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गौमुख यात्रा- गंगोत्री से भोजबासा

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8 जून 2012 की सुबह नौ बजे हमने गौमुख के लिये प्रस्थान कर दिया। मेरे साथ एक पत्रकार चौधरी साहब और कुली नन्दू भी था। हमारे पास स्लीपिंग बैग, टैण्ट और खाने का भरपूर सामान था। गंगोत्री समुद्र तल से लगभग 3000 मीटर की ऊंचाई पर है। इतनी ऊंचाई पर ट्रेकिंग करना मायने रखता है। साधारण सेहत वाला इंसान इतनी ऊंचाई पर सही सलामत पैदल नहीं चल सकता। इसके लिये सेहत साधारण से ऊपर चाहिये। हम दोनों साधारण से ऊपर तो थे, लेकिन ज्यादा ऊपर नहीं।
गंगोत्री से अच्छी तरह निकल भी नहीं पाये थे कि एक ‘टोल टैक्स’ चुकाना पडा। सौ रुपये की पर्ची कटी। बताया गया कि कुलियों के, पॉर्टरों के, गाइडों के भले के लिये यह टैक्स लिया जाता है। हालांकि इसमें से एक धेला भी इन लोगों के ना तो पास जाता है, ना ही इनके लिये खर्च किया जाता है। इसका सबूत था नन्दू, जिसके कारण हमें यह टैक्स देना पडा और नन्दू को इससे कोई फायदा नहीं होता। कोई उसे पूछता तक नहीं। यहां अपने पत्रकार साहब खदक पडे। कहने लगे कि दिल्ली जाकर आरटीआई लगाऊंगा और पता करूंगा कि कितना पैसा इन लोगों पर खर्च किया गया और कितना कमाया गया। पता नहीं उन्होंने दिल्ली आकर आरटीआई लगाई या नहीं। शायद नहीं लगाई।
गंगोत्री से दो किलोमीटर आगे कनखू नामक स्थान है। यहां से गंगोत्री राष्ट्रीय पार्क शुरू हो जाता है और परमिट चेक किये जाते हैं। हमने कल ही उत्तरकाशी जिला वन विभाग से परमिट बनवा लिये थे। परमिट चेक होने के बाद सामान की भी चेकिंग होती है और प्लास्टिक के सामानों की भी गिनती होती है। बिस्कुट के पैकेटों और प्लास्टिक की बोतल आदि जितनी हम आगे ले जायेंगे, उतनी ही वापस भी लानी पडेंगी। साथ ही यहां भी सौ रुपये लिये जाते हैं। लेकिन लौटते समय वापस भी कर दिये जाते हैं।
गंगोत्री से गौमुख तक 18 किलोमीटर का रास्ता है और हमें 3000 से 3900 मीटर की ऊंचाई तक पहुंचना होता है यानी हर किलोमीटर पर मात्र 50 मीटर ही ऊपर चढना होता है जोकि मामूली सी बात है। हां जी, प्रति किलोमीटर यानी प्रति 1000 मीटर पर 50 मीटर ऊपर चढना साधारण सी ही बात है लेकिन समुद्र तल से ज्यादा ऊंचाई इसे असाधारण बना देती है। हाई एल्टीट्यूड ट्रेकिंग कहलाती है यह फिर!
कनखू से सात किलोमीटर आगे चीडबासा है जहां अचानक चीड के पेडों का बाहुल्य हो जाता है। यहां वन विभाग की पौधशाला भी है, जिसकी मदद से खूब वृक्षारोपण किया जाता है, यहां तक कि गौमुख क्षेत्र में भी। चीडबासा के शुरू में ही एक छोटी सी नदी आती है, जिसे पार करने के लिये लकडी का पुल बना हुआ है, हमारे वापस लौटने तक उस पर पत्थरों का पक्का मजबूत पुल बना दिया गया था। चीडबासा में भी हमारे परमिटों की जांच हुई। पैसा वैसा कुछ नहीं लिया गया।
