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करेरी यात्रा पर गप्पू और पाठकों के विचार

करेरी यात्रा मेरे यात्रा इतिहास की बहुत खास यात्रा रही। यह पहली ऐसी यात्रा थी जहां मैं धार्मिक स्थान पर न जाकर खालिस घुमक्कड स्थान पर गया। हर बार अपने साथियों से कुछ ना कुछ शिकायत रहती थी, लेकिन इस बार गप्पू की तरफ से कोई शिकायत नहीं है। बन्दे ने पूरी यात्रा में जमकर साथ दिया। गप्पू अपने घर से एक तरह से भागकर आया था। घरवाली को बताया था कि करेरी झील कैलाश मानसरोवर वाली झील के बाद दूसरी पवित्र झील है।

पूरे यात्रा वृत्तान्त में मैंने गप्पू की पहचान छुपाये रखी। यह उन्हीं की इच्छा थी। वह एक ब्लॉगर भी है। उनका ब्लॉग भी है जिसका लिंक मुझे मालूम भी है लेकिन गप्पू के कहने पर मैंने कहीं उसका इस्तेमाल नहीं किया। यही कारण है कि गप्पू ने हर पोस्ट में गप्पू जी के नाम से अपने अनुभव भी कमेण्ट के रूप में लिखे हैं। मैंने उनसे कभी नहीं कहा कि भाई, पोस्ट छप गई है, आओ और कमेण्ट कर जाओ। आइये गप्पू समेत कुछ खास कमेण्टों पर निगाह डालते हैं:
छोटे भाई,

एक बात पल्ले बांध लो कभी फ़्री के चक्कर में ना रहो, रही बात भारी भरकम लोगों की, तो शरीर में जान व हौसला हो तो कैसा भी सफ़र हो आराम से कट जाता है। मैं भी ७५ किलो का प्राणी हूं।
भाई, आपमें और गप्पू में बहुत गडबड और असमानताएं हैं। आप सफर पर निकलते रहते हैं और गप्पू आज पहली बार निकला था। रही बात इच्छाशक्ति की तो इच्छाशक्ति ही मुख्य चीज है जो पर्यटक और घुमक्कड में फरक करती है।

रोचक शुरुआत, अगले विवरण की प्रतीक्षा. चलिए अब आपको अपने सफर में सहभागी भी मिल रहे हैं, सफर ज्यादा बेहतर कटता होगा.
हां जी, यही ब्लॉगिंग की देन है मेरे लिये।

गप्पू जरुर इस खड्ड में नहाया होगा।

कच्छा सिर पै टांग राख्या सै :)
गप्पू को नहाने का शौक तो बहुत था लेकिन उस दिन उस समय हम करेरी गांव पहुंचने की जल्दी में थे और टाइम कम था। गप्पू कुछ घण्टे पहले मैक्लोडगंज के पूल में नहाया था इसलिये एकान्त मिलने पर कच्छा सूखने के लिये अब निकाला था बैग से।

खून का ग्रुप बी+ होने के कारण हरियाली और पानी मुझे कुछ ज्यादा ही आकर्षित करते हैं. मेरी "भूखी निगाहें" हिमाचल में प्रवेश करते ही प्रकृति के सौन्दर्य को तलाशने लगी थी. नीरज बोला ," शिमला जैसा माहौल धर्मशाला में मिलेगा. " .....

नोरा तक तो मुझे कोई ज्यादा परेशानी नहीं हुई,लेकिन नोरा से करेरी की चढ़ाई ने मेरे तन और मन दोनों को तोड़ के रख दिया. 'साहस के पैरों' से चढ़ाई चढ़ी थी मैंने. नीरज से काफी सहयोग मिला. अगले दिन सुबह उठा तो कुछ ताजगी लगी और साहस तो जैसे 'रावण का सिर' हो गया, एक काटो तो दूसरा तैयार!!

वाकई कमाल की यात्रा थी. भाई नीरज को बहुत-बहुत धन्यवाद!

