Skip to main content

श्रीखण्ड महादेव यात्रा- थाचडू से भीमद्वार

इस यात्रा वृत्तान्त को शुरू से पढने के लिये यहां क्लिक करें
19 जुलाई 2011 दिन मंगलवार। हमारी श्रीखण्ड यात्रा जारी थी। मुझे थाचडू से पहले जबरदस्ती उठाया गया। ना खाने को दिया गया, ना पीने को। रात सोते समय मैंने टैण्ट वाले से पक्की बात कर ली थी कि सुबह को उठते ही चाय और परांठे चाहिये, तभी आंख खुलेगी। लेकिन सुबह जब सन्दीप ने उठाया और मैंने चायवाले से कहा कि भाई, चाय परांठे, तो बोला कि चूल्हा ठण्डा पडा है, घण्टे भर से पहले नहीं बनेंगे।
साढे छह बजे हम यहां से चल दिये। नितिन के पैर में कोई सुधार नहीं हुआ था, इसलिये उसे यही छोड दिया गया। साथ ही यह भी कह दिया कि तू नीचे चला जा और परसों हमें जांव में ही मिलना। उसके चेहरे पर खुशी देखने लायक थी क्योंकि उसके लिये यात्रा करने से ज्यादा जरूरी गर्लफ्रेण्डों से बात करनी थी। हालांकि वो दो बच्चों का बाप भी है।
साढे सात बजे थाचडू पहुंचे। थाचडू को हम खचेडू कहते थे। हमारा कल का लक्ष्य ‘खचेडू’ ही था लेकिन लाख जोर लगाने के बाद भी हम यहां तक नहीं पहुंच सके थे। यहां श्रीखण्ड सेवा समिति वालों का लंगर भी लगा था, हलवा-चाय और आलू की सब्जी के साथ पूरी मिल रही थी। श्रीखण्ड सेवा समिति पूरी यात्रा में तीन जगह- सिंहगाड, थाचडू और भीमद्वारी में निशुल्क लंगर और आवास मुहैया कराती है।
करीब पांच किलोमीटर की भयंकर चढाई है थाचडू तक। इसे डण्डीधार की चढाई भी कहते हैं। यहां आकर कानों में पडा कि अब आगे चढाई खत्म हो गई है। लेकिन जब आगे चले तो चढाई बरकरार थी। हां, इतना फर्क हो गया था कि अब पेड नहीं थे। हम ट्री लाइन से ऊपर निकल चुके थे। अब थे रंगबिरंगे फूल और हरी हरी घास। थाचडू से तीन किलोमीटर आगे जाकर चढाई खत्म हुई। यहां काली मां का एक छोटा मन्दिर बना है। इसे काली घाटी भी कहते हैं।
काली घाटी के बाद सीधी उतराई शुरू होती है। मेरे लिये पहाड पर ऊपर चढने के मुकाबले नीचे उतरना आसान रहता है। जबकि सन्दीप के साथ उल्टा है। वो चढ तो एक ही सांस में जाता है जबकि उतरने में सांस फूल जाती है। यहां पूरी तरह बादलों का राज था। हालांकि वे बरस नहीं रहे थे लेकिन काली घाटी के जबरदस्त प्राकृतिक सौन्दर्य को ढके हुए थे। एकाध बार कहीं कहीं बादलों का घनत्व हल्का हुआ तो महसूस हुआ कि काली घाटी वाकई ‘काली’ घाटी है। यहां गुग्गल नामक घास बहुत पाई जाती है। गुग्गल का इस्तेमाल धूपबत्ती और अगरबत्ती में महक बनाने के लिये किया जाता है। कुछ लोग इसे उखाडकर अपने बैगों में भरकर ले भी जा रहे थे लेकिन कहा जाता है कि अगर नीचे जांव या आगे कहीं पकडे गये तो सजा होती है।
काली घाटी के निम्नतम बिन्दु पर है भीम तलाई। यहां टेण्ट भी लगे हैं और प्राकृतिक झरने में नहाने का इंतजाम भी। इसी इंतजाम को तलाई यानी तालाब कहा जाता है। यहां से आगे भीमद्वारी तक रास्ता लगभग सीधा सा ही है हालांकि कुल मिलाकर चढाई ही है। एक जगह ऐसी है कि जब वहां पहुंचते हैं तो पैरों तले से जमीन खिसकने की कहावत साक्षात दिखाई देने लगती है। बिल्कुल पैरों के नीचे सैकडों फीट दूर कुछ हलचल सी दिखती है। इसका मतलब है कि हमें भी यहां से बिल्कुल खडे-खडे ही नीचे उतरना पडेगा। यहां पर तो मुझे भी लगा कि चढना उतना मुश्किल नहीं है, जितना नीचे उतरना।
पूरी श्रीखण्ड यात्रा का सुन्दरतम इलाका यही जगह है। भीम तलाई से भीम द्वारी तक। क्या चीज बनाई है कुदरत ने? नीचे फोटू लगा रखे हैं, पता चल जायेगा। यहां से गुजरने वाले यात्रियों को हिदायत दी जाती है कि कहीं भी घास में लेटना मत। क्योंकि यहां कई तरह की जडी बूटियां मिलती हैं। अगर एक विशेष किस्म की जडी की अधिकता है तो मदहोशी छाने से लेकर बेहोशी तक हो सकती है। फिर सावन का महीना, बरसात का महीना, जोंक भी बहुत मिलती हैं यहां।
हमारी योजना आज भीम द्वारी पार करके पार्वती बाग में रुकने की थी। पार्वती बाग से आगे रुकने का कोई इंतजाम नहीं है। लेकिन चलते चलते ही हमें पता चल गया था कि पार्वती बाग में दो ढाई बजे तक सभी टेण्ट फुल हो जाते हैं और कोई जगह नहीं मिलती। ऐसे में सभी को वापस नीचे उतरकर भीमद्वारी आना पडता है। तीन बजे जब हम भीमद्वारी पहुंच गये तो यहीं एक प्राइवेट टेण्ट में रुक गये। यहां से पार्वती बाग के टेण्ट दिखाई दे रहे थे। हम आराम से दो घण्टे में वहां तक पहुंच सकते थे। लेकिन वहां रुकने की अनिश्चितता को देखकर हमने यही रुकने का फैसला किया।