अब तक हम नौ किलोमीटर चल चुके थे। चीडबासा की समुद्र तल से ऊंचाई 3560 मीटर है। रास्ता अच्छा बना हुआ है। लेकिन पथरीला है तो पैरों को काफी कष्ट पहुंचता है। यहां सबसे ज्यादा अहम है ऊंचाई। मैं हमेशा से कहता रहा हूं कि हिमालय की शक्ति ही ऊंचाई है। पहाड तो बाकी भारत में भी हैं.... हिमालय से भी ज्यादा सघन, जंगली और दुर्गम पहाड हैं बाकी भारत में लेकिन ऊंचाई हिमालय को ही मिली है। इसलिये श्रेष्ठ माना जाता है। इसीलिये रोमांच भी आता है। मैं गौमुख जाने वालों से कहना चाहूंगा कि गंगोत्री जाकर एक पूरा दिन वहां रुकें। शाम को गंगोत्री आकर सुबह गौमुख के लिये कभी ना निकलें। पूरे दिन गंगोत्री रुकें। इधर उधर घूमते रहें। चाहें तो दो किलोमीटर आगे कनखू तक जाकर वापस चले आयें। आपका शरीर ऊंचाई के अनुकूल हो जायेगा तो गौमुख जाने का आनन्द भी तभी आयेगा।
चीडबासा तक तो हम दोनों बिल्कुल पस्त हो चुके थे। वही उच्च पर्वतीय बीमारी, जिसके बारे में बताता रहता हूं। शरीर को ऑक्सीजन कम मिलती है, जबकि काम ज्यादा करना पडता है। शरीर इस दोहरे झटके को सहन नहीं कर पाता। नतीजा यह होता है कि शरीर के सब अंग धीरे धीरे शिथिल पडने लगते हैं, कहने लगते हैं कि हम काम नहीं करेंगे। हमें ऑक्सीजन दो। जब पैर भी, हाथ भी... सब अंग मना करने लगते हैं तो चीफ कंट्रोलर दिमाग सिंह को भी मंजूरी देनी पडती है। उस हालत में हम चाहते हैं कि बैठ जायें, लेट जायें और पडे रहें। कोई हमें खुद ही उठाकर ले जाये। आनन्द आता है पडे रहने में। अपने साथ जो पत्रकार साहब चल रहे थे, वे भी पूरी तरह खत्म थे। पैरों ने बिल्कुल मना कर दिया। वो तो दिमाग उनका पत्रकार का था, आसानी से माना नहीं पैरों की बात... विरोध ही करता रहा.. इसलिये चलते रहना पडा। मैं भी थोडा सा आराम करके जितनी शक्ति जुटाता, एक कदम बढाते ही सब खत्म।
अब यह इलाका राष्ट्रीय पार्क का हिस्सा है- गंगोत्री राष्ट्रीय पार्क का। अब यहां बहुत ज्यादा प्रतिबन्ध लग गये हैं। गौमुख से चलकर भोजबासा में ही यानी 14 किलोमीटर बाद ही हमें चाय की सुविधा मिली। पहले चीडबासा में भी चाय नाश्ता मिल जाता था, लेकिन अब सब बन्द। कुछ नहीं मिलेगा रास्ते भर। इसलिये बेहतर है कि गंगोत्री से ही खाने का भरपूर इंतजाम करके चलें। खासकर बिस्कुट के पैकेट रख लेने चाहिये। भूख बडी जल्दी लगती है और खाने को कुछ नहीं मिलता। दूसरे मन भी नहीं करता। एक तो पहले से ही ऑक्सीजन की दिक्कत रहती है, अब भूख भी लगने लगती है और खाने को मन नहीं करता तो दोहरी मार पडती है। हालात बर्दाश्त-ए-औकात से बाहर निकलने लगते हैं। परांठे लेकर चले तो बल्ले बल्ले!
