Skip to main content

“मेरा पूर्वोत्तर” - गोल्डन पैगोडा, नामसाई, अरुणाचल

इस यात्रा-वृत्तांत को आरंभ से पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक करें
15 नवंबर 2017
अभी इनकी आरा मशीन में कोई काम नहीं हो रहा था। सभी कई दिनों से बंद थीं। असल में ये जो ‘प्रोडक्ट’ बनाते हैं, उनकी असम में घर बनाने के लिए बड़ी मांग है, तो इनका सारा माल असम में खप जाता है। दो महीनों बाद ‘पीक सीजन’ आएगा। बारिश से पहले सभी अपने-अपने घरों की मरम्मत और निर्माण पूरा कर लेना चाहेंगे।
“अरुणाचल में पैदा हुई चाय, असम चाय के नाम से बिकती है या अरुणाचल चाय के नाम से?”
“असम चाय के नाम से।”
“अरुणाचल चाय के नाम से बिकनी चाहिए।”
“कौन करेगा ऐसा? किस अरुणाचली को इतनी समझ है? चाय बागानों के मालिक सब बाहरी हैं। उन्हें क्या पड़ी है कि चाय अरुणाचल के नाम से बिके?”




इनके घर की बगल में भी एक बागान था। तसल्ली से फोटो खींचने के लिए कुछ देर इसमें भी गए। यह जानकर बड़ा आश्चर्य हुआ कि चाय का एक पौधा 70 से 100 सालों तक चलता है। उसे कुछ देखभाल चाहिए और वह लगातार पत्तियाँ देता रहेगा।
हमारी आज की योजना थी कि सदिया पुल और भीष्मकनगर देखते हुए आज रात रोइंग रुकेंगे। कल की कल देखेंगे और परसों रात तक गुवाहाटी पहुँचना ही है। उससे अगले दिन हमारी दिल्ली की फ्लाइट है।
चौखाम तक रास्ता बहुत खराब था, लेकिन चौखाम में तिनसुकिया वाली सड़क मिल गई। हम कल ही इस सड़क से गए थे। सदिया पुल जाने के एक विकल्प के तौर पर इधर आलूबारी पुल होते हुए लोहित के उत्तरी किनारे-किनारे चलते जाना था, लेकिन हमने दक्षिण वाला रास्ता ही पकड़ा।
कल तो गोल्डन पैगोड़ा छोड़ दिया था, लेकिन आज नहीं छोड़ा। इसके पास ही ट्रैफिक पुलिस ने रोक लिए। हम रुके – “हाँ जी, कौन-से कागज दिखाने हैं?”
“आप दिल्ली से ही बाइक पर आए हो?”
“नहीं सर, गुवाहाटी से।”
“कागज तो पूरे ही होंगे?”
“आपको क्या लगता है?”
“हाँ, पूरे ही होंगे। फिर भी ‘पॉल्यूशन’ दिखा दो।”


ये हाल ही में प्रकाशित हुई मेरी किताब ‘मेरा पूर्वोत्तर’ के ‘असम के आर-पार फिर से’ चैप्टर के कुछ अंश हैं। किताब खरीदने के लिए नीचे क्लिक करें:




मनोज जोशी और उनकी माताजी के साथ

मेदू में चाय के बागान




यह वो गोल्डन पैगोडा नहीं है, लेकिन देखने में उससे कम भी नहीं है।





ये कौन लोग हैं? हैं तो बाहरी ही... शायद अरुणाचल में काम के सिलसिले में जा रहे हैं...

और वो रहा गोल्डन पैगोडा















गोल्डन पैगोडा से दिखती बर्फ से ढकी दाफाबुम चोटी






अगला भाग: “मेरा पूर्वोत्तर” - ढोला-सदिया पुल - 9 किलोमीटर लंबा पुल






1. “मेरा पूर्वोत्तर”... यात्रारंभ
2. “मेरा पूर्वोत्तर”... गुवाहाटी से शिवसागर
3. “मेरा पूर्वोत्तर” - शिवसागर
4. “मेरा पूर्वोत्तर” - चराईदेव: भारत के पिरामिड
5. “मेरा पूर्वोत्तर” - अरुणाचल में प्रवेश
6. “मेरा पूर्वोत्तर” - नामदफा नेशनल पार्क
7. “मेरा पूर्वोत्तर” - नामदफा से नामसाई तक
8. “मेरा पूर्वोत्तर” - तेजू, परशुराम कुंड और मेदू
9. “मेरा पूर्वोत्तर” - गोल्डन पैगोडा, नामसाई, अरुणाचल
10. “मेरा पूर्वोत्तर” - ढोला-सदिया पुल - 9 किलोमीटर लंबा पुल
11. “मेरा पूर्वोत्तर” - बोगीबील पुल और माजुली तक की यात्रा
12. “मेरा पूर्वोत्तर” - माजुली से काजीरंगा की यात्रा
13. “मेरा पूर्वोत्तर” - काजीरंगा नेशनल पार्क




Comments

  1. वाकई शानदार, नीरज मुसाफिर जी

    ReplyDelete
  2. बेहद सुंदर चित्र,

    ReplyDelete
  3. वाकई,ये देखने लायक है।साथ ही बेहतरीन क्लिक,नीरज

    ReplyDelete
  4. इस देश के छिपे हुए खजानों को सामने ला रहे हैं। आप बधाई के पात्र हैं

    ReplyDelete
  5. neeraj g aap budde hote ja rahe ho, aapki body par changing dikh rahi hai, tour ke liye 500year age honi jaruri hai...

