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गौमुख से तपोवन- एक खतरनाक सफर

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तपोवन के लिये चलने से पहले बता दूं कुछ बातें जो मैंने तपोवन से वापस आकर सुनीं। सबसे पहली बात तो मेरे साथ जाने वाले पत्रकार चौधरी साहब ने ही कही कि तपोवन तक जाना द्रौपदी के डांडे से भी कठिन है। अब यह द्रौपदी का डांडा क्या बला है? असल में चौधरी साहब ने उत्तरकाशी स्थित नेहरू पर्वतारोहण संस्थान (निम) से पर्वतारोहण का बेसिक कोर्स कर रखा है। यह कोर्स एक महीने का होता है और इसमें पर्वतारोहण की हर बारीकी सिखाई जाती है। ट्रेकिंग और पर्वतारोहण में फर्क होता है। सबसे बडा अन्तर तो यही है कि ट्रेकिंग में अपने ऊपर थोडा सा सामान लादकर दो-चार दिन पैदल चला जाता है। ज्यादा हुआ तो एकाध दर्रा पार कर लिया। लेकिन पर्वतारोहण इससे आगे की चीज है। उसमें ज्यादा सामान अपने ऊपर लादा जाता है और कोई चोटी फतह की जाती है। यानी जहां ट्रेकिंग खत्म हो जाती है, वहां से आगे पर्वतारोहण शुरू हो जाता है। भारत में पर्वतारोहण केवल उच्च हिमालय में ही किया जा सकता है जबकि ट्रेकिंग कहीं भी की जा सकती है। हिमालय के बाद पश्चिमी घाट की पहाडियां ट्रेकिंग के लिये जानी जाती हैं, जबकि वहां पर्वतारोहण नहीं हो सकता। कुछ भी हो, ट्रेकिंग का बाप होता है पर्वतारोहण।
तो चौधरी साहब ने कहा कि द्रौपदी का डांडा... यह उत्तरकाशी जिले में ही एक चोटी है जो 6000 मीटर से ज्यादा ऊंची है। पर्वतारोहण में हमेशा टैक्निकल चढाई चढी जाती है। टैक्निकल चढाई का मतलब है कि इंसान अपने बलबूते पर, अपनी शारीरिक क्षमता पर चढाई नहीं कर सकता। सबसे पहले तो उसे आइस एक्स (बर्फ काटने वाली कुल्हाडी) चाहिये, उसके बाद रस्सी और भी काफी सारे यन्त्र होते हैं, जिनसे वे चढाई करते हैं। पर्वतारोहण खुद में एक जबरदस्त खतरनाक काम होता है।
ऐसे में चौधरी साहब का यह बयान कि तपोवन का रास्ता द्रौपदी के डांडे से भी कठिन है, वाकई इस रास्ते की भयानकता को बताता है। मैंने कभी पर्वतारोहण नहीं किया है, इसलिये मुझे भी लगने लगा कि आज मैं भी कुछ करके आया हूं। इसके अलावा कुछ लोग ऐसे भी मिले, जो गौमुख से तपोवन के लिये निकले और नहीं पहुंच पाये। वे गौमुख तक तो ठीक थे, लेकिन उसके बाद उन्हें सांस लेने में दिक्कत आने लगी। एक दो लोग ऐसे भी थे, जो तपोवन तक पहुंचे भी लेकिन वहां रुक नहीं सके। तुरन्त वापस हो लिये। तपोवन की ऊंचाई समुद्र तल से 4300 मीटर से ज्यादा है।
चलिये, अब हम भी ऐसी जगह पर चलते हैं। अगर आप भी तपोवन जाने का मन बना रहे हैं तो पहली शर्त यही है कि अगर आप पूरी तरह सशक्त नहीं हैं, तो गंगोत्री से या रास्ते से कोई गाइड या पॉर्टर ले लेना। सबसे जरूरी काम है रास्ता ढूंढना। चूंकि रास्ता ग्लेशियर के ऊपर से होकर है और ग्लेशियर में लगातार परिवर्तन होता रहता है, इसलिये हमेशा नया रास्ता ढूंढना पडता है।
