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लेह में परेड और युद्ध संग्रहालय

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आज मुझे खारदुंगला जाना था। कोई और दिन होता तो मैं नौ दस बजे सोकर उठता लेकिन आज सात बजे ही उठ गया। आज का पूरा दिन खारदुंगला को समर्पित था। सोच रखा था कि हर हाल में वहां तक जाना है और टैक्सी भी नहीं करनी है। बस मिलेगी तो ठीक है, नहीं तो कुछ आगे जाकर किसी ट्रक में बैठ जाऊंगा। ट्रक इस सडक पर चलते रहते हैं। परमिट था ही मेरे पास।
आज परेड मैदान पर गणतन्त्र दिवस परेड का रिहर्सल भी होना था। मेरे सीआरपीएफ वाले सभी साथी परेड के लिये तैयार हो रहे थे। विकास ने विशेष प्रार्थना की कि लेह में गणतन्त्र दिवस देखने को तो नहीं मिलेगा, लेकिन रिहर्सल जरूर देखना। रिहर्सल दस बजे के बाद होना था। मैंने ग्यारह बजे तक लेह में रुकने में आपत्ति की कि जल्दी से जल्दी खारदुंगला जाना है, लेकिन विकास ने अपने कुछ तर्क लगाकर मुझे रुकने पर बाध्य कर दिया।
कुछ लोग ऐसे होते हैं जिन्हें हम अपना सबकुछ समर्पित कर सकते हैं। हमारे जीवन निर्माण में इन लोगों का बहुत बडा हाथ होता है। लेकिन जब ये ही लोग हम पर अविश्वास करने लगते हैं तो बडा दुख होता है। इसी तरह का एक दुख मुझ पर भी आ पडा। जिन्हें मैं अपना सबकुछ समर्पित कर रहा हूं, उनके लिये कुछ भी कर सकता हूं, वही मुझ पर अविश्वास करने लगे। एक मित्र ने फोन करके मुझे सारी बात बताई। इस वाकये को कभी उपयुक्त समय आने पर विस्तार से बताऊंगा।
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इस यात्रा के अनुभवों पर आधारित मेरी एक किताब प्रकाशित हुई है - ‘सुनो लद्दाख !’ आपको इस यात्रा का संपूर्ण और रोचक वृत्तांत इस किताब में ही पढ़ने को मिलेगा।
आप अमेजन से इसे खरीद सकते हैं।


जेल की बैरक में

विकास- परेड के लिये तैयार

परेड स्थल

परेड स्थल

निरीक्षण





दूर शान्ति स्तूप दिख रहा है।

संग्रहालय में लद्दाख की एक जाति की वेशभूषा- यह जाति धा और हनु गांवों में रहती है। यह शुद्ध आर्य रक्त वाली जाति है।


सियाचिन में तैनात सैनिकों की वेशभूषा





एक पाकिस्तानी सैनिक की पे बुक और पहचान पत्र

एक पाकिस्तानी द्वारा अल्लाह से की गई सलामती की प्रार्थना



शक्तिशाली जाट


संग्रहालय का प्रवेश द्वार





अगला भाग: पिटुक गोनपा (स्पिटुक गोनपा)

लद्दाख यात्रा श्रंखला
1. पहली हवाई यात्रा- दिल्ली से लेह
2. लद्दाख यात्रा- लेह आगमन
3. लद्दाख यात्रा- सिन्धु दर्शन व चिलिंग को प्रस्थान
4. जांस्कर घाटी में बर्फबारी
5. चादर ट्रेक- गुफा में एक रात
6. चिलिंग से वापसी और लेह भ्रमण
7. लेह पैलेस और शान्ति स्तूप
8. खारदुंगला का परमिट और शे गोनपा
9. लेह में परेड और युद्ध संग्रहालय
10. पिटुक गोनपा (स्पिटुक गोनपा)
11. लेह से दिल्ली हवाई यात्रा

Comments

  1. खारदूंगला जाना हर किसी की किस्मत में नहीं होता। हम भी 10-15 किमी की जोरदार बर्फ़ में अपनी इच्छाशक्ति क एबल पर सब कुछ झेलते हुए जा पाये थे।
    चलिये अच्छा हुआ विकास के पास रुकने के कारण उसकी बात मान ली। इस यात्रा में नीरज को कई बार अपनी इच्छा के विपरीत बाते झेलनी पड़ी। होता है समय हमेशा एक सा नहीं होता।
    यहाँ का संग्रहालय भी अच्छा लगा, लेकिन कारगिल के संग्रहालय में लड़ाई के फ़ोटो देखकर माहौल अलग होने लगने लगता है।

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  2. बहुत बढ़िया नीरज भाई...

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  3. गर्व से सीना चौड़ा करते चित्र

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  4. जय जवान जय किसान, वन्देमातरम...

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  5. कमाल की यात्रा और बेमिसाल वर्णन व चित्र

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  6. बहुत ही बढ़िया चित्र ....वहाँ की परेड और वेशभूषा देखते ही बनती है ....बर्फ के पहाड़ मन मोह रहे है ...संग्राहलय के चित्र और वहाँ की हर चीज़ लाजबाब ...

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  7. भाई शब्द नहीं हैं इन चित्रों की तारीफ़ के लिए. आपको साधुवाद !!