बहुत मज़ा आया पढ़ के ......आप इतना चले उस दिन पैदल ...पहले मैं भी चल लेता था ....खूब कुश्तियां लड़े हम घूम घूम के हिमाचल के गावों में .......अब हिम्मत नहीं ...उतनी फिटनेस भी नहीं ...पर वह सड़क है ....bike से जायेंगे ....क्या route बनेगा .......पर पोस्ट पढ़ के मज़ा आया .....इतने remote areas में ही तो सौंदर्य है प्रकृति का ...वाह
अजीत साहब, अगर बाइक से जायेंगे तो पहले धर्मशाला जाना पडेगा। धर्मशाला के बस अड्डे के बराबर से ही नीचे को एक सडक जाती है। यह आखिर में घेरा पहुंच जाती है। घेरा के बाद एक पुल आता है जो अभी तक पूरा नहीं हुआ है। लेकिन फिर भी नदी से होकर बाइक निकाली जा सकती है। यह सडक आगे करीब चार पांच किलोमीटर के बाद नोरा पहुंच जाती है। यह वही नोरा वाली सडक थी।

भाई जी अपने तो पुल देख कर ही होश उड़ गए...पार करने की तो सोच भी दूर से भाग रही है...गज़ब करते हो भाई...पानी पीते हुए गप्पू की टी शर्त पसीने में नही हुई नज़र आ रही है...फोटो तो भाई जी बेजोड़ है...आप तो इन फोटों की एकल प्रदर्शनी लगा सकते हो...स्कूल कालेज में ताकि युवा बच्चे आपसे प्रेरणा लें...
नीरज जी, जरा प्रदर्शनी के बारे में थोडा और बताना। यह तो बडे काम की बात बताई है आपने।








......रस्ते में नीरज ने एक बड़ा प्रेरणास्पद प्रसंग सुनाया,"तेनजिंग नोर्गे जब एवरेस्ट पर पहुंचे तो उन्होंने आदरवश एवरेस्ट की चोटी पर पैर न रख कर अपना माथा टिका दिया .......हमारे पुरखों ने बड़ी समझदारी से तीर्थों/मंदिरों को ऊँचे पर्वतों पर बनाया है. आप जब भगवान के दर्शन करने जाते हो और आप का सामना भगवान की बनाई कठिनाइयों/पर्वतों से होता है तो आप में लघुता का अहसास होता है और वहीँ से आप का अहं खंडित होने लगता है. मेरे साथ भी यही हुआ ...एक पर्वत को पर करते ही उससे बड़ा पर्वत सीना ताने खड़ा दिखाई देता था........मन ही मन इन सब को बनाने वाली शक्ति के प्रति आदर का भाव लिए मैं दीन-हीन 'प्राणी' ईश्वर की शक्ति के एक 'छोटे' से पर्वत पर अपनी श्रद्धा के सुमन अर्पित करने जा रहा था. मंदिरों में तो मूर्तियाँ होती है, भगवान तो अपनी विशालता और सौन्दर्य के साथ इन्ही जंगलों/नदियों और पर्वतों के कण-कण में व्याप्त है.इसी नमन के साथ ....

नीरज के पास "मेट्रो" के जूते और रेनकोट थे वो अच्छी क्वालिटी के थे. मैंने जो रेनकोट ख़रीदा वो अच्छा कम और "फ़िल्मी" ज्यादा था. एक तो उसमें टोपी से पानी बहता हुआ गर्दन के रास्ते पीठ से गुजर कर अंत:वस्त्रों को गीला कर रहा था. पानी की हर बूँद के साथ शरीर में कंपकंपी छूट जाती थी. मन ही मन रेनकोट की दुकान वाले को खूब गालियाँ दी... दूसरे वो चढ़ाई चढ़ते वक्त पैरों में उलझ जा रहा था. दो-तीन बार गिरते-गिरते बचा.



तन-मन को तोड़ देने वाली चढ़ाई,पैरों में पड़े छाले और पहली बार की इतनी कठिन चढ़ाई ........ऐसा लग रहा था "एवरेस्ट" पे चढ़ रहे हैं . देश-दुनिया और घर-परिवार से एक दम कटे हुए हमारा प्रकृति से एकाकार हो रहा था. बिजली का चमकाना और बादलों की गडगडाहट मेरे जैसे आदमी के हौसले तोड़ देने के लिए काफी था.