चीडबासा के बाद एक मुसीबत और शुरू हो जाती है। मिट्टी के पहाड आने लगते हैं। इन पहाडों से मिट्टी लगातार नीचे गिरती रहती है। मिट्टी के साथ साथ अक्सर पत्थर भी गिर पडते हैं। हम बरसात से पहले गये थे, इसलिये सस्ते में बच गये, मिट्टी खाकर ही बच गये। मानसून में जाते तो मिट्टी के साथ साथ पत्थर और चट्टानें भी खानी पडतीं। बात मजाक की लग रही होगी, ऊपर से जब पत्थर गिरते हैं..... छोडो सब, ऊपर जब देखते भी हैं तो रोंगटे खडे हो जाते हैं। लगता है कि ले गिरा... मिट्टी का पहाड अब अपने ऊपर ही गिरा। एक से बचते हैं तो शुक्र मनाते हैं कि बच गये... क्योंकि पता नहीं होता कि अगले तीन किलोमीटर ऐसे ही पहाडों के नीचे से चलना पडेगा। गौमुख जाने वालों में सबसे ज्यादा मौतें चीडबासा और भोजबासा के बीच में ही होती हैं।
भोजबासा... ऊंचाई 3800 मीटर... गंगोत्री से 14 किलोमीटर दूर। यहां से गौमुख कहने को 4 किलोमीटर रह जाता है लेकिन जिस दिन हम गये थे, उस दिन साढे चार किलोमीटर था। अगली बार जब आप जाओगे तो यह दूरी और बढी मिलेगी। हम ऐसे स्थान पर खडे थे, जहां से भोजबासा कुछ नीचे की ओर एक खुली जगह में दिखाई देता था। कुछ सौ मीटर दूर था भोजबासा... इतनी ही दूर था हमारी आज की मुसीबतों का अन्त... आज की तपस्या का समापन। यहां चतुष्पादों का ‘पीछे मुड’ पॉइण्ट है, जबकि द्विपाद ‘तेज चल’ कमाण्ड का पालन करते हैं। तेज चल इसलिये क्योंकि भोजबासा यहां से कुछ नीचे है, इसलिये चलने की स्पीड अपने आप ही तेज हो जाती है। खच्चर भी केवल यहीं तक आते हैं। खच्चर पर बैठने वालों को अगर गौमुख जाना हो तो भोजबासा से आगे साढे चार किलोमीटर तक हर हाल में पैदल चलना ही पडेगा।
भोजबासा पहुंचे। यहां एक आश्रम है- लाल बाबा का आश्रम। जाते ही हमें चाय मिली- फ्री में। चाय फ्री मिली है तो शायद बाबा आश्रम में भी फ्री में टिकाते हों। लेकिन पता चला कि रात को रुकने के और खाने पीने के प्रति व्यक्ति 300 रुपये लगेंगे। इतना सुनते ही हमने चाय के गिलास धोकर अलमारी में रखे और अपनी कैम्पिंग वाली जगह पर पहुंच गये। टैण्ट लगाया और स्लीपिंग बैग में घुसकर पड गये।
पास में ही गढवाल मण्डल वालों का एक रेस्ट हाउस है। नन्दू यानी हमारा पॉर्टर वहां जाकर पता कर आया कि शाम को साढे सात बजे डिनर मिलेगा और एक थाली का चार्ज है 180 रुपये। हमें कल तपोवन जाना है, यानी कल हमें मात्र अपने साथ लाई गई मैगी पर ही गुजारा करना है, इसलिये साढे सात बजे हम पहुंच गये डिनर करने- कम से कम आज तो भरपेट स्वादिष्ट खाना खा लें। 15 रुपये की एक रोटी थी, लेकिन फिर भी हम बिना दाम देखे खूब रोटियां खा गये। थाली नहीं लगवाई थी, बल्कि दाल ले ली थी। कुछ सस्ता मामला पड गया था।
आठ बजे के बाद यहां से खा-पीकर सुलटे। इस समय तक पूरे उत्तर भारत में अन्धेरा हो जाता है, इसलिये यहां भी हो गया। फिर तो कुछ करना धरना नहीं था, सीधे टैण्ट में गये और सो गये। हमारे आसपास कम से कम दस टैण्ट और भी लगे थे।