आज मैं पहली बार किसी ग्लेशियर पर चढा था। हालांकि मैंने अपनी पिछली पोस्टों में भी ग्लेशियर शब्द का इस्तेमाल किया है लेकिन असली ग्लेशियर जो होता है, वहां आज पहली बार पहुंचा था। हिमालय की ऊंचाईयों पर सर्दियों में हर साल खूब बर्फ पडती है। ठण्ड की वजह से वो बर्फ आसानी से जल्दी नहीं पिघलती और गर्मियां आते आते काफी जम जाती है लेकिन फिर भी वो बर्फ (Snow) ही रहती है। उसे हिम (Ice) बनने में सालों लगते हैं। बर्फ चाहे कितनी भी जम जाये, उसमें आसानी से बिना किसी विशेष तकनीक के पैर जमाये जा सकते हैं और उसे पार किया जा सकता है लेकिन हिम कांच की तरह ठोस और चिकनी होती है। उसमें आसानी से कील तक नहीं ठोकी जा सकती, तो पैर जमने का सवाल ही नहीं उठता। और यहां गौमुख ग्लेशियर पर करीब दो किलोमीटर चलना है, ग्लेशियर की सतह बडी ऊबड-खाबड और ऊंची नीची है, कई दीवारें भी हैं। लेकिन प्रकृति ने एक बडी सुविधा दे रखी है कि पूरी सतह पर खूब पत्थर पडे हैं, जिनपर पैर रखकर चला जा सकता है। फिसलने का डर कम हो जाता है।
9 जून 2012 की दोपहर तक हम गौमुख के ऊपर चढ चुके थे। पत्थरों की वजह से ग्लेशियर बडी मुश्किल से दिखता है। नन्दू बडी सफाई से रास्ता ढूंढता और हम आसानी से उसके पीछे चल देते। तभी नन्दू ने एक तरफ उंगली उठाकर बताया कि वो रहा तपोवन। हमें वहां जाना है। तपोवन देखते ही हमें खुशी होनी चाहिये थी, लेकिन उसकी लोकेशन देखकर पैरों तले से ‘ग्लेशियर’ खिसक गया। अक्सर जमीन ही खिसकती है, लेकिन हम जमीन पर नहीं बल्कि ग्लेशियर पर थे, इसलिये जमीन खिसकना व्यावहारिक रूप से सही नहीं है। ग्लेशियर पार करके रेत और बजरी की एक सीधी खडी लगभग 250 मीटर ऊंची दीवार थी, जिसपर चढना है। जो रास्ता नन्दू ने बताया, वहां से अमरगंगा नीचे गिरती है, रास्ता अमरगंगा के साथ साथ ऊपर चढता है। मैंने इधर उधर निगाह दौडाई कि कहीं और से अपेक्षाकृत आसान रास्ता दिख जाये। मैं सोच रहा था कि एक बार किसी तरह ऊपर उस दीवार पर चढ जायें तो चाहे ऊपर कैसा भी हो, हम तपोवन में सही जगह पर पहुंच जायेंगे। लेकिन धुर से धुर तक निगाह दौडा ली लेकिन कहीं भी आसान रास्ता नहीं दिखाई पडा। छोडो, वो तो बाद की बात है, पहले गौमुख ग्लेशियर तो पार कर लें।
नन्दू इस इलाके का अच्छा जानकार है। वो यहां अनगिनत बार आ चुका है। पांच बार कालिन्दीखाल पार कर चुका है। कालिन्दीखाल एक ऐसा दर्रा है, जो भागीरथी के जल संग्रह क्षेत्र और अलकनन्दा के जल संग्रह क्षेत्रों को अलग अलग करता है। यानी इस दर्रे से होकर गंगोत्री से बद्रीनाथ जाया जा सकता है। लेकिन इसे पार करना आसान नहीं है। इसे पार करने के लिये ट्रेकिंग के साथ साथ पर्वतारोहण की भी जानकारी होनी जरूरी है। कई कई दिन ग्लेशियर पर चलना और सोना पडता है। इसे पार करने में पिछले सालों में कई ट्रेकरों को मौत हो चुकी है, इसलिये प्रशासन इसकी अनुमति देने में आनाकानी भी करता है। और नन्दू ने पॉर्टर बनकर इस दर्रे को पांच बार पार कर रखा है।