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  8. बहुत बढ़िया लाजबाब

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लद्दाख बाइक यात्रा- 13 (लेह-चांग ला)

(मित्र अनुराग जगाधरी जी ने एक त्रुटि की तरफ ध्यान दिलाया। पिछली पोस्ट में मैंने बाइक के पहियों में हवा के प्रेशर को ‘बार’ में लिखा था जबकि यह ‘पीएसआई’ में होता है। पीएसआई यानी पौंड प्रति स्क्वायर इंच। इसे सामान्यतः पौंड भी कह देते हैं। तो बाइक के टायरों में हवा का दाब 40 बार नहीं, बल्कि 40 पौंड होता है। त्रुटि को ठीक कर दिया है। आपका बहुत बहुत धन्यवाद अनुराग जी।) दिनांक: 16 जून 2015 दोपहर बाद तीन बजे थे जब हम लेह से मनाली रोड पर चल दिये। खारदुंगला पर अत्यधिक बर्फबारी के कारण नुब्रा घाटी में जाना सम्भव नहीं हो पाया था। उधर चांग-ला भी खारदुंगला के लगभग बराबर ही है और दोनों की प्रकृति भी एक समान है, इसलिये वहां भी उतनी ही बर्फ मिलनी चाहिये। अर्थात चांग-ला भी बन्द मिलना चाहिये, इसलिये आज उप्शी से शो-मोरीरी की तरफ चले जायेंगे। जहां अन्धेरा होने लगेगा, वहां रुक जायेंगे। कल शो-मोरीरी देखेंगे और फिर वहीं से हनले और चुशुल तथा पेंगोंग चले जायेंगे। वापसी चांग-ला के रास्ते करेंगे, तब तक तो खुल ही जायेगा। यह योजना बन गई।

डायरी के पन्ने-32

ध्यान दें: डायरी के पन्ने यात्रा-वृत्तान्त नहीं हैं। इस बार डायरी के पन्ने नहीं छपने वाले थे लेकिन महीने के अन्त में एक ऐसा घटनाक्रम घटा कि कुछ स्पष्टीकरण देने के लिये मुझे ये लिखने पड रहे हैं। पिछले साल जून में मैंने एक पोस्ट लिखी थी और फिर तीन महीने तक लिखना बन्द कर दिया। फिर अक्टूबर में लिखना शुरू किया। तब से लेकर मार्च तक पूरे छह महीने प्रति सप्ताह तीन पोस्ट के औसत से लिखता रहा। मेरी पोस्टें अमूमन लम्बी होती हैं, काफी ज्यादा पढने का मैटीरियल होता है और चित्र भी काफी होते हैं। एक पोस्ट को तैयार करने में औसतन चार घण्टे लगते हैं। सप्ताह में तीन पोस्ट... लगातार छह महीने तक। ढेर सारा ट्रैफिक, ढेर सारी वाहवाहियां। इस दौरान विवाह भी हुआ, वो भी दो बार। आप पढते हैं, आपको आनन्द आता है। लेकिन एक लेखक ही जानता है कि लम्बे समय तक नियमित ऐसा करने से क्या होता है। थकान होने लगती है। वाहवाहियां अच्छी नहीं लगतीं। रुक जाने को मन करता है, विश्राम करने को मन करता है। इस बारे में मैंने अपने फेसबुक पेज पर लिखा भी था कि विश्राम करने की इच्छा हो रही है। लगभग सभी मित्रों ने इस बात का समर्थन किया था।

अदभुत फुकताल गोम्पा

इस यात्रा-वृत्तान्त को आरम्भ से पढने के लिये यहां क्लिक करें ।    जब भी विधान खुश होता था, तो कहता था- चौधरी, पैसे वसूल हो गये। फुकताल गोम्पा को देखकर भी उसने यही कहा और कई बार कहा। गेस्ट हाउस से इसकी दूरी करीब एक किलोमीटर है और यहां से यह विचित्र ढंग से ऊपर टंगा हुआ दिखता है। इसकी आकृति ऐसी है कि घण्टों निहारते रहो, थकोगे नहीं। फिर जैसे जैसे हम आगे बढते गये, हर कदम के साथ लगता कि यह और भी ज्यादा विचित्र होता जा रहा है।    गोम्पाओं के केन्द्र में एक मन्दिर होता है और उसके चारों तरफ भिक्षुओं के कमरे होते हैं। आप पूरे गोम्पा में कहीं भी घूम सकते हैं, कहीं भी फोटो ले सकते हैं, कोई मनाही व रोक-टोक नहीं है। बस, मन्दिर के अन्दर फोटो लेने की मनाही होती है। यह मन्दिर असल में एक गुफा के अन्दर बना है। कभी जिसने भी इसकी स्थापना की होगी, उसी ने इस गुफा में इस मन्दिर की नींव रखी होगी। बाद में धीरे-धीरे यह विस्तृत होता चला गया। भिक्षु आने लगे और उन्होंने अपने लिये कमरे बनाये तो यह और भी बढा। आज इसकी संरचना पहाड पर मधुमक्खी के बहुत बडे छत्ते जैसी है। पूरा गोम्पा मिट्टी, लकडी व प...