दूरियों का डाटाबेस

कनखू से गंगोत्री नेशनल पार्क शुरू हो जाता है जिसमें बिना अनुमति के प्रवेश वर्जित है।

और यहां से गंगोत्री नेशनल पार्क शुरू

गौमुख जाने का रास्ता

नन्दू पॉर्टर

नन्दू मूल रूप से नेपाली है लेकिन इसकी कार्यस्थली गंगोत्री है। इसने पांच बार कालिन्दीखाल पार कर रखा है। इसके अलावा गौमुख इलाके के चप्पे चप्पे से वाकिफ है।

और वो रहा जाटराम.... जाटराम ही है ना.... हां... जाटराम ही है।

इस तरह के तीन-चार नाले आते हैं जो लकडी के पुलों से पार करने पडते हैं।

रास्ता दिख रहा है ना?... रास्ता ही दिखना चाहिये।

भागीरथी और बायें वाले पहाड पर रास्ते की झलक भी दिख रही है।

बस, मामूली सी चूक और सीधे नीचे भागीरथी में। इसी रास्ते पर लोगबाग भी चलते हैं और खच्चर भी।

रास्ते का एक और नमूना

जाटराम के पीछे क्या है?... शायद चीडबासा है।

बीच में एक हरी पट्टी सी दिखाई पड रही है। यही चीडबासा है।

यह है हाई एल्टीट्यूड सिकनेस का उदाहरण। जी करता है बस पडे रहो... पडे रहो... पडे रहो। रास्ता हालांकि आसान है लेकिन चलने को मन ही नहीं करता।

कोई यह नहीं देखता कि बैठने की जगह भी है या नहीं। पडे रहने से मन ही नहीं भरता। जिसका जहां मन किया, पड गया और फिर उठना महाभारत हो जाता है। यही है हाई एल्टीट्यूड सिकनेस।

चलिये, आगे चलते हैं। रास्ते का एक और नमूना।

चीडबासा पार हो गया ना?... अब पत्थर गिरने का डर है।.. ये वही मिट्टी वाले पहाड हैं।

नाला क्रॉसिंग

मिट्टी, बजरी और छोटे छोटे पत्थरों वाले पहाड और उनके नीचे से जाता रास्ता।

फोटो पर क्लिक करके और बडा करके गौर से देखोगे तो हल्की सी पगडण्डी बीचोंबीच से गुजरती हुई दिखाई देगी। यह गौमुख जाने का सबसे खतरनाक क्षेत्र है।

इसे भी गौर से देखिये... डेंजरस जोन।

साधुओं की भी यात्रा में कोई कमी नहीं रहती।

यहां से होते हैं गौमुख के पहले दर्शन। बिल्कुल सामने बीचोंबीच गंगोत्री एक, दो, तीन शिखर हैं और उनके नीचे पूरे विस्तार में गौमुख ग्लेशियर फैला है। कल वहां जायेंगे, तब विस्तार से बताऊंगा।

भोजबासा। एक मन्दिर दिखाई पड रहा है, यही लाल बाबा का आश्रम है। इसके अलावा आश्रम के बायें जो कुछ है, वो गढवाल मण्डल वालों का ठिकाना है। आश्रम के दाहिने कुछ ऊपर लाल पीले टैंट दिख रहे हैं, हम भी वहीं जाकर टैंट लगायेंगे।

यह है पीली चोंच लाल पैरों वाला कौवा। बडा अजीब है यह... चेष्टा तो इसकी वही है जो मैदानों में काकचेष्टा कही जाती है लेकिन कांव कांव करने में बडा आलसी है यह।

जाटराम और नन्दू बैठे हैं एक आरामघर में। मैं सामने भोजबासा की तरफ देख रहा हूं। खच्चर वाले बस यहीं तक आते हैं। तेज हवा चल रही है और हाथों को काटे जा रही है।

टैंट लगाने का काम शुरू।

दस मिनट में टैंट तैयार

स्लीपिंग बैग में घुसो और सो जाओ।
अगला भाग: भोजबासा से तपोवन की ओर

गौमुख तपोवन यात्रा
1. गंगोत्री यात्रा- दिल्ली से उत्तरकाशी
2. उत्तरकाशी और नेहरू पर्वतारोहण संस्थान
3. उत्तरकाशी से गंगोत्री
4. गौमुख यात्रा- गंगोत्री से भोजबासा
5. भोजबासा से तपोवन की ओर
6. गौमुख से तपोवन- एक खतरनाक सफर
7. तपोवन, शिवलिंग पर्वत और बाबाजी
8. कीर्ति ग्लेशियर
9. तपोवन से गौमुख और वापसी
10. गौमुख तपोवन का नक्शा और जानकारी

Comments

  1. wah wah wah lajawab behad khoobsurat aur kya kahon photo kamal k h, jo batate h ki neeraj bhai ab is kaam k master hote ja rahe h. sleeping bag me ghuse jaat ram to angrej lag rahe h.bahut maza aaya. thank you.

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  2. हम तो गोमुख की वर्चुअल यात्रा (इस पोस्ट श्रृंखला के सौजन्य से) कर ही संतुष्ट और प्रसन्न हैं. साधुवाद.