एक स्थान ऐसा भी आया कि हमें ब्लेड की धार पर चलना पडा। उस जगह पर पत्थर नहीं थे और हिम के ऊपर मात्र दो तीन कदम ही रखने थे। लेकिन वहां दोनों तरफ हिम का ढलान था और ऊपर ब्लेड जैसी पैनी धार बनी थी। इसे नन्दू तो आसानी से पार कर गया लेकिन चौधरी साहब फिसल गये। चूंकि दो तीन कदम ही उस ब्लेड पर रखने थे और चौधरी साहब खाली हाथ थे, मात्र एक छडी थी, इसलिये संभल गये और तुरन्त ही ऊपर चढ गये। उनके पीछे मैं था। मैं बुरी तरह डर गया। कारण थे धार के दोनों तरफ नीचे क्रेवास। क्रेवास यानी ममी बनाने के गड्ढे। ग्लेशियर में क्रेवास ही सबसे खतरनाक चीज होते हैं। जगह जगह ठोस हिम में बडी बडी दरारें होती हैं। अक्सर उनके ऊपर पत्थर या हल्की बर्फ जमी रहती है। जैसे ही किसी का पैर ऐसे पत्थर पर पडता है, तो पत्थर या हल्की बर्फ (Snow) तुरन्त क्रेवास में नीचे गिर पडते हैं और साथ में उस पैर के मालिक को भी ले जाते हैं।
मुझे लग रहा था कि मैं उस धार पर दो तीन कदम नहीं चल सकूंगा। इधर उधर वैकल्पिक रास्ता ढूंढने की नाकाम कोशिश की। अब इसी से होकर जाना पडेगा। उस समय मैं रो पडने की स्थिति में था। दोनों उस तरफ खडे होकर चिल्ला रहे थे कि दो कदम रख और इधर चला आ। मैं ऐसी जगह पर खडा था कि मेरा अगला कदम उस धार पर ही पडना था। या तो लम्बे लम्बे दो कदम रखूं या फिर छोटे छोटे तीन कदम। लम्बे लम्बे कदमों में सन्तुलन खराब होने का डर और मैं उस धार पर ज्यादा कदम नहीं रखना चाहता था। आखिरकार सोचा कि तीन कदमों से इसे पार करूंगा।
पहला कदम रखा... दूसरा पैर उठाया और वो भी आगे रख दिया... दो कदम... फिर पहला पैर उठाया और वो भी आगे... तीन कदम पूरे... अब चौथा कदम सुरक्षित स्थान पर रखना था... जैसे ही चौथा कदम आगे मिट्टी पर रखा तो पीछे वाला पैर फिसल गया... वो तो अच्छा था कि अगला पैर जम चुका था और एक डण्डा भी था, संभल गया। लेकिन शरीर बुरी तरह कांप उठा। मनाने लगा कि आगे ऐसा रास्ता ना आये। और आया भी नहीं। कुछ लोगों की दुआ बडी जल्दी फलीभूत होती है। मैं यह दुआ पहले ही कर लेता तो शायद वो ब्लेड जैसा रास्ता ना आता। पूरे ग्लेशियर के ऊपर पडे पत्थर कितने काम के थे!
थोडी देर पहले मैंने लिखा था कि क्रेवास यानी ममी बनाने के गड्ढे। अगर कोई उनमें गिर जाये और किसी कारण से निकाला ना जा सके तो पक्के तौर पर वो मर जायेगा और जम जायेगा। लेकिन बर्फ में होने के कारण वो सडेगा नहीं और उसका शरीर बिना नमक-मिर्च लगाये ही ममी बन जायेगा। मिस्र वालों को अगर पता होता कि भारत देश में हिमालय के पहाडों में बिना नमक मिर्च लगाये ममी बनाई जा सकती है तो आज हिमालय के इन इलाकों में ही बडे बडे पिरामिड होते। एक जगह मैं भी ममी बनने से बच गया। हुआ यूं कि मेरा पेट खराब चल रहा था दिल्ली से चलते समय से ही। दिनभर में दो चार बार तो काम तमाम करने चला ही जाता। अब यहां ग्लेशियर पर भी ऐसा ही हो गया।
