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6 जून 2012 की शाम तक हम उत्तरकाशी पहुंच गये थे। लगातार बारह घण्टे हो गये थे हमें बाइक पर बैठे बैठे। आधा घण्टा नरेन्द्रनगर और आधा घण्टा ही चम्बा में रुके थे। थोडी देर चिन्यालीसौड भी रुके थे। इन बारह घण्टों में पिछवाडे का ऐसा बुरा हाल हुआ जैसे किसी ने मुर्गा बनाकर पिटाई कर दी हो। बाइक से उतरते ही हमारे मुंह से निकला- आज की अखण्ड तपस्या पूरी हुई।
मैंने बताया था कि मेरे साथ चौधरी साहब थे, जो दिल्ली के एक प्रसिद्ध अखबार में पत्रकार थे। अब पत्रकारों का बडा जबरदस्त नेटवर्क होता है। कहीं भी चले जाओ, मोबाइल नेटवर्क मिले या ना मिले, पत्रकारों का पूरा फुल नेटवर्क मिलता है।
उत्तरकाशी में नेहरू पर्वतारोहण संस्थान है जहां पर्वतारोहण की कक्षाएं चलती हैं, पर्वतारोहण सिखाया जाता है, वो भी बिल्कुल सस्ते दामों पर। हमारे पत्रकार साहब का एक नेटवर्क उस संस्थान में भी है। उसका शॉर्ट नाम निम (NIM- Nehru Institute of Mountaineering) है। उत्तरकाशी में कहीं भी किसी से पूछ लो कि निम कहां है, आपको सही जानकारी मिल जायेगी। तो जी, हम भी निम में जा पहुंचे। जिससे मिलना था, मिले। उन्होंने ही निम के पास हमारे लिये एक होटल में कमरा बुक करा दिया था। बाद में पता चला कि वो कमरा 600 रुपये का था।
कमरे से पूरा उत्तरकाशी दिख रहा था। उत्तरकाशी के उस तरफ भागीरथी थी, भागीरथी के उस तरफ गंगोत्री राजमार्ग और उसके भी उस तरफ था वार्णाव्रत पर्वत। वार्णाव्रत को उत्तरकाशी का शोक कहा जाता है। बरसात में यह जी भरकर कहर ढाता था उत्तरकाशी पर। इसके कहर के बारे में अपने एक दोस्त घुमक्कड श्री तिवारी जी जो ज्यादातर silentsoul के नाम से अपने वृत्तान्त लिखते हैं, लिखते हैं:
2003 – एक बार मैने और प्रदीप ने कुछ और मित्रों के साथ गंगोत्री जाने का प्रोग्राम बनाया । ऐन वक्त पर बाकि दोनों दोस्तों ने जाने से मना कर दिया । तो हमने यात्रा कैंसिल करने की जगह दोनो ने जाना तय किया और सुबह-2 4 बजे अपनी यात्रा शुरु कर दी… 11 बजे तक हम नरेंद्र नगर पार कर चुके थे… रास्ता अब तक ठीक कटा था.. लोगों को फ्री में लिफ्ट देते हुए हम टिहरी पार कर गये । उसके बाद जो बारिश शुरु हुई बता नहीं सकते । हालत इतनी खराब कि वाइपर फुल चलाने पर भी रास्ता नज़र न आये । अंततः हमें गाड़ी रोकनी पड़ी और 2 घंटे एक दुकान के अंदर शरण ली ।जब तक उत्तरकाशी पंहुचे शाम हो चुकि थी, शहर पार किया और उत्तर काशी समाप्त होने से पहले एक मोड़ पर छोटा से होटल था, और चूंकि ये उत्तरकाशी का आखिरी होटल था… गाड़ी उसके बाहर रोकी और कमरा लेकर आराम करने लगे । शाम को थोड़ा घूम फिर कर, खाना खाया और वापिस होटल आकर सो गये ।रात को लगभग 2 बजे अचानक कुछ बेचैनी होने लगी… अजीब -2 भयानक सपने आये और मैं अचानक उठ कर बैठ गया । बाहर से कुछ रहस्मय सी आवाज़ें आ रही थी। मैने प्रदीप को जगाने की कोशिश की पर लाला तो घोड़े बेच कर सो रहा था…. मैं उठा और बिना बत्ती जलाये बाहर बालकोनी में आया ।