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  3. जाट भाई, पढ़कर पुरानी यादें ताज़ा हो गयीं. २००९ में गोमुख गया था. आज भी वही है. हाँ शायद glacier थोडा और पीछे खिसक गया होगा. कभी फ़ालतू बैठे हो और अधिक बोर होने का मन हो रहा हो तो मेरे ब्लॉग पर ऐसी ही एक यात्रा का वर्णन पढना. shailendramodi.blogspot.com फोटो देखकर दिल करता है कि काश मैं फिर से जा सकता.

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  4. neeraj babu,man me jalan ho raha hai,main sadharan sehat se bhi kam hu aur mota me bidhan babu(gappu) bhi hamse paani mangenge.badi hi badhiya yatra bhai.

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  5. बहुत खूब... काफी बदलाव आ गया है ..लट्ठों पर तेज बहते जल को पार करना बड़ा मुश्किल है.. इतना पैसा लेते है एक टेम्परेरी पुल कयो नही बनाते... आर टी आई डालो एक इस पर भी SS

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    1. SS,
      मैंने लिखा तो है कि इन लकडी के पुलों के स्थान पर अब पत्थरों को जमाकर बडे और मजबूत पुल बनाये जा रहे हैं। जाते समय हमें लकडी के पुल मिले जबकि लौटते समय पत्थरों वाले पक्के पुल मिले। पैसा लेते हैं तो कम ही सही, लेकिन खर्च भी करते हैं।

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    2. lattho ke pul ko paar karne ka apna alag hi romanch hai.

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  6. बहुत अच्छा रोमांचक वर्णन हैं, नीरज भाई आपके साथ साथ हम भी यात्रा कर रहे हैं, लगे रहो..

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  7. चीडबासा के बाद एक मुसीबत और शुरू हो जाती है। मिट्टी के पहाड आने लगते हैं, अगले तीन किलोमीटर ऐसे ही पहाडों के नीचे से चलना पडेगा।

    क्या हुआ नीरज भाई एक किमी की दूरी को तीन किमी बता रहे हो, मैं यहाँ डो बार जा चुका हूँ पहली बार १९९९ में दूसरी बार २००९ में गौमुख से केदारनाथ पैदल यात्रा करते समय दोनों बार यह दूरी एक किमी की ही थी, दो साल में इतना ज्यादा यह कच्चा पहाड़ विस्तार नहीं कर सकता है,

    उच्च पर्वतीय बीमारी यह बीमारी तभी लगती है जब ऐसी जगह बिना शारीरिक तैयारी के चले जाते है, मैं कभी भी ऐसी जगह बिना तैयारी के नहीं जाता हूँ अत मुझ यह बीमारी तंग नहीं करती है

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    1. सन्दीप भाई, वो जो बेहद खतरनाक मिट्टी वाला जोन है, वो तो बेशक एक किलोमीटर ही है लेकिन चीडबासा के एक किलोमीटर बाद जहां से मिट्टी के पहाड शुरू होते हैं, वे गौमुख और उससे भी आगे तक चले गये हैं। चीडबासा के तीन किलोमीटर बाद इसलिये लिखा है कि हमें तीन किलोमीटर आगे भोजबासा तक ही जाना था आज।
      हालांकि उतनी तीव्रता के पहाड नहीं आते लेकिन आगे सुदूर तक इन पहाडों का वर्चस्व रहता है। मैं गौमुख से आगे तपोवन और उससे भी आगे कीर्ति ग्लेशियर तक गया था, हर जगह ये मिट्टी वाले पहाड ही हैं। दिखाऊंगा मैं आपको।
      रही बात बीमारी की तो यह एक टेम्परेरी बीमारी है। अच्छे से अच्छा पर्वतारोही भी अगर अचानक इतनी ऊपर पहुंच जाये तो चाहे वो कितना भी शारीरिक तंदुरुस्त हो, नहीं चल पायेगा। आप भी श्रीखण्ड गये थे, मुझे पता है कि आपको भी चलने में दिक्कत आ रही थी। आप पर भी यह बीमारी असर कर रही थी, लेकिन मुझसे ज्यादा तंदुरुस्त होने के कारण आप इसे अच्छी तरह झेल गये थे। बहुत कम लोग यह मानते हैं कि वे इस बीमारी की चपेट में हैं। अपने पत्रकार चौधरी साहब भी पूरे रास्ते नहीं माने इस बात को। वे चीडबासा से भोजबासा तक गये तो जरूर लेकिन कैसी हालत थी उनकी, मुझे पता है। जब मैंने उनसे इस बीमारी के बारे में बताया तो वे कहने लगे कि नहीं, मुझे यह बीमारी नहीं है लेकिन थोडा सा चलते ही सांस फूल रही है। मतलब यह है कि हर आदमी को इस बीमारी की जानकारी नहीं है। जानकारी है भी तो चपेट में आने के बाद वो इसे मानने से इंकार कर देता है। यह कोई आनुवांशिक बीमारी नहीं कि बदनामी हो जायेगी, यह तो आकस्मिक है, थोडी देर आप ऐसे वातावरण में रहिये, खुद दूर हो जायेगी।
      मुझे अक्सर 3500- 4000 मीटर पर हाई एल्टीट्यूड सिकनेस असर करने लगती है। आप मेरी हर ट्रेकिंग को पढकर कहते हो कि बिना तैयारी के गये थे। दिल्ली में रहते हुए कभी भी हाई एल्टीट्यूड की तैयारी नहीं हो सकती। इसका असर होना ही होना है।