मैंने बताया था कि गौमुख ग्लेशियर बडा ऊबड खाबड है। नीची जगहों पर या तो क्रेवास मिलेंगे या फिर छोटी छोटी झीलें। बेहद छोटी छोटी- ज्यादातर एक वर्ग मीटर से भी छोटी। ऐसी ही एक झील देखकर मैंने आगे जा रहे दोनों जांबाजों से बता दिया, वे कुछ आगे जाकर बैठ गये और मेरी प्रतीक्षा करने लगे। मैं काम तमाम करके जैसे ही पानी के लिये उस झील के पास गया तो एक छोटा सा पत्थर पैर रखते ही कुछ इंच नीचे सरक गया। नीचे सरकते ही एक बात दिमाग में आई कि अगर यहां बडा क्रेवास होता और मैं उसमें ऐसी हालत में गिर जाता और मेरे साथी मुझे बचा नहीं पाते, तो दस बीस साल बाद ग्लेशियर पिघलने पर मेरा पत्थर बन चुका शरीर अचानक बर्फ के बीच से निकल पडता। तब ऐसी हालत में मुझे देखकर लोगबाग क्या सोचते! बडे बडे रिसर्च होते कि एक अधनंगा शरीर बर्फ में कैसे चला गया। धार्मिक लोग कहते कि ये तो बडे पहुंचे हुए बाबा थे, इस बर्फीले इलाके में भी बिना कपडों के रहते थे। तपस्या करते थे और एक दिन हिम-समाधि ले ली। मेरा नाम तो किसी को पता नहीं होता लेकिन मेरे नाम का छोटा मोटा मन्दिर जरूर बन जाता।
खैर, दो घण्टे तक ग्लेशियर पर चलते चलते आखिरकार ऐसी जगह आई कि हम कह सकते थे कि ग्लेशियर पार हो गया। लेकिन अब एक दिक्कत और सामने थी- रेत मिट्टी की वो 250 मीटर ऊंची दीवार। यहां रेत मिट्टी का मतलब वो रेगिस्तान वाली रेत नहीं है, बल्कि इसमें रेत, बजरी, नन्हे नन्हे पत्थर, छोटे छोटे पत्थर, कुछ बडे पत्थर और कहीं कहीं बहुत बडे पत्थर भी थे। हालांकि यह किसी दीवार की तरह बिल्कुल सीधी नहीं थी, कुछ तिरछी थी लेकिन फिर भी मैं इसे दीवार कहूंगा। 250 मीटर इसलिये क्योंकि नीचे जहां ग्लेशियर पार किया वहां समुद्र तल से ऊंचाई 4050 मीटर थी और ऊपर चढते ही ऊंचाई 4300 मीटर हो गई। देखकर लग रहा था कि कैसे इसे पार करेंगे। ऐसी जगह अपने गिरने के साथ साथ हमेशा यह डर भी रहता है कि चूंकि सब पत्थर ढीले पडे हैं, ढलान भी पर्याप्त है, इसलिये हवा की गति के कारण और धूप बढने के साथ साथ नमी कम होने के कारण पत्थर अपनी जगह छोडते रहते हैं और नीचे गिरते रहते हैं। अपने साथ वे दस पत्थरों को और लाते हैं।
तपोवन की शान है अमरगंगा। तपोवन में यह बिल्कुल शान्त होकर बहती है लेकिन तपोवन से निकलते ही यह उग्र रूप धारण कर लेती है। उस दीवार पर अमरगंगा नाले और झरने के सम्मिलित रूप में बहती है। इसी तरह की एक जगह पर इस धारा को पार भी किया जाता है।
आखिरकार रोते-धोते हम तपोवन पहुंच ही गये। बडा सुकून मिला यह देखकर कि दूर दूर तक अब कोई चढाई नहीं है।