    ReplyDelete
  6. भारत के पूर्वोतर राज्यों के बारे में जो भ्रांतियां फैली है वो आपके लेख पढ़कर टूट रही है, वाकई मेरा पूर्वोतर खूबसूरती के मामले में किसी अन्य प्रदेश से कम नहीं है ! ऐसे खूबसूरत चित्र देखकर जो सुकून मिलता है वाकई वो बयाँ कर पाना मुश्किल है !

    ReplyDelete

Post a Comment

Popular posts from this blog

जिम कार्बेट की हिंदी किताबें

इन पुस्तकों का परिचय यह है कि इन्हें जिम कार्बेट ने लिखा है। और जिम कार्बेट का परिचय देने की अक्ल मुझमें नहीं। उनकी तारीफ करने में मैं असमर्थ हूँ क्योंकि मुझे लगता है कि उनकी तारीफ करने में कहीं कोई भूल-चूक न हो जाए। जो भी शब्द उनके लिये प्रयुक्त करूंगा, वे अपर्याप्त होंगे। बस, यह समझ लीजिए कि लिखते समय वे आपके सामने अपना कलेजा निकालकर रख देते हैं। आप उनका लेखन नहीं, सीधे हृदय पढ़ते हैं। लेखन में तो भूल-चूक हो जाती है, हृदय में कोई भूल-चूक नहीं हो सकती। आप उनकी किताबें पढ़िए। कोई भी किताब। वे बचपन से ही जंगलों में रहे हैं। आदमी से ज्यादा जानवरों को जानते थे। उनकी भाषा-बोली समझते थे। कोई जानवर या पक्षी बोल रहा है तो क्या कह रहा है, चल रहा है तो क्या कह रहा है; वे सब समझते थे। वे नरभक्षी तेंदुए से आतंकित जंगल में खुले में एक पेड़ के नीचे सो जाते थे, क्योंकि उन्हें पता था कि इस पेड़ पर लंगूर हैं और जब तक लंगूर चुप रहेंगे, इसका अर्थ होगा कि तेंदुआ आसपास कहीं नहीं है। कभी वे जंगल में भैंसों के एक खुले बाड़े में भैंसों के बीच में ही सो जाते, कि अगर नरभक्षी आएगा तो भैंसे अपने-आप जगा देंगी।

दिल्ली से गैरसैंण और गर्जिया देवी मन्दिर

   सितम्बर का महीना घुमक्कडी के लिहाज से सर्वोत्तम महीना होता है। आप हिमालय की ऊंचाईयों पर ट्रैकिंग करो या कहीं और जाओ; आपको सबकुछ ठीक ही मिलेगा। न मानसून का डर और न बर्फबारी का डर। कई दिनों पहले ही इसकी योजना बन गई कि बाइक से पांगी, लाहौल, स्पीति का चक्कर लगाकर आयेंगे। फिर ट्रैकिंग का मन किया तो मणिमहेश परिक्रमा और वहां से सुखडाली पास और फिर जालसू पास पार करके बैजनाथ आकर दिल्ली की बस पकड लेंगे। आखिरकार ट्रेकिंग का ही फाइनल हो गया और बैजनाथ से दिल्ली की हिमाचल परिवहन की वोल्वो बस में सीट भी आरक्षित कर दी।    लेकिन उस यात्रा में एक समस्या ये आ गई कि परिक्रमा के दौरान हमें टेंट की जरुरत पडेगी क्योंकि मणिमहेश का यात्रा सीजन समाप्त हो चुका था। हम टेंट नहीं ले जाना चाहते थे। फिर कार्यक्रम बदलने लगा और बदलते-बदलते यहां तक पहुंच गया कि बाइक से चलते हैं और मणिमहेश की सीधे मार्ग से यात्रा करके पांगी और फिर रोहतांग से वापस आ जायेंगे। कभी विचार उठता कि मणिमहेश को अगले साल के लिये छोड देते हैं और इस बार पहले बाइक से पांगी चलते हैं, फिर लाहौल में नीलकण्ठ महादेव की ट्रैकिंग करेंग...

भंगायणी माता मन्दिर, हरिपुरधार

इस यात्रा-वृत्तान्त को आरम्भ से पढने के लिये यहां क्लिक करें । 10 मई 2014 हरिपुरधार के बारे में सबसे पहले दैनिक जागरण के यात्रा पृष्ठ पर पढा था। तभी से यहां जाने की प्रबल इच्छा थी। आज जब मैं तराहां में था और मुझे नोहराधार व कहीं भी जाने के लिये हरिपुरधार होकर ही जाना पडेगा तो वो इच्छा फिर जाग उठी। सोच लिया कि कुछ समय के लिये यहां जरूर उतरूंगा। तराहां से हरिपुरधार की दूरी 21 किलोमीटर है। यहां देखने के लिये मुख्य एक ही स्थान है- भंगायणी माता का मन्दिर जो हरिपुरधार से दो किलोमीटर पहले है। बस ने ठीक मन्दिर के सामने उतार दिया। कुछ और यात्री भी यहां उतरे। कंडक्टर ने मुझे एक रुपया दिया कि ये लो, मेरी तरफ से मन्दिर में चढा देना। इससे पता चलता है कि माता का यहां कितना प्रभाव है।