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    2. sandeep bhai aap sahi kah rahe hai yeh 1-1.5 km ka hi zone hai. rahi baat AMS ki to yeh vyakti vyakti par nirbhar karta hai.
      neeraj bhai delhi me rah kar bhi high altitude ki tayyari ki ja sakti hai. aapko 8 KMPH ki gati se daily jogging karna chahiye isase lungs ki capacity bad jaati hai.
      dusra ilaz DIMOX kha lo.

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  8. तो क्लिष्ट शब्दों का प्रयोग शुरू कर ही दिया आपने भी :)
    बहुत से कांवडिये गौमुख से कांवड लाते हैं (मेरे चाचा भी लाये थे, उन्होंने तो नहीं बताया इतना खतरनाक है)
    टैंट और स्लीपिंग बैग की कीमते बताईयेगा, बहुत से घुमक्कडों के काम आयेगी ये जानकारी
    और इस बार आपने खाने-पीने पे कुछ ज्यादा खर्च तो नहीं कर दिया है :) (Just Joking)

    प्रणाम

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    1. लोगों को इसके बारे में पता नहीं होता। और कांवडियों से कम ही उम्मीद होती है।
      रही बात टैंट, स्लीपिंग बैग की तो उन्हें हम उत्तरकाशी पर्वतारोहण संस्थान से किराये पर ले गये थे। वैसे मेरे पास एक स्लीपिंग बैग भी है जो पिछले साल 3500 रुपये का लिया था।
      और हां, इस बार पैसे ज्यादा खर्च हो गये। रही बात खाने पीने पर तो हमारे पास वो 15 रुपये वाली रोटी खाने के सिवाय कोई और चारा भी नहीं था। बाबा ने मना कर दिया था, हमारे पास मैगी थी, जिसे हम कल तपोवन जाकर खायेंगे। अगर अभी मैगी खा लेते तो कल भूखे मरते।

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    2. neeraj bhai lal baba bahut hi nek kaam kar rahe hai wo us jagah jahan GMVN baale ek paani ki botel jo 15/- rupye ki aati hai ke 75/- rupaye le rahe hai. chay 30/- ki wahi lal baba rahne khane chay ke sirf 300/- prati vyakti le rahe hai.
      GMVN ka charge 800/- prati vyakti hai.

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  9. जाट देवता जी , नीरज जी ने लिखा है की हम साधारण से थोडा ऊपर ही हैं .
    दोनों जाटों के यात्रा वर्णन (कम कमेन्ट वाले ) पड़ने के लिए तो ब्लॉग दिन में दोनों समय देखें जाते हैं .अभी तक इतनी ज्यादा तथा सुंदर फोटो गंगोत्री की किसी ने नहीं लगाएं . मुझे आप की पर्वतों के लेखों पर गर्व है. चौधरी साब की कोई फोटो नहीं दिखाई

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    1. चौधरी साहब की एक फोटो दिखाई है लेकिन उनका मुंह काला करके।

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    2. ऐसा क्या का दिया? जो उनका 'मुंह काला' करना पड़ा !