बाहर बड़ी तेज बारिश हो रही थी… ऐसी बारिश जो मैने जिंदगी में कभी न देखी । मानो कोई बादल फट गया हो। बारिश के साथ वो रहस्यमय आवाज़ भी तेज हो गयी । मैने ध्यान से देखा नीचे बहुत से लोग छतरियां व ओवरकोट पहन कर खड़े कुछ देख रहे थे… अंधेरे में कुछ ठीक नज़र नहीं आया । मैं अंदर से टार्च लेकर आया और देखा कि सड़क पर कुछ हिल रहा था । कुछ देर में काफी कुछ नज़र आने लगा । घनघोर वर्षा की वजह से वार्णाव्रत पहाड़ जिसकी तलहटी में उत्तरकाशी बसा था, तथा ये पहाड़ 91 व 99 के भयंकर भूकंप की वजह से काफी व्यथित था, उस पहाड़ से दलदल का एक दरिया नीचे सड़क पर बह रहा था
मैंने कार की चाबी उठाई और नीचे की तरफ भागा । नीचे मेला लगा हुआ था और बहुत से लोग इस मंजर को देख रहे थे । दलदल की नदी पहाड़ से नीचे आकर होटल के बिल्कुल आगे सड़क पर आ रही थी और वहां से नीचे ढलान पर जाकर उत्तरकाशी बस अड्डे की ओर बह रही थी । दलदल अपने साथ घरों के हिस्से, कुछ बाईकस व स्कूटर भी ले जा रही थी…. कुछ नीचे जाकर दलदल ने एक छोटे टैम्पु को धकेला, और वो भी दलदल का हिस्सा बन कर धीरे-2 नीचे जाने लगा । इतना भयानक दृष्य मैने कभी नहीं देखा था….
धीरे-2 सड़क के किनारे बने खोखे भी दलदल के साथ खिसकने लगे । मैने सोचा अपनी कार को आगे कर दूं… पास जाकर देखा कि लगभग 3 या 4 फुट से हमारी कार बची थी, दलदल का विशाल सागर बिल्कुल हमारी कार के पास से सड़क पर मुढ़ रहा था । बड़ी मुश्किल से मैने डरते डरते कार को थोड़ा और आगे उंचाई पर किया। अगर हम नीचे मुख्य सड़क पर होटल में रुके होते तो हमारी कार या तो दलदल के साथ नदी में समा गयी होती या मनों कीचड़ में फंस चुकि होती। गंगा मैया की जै बोलकर मैं अंदर आया और नींद में फुफकारते लाला के साथ सोने की कोशिश करने लगासुबह उठे और देखा होटल से लेकर नीचे बस अड्डे तक पूरी सड़ंक दलदल व मलबे से भरी थी… गंगोत्री यात्रा उत्तरकाशी से पहले धारसू में रोक दी गयी थी… उत्तरकाशी में और पीछे हजा़रों यात्री फंस चुके थे । गंगा मैया की कृपा से हम एकमात्र यात्री थे जो उस दिन गंगोत्री के लिए, उत्तरकाशी से रवाना हुए… केवल 3 फुट से बची थी हमारी यात्रा….3 दिन हम गंगोत्री में रुके… हमारी माताजी ने वहां पंडित को एक कमरा बनवा कर दिया था, उसी में हम आराम से रहे व गौमुख भी हो आये. चौथे दिन वहां बसें आनी शुरु हुईं… व एक ड्राइवर ने बताया कि उत्तरकाशी का रास्ता खुल गया है.. हम वापिस हो लिए । रास्ते में जो उत्तरकाशी की हालत देखी, गंगा मैया का हज़ार बार धन्यवाद किया कि इतनी बड़ी मुसीबत से बचा कर हमें अपने दर्शन का सौभाग्य प्रदान किया
यह थी 2003 की वार्णाव्रत की काल कथा जिसने उत्तरकाशी में भयंकर तबाही मचाई थी। चूंकि रात का समय था, लोगबाग सोये हुए थे, इसलिये खूब जानें गईं। कई होटल ज्यों के ज्यों भागीरथी में समा गये थे।