डण्डीधार का रास्ता

थाचडू

सोचा था कि थाचडू के बाद चढाई खत्म हो जायेगी लेकिन यहां तो पहाड और भी ज्यादा सिर उठाये खडे थे।

ऐसा नहीं है कि बिल्कुल आखिर में पहुंचकर चढाई खत्म हो जायेगी। हिमालय बडा जालिम है। दिखता कुछ है, असल में होता कुछ है। वहां पहुंचकर मुंह से निकलता है कि अरे बाप रे, और चढना है।

अगर चेहरे पर किसी को मुस्कान दिखाई दे रही हो तो इस वहम में मत रहना कि बन्दा वाकई मुस्करा रहा है। यह तो फोटो खींचते समय जबरदस्ती का पोज है, नहीं तो यहां कहां मुस्कान? यकीन ना हो तो कभी जाकर देखना।

हां, अब लगने लगा कि चढाई खत्म हो रही है। लेकिन भरोसा तब होगा जब हमें नीचे उतरता हुआ रास्ता दिखेगा।

यह है काली घाटी। अब चढाई खत्म और बहुत दूर तक नीचे उतरता हुआ रास्ता दिखता भी है।

काली घाटी के बाद पीछे मुडकर खींचा गया फोटू है। काली घाटी से भीम तलाई तक नीचे ही उतरते जाना है।


ये वे लोग हैं जो अच्छे से अच्छे पहाड चढने वाले को मात दे सकते हैं लेकिन अगर नीचे उतरना हो तो कोई भी बुरे से बुरा इन्हें मात दे सकता है। सन्दीप और विपिन।

भीम तलाई


इस फोटू पर क्लिक करो। बडा हो जायेगा तो बीचोंबीच एक लकीर दिखेगी, वो लकीर नहीं बल्कि रास्ता है।

बरसात में हिमालय खिल उठता है। ऐसे रास्ते होंगे तो किसे थकान होगी?