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  10. दोनों जाटों की ब्लॉग पर दिअग्लोक बाजी हमारी जानकारी को बड़ा टी है तथा लेख के साथ मजा भी आता है ..... लगे रहो जाट भाई

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  11. .........रोमांचक वर्णन हैं, नीरज भाई

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  12. यह बीमारी मुझे भी हुई थी जब मैं हेमकुंड साहेब गई थी जो ४हजार से ऊपर ही है ...मुझे भी सेम -सिम्तम हुए थे ...और मुझे एक टोकरी वाला पिद्हू उठाकर नीचे लाया था क्योकि मेरे पेरो में दम ही नहीं था और मुझे सांस लेने में भी परेशानी हो रही थी... नीचे आकर में १० घंटे सोई थी .....और जब उठी तो फ्रेश थी ....
    सच कहा किसी ने आजतक इतने स्पष्ठ फोटू किसी ने नहीं लगाए ..जो दर्शन तुमने इतने मुश्किम में किए और लिखा उन्हें हम एक मिनट में देखकर कमेन्ट कर देते है ...यदि अच्छा लगा तो ठीक वरना कुछ मीन मेंख निकल कर छुटी पाते है ..पर तुम्हारे होसले की दाद देनी पड़ेगी ....कुछ भी हो तुम्हारी यात्रा जारी है ....

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  13. गजब यात्रा, गजब विवरण..

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  14. जाट राम को नमस्कार, आप की यात्रा संस्मरण पढ़कर ऐसा लागा मानो, हम भी यात्रा में आपके साथ-साथ हो लिए, जैसे कि अक्सर उपन्यास पढ़ने में होता है, कि आप उसमें ही खो जाते हैं जैसे कि सभी घटनाएं आपके सामने घट रही हो, वैसा ही आभास आपकी यात्रा संस्मरण पढ़ने से होता है कि हम भी आपके साथ आपकी यात्रा में शामिल हो जाते हैं। अभी कुछ दिन पहले आपका एक लेख ‘‘दैनिक जागरण’’ के ‘‘यात्रा’’ संस्करण में 24 जून 2012 को प्रकाशित हुआ था, जिसका शीर्षक ‘‘एक गुमनाम टै्रक को रोमांच’’ जिसके लिए मैं आपको तहेदिल से बधार्इ देता हूँ, कि आपके यात्रा संस्मरण के लेख इसी तरह समाचार पत्र में प्रकाशित होते रहे।

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  15. neeraj bhai aapke theek baad me gaya tha halaki mujhe KEDAR TAAL jana tha lekin wahan ke halat bahut kharab the landsliding ho rahi thi kedar ganga sir ke upar se bah rahi thi to DFO ne kaha akele mat jao aur baaqi logo ne bhi yahi salah di ki 4-5 team vapas aa chuki hai koi nahi ja saka fir aap to akele jaa rahe ho.
    maine kedar taal ka programme postpone kar gomukh ki aor muh kar liya. aur itani kathinayiyo ka samna nahi karna padha. really. main to akela tha fir bhi aasani se kar liya. aur bhojwasa se GOmukh rivrbed se gaya.

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  16. रोमांचक विवरण......गोमुख तक का ....पढ़कर आनंद आ गया |

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  17. नीरज जी,
    बहुत अच्छा यात्रा वृत्तांत लिखा है, फोटो भी लाजवाब हैं. आप का रोचक और जानकारीयुक्त पोस्ट के लिए बहुत बहुत धन्यवाद.

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  18. Very infomative and interesting to read ! Keep going !

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  19. jatji aap ke sath ghumne ka kafi man hai.

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  20. jatji aap ke sath ghumne ka kafi man hai.

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  21. तुम्हारा ब्लॉग पढ़ कर अच्छा भी लगता है और मलाल भी होता है |
    मलाल ये होता है कि क्यों कर जीवन के इतने साल यूँ ही गुजार दिए ,जबकि दुनिया देख सकते थे |
    अब मन होता भी है तो नौकरी कि मजबूरियां बाँध लेती है |
    इतना समय कैसे निकाल लेते हो भैय्या ...
    अगली यात्राओं के लिए शुभ कामनाएं..

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  23. खतरनाक किन्तु आनंदायक ! शब्दों से परे !