आज वार्णाव्रत का उपचार किया जा चुका है, उसे शान्त किया जा चुका है। उसके नीचे से एक सुरंग भी बनाई गई है। अब वो पहले जैसा नहीं रहा। उसके नीचे से होटल भी हटा दिये गये हैं। पत्रकार साहब ने मुझे वो जगह दिखाई, जहां होटल थे, बिल्कुल पहाड के नीचे। वहां अब छोटा सा खाली मैदान है। उसके पास ही बस अड्डा है।
निम उत्तरकाशी से करीब तीन किलोमीटर ऊपर बना है। निम के पास ही हमारा होटल था, इसलिये उत्तरकाशी से काफी ऊपर था, पूरा उत्तरकाशी दिख रहा था।
अन्धेरा होने पर हम काशी विश्वनाथ मन्दिर चले गये। अपनी पूरी यात्रा में गंगाजी मात्र तीन जगहों पर ही उत्तरवाहिनी बहती है- उत्तरकाशी में, वाराणसी में और मुंगेर में। उत्तरकाशी में भी बनारस की तरह काशी विश्वनाथ का मन्दिर है। छोटा सा मन्दिर है, ज्यादा भीडभाड भी नहीं होती। पास में ही भयानक शोर करती हुई भागीरथी भी बहती है।
मैंने थोडी देर पहले बताया था कि निम में हमारे पत्रकार चौधरी साहब के कोई जानकार रहते हैं, उनके यहां अपना रात्रि डिनर हुआ। देर रात करीब ग्यारह बजे के आसपास हम सो गये। अगले दिन हमें गंगोत्री जाना है और उससे आगे जाने के लिये यानी गौमुख जाने के लिये परमिट भी बनवाना है जो उत्तरकाशी से ही बनेगा। इसके अलावा हमें निम से कुछ सामान जैसे टैण्ट, स्लीपिंग बैग आदि भी लेना है।
…
अगले दिन यानी 7 तारीख को हम आराम से सोकर उठे। उठे हुए तो पूरी रात से ही थे, लेकिन नींद नहीं आई। मुझे वैसे आराम से कहीं भी नींद आ जाती है लेकिन दिनभर बाइक पर बैठे बैठे पिछवाडे और पैरों का वो हाल हुआ कि आज नींद कोसों दूर थी। उठकर तैयार होकर हम फिर निम के लिये चल पडे, होटल छोड दिया। कमरे का किराया पूछा तो होश उड गये- 600 रुपये। किसी और से बुक कराये गये कमरों का यही नुकसान होता है। मोलभाव की कोई गुंजाइश नहीं होती।
निम पहुंचे। यहां से हमें ट्रेकिंग का सामान लेना था। ट्रेकिंग और पर्वतारोहण का हर सामान यहां बहुत ही सस्ते में किराये पर मिल जाता है- पांच रुपये रोजाना, दस रुपये रोजाना के हिसाब से।
निम परिसर में घूमना भी एक अलग ही एहसास होता है। आकर लगता है कि हम पर्वतारोही बन गये। माउण्ट एवरेस्ट फतह कर ली। एक संग्रहालय भी है। नई नई बातें पता चलती हैं। यह संग्रहालय एक तरह से एवरेस्ट को समर्पित है। एवरेस्ट के बारे में सबकुछ खासकर खुम्बू आइसफाल जहां आइस यानी ठोस बरफ के बडे बडे विशाल टुकडे पॉपकॉर्न की तरह बिखरे होते हैं और गिरते भी रहते हैं। वहीं पर सबसे ज्यादा मौते होती हैं। संग्रहालय के अन्दर फोटो लेना मना है, कुछ किराया भी लगता है संग्रहालय घूमने का लेकिन हम फ्री में घूमे।