विपिन गौड



सन्दीप पंवार। दिल्ली से चलते समय कहा था कि क्या करेंगे इन लठों का। अब कह रहे हैं कि लठ के बिना यात्रा मुश्किल ही नहीं बल्कि असम्भव थी।

दो जाट- एक मुर्दादिल और दूसरा जिन्दादिल।


रुकिये, यहां से सम्भलकर चलिये। बर्फ पर रास्ता है और रास्ते में यह छेद। बर्फ जितनी खूबसूरत लगती है, उस पर चलना उतना ही जानलेवा भी होता है।


अब नजर मारते हैं कुछ प्राकृतिक दृश्यों पर:









अब फूल












अगला भाग: श्रीखण्ड महादेव यात्रा- भीमद्वार से पार्वती बाग


श्रीखण्ड महादेव यात्रा
1. श्रीखण्ड महादेव यात्रा
2. श्रीखण्ड यात्रा- नारकण्डा से जांव तक
3. श्रीखण्ड महादेव यात्रा- जांव से थाचडू
4. श्रीखण्ड महादेव यात्रा- थाचडू से भीमद्वार
5. श्रीखण्ड महादेव यात्रा- भीमद्वार से पार्वती बाग
6. श्रीखण्ड महादेव के दर्शन
7. श्रीखण्ड यात्रा- भीमद्वारी से रामपुर
8. श्रीखण्ड से वापसी एक अनोखे स्टाइल में
9. पिंजौर गार्डन
10. सेरोलसर झील और जलोडी जोत
11. जलोडी जोत के पास है रघुपुर किला
12. चकराता में टाइगर फाल
13. कालसी में अशोक का शिलालेख
14. गुरुद्वारा श्री पांवटा साहिब
15. श्रीखण्ड यात्रा- तैयारी और सावधानी

Comments

  1. अरे भाई आशिक तो गया वापस खचेडू भी नहीं देखा था,
    रही बात मेरी,
    अरे भाई चढने में अपुन को कोई दिक्कत नहीं होती है, क्योंकि चढना अपने वश में होता है,
    रही बात उतराई की वो मैं बहुत सम्भल कर उतरता हूँ,
    एक बार ऐसे ही तुहारी तरह तेजी से उतरते हुए एक मोड आ गया था,
    जब मैं अपने आप को नहीं रोक पाया तो सीधा एक झाडी में जा घुसा था,
    अगर वो झाडी उस मोड पर नहीं होती तो अपना तो उसी दिन हो गया था,
    और तेरह दिन बाद तेरहवी भी हो जाती,
    समझे मैं क्यों बहुत सम्भल कर उतरता हूँ।


    कभी अपने आप को मुर्दा दिल मत कहो,

    अरे भाई ऐसी फ़ाडू चढाई किसी ऐरे गेरे के बस की बात नहीं है।

    ReplyDelete
  2. लाजवाब कुदरत के नज़ारे और बहुत ही मुश्किल रास्ते मन करता है की एक बार जरुर जाऊ .....

    ReplyDelete
  3. बहुत सुन्दर प्रस्तुति ||
    बधाई स्वीकार करें ||

    सुना है कि---
    जाटों की बात बिना लाठी के नहीं बनती ||
    या इसे यूँ कहे लाठी से भी नहीं बनती ||

    ReplyDelete
  4. वाह...आत्मा प्रसन्न हो गयी भाई ...वाह...आपकी नज़रों से हमने वो नज़ारे भी देख लिए जो हमारे लिए वैसे देखने नामुमकिन थे...जय हो...

    नीरज

    ReplyDelete
  5. रचना में आपका पर्वतों के प्रति लगाव परिलक्षित होता है!
    सभी चित्र बहुत बढ़िया हैं!

    ReplyDelete
  6. गजब जीवट है भाई। घूमते रहो और वर्चुअल ही सही,हमें भी घुमाते रहो।

    ------
    कम्‍प्‍यूटर से तेज़...!
    सुज्ञ कहे सुविचार के....

    ReplyDelete
  7. हा हा..न आपको खाने को मिला ना पीने को :)

    मस्त रहा ये पार्ट भी.. :)

    ReplyDelete
  8. यह सब देख कर मन आनन्दित हो उठा।

    ReplyDelete
  9. स्वर्ग की अप्सरावों को मात देती हुई प्रकृति की सुन्दरता, उमड़ते-घुमड़ते आवागरी करते बादल, दुल्हन की तरह सजी हुई धरती, नयी नवेली दुल्हन की तरह भरपूर यौवन की अवस्था में प्रकृति को देखना दिल के सभी तारों को एक साथ झंकृत कर दिया. सुन्दर यात्रा वृतांत लग रहा है की हम भी आपके साथ-साथ चल रहे हों. सारे चित्र बहुत ही सुन्दर हैं. भाई दिन का ही वर्णन करते हो कभी रात का भी जिक्र करो ना, इतनी ऊंचाई पर चाँद तारे कैसे लगते हैं.
    ऐसे ही लगे रहो किसी दिन एवरेस्ट पर भी चढ़ जाओगे बस कुछ ही दुरी बाकि है ऐसे ही लगे रहेंगे तो एक दिन दुनियां आपके क़दमों तले होगी.