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एक बार मैं गोरखपुर से लखनऊ जा रहा था। ट्रेन थी वैशाली एक्सप्रेस, जनरल डिब्बा। जाहिर है कि ज्यादातर यात्री बिहारी ही थे। उतनी भीड नहीं थी, जितनी अक्सर होती है। मैं ऊपर वाली बर्थ पर बैठ गया। नीचे कुछ यात्री बैठे थे जो दिल्ली जा रहे थे। ये लोग मजदूर थे और दिल्ली एयरपोर्ट के आसपास काम करते थे। इनके साथ कुछ ऐसे भी थे, जो दिल्ली जाकर मजदूर कम्पनी में नये नये भर्ती होने वाले थे। तभी एक ने पूछा कि दिल्ली में कितने रेलवे स्टेशन हैं। दूसरे ने कहा कि एक। तीसरा बोला कि नहीं, तीन हैं, नई दिल्ली, पुरानी दिल्ली और निजामुद्दीन। तभी चौथे की आवाज आई कि सराय रोहिल्ला भी तो है। यह बात करीब चार साढे चार साल पुरानी है, उस समय आनन्द विहार की पहचान नहीं थी। आनन्द विहार टर्मिनल तो बाद में बना। उनकी गिनती किसी तरह पांच तक पहुंच गई। इस गिनती को मैं आगे बढा सकता था लेकिन आदतन चुप रहा।

जिम कार्बेट की हिंदी किताबें

इन पुस्तकों का परिचय यह है कि इन्हें जिम कार्बेट ने लिखा है। और जिम कार्बेट का परिचय देने की अक्ल मुझमें नहीं। उनकी तारीफ करने में मैं असमर्थ हूँ क्योंकि मुझे लगता है कि उनकी तारीफ करने में कहीं कोई भूल-चूक न हो जाए। जो भी शब्द उनके लिये प्रयुक्त करूंगा, वे अपर्याप्त होंगे। बस, यह समझ लीजिए कि लिखते समय वे आपके सामने अपना कलेजा निकालकर रख देते हैं। आप उनका लेखन नहीं, सीधे हृदय पढ़ते हैं। लेखन में तो भूल-चूक हो जाती है, हृदय में कोई भूल-चूक नहीं हो सकती। आप उनकी किताबें पढ़िए। कोई भी किताब। वे बचपन से ही जंगलों में रहे हैं। आदमी से ज्यादा जानवरों को जानते थे। उनकी भाषा-बोली समझते थे। कोई जानवर या पक्षी बोल रहा है तो क्या कह रहा है, चल रहा है तो क्या कह रहा है; वे सब समझते थे। वे नरभक्षी तेंदुए से आतंकित जंगल में खुले में एक पेड़ के नीचे सो जाते थे, क्योंकि उन्हें पता था कि इस पेड़ पर लंगूर हैं और जब तक लंगूर चुप रहेंगे, इसका अर्थ होगा कि तेंदुआ आसपास कहीं नहीं है। कभी वे जंगल में भैंसों के एक खुले बाड़े में भैंसों के बीच में ही सो जाते, कि अगर नरभक्षी आएगा तो भैंसे अपने-आप जगा देंगी।

ट्रेन में बाइक कैसे बुक करें?

अक्सर हमें ट्रेनों में बाइक की बुकिंग करने की आवश्यकता पड़ती है। इस बार मुझे भी पड़ी तो कुछ जानकारियाँ इंटरनेट के माध्यम से जुटायीं। पता चला कि टंकी एकदम खाली होनी चाहिये और बाइक पैक होनी चाहिये - अंग्रेजी में ‘गनी बैग’ कहते हैं और हिंदी में टाट। तो तमाम तरह की परेशानियों के बाद आज आख़िरकार मैं भी अपनी बाइक ट्रेन में बुक करने में सफल रहा। अपना अनुभव और जानकारी आपको भी शेयर कर रहा हूँ। हमारे सामने मुख्य परेशानी यही होती है कि हमें चीजों की जानकारी नहीं होती। ट्रेनों में दो तरह से बाइक बुक की जा सकती है: लगेज के तौर पर और पार्सल के तौर पर। पहले बात करते हैं लगेज के तौर पर बाइक बुक करने का क्या प्रोसीजर है। इसमें आपके पास ट्रेन का आरक्षित टिकट होना चाहिये। यदि आपने रेलवे काउंटर से टिकट लिया है, तब तो वेटिंग टिकट भी चल जायेगा। और अगर आपके पास ऑनलाइन टिकट है, तब या तो कन्फर्म टिकट होना चाहिये या आर.ए.सी.। यानी जब आप स्वयं यात्रा कर रहे हों, और बाइक भी उसी ट्रेन में ले जाना चाहते हों, तो आरक्षित टिकट तो होना ही चाहिये। इसके अलावा बाइक की आर.सी. व आपका कोई पहचान-पत्र भी ज़रूरी है। मतलब