गौमुख ग्लेशियर पर पहला कदम। ढलान वाला भाग मिट्टी की वजह से काला पड गया है लेकिन यह हिम (ICE) है।

अब हमें कहीं रास्ता मिलेगा, कहीं ढूंढना पडेगा।

पूरे ग्लेशियर पर मिट्टी और पत्थरों का राज है और मिट्टी-पत्थर की वजह से ही इस पर चलना आसान रहता है।

शिवलिंग के प्रथम दर्शन। शिवलिंग एक चोटी है जिसका तपोवन में एकछत्र राज चलता है।

ग्लेशियर पर रास्ते की पहचान के लिये रखे हुए पत्थर

यही रास्ता है।

गौमुख ग्लेशियर के ऊपर खडे होकर भागीरथी घाटी का फोटो

गौर से देखिये, पत्थरों और मिट्टी के नीचे ठोस बर्फ स्पष्ट दिख रही है।

पूरा ग्लेशियर इसी तरह से बना हुआ है- ठोस बरफ, उसके ऊपर मिट्टी पत्थर और छोटी छोटी झीलें तथा छिपे हुए क्रेवास।

नन्दू आगे ही रहा, जबकि मैं चौधरी साहब के पीछे था। चौधरी साहब को चलने में बडी दिक्कत हो रही थी, इसलिये ऐसे ग्लेशियर पर उन्हें बीच में लेना ही सही फैसला था।

सामने है 250 मीटर ऊंची खडी दीवार। उसी पर से अमरगंगा भी आती है। फोटो में वो रोमांच नहीं आ रहा, जो वहां साक्षात देखने में आ रहा था।

ग्लेशियर पार करके दीवार पर चढने से पहले पेट पूजा की गई। पेट-पूजा के नाम पर हमारे पार बिस्कुट ही थे। थी तो मैगी भी लेकिन उसके लिये वहां टैंट लगाना पडता जिसके लिये दूर दूर तक कहीं भी जगह नहीं थी।

अब शुरू होती है उस दीवार की चढाई। सब पत्थर ढीले पडे हैं, सब अपनी मर्जी के मालिक हैं। जब मन करेगा, नीचे गिर पडेंगे।

ऊपर चढने पर पीछे देखने पर ग्लेशियर का नजारा

ग्लेशियर के एक तरफ तपोवन है तो दूसरी तरफ नन्दनवन। वो सामने नन्दनवन है।

दीवार पर चढने का रास्ता

दीवार की खतरनाक चढाई

तपोवन से आती अमरगंगा

अमरगंगा को पार करना पडेगा। जाटराम इसे पार करने की तैयारी में।

अगला कदम कहां रखना है, यह बडा विकट प्रश्न है। सब पत्थर ढीले पडे हैं। 65 किलो वजन को वही पत्थर झेल सकता है जो दूसरे पत्थर पर पूरी तरह सन्तिलित तरीके से रखा हो। इसके अलावा काई भी बडी खतरनाक चीज होती है। पैर रखते ही बुरी तरह गिरना पक्का है। हालांकि यहां काई नहीं थी।

और पहुंच गये जन्नत में।
अब कुछ फोटो वापसी के। ये फोटो ग्लेशियर और दीवार को और ज्यादा अच्छी तरह दिखाने के लिये लगाये गये हैं।

दीवार पर चढना तो चलो ठीक है, लेकिन उतरना बेहद कठिन काम है। फोटो में लग रहा है कि जाटराम मस्ती में बैठा है जबकि हालात ये थे कि यहां मेरे लिये खडा होना असम्भव हो गया था। खडे होकर नीचे उतरना तो और भी असम्भव काम था मेरे लिये। इस दीवार को मैंने और चौधरी साहब ने कई बार बैठ-बैठकर पार किया।

यही है दीवार की उतराई

दीवार, ढीले पत्थर और ग्लेशियर

गौमुख ग्लेशियर की गिनती दुनिया के सबसे लम्बे ग्लेशियरों में होती है। धुर तक फैला ग्लेशियर।

दीवार की उतराई

अब देखिये ग्लेशियर के कुछ और खतरनाक फोटो। इसमें क्रेवास यानी मृत्यु छिद्र साफ दिख रहे हैं।

क्रेवास और बरफ

अमरगंगा और दीवार

एक और फोटो- क्रेवास और छोटी सी झील

चलिये, इसी फोटो को जूम करते हैं।

यह बडा पत्थर एक क्रेवास के ऊपर टिका हुआ है।

ग्लेशियर के ऊपर से दिखती भागीरथी घाटी

चलिये, वापस तपोवन पहुंचते हैं। यह अमरगंगा है जो तपोवन में बिल्कुल शान्त होकर बहती है।

ऊपर तपोवन से दिखता गौमुख ग्लेशियर

तपोवन कोई छोटी सी जगह नहीं है। यह बहुत बडी जगह है और गौमुख क्षेत्र में होने के बावजूद भी पूरी तरह सुरक्षित।

