदमनाभस्वामी मन्दिर है लेकिन इच्छा नहीं हुई जाने की। मोबाइल, कैमरा, लैपटॉप सबकुछ खत्म पडे थे। वेटिंग रूम में सब चार्ज हो गये।
ठीक आठ चालीस पर अपनी मंगलौर वाली ट्रेन चल पडी। वहां से मत्यगन्धा एक्सप्रेस पकडकर मुम्बई जाऊंगा।
केरल से कब तमिलनाडु में प्रवेश कर जाते हैं, पता ही नहीं चलता। |
साड्डा जट्टा |
ट्रेन टू कन्याकुमारी |
रास्ते के नजारे |
स्वतन्त्रता दिवस की झलक |
नारियल |
यह एक छोटा स्टेशन है, जहां विवेक एक्सप्रेस को दूसरी ट्रेनों के लिये रोक दिया गया। |
दक्षिणी तमिलनाडु |
दक्षिणी तमिलनाडु |
नागरकोविल में मदुरई से आने वाली लाइन भी मिल जाती है। |
नागरकोविल स्टेशन |
कन्याकुमारी की ओर |
यह रहा कन्याकुमारी और तिरंगे से सजी ट्रेन |
जयहिन्द |
यह ट्रेन भारत की सबसे लम्बी दूरी तय करने वाली ट्रेन है। मैं अभी इसी ट्रेन से डिब्रुगढ से आया हूं। |
कन्याकुमारी |
ट्रेन पर लगे तिरंगे |
कन्याकुमारी रेलवे स्टेशन |
कन्याकुमारी में चर्च |
चर्च पर फहराता तिरंगा |
चर्च के अन्दर |
चर्च के अन्दर |
चर्च के फर्श की टाइल। अजीब सी लग रही हैं। है ना? |
चर्च में जाटराम |
अब चलते हैं विवेकानन्द मेमोरियल की तरफ |
विवेक मेमोरियल के पास लगी एक बाबा की बडी मूर्ति |
फेरी की प्रतीक्षा में लगी लाइन। |
मेमोरियल से दिखता कन्याकुमारी |
कन्याकुमारी |
विवेकानन्द मेमोरियल के अन्दर |
विवेकानन्द मेमोरियल |
कन्याकुमारी |
विवेकानन्द मेमोरियल |
कन्याकुमारी का समुद्र यानी समुद्री संगम |
कन्याकुमारी का समुद्र |
तेज समुद्री हवाओं से चलतीं पवन चक्कियां |
एक समुद्री चिडिया |
कन्याकुमारी |
कन्याकुमारी- फेरी की प्रतीक्षा में |
कन्याकुमारी |
विवेक मेमोरियल |
विवेक मेमोरियल- यहीं पर विवेकानन्द आध्यात्मिक शक्ति प्राप्त करके विश्व धर्म सम्मेलन में भाग लेने शिकागो गये थे। |
बाजार में बिकते शंख |
कन्याकुमारी |
अगला भाग: भारत परिक्रमा- नौवां दिन- केरल व कर्नाटक
ट्रेन से भारत परिक्रमा यात्रा
1. भारत परिक्रमा- पहला दिन
2. भारत परिक्रमा- दूसरा दिन- दिल्ली से प्रस्थान
3. भारत परिक्रमा- तीसरा दिन- पश्चिमी बंगाल और असोम
4. भारत परिक्रमा- लीडो- भारत का सबसे पूर्वी स्टेशन
5. भारत परिक्रमा- पांचवां दिन- असोम व नागालैण्ड
6. भारत परिक्रमा- छठा दिन- पश्चिमी बंगाल व ओडिशा
7. भारत परिक्रमा- सातवां दिन- आन्ध्र प्रदेश व तमिलनाडु
8. भारत परिक्रमा- आठवां दिन- कन्याकुमारी
9. भारत परिक्रमा- नौवां दिन- केरल व कर्नाटक
10. भारत परिक्रमा- दसवां दिन- बोरीवली नेशनल पार्क
11. भारत परिक्रमा- ग्यारहवां दिन- गुजरात
12. भारत परिक्रमा- बारहवां दिन- गुजरात और राजस्थान
13. भारत परिक्रमा- तेरहवां दिन- पंजाब व जम्मू कश्मीर
14. भारत परिक्रमा- आखिरी दिन
कन्याकुमारी देखने का फ़ैसला बढिया रहा, नही तो ट्रेन में पडे-पडे ही भारत रेल यात्रा हो जाती,इस यात्रा का सबसे बेहतरीन स्थान।
ReplyDeleteमैंने पिछली बार की LTC में यहाँ
कन्याकुमारी, त्रिवेन्द्रम, रामेश्वरम, त्रिरुपति, शिरडी, नान्देड की यात्रा एक बार में ही रेल से की थी,
दिल्ली से जाते समय भारत की सबसे लम्बी राजधानी रेल का किया जाट देवता सफ़र मस्त रहा था।
कन्याकुमारी के बारे में जानकर अच्छा लगा, धन्यवाद, वन्देमातरम..
ReplyDeleteवाह, हरा भरा भारत, आसाम से केरल तक..
ReplyDeleteबहुत सुन्दर कन्याकुमारी
ReplyDeleteफोटुओं के लिये धन्यवाद
रविदास और रैदास एक ही संत कवि का नाम है जो कबीर के गुरुभाई भी थे। "कठौती" काठ (लकडी) का एक बर्तन होता है, जिसमें मोची का कार्य करने वाले पानी रखते हैं।
प्रणाम
नीरज जी ,
ReplyDeleteबहुत अच्छा यात्रा वर्णन है, फोटो बहुत खुबसुरत हैं। भक्त कबीर और संत रविदास भारत के महान संत हैं। उन्होंने जो लिखा है मानव कल्याण के लिए लिखा है. किसी भी संत ने यात्रा का विरोध नहीं किया.
धन्यवाद
यार जाट राम। यात्रा यात्रा यात्रा। कुछ रुका भी करो भाई। जैसे कन्याकुमारी में रुके। कुछ हमें भी तो पता लगता रहे जहाँ जहाँ जाते हो वहाँ के बारे में।
ReplyDeleteअच्छा वर्णन।
.photo achha hai.kanyakumari ke bare me kafi jankari hui.Tirnga dekh kar akhnd bharat ka ehsas hota hai.market ke bare me jankari hui.thanks
ReplyDeleteNEERJ JI, GOOD JOURNEY AND GOOD PHOTOGRAPH, THANK YOU
ReplyDeleteवो बाबा की मूर्ति महर्षि अगस्त्य की है.
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