मेरे पास एक स्लीपिंग बैग है। हमने यहां से एक पॉर्टर लिया, हम तीन जने हो गये। हमें गौमुख जाना था, बल्कि गौमुख से भी आगे, इसलिये यह सारा तामझाम जोडना पडा। अब हमने दो स्लीपिंग बैग, चार आदमियों वाला एक टैण्ट, नीचे बिछाने वाली दरी (मैट्रैस), वाकिंग स्टिक, गैस स्टोव व भगोना लिये। उत्तरकाशी बाजार से हमने मैगी के पैकेट, बिस्कुट, चायपत्ती, सूखा दूध पाउडर, प्लास्टिक की प्लेटें, गिलास, चम्मच भी ले लीं।
अब बात परमिट की। गंगोत्री से आगे जाने के लिये परमिट की जरुरत पडती है, जोकि उत्तरकाशी जंगल विभाग से मिलता है। एक दिन में 150 लोगों को ही गंगोत्री से आगे जाने के लिये परमिट मिलता है। जंगल कार्यालय उत्तरकाशी बस अड्डे से करीब डेढ किलोमीटर आगे गंगोत्री की तरफ है। मेन रोड से एक छोटी सी सडक बायें ऊपर की ओर चढती दिखती है, उस पर करीब एक किलोमीटर चलकर आखिर में जंगल कार्यालय आता है। गौमुख जाने का परमिट दो दिन के लिये बनता है और प्रति व्यक्ति 150 रुपये लगते हैं। अपने साथ ही गाइड-पॉर्टर का परमिट भी बनवाना पडता है। इसलिये हमने तीन आदमियों के हिसाब से 450 रुपये चुकाये। एक फार्म भी भरना पडता है और दल के किसी एक सदस्य का आइकार्ड जरूरी होता है। विदेशियों के लिये चार्ज ज्यादा होता है। हमने तीन दिन के लिये आवेदन किया था। हम गौमुख से आगे जाना चाहते थे लेकिन उन्होंने मना कर दिया और मात्र दो दिन का ही परमिट दिया- गंगोत्री से गौमुख तक केवल। आज 7 तारीख थी और हमने परमिट अगले दो दिनों यानी 8 और 9 तारीख का बनवाया। गंगोत्री में भी परमिट बनता है या नहीं, इसके बारे में मुझे जानकारी नहीं है।
आज हम गंगोत्री जायेंगे और कल सुबह गौमुख के लिये प्रस्थान कर देंगे।
और आखिरकार सारी औपचारिकताएं करते हुए दोपहर बाद तीन बजे उत्तरकाशी से गंगोत्री के लिये चल पडे। पॉर्टर को हमने निम से लिया गया सामान और किराया देकर बस से गंगोत्री भेज दिया।
उत्तरकाशी शहर |
वार्णाव्रत पर्वत |
काशी विश्वनाथ मन्दिर |
काशी विश्वनाथ मन्दिर और जाटराम |
काशी विश्वनाथ मन्दिर |
मन्दिर परिसर |
निम परिसर |
निम में जाटराम |
निम के अन्दर |
पर्वतारोहण संग्रहालय |
निम में जाटराम |
नेहरू को पर्वतों से बडा लगाव था। उन्हीं के नाम पर इस संस्थान का नाम रखा गया है। |
अगला भाग: उत्तरकाशी से गंगोत्री
गौमुख तपोवन यात्रा
1. गंगोत्री यात्रा- दिल्ली से उत्तरकाशी
2. उत्तरकाशी और नेहरू पर्वतारोहण संस्थान
3. उत्तरकाशी से गंगोत्री
4. गौमुख यात्रा- गंगोत्री से भोजबासा
5. भोजबासा से तपोवन की ओर
6. गौमुख से तपोवन- एक खतरनाक सफर
7. तपोवन, शिवलिंग पर्वत और बाबाजी
8. कीर्ति ग्लेशियर
9. तपोवन से गौमुख और वापसी
10. गौमुख तपोवन का नक्शा और जानकारी
यहाँ मैंने कई बार यात्रा की है क्योंकि इसी सिटी की पुलिस लाइन में अपना छोटा भाई रहता था जो कि ज्ञानसू में ही है अब मेरठ में रहता है जिस कारण यहाँ बीसियों बार जाना हुआ था वो भी बाइक पर, लेकिन कभी भी परेशानी नहीं हुई, बाइक पर हमेसा बढ़िया सफर रहा
ReplyDeleteneeraj babu,badi hi mast jagah hai uttarkashi,2008 me gaye the,aaj yaadein taaja ho gayee.thanks.