एक आस लिए जब जब दिल्ली के लोगों के टेंट के पास पहुंचे, तो हमारी हालत एक याचक से बेहतर न थी. उन लोगों का अलाव जला कर मस्ती करना और गर्म चाय और काफी पीना हमें ललचा रहा था. नीरज के पूछने पर उनके द्वारा (चाय और खाने के लिए) मना करने पर मन में यही ख्याल आया की क्या इस धरती पर इतनी निकृष्ट कोटि के लोग भी रहते हैं ? जो क्या हुआ वो दिल्ली के थे? बड़े शहरों और मकानों में रहने वाले लोगों के दिल इतने तंग होंगे मैंने सोचा भी न था. नीरज को मैंने कहा," कितने माद ....@#!! लोग हैं यार ये ! " खैर अगले दिन उन लोगों की हालत देख कर मन में बड़ा सुकून आया ...नीरज अपनी अगली पोस्ट में शायद इस का जिक्र करे.

यहाँ हम अपनी ईमानदारी का ढिंढोरा तो नहीं पीटना चाहते,लेकिन उन परिस्थतियों में भी हमारे अन्दर इंसानियत जिन्दा रही. मंदिर के पास जहाँ हमने शरण ली,वहीँ एक छोटी सी दुकान थी. दुकानदार मौसम ख़राब होने और किसी के वहां न होने के कारण बंद करके नीचे चला गया था. आस-पास तीन से चार किलोमीटर के इलाके में वहां हम दोनों के अलावा कोई नहीं था. दुकान मैं दरवाजे पर ताला लगा हुआ था और उस पूरे इलाके मैं दुकान ही एक ऐसी जगह थी जो सही सलामत थी,जिसमें ठण्ड से बचा जा सकता था. पहले तो मैं आग जलाने के चक्कर मैं पड़ा. मंदिर में माचिस भी मिली तो गीली थी. मैंने उसे जेब मैं डाल लिया .कोई सूखी लकड़ी भी वहां नहीं दिखाई दी. दुकान का मुआयना किया तो, दरवाजे के अलावा एक खिड़की जो सामान बेचने के लिए थी, उसके लकड़ी के पाटिये को कील ठोंक कर डोरी से अंदर की तरफ बाँधा गया था. एक बार तो मन मैं आया की अगर डोरी को काट दूं तो पाटिया आराम से खुल जायेगा, फिर उसमें सूखी लकड़ी, माचिस और खाने को मैगी के अलावा भी कुछ मिल सकता है. हालाँकि मेरी अंतरात्मा इसके लिए मना कर रही थी. मैंने नीरज से बात की तो नीरज बोला अभी तो सो जा ,अगर कल भी फंसे रहे तो अपना जीवन बचाने के लिए उसमें से सामान निकालकर उतने पैसे रख देंगे और एक चिट्ठी लिख कर छोड़ देंगे. .......शुक्र है ऐसी नौबत नहीं आई.

एक घुमक्कड़ क्लब के बारे मन क्या विचार है?अध्यक्ष नीरज...
मैं खुशी से तैयार हूं। लेकिन क्लब खालिस घुमक्कड होना चाहिये, पर्यटक नहीं।

सिर मुंडाते ही ओळे ओळे ओळे।:) अबकी बार हेलमेट लेके जाईयों। हा हा हा

इतने खराब मौसम में अनजानी जगह पर यात्रा करना दुस्साहस तो है। जब बादल नजदीक हों और बिजली चमक रही हो। कभी झटका भी दे सकती है।

इसलिए सुरक्षात्मक उपाय ही करना जरुरी है।
पहाड़ बड़े बेरहम होते हैं, किसी पर दया नहीं करते।
और उन सुसरों की तो बजा के आना था,जो दिल्ली को बदनाम कर रहे थे।
बताओ कि ऐसे में हम उनकी क्या बजाते। असल में हम उस समय अपनी पर थे ही नहीं।
और हेलमेट ले लिया है। आगे से इसे भी ढोया करूंगा।

इस जाट की कैसे किन शब्दों में तारीफ़ करूँ...ऐसा साहसी छोरा मैंने तो अपनी ज़िन्दगी में अभी तक न देखा...जित्ते बढ़िया दिल का है बित्ती ही बढ़िया फोटू खींचता है और उस से भी बढ़िया भाषा में चुटकियाँ लेता हुआ विस्तार से यात्रा के बारे में बताता है...लेखन उच्च कोटि का है और जीवट कमाल का...धन्य है रे भाई तू...तेरे साथ गप्पू जी भी धन्य हो गए...
नीरज जी, आपकी उत्साहवर्द्धक टिप्पणियां आनन्द से भर देती हैं लेकिन कभी कभी अति उत्साहवर्द्धन भी हो जाता है। उसमें वो आनन्द नहीं आता। फिर भी आपके आशीर्वाद की ही करामात है कि मैं इतना घूम लेता हूं।