तपोवन जाने से पहले जाटराम

और तपोवन से वापस आकर। मुंह लाल हो गया है। जो दिल्ली पहुंचते पहुंचते काला पड जायेगा और फिर जली हुई काली खाल पपडी की तरह उतरेगी। लाल होने का मतलब है कि त्वचा जल गई है।
अगला भाग: तपोवन, शिवलिंग पर्वत और बाबाजी

गौमुख तपोवन यात्रा
1. गंगोत्री यात्रा- दिल्ली से उत्तरकाशी
2. उत्तरकाशी और नेहरू पर्वतारोहण संस्थान
3. उत्तरकाशी से गंगोत्री
4. गौमुख यात्रा- गंगोत्री से भोजबासा
5. भोजबासा से तपोवन की ओर
6. गौमुख से तपोवन- एक खतरनाक सफर
7. तपोवन, शिवलिंग पर्वत और बाबाजी
8. कीर्ति ग्लेशियर
9. तपोवन से गौमुख और वापसी
10. गौमुख तपोवन का नक्शा और जानकारी

Comments

  1. फोटो देख कर खड़े हो गए रोम-रोम-
    गजब रोमांच ||

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  2. नीरज भाई इतना रिस्क मत लिया करो, कही न कही कोई जाटनी आपका इंतज़ार कर रही हैं. जिसे आपका जनम जनम का साथी बनना हैं. जान है तो जहां हैं. क्रेवास के बारे में पढकर और देखकर रोमांच हो आया. ये ममी का किस्सा आपने अच्छा बताया हैं. तपोवन की सुंदरता देखकर यकीन हो जाता हैं की यही जगह देवी देवताओं और ऋषि मुनियों के तप करने का स्थान हैं. गौमुख ग्लेसियर के विहंगम फोटो शानदार हैं.

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  3. भई ये तो बड़ा खतरनाक निष्ठुर इलाका, यहाँ रहम की भीख मांगने पर भी कोई रहम नहीं करने वाला। पहाड़ ग्लेशियर फ़ोटो में दिखते आकर्षक हैं पर मौका देखते ही निगल जाते हैं। अड़े तो राम ही रुखाळा है। राम राम

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  4. मज़ा सा आ गया नीरज भाई... बहुत खतरनाक रास्ता है और हमने सुना यहां बाबा लोग तपस्या करते हुए मिलते हैं... तुम्हे कोई नही मिला ??

    "लेकिन उसकी लोकेशन देखकर पैरों तले से ‘ग्लेशियर’ खिसक गया।"---और तुम्हारी sense of humour का तो जवाब नही...

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  5. बाप रे बाप, देख कर सिहर उठे..

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  6. अत्यधिक रोमांचक.

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  7. साहसिक यात्रा को शेअर करने के लिए आभार!

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  8. bahut hi romanchak yatra hai jatji.Photo bahut hi sundar hai

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  9. नीरज जी, मुझे लगता है की कुछ आपके मित्र आपसे जलते हैं , उनके ब्लॉग पर इनमे से कुछ चित्र (अमरगंगा) भेज दें .
    तपोवन क्रेवास फोटो अति सुंदर हैं
    वैज्ञानिक की कुछ बातें समझने के लिए तीन चार बार पड़ना पड़ेगा नंदू ऐसा कैसे वजन उठा कर भी चल लेता है तथा हंस भी लेता है
    अधनंगे बाबा के फोटो नहीं लगाया रोने वाला फोटू भी नहीं है
    चोधरी साब का मुंह अबी तक नहीं दिखाया

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  10. neeraj babu,mujhe to aapki shirt ka koi karamat lagta hai barna ye himmat baap re baap.bahut hi romanchak yatra.thanks.

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    बेहतरीन रचना

    सावधान सावधान सावधान
    सावधान रहिए



    ♥ आपके ब्लॉग़ की चर्चा ब्लॉग4वार्ता पर ! ♥

    ♥ सावधान: एक खतरनाक सफ़र♥


    ♥ शुभकामनाएं ♥

    ब्लॉ.ललित शर्मा
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  12. 'रोमांचक' फीका पड़ता शब्‍द.

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  13. जाट भाई, जीवित लौट आने की हार्दिक बधाई नहीं तो हम ब्लॉग पर इस यात्रा के वर्णन का इंतज़ार ही करते रह जाते. मैं गोमुख तक तो गया हूँ और दोस्तों को बड़े गर्व से यह बात बताता था. पर अब लगता है की वह यात्रा आपकी यात्रा के सामने बच्चों के खेल समान है. सचमुच डरावना वर्णन है. और -- "पैरों तले glacier खिसक गया" -- वाह वाह.