ReplyDeleteनीरज भाई आज भी फोटो में कंजूसी दिखा दी. उत्तरकाशी काफी बड़ा शहर है. आने ऊपर लिखा है कि गंगा केवल तीन जगह उत्तरवाहिनी हैं लेकिन एक चौथी जगह भी है और वो है उ.प्र. के मिर्ज़ापुर जिले का सत्यकाशी क्षेत्र में स्थित नारायणपुर. एक बात और गोमुख के लिए परमिशन गंगोत्री से भी मिल जाती है लेकिन वहाँ का कोटा २५ ही होता है और वो भी उसी १५० में से. मैं भी १३ मई को गोमुख गया था तो गंगोत्री से ही परमिशन लिया था. अगले पोस्ट के इंतजार में......... उम्मीद है कि आगे ज्यादा फोटो देखने को मिलेगा........
ReplyDeleteयहाँ जा चुके हैं, उत्तरकाशी बड़ा ही सुन्दर लगता है, विशेषकर नदी किनारे से।
ReplyDeleteवरुणावत पर्वत को उत्तरकाशी का शोक भी कहा जाता हैं. हर बरसात में उत्तरकाशी के लोग डर डर के जीते हैं. वैसे उत्तरकाशी खूबसूरत नगर हैं. आपने वंहा के दर्शन कराये, धन्यवाद बहुत बहुत.
ReplyDeleteपुरानी यादें ताजा करदी नीरज... बड़ी खुशी हुई कि सुरंग बना दी और खतरा टाल दिया परन्तु प्रकृति के मन में क्या है कौन जानता है.
ReplyDeleteतो ये एक तरह से पहली यात्रा है जहां तुम टैन्ट व पर्वतारोहण का सामान लेकर बाकायदा पर्वतारोही बन कर जा रहे हो.
इंतजार है तुम्हारे गौमुख व तपोवन के वर्णन का
धन्यवाद
SS
नहीं SS जी,
Deleteहमने पर्वतारोहण का सामान नहीं लिया। बल्कि बेसिक ट्रेकिंग का सामान लिया था। टैण्ट, स्लीपिंग बैग, वाकिंग स्टिक, खाना बनाने का सामान; ये सब ट्रेकिंग के इक्विपमेण्ट हैं, ना कि पर्वतारोहण के। पर्वतारोहण हमेशा टैक्निकल होता है और उसमें और ज्यादा लाइफ सेविंग सामानों की जरुरत पडती है।
यात्रा संस्मरण बहुत बढ़िया लगा!
ReplyDeleteपहाड़ का असली नाम वार्णाव्रत है ना कि वरुणावत.ss
ReplyDeleteनाम बदल दिया गया है। धन्यवाद।
Deleteतिवारी जी वाली पोस्ट दुबारा पद कर रोंगटे खड़े हो गए . निम् का अच्छा विवरण दिया हे .....भाई ये घुमक्कड़ कब से पर्वतारोही बन गए .........मोटर साइकिल के पोर्टर ने भी आपने लिए पोर्टर लिया अच्छा लगा . भाई हम तो पूरा लेख लगातार पड़ते हैं .......कमेन्ट वाला विवरण बहुत अच्छा लगा ...धन्यवाद धन्यवाद बहुत सुंदर , बहुत सुंदर चाहे हो या ना कहते रहो.