अधकच्ची सी नींद में मोबाइल का अलार्म बज उठा. पहले लगा की कोई फोन आया है. फिर याद आया की हम तो करेरी झील पर है. यहाँ नेटवर्क पकड़ने का सवाल ही नहीं उठता. लेकिन इतनी जल्दी अलार्म .........? मैंने नीरज से कहा,"भाई मेरा अलार्म तो साढ़े चार बजे का भरा हुआ है....तो क्या साढ़े चार बज गए? सवाल ही नही उठता? मैंने कहा, "यार नीरज ऐसा लगा जैसे दो घंटे में ही सुबह हो गई". नीरज को भी यही महसूस हुआ. चांदनी और बर्फ की सफेदी से पूरी झील रोशन सी हो रही थी.अंदाजा लगाना मुश्किल हो रहा था की क्या वक्त हुआ होगा. मैं दिमाग पर जोर देते हुए बोला,"यार नीरज ! इतनी जल्दी सुबह कैसे हो सकती है? नीरज बोला," हम लोग जम के सोये हैं, इस लिए वक्त का पता ही नहीं चल पा रहा है! खैर.... रात को ठण्ड बारिश और ओलों तथा हवा के थपेड़ों ने हमें दहशत में ला दिया था. हिम्मत कर के मैं सुबह के उस चांदनी से रोशन आलौकिक नज़ारे को देखने स्लीपिंग बैग से बाहर निकल आया. शरीर की गर्मी से पहने हुए कपडे सूख चुके थे और जेब में रखी वो माचिस भी. जेब से निकल कर तीली को माचिस से रगडा तो सर्र से जल गई.आसमान की तरफ देखा तो वहां कोई बादल नहीं थे, आसमान साफ़ था. हाँ हवा जरूर ठंडी बह रही थी. कोई टोपी या कपड़ा नहीं होने की वजह से जेब से रूमाल निकल कर कानों को ढक लिया. मन से डर तिरोहित हो रहा था. करेरी गाँव से चलते वक्त नीरज ने मोबाइल पर गाना सुनाया था, "चल अकेला ..चल अकेला ...तेरा मेला पीछे छूटा जाये.... " वो गाना यहाँ याद आ रहा था. फिर मन में एक विचार आया कि, ये अटल सत्य है कि तूफानों, गरजती अँधेरी रातों, भूख और संघर्ष के बाद सुहानी सुबह जरूर आती है और उसी आलौकिक सुहानी सुबह का लुत्फ़ मैं उठा रहा था. मैं सोच रहा था कि मैंने अपने जीवन की कितनी दुर्लभ सुबह यहाँ बिताई है (क्योंकि करेरी झील अब जीवन में शायद ही कभी दुबारा जा पाऊं). जेब में रखी माचिस सूख चुकी थी...... . बस क्या था सूखी लकड़ी कि तलाश में जुट गया.....सफलता नहीं मिली. मैं सोच रहा था टाइम कैसे पास किया जाये, क्योंकि नीरज तो सोया पड़ा था...सोचा क्यों न गीले कपडे ही सुखा लूं ...वैसा ही किया. सूर्य की किरणों के दर्शन अभी भी नहीं हुए. मन में फिर वही शंका कि कहीं अभी रात ज्यादा तो बाकि नहीं है? मन मार कर स्लीपिंग बैग में वापस घुस गया....नींद नहीं आ रही थी....सोच रहा था क्या किया जाये कि ये टाइम जल्दी पास हो जाये. सोचा, क्यों न फोटो ही खींच लूं ...बस क्या था कैमरा बैग से निकाला ...'मेनुअल मोड' पर 'अपर्चर' और 'शटर' स्पीड कम किया और चाँद की रोशनी में फोटो लेने की कोशिश करने लगा काम चलाऊ फोटो(क्यों की 'फ्लेश' का कोई मतलब ही नहीं था) खींची. नीरज को जगाना कुम्भकरण को जगाने से भी कठिन था. अब उजाला ज्यादा हो चला था ...तभी मेरी नजरें दूर पहाड़ों की चोटी पर गई ....सूरज की रोशनी ऐसे पड़ रही थी जैसे कोई फिल्म का सैट हो.....ज़ूम करके फोटो लेने की कोशिश की ...मजा नहीं आया...मन में एक ख़ुशी थी कि एक भयानक रात हमने इस निर्जन जगह गुजारी और अब सही सलामत घर चले जायेंगे. मन में ख्याल आया की क्यों न नहा लिया जाये.... फिर 'फ्रेश' होने के लिए चला. वहां वातावरण इतना साफ़ था की फ्रेश होते हुए भी डर सा लग रहा था. हाथ धोये. पानी बहुत ही ठंडा था मन में से नहाने का विचार त्याग दिया. कैमरा जेब में ही था..... शानदार लोकेशन और शानदार फोटुएं . मन कर रहा था सारी प्रकृति को कैमरे में ही बटोर लूं और घर ले जाऊं. .....अच्चानक ....."अरे ज़ल्दी आ मर!!' की आवाज़ ने मेरी तन्द्रा को तोडा ...ऊपर मंदिर की तरफ नजर गई तो देखा नीरज किसी प्रेत की तरह चबूतरे पर चक्कर लगा रहा था और चिल्ला रहा था. छाले पड़े पैरों से नीरज की तरफ चल पड़ा. पास आने पर नीरज बोला, "जल्दी कर झील का चक्कर लगायेंगे" हमने अपने कपडे और स्लीपिंग बैग ठूंस-ठांस के भरे ..नीरज का स्लीपिंग बेग उसके कवर के अन्दर नहीं जा रहा था तो "जाट तकनीक" से अन्दर घुसाने लगा(लेट के बेग को हाथों में उठा के पैरों से ठूंस रहा था). सामान उठा के हाथ में डंडा ले के चल पड़े झील के चक्कर लगाने ... हर एंगल से फोटो खींचे. दो-चार बार जमें ओलों में फिसला भी. डंडे ने बचा लिया. हर वक्त यही लग रहा था की वो दिल्ली वाले 'कचरा पाल्टी' आने वाली है(क्योंकि शांत माहौल ख़राब कर देते). मन भर के फोटो खीचने और पकृति को निहारने के बाद झील से नीचे की और चल दिए.............