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  14. जहां जाट वही ठाट

    मस्त तसवीरें . जबरदस्त , कमाल

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  15. नीरज भाई....
    बहुत ही शानदार,रोमांचक,डरावनी,खतरनाक,साहसिक यात्रा पूरी करने पर आपको बधाई......| आपका लेख पढ़कर कर और गौमुख, तपोवन की भौगोलिक स्थिति जानकार बहुत अच्छा लगा....| वाकई में यह आपके कठिनतम यात्राओ में से एक थी.....| बर्फ पर चलना कोई मजाक नहीं हैं.....काफी हिम्मत का काम हैं....|
    "पैरों तले ग्लेशियर खिसकना" वाकई में कमाल की लाइन लिखी हैं...

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  16. Adhbhut yatra, tum yahan se aaage bhi ja sakte ho aur chitkul tak bhi pahunch sakte ho....the last place of Indian village in himalayas - Amit

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    1. आगे तो चला जाऊंगा लेकिन गंगोत्री-गौमुख और छितकुल का क्या सम्बन्ध? छितकुल तक तो पक्की सडक बनी हुई है।

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  17. क्रेवास फोटो सुंदर हैं पहाड़ ग्लेशियर आकर्षक हैं गौमुख ग्लेसियर के विहंगम फोटो शानदार हैं.

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  18. जान हथेली पर रखकर तुमने जो तपोवन की यात्रा करवाई है वो काबिले तारीफ है नीरज ....
    अब तक टी. वी. पर अग्रेजो को ही इतने खतरनाक मुहीम पर देखा था ..आज तुम्हारे लिए सीना गर्व से चोडा हो गया ..जय हो ..
    .

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  19. जाट जी,आपके ब्लॉग पर देरी से आने के लिए पहले तो क्षमा चाहता हूँ. कुछ ऐसी व्यस्तताएं रहीं के मुझे ब्लॉग जगत से दूर रहना पड़ा...अब इस हर्जाने की भरपाई आपकी सभी पुरानी रचनाएँ पढ़ कर करूँगा....कमेन्ट भले सब पर न कर पाऊं लेकिन पढूंगा जरूर

    तपोवन की यात्रा से रोंगटे खड़े हो गए....आप धन्य हैं जो ऐसी जोखिम हँसते हँसते उठाते हैं...


    नीरज

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  20. सर क्या ठण्ड में वहाँ जाना संभव है?

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  21. Thand me to gangotri tak bhi rasta band ho jata hai

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  22. नीरज भाई आपका ये लेख मुझे बहुत ही प्यारा लगा कुछ पुरानी यादे ताज़ा हो गयी। गंगोत्री गोमुख तीन बार जाने के बाद भी तपोवन नही जा पाये थे एक दोस्त हिम्मत हार गया था आप ने वो इच्छा पूरी कर दी आपका दिल से आभार और भगवान से प्रार्थना है कि आप हमेशा लिखते रहें कभी समय मिले तो एक बार अवश्य मिले। अभी ब्लाग लिखना शुरू किया है इस पर ट्रैफिक कैसे बढ़े मार्गदर्शन अवश्य करें व बताये क्या गलतियाँ की है आप का भाई
    https://traveladrug.blogspot.com/?m=0

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  23. Bahi ji m bhi jau ga tapovan tapsa ke Liya is sansar se man bhar geya bas

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  24. mera nam sachin

    aur mai tin bar goumukh ja chuka hu aur tapovan jane ki iccha hai gau basauli baghpat


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46 रेलवे स्टेशन हैं दिल्ली में