    ReplyDelete
  10. आज की तस्वीरें देखकर तो मन बाग बाग हो गया. बहुत आभार.

    रामराम

    ReplyDelete
  11. यह बहुत सुंदर है कि आप भारतवर्ष के शिवजी-पार्वतीजी के उच्चतम स्थान की ओर सभी को ले जा रहे हैं ।हमारे वे भाई जिन्हे रास्ते में छोड़ दिया ,उन्हे मेरा ब्लाग http://vivaahkaarth.blogspot.com/
    "विवाह : अमर देवता बनने का साधन" पढ़ने के लिए प्रेरित करें जिससे अगली बार ....... । उस ब्लाग की अकेली पोस्ट का एक अंश : “एकपत्नीव्रता न होने का अर्थ है स्वयं को धोखा देना क्योंकि पत्नी कोई अलग व्यक्ति या सत्ता नहीं हैं बल्कि देवी है, पुरूष की उच्चतर सत्ता है तथा उसके साथ सच्चे रूप से संयुक्त होने से वह स्वयं भी देवता बन जाता है तथा इस पृथ्वी पर अपने जन्म के उद्देश्य को पूरा कर पूर्णता, सत्य, ज्ञान, प्रकाश, आनन्द, स्वतंत्रता तथा अमरता प्राप्त करता है।"
    जय भोलेशंकर

    ReplyDelete
  12. पत्नी के माँ रूप के अक्ष (आँखें) ही वह मोक्ष है,जिसे सभी प्राचीन हिन्दू ग्रंथों में व्यक्ति का अंतिम लक्ष्य बतलाया गया है। पत्नी के माँ और देवी रूप की आँखों में उनकी इच्छा के प्रति पूर्ण समर्पण से ही झांक कर पति आगे का ज्ञान और मार्ग ठीक ठीक जान सकता है। विवाह से पहले ब्रह्मचारी, शाकाहारी और विवाह के पश्चात पूर्ण एवं कठोर रूप से एकपत्नीव्रता पुरुष ही ऐसा करने में समर्थ हो सकता है। पत्नी के देवी रूप के प्रति पूर्ण समर्पण से ही व्यक्ति अमर हो सकता है। और यही विवाह का सच्चा उद्देश्य है। यही वह यज्ञ है जिसमें शिवजी को भी अपना पूर्ण भाग प्राप्त होता है।

    ReplyDelete
  13. शिव-पार्वती विवाह-यज्ञ ही अपने जीवन में किया जाए यही मोक्ष है। जय भोलेशंकर

    ReplyDelete
  14. मैं भी जाट हूँ चौधरी ....अगली बार साथ ले चलो यार ...जिन्दादिली का वायदा रहा ! शुभकामनायें नीरज !

    ReplyDelete
  15. तस्वीरें देखकर तो मन आनन्दित हो उठा .....बहुत आभार

    ReplyDelete
  16. मित्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनाये

    ReplyDelete
  17. प्रकृति की लीला देखिये, प्राकृतिक सौन्दर्य हमेशा कठिन और दुर्गम जगहों पर ही मिलेगा. प्रकृति के रूप में ईश्वर ही तो है जो हमारे अंदर की सारी इच्छाओं,वासनाओं और अहंकार के लुप्त होने के बाद ही हमसे मिलता है. अगर आप को मेरी बात पर यकीन नहीं होता तो किसी भी दुर्गम(या कम दुर्गम) चढ़ाई पर चढ़ कर देखिये, आप के अन्दर की सारी इच्छाएं तिरोहित होती जाएँगी. इस यात्रा में एक सुन्दर उदहारण है नितिन का ...... वो श्रीखंड महादेव तक नहीं पहुँच पाया,क्यों?