ReplyDeleteसर्वेश जी, पर्वतारोही नहीं बल्कि ट्रेकर कहिये।
Deleteआपको अगली पोस्ट में पता चलेगा कि हमने पॉर्टर क्यों लिया। जब आप नन्दू यानी हमारे पॉर्टर को लदे हुए देखेंगे।
नेहरू को पर्वतों से बडा लगाव था। उन्हीं के नाम पर इस संस्थान का नाम रखा गया है। LOL - कोई और नाम है क्या भारत में.. गांधी नेहरु के अलावा ?? बेचारे भगत सिंह, सरदार पटेल, सुभाष बोस, चंद्रशेखर तिवारी (आजाद) ने तो कुछ किया नही भारत के लिये तो उनका नाम क्यो प्रयोग किये जाये ??
ReplyDeleteतुमने भी भाई सुबह सुबह किस नेहरु का नाम लेकर मूड खराब कर दिया....
Deleteबैचारे भगत सिंह तो शूली पर चढ़ने को पैदा हुए थे ....और चंद्रशेखर आजाद गोली खाने को ...सुभाषचन्द्र बॉस खून ही माँगते रहे ...और सरदार पटेल लाठियां खाते रहे..अब बचे नेहरु, तो उन्होंने ही साफ़ -पाक दामन पकड़ा कभी कारों में घुमते रहे तो कभी पहाड़ो में तभी उनको हर हिल स्टेशन पर देखा जाता है ....ही ही ही ही ही ....:)
Deleteऊपर से चौथी पांचवी फोटो ख़राब है .....उनको नहीं भी लगाओ तो कोई फर्क नहीं पड़ता !!
Deleteगांधी नेहरू को मैं भी पसन्द नहीं करता लेकिन नेहरू के नाम पर पर्वतारोहण संस्थान होने से मुझे बचपन की एक बात याद आ गई। ध्यान नहीं शायद सातवीं की किताब में एक पाठ था जिसके लेखक नेहरू थे। उसमें उनकी एक ट्रेकिंग का वर्णन है। अब तो खैर कुछ भी उस बारे में याद नहीं है लेकिन एक शब्द अभी भी याद है- जोजिला। यानी उन्होंने कहीं जोजिला दर्रे के आसपास ट्रेकिंग की थी। तब मेरे मन में घुमक्कडी के बीज तो थे, लेकिन उनके अंकुरित होने लायक परिस्थितियां नहीं थीं। पहाड नाम की चीज कभी देखी नहीं थी। नेहरू ने क्रेवास (ग्लेशियर पर ठोस बरफ के बीच बने बडे बडे दर्रे जिनमें कोई अगर गिर जाये तो बचना मुश्किल हो जाता है) के बारे में भी जिक्र किया था। मतलब मेरे लिये बडा ही रोमांचकारी पाठ होता था वह।
Deleteइसीलिये मैंने उस फोटो के नीचे कैप्शन दिया है कि नेहरू को पहाडों से बडा लगाव था। इस बात की आज के दौर के किसी राजनेता से तुलना करके देखिये। मेरे यह सब लिखने का मतलब यह नहीं है कि मैं नेहरू ही हर बात से सहमत हूं। मैं उस बन्दे से उतना ही दूर हूं, जितना कि कोई देशप्रेमी भारतीय।
मस्त रहा सफ़र नीरज ....अब पिछवाडा कैसा है ..? 600 रूपये सुनकर तुमको मरोड़े नहीं हुए ह हा हा हा ....गोमुख का इन्तजार है ..
ReplyDeleteऊपर से चौथी पांचवी फोटो ख़राब है .....उनको नहीं भी लगाओ तो कोई फर्क नहीं पड़ता !!
ReplyDeleteहां, मुझे पता है क्योंकि दोनों फोटो एक ही हैं और मेरा मूं भी स्पष्ट नहीं है।
Deleteआगे का इन्तेजार है
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भाई गंगा हमारे गाँव के पास रालपुर में भी उत्तरवाहिनी हैI फतेहपुर रायबरेली की सीमा परI बचपन से दुबकी लगते आये हैं हम वहां
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