एक बार मैं गोरखपुर से लखनऊ जा रहा था। ट्रेन थी वैशाली एक्सप्रेस, जनरल डिब्बा। जाहिर है कि ज्यादातर यात्री बिहारी ही थे। उतनी भीड नहीं थी, जितनी अक्सर होती है। मैं ऊपर वाली बर्थ पर बैठ गया। नीचे कुछ यात्री बैठे थे जो दिल्ली जा रहे थे। ये लोग मजदूर थे और दिल्ली एयरपोर्ट के आसपास काम करते थे। इनके साथ कुछ ऐसे भी थे, जो दिल्ली जाकर मजदूर कम्पनी में नये नये भर्ती होने वाले थे। तभी एक ने पूछा कि दिल्ली में कितने रेलवे स्टेशन हैं। दूसरे ने कहा कि एक। तीसरा बोला कि नहीं, तीन हैं, नई दिल्ली, पुरानी दिल्ली और निजामुद्दीन। तभी चौथे की आवाज आई कि सराय रोहिल्ला भी तो है। यह बात करीब चार साढे चार साल पुरानी है, उस समय आनन्द विहार की पहचान नहीं थी। आनन्द विहार टर्मिनल तो बाद में बना। उनकी गिनती किसी तरह पांच तक पहुंच गई। इस गिनती को मैं आगे बढा सकता था लेकिन आदतन चुप रहा।

जिम कार्बेट की हिंदी किताबें

इन पुस्तकों का परिचय यह है कि इन्हें जिम कार्बेट ने लिखा है। और जिम कार्बेट का परिचय देने की अक्ल मुझमें नहीं। उनकी तारीफ करने में मैं असमर्थ हूँ क्योंकि मुझे लगता है कि उनकी तारीफ करने में कहीं कोई भूल-चूक न हो जाए। जो भी शब्द उनके लिये प्रयुक्त करूंगा, वे अपर्याप्त होंगे। बस, यह समझ लीजिए कि लिखते समय वे आपके सामने अपना कलेजा निकालकर रख देते हैं। आप उनका लेखन नहीं, सीधे हृदय पढ़ते हैं। लेखन में तो भूल-चूक हो जाती है, हृदय में कोई भूल-चूक नहीं हो सकती। आप उनकी किताबें पढ़िए। कोई भी किताब। वे बचपन से ही जंगलों में रहे हैं। आदमी से ज्यादा जानवरों को जानते थे। उनकी भाषा-बोली समझते थे। कोई जानवर या पक्षी बोल रहा है तो क्या कह रहा है, चल रहा है तो क्या कह रहा है; वे सब समझते थे। वे नरभक्षी तेंदुए से आतंकित जंगल में खुले में एक पेड़ के नीचे सो जाते थे, क्योंकि उन्हें पता था कि इस पेड़ पर लंगूर हैं और जब तक लंगूर चुप रहेंगे, इसका अर्थ होगा कि तेंदुआ आसपास कहीं नहीं है। कभी वे जंगल में भैंसों के एक खुले बाड़े में भैंसों के बीच में ही सो जाते, कि अगर नरभक्षी आएगा तो भैंसे अपने-आप जगा देंगी।

ट्रेन में बाइक कैसे बुक करें?

अक्सर हमें ट्रेनों में बाइक की बुकिंग करने की आवश्यकता पड़ती है। इस बार मुझे भी पड़ी तो कुछ जानकारियाँ इंटरनेट के माध्यम से जुटायीं। पता चला कि टंकी एकदम खाली होनी चाहिये और बाइक पैक होनी चाहिये - अंग्रेजी में ‘गनी बैग’ कहते हैं और हिंदी में टाट। तो तमाम तरह की परेशानियों के बाद आज आख़िरकार मैं भी अपनी बाइक ट्रेन में बुक करने में सफल रहा। अपना अनुभव और जानकारी आपको भी शेयर कर रहा हूँ। हमारे सामने मुख्य परेशानी यही होती है कि हमें चीजों की जानकारी नहीं होती। ट्रेनों में दो तरह से बाइक बुक की जा सकती है: लगेज के तौर पर और पार्सल के तौर पर। पहले बात करते हैं लगेज के तौर पर बाइक बुक करने का क्या प्रोसीजर है। इसमें आपके पास ट्रेन का आरक्षित टिकट होना चाहिये। यदि आपने रेलवे काउंटर से टिकट लिया है, तब तो वेटिंग टिकट भी चल जायेगा। और अगर आपके पास ऑनलाइन टिकट है, तब या तो कन्फर्म टिकट होना चाहिये या आर.ए.सी.। यानी जब आप स्वयं यात्रा कर रहे हों, और बाइक भी उसी ट्रेन में ले जाना चाहते हों, तो आरक्षित टिकट तो होना ही चाहिये। इसके अलावा बाइक की आर.सी. व आपका कोई पहचान-पत्र भी ज़रूरी है। मतलब