    ReplyDelete
  18. थाचड़ू से खचेड़ू और खचेड़ू से खिचड़ी तक का सफ़र बढिया चल रहा है।
    फ़ोटुएं बहुत बढिया हैं। मस्त मजा आ गया।

    ReplyDelete
  19. धन्य भये...आत्मा तृप्त हो गई...फोटो देख देख कर ही.

    ReplyDelete

Post a Comment

Popular posts from this blog

46 रेलवे स्टेशन हैं दिल्ली में

एक बार मैं गोरखपुर से लखनऊ जा रहा था। ट्रेन थी वैशाली एक्सप्रेस, जनरल डिब्बा। जाहिर है कि ज्यादातर यात्री बिहारी ही थे। उतनी भीड नहीं थी, जितनी अक्सर होती है। मैं ऊपर वाली बर्थ पर बैठ गया। नीचे कुछ यात्री बैठे थे जो दिल्ली जा रहे थे। ये लोग मजदूर थे और दिल्ली एयरपोर्ट के आसपास काम करते थे। इनके साथ कुछ ऐसे भी थे, जो दिल्ली जाकर मजदूर कम्पनी में नये नये भर्ती होने वाले थे। तभी एक ने पूछा कि दिल्ली में कितने रेलवे स्टेशन हैं। दूसरे ने कहा कि एक। तीसरा बोला कि नहीं, तीन हैं, नई दिल्ली, पुरानी दिल्ली और निजामुद्दीन। तभी चौथे की आवाज आई कि सराय रोहिल्ला भी तो है। यह बात करीब चार साढे चार साल पुरानी है, उस समय आनन्द विहार की पहचान नहीं थी। आनन्द विहार टर्मिनल तो बाद में बना। उनकी गिनती किसी तरह पांच तक पहुंच गई। इस गिनती को मैं आगे बढा सकता था लेकिन आदतन चुप रहा।

शीतला माता जलप्रपात, जानापाव पहाडी और पातालपानी

शीतला माता जलप्रपात (विपिन गौड की फेसबुक से अनुमति सहित)    इन्दौर से जब महेश्वर जाते हैं तो रास्ते में मानपुर पडता है। यहां से एक रास्ता शीतला माता के लिये जाता है। यात्रा पर जाने से कुछ ही दिन पहले मैंने विपिन गौड की फेसबुक पर एक झरने का फोटो देखा था। लिखा था शीतला माता जलप्रपात, मानपुर। फोटो मुझे बहुत अच्छा लगा। खोजबीन की तो पता चल गया कि यह इन्दौर के पास है। कुछ ही दिन बाद हम भी उधर ही जाने वाले थे, तो यह जलप्रपात भी हमारी लिस्ट में शामिल हो गया।    मानपुर से शीतला माता का तीन किलोमीटर का रास्ता ज्यादातर अच्छा है। यह एक ग्रामीण सडक है जो बिल्कुल पतली सी है। सडक आखिर में समाप्त हो जाती है। एक दुकान है और कुछ सीढियां नीचे उतरती दिखती हैं। लंगूर आपका स्वागत करते हैं। हमारा तो स्वागत दो भैरवों ने किया- दो कुत्तों ने। बाइक रोकी नहीं और पूंछ हिलाते हुए ऐसे पास आ खडे हुए जैसे कितनी पुरानी दोस्ती हो। यह एक प्रसाद की दुकान थी और इसी के बराबर में पार्किंग वाला भी बैठा रहता है- दस रुपये शुल्क बाइक के। हेलमेट यहीं रख दिये और नीचे जाने लगे।

डायरी के पन्ने- 5

1 अप्रैल 2013, सोमवार 1. महीने की शुरूआत में ही उंगली कटने से बच गई। पडोसियों के यहां एसी लगना था। सहायता के लिये मुझे बुला लिया। मैं सहायता करने के साथ साथ वहीं जम गया और मिस्त्री के साथ लग गया। इसी दौरान प्लाई काटने के दौरान आरी हाथ की उंगली को छूकर निकल गई। ज्यादा गहरा घाव नहीं हुआ। 2 अप्रैल 2013, मंगलवार 1. सुबह चार बजे ही नटवर दिल्ली आ गया। हम हिमाचल की ओर कूच कर गये। शाम होने तक धर्मशाला पहुंच गये।