मुसाफिर जी,


जैसे आपने अपनी ट्रेन की यात्रा (पैसेंजर, मेल/एक्सप्रेस, सुपरफास्ट) के बारे में हिसाब लगा रखा है वैसे ही आप अपनी बस द्वारा यात्रा, पैदल यात्रा व अन्य किसी जुगाड द्वारा यात्रा का हिसाब भी लगा कर अपने ब्लौग पर डालो.
नरेश जी, अब यह सम्भव नहीं है। 2005 में जब पहली रेल यात्रा की थी तो 2006 में की गई यात्राएं भी याद थीं। मैंने रेल यात्राओं का हिसाब लगाना 2006 से शुरू किया है। जबकि बस यात्रा, पैदल यात्राएं तो जन्म के समय से ही हो रही हैं, उनका हिसाब लगाना मुमकिन ही नहीं है।

उन की ऐसी की तैसी, जिन्होंने चाय भी नहीं पिलायी थी, ऊपर से गडबड कर दी गप्पू व घुमक्कड(नीरज) ने कि वापसी में वही चाय पी कर आये, नहीं पीनी थी चाय व नहीं खाना था हल्वा, ऐसों को तो ढेर सारी सुनानी थी।
भाई संदीप, उस समय मैं अपना जाटत्व दिखाने के मूड में नहीं था। पहले दिन हमने मात्र दो-दो रोटियां ही खाईं थी वो भी सुबह को। फिर दिनभर पैदल चले। रोटी तो क्या पहाडों पर सर्वसुलभ रहने वाली मैगी तक नहीं मिली। हमारा टाइम अच्छा था कि हमारे पास बिस्कुट और नमकीन थे। भला बिस्कुट नमकीन से पेट भरता है कभी? सुबह उठने के बाद भूख के कारण पेट में जो मरोड उठने शुरू हुए, वो हम ही जानते हैं। हमें यह भी पता था कि झील से करेरी गांव तक कम से कम चार घण्टे के रास्ते में खाने को कुछ भी नहीं मिलना है। उस हालात में हमारे सामने वही एकमात्र चारा था कि दिल्ली वालों की बची-खुची चाय और हलुवा ही खा लिया जाये।

करेरी झील से नीचे उतरते हुए बड़ी जोर की भूख लगी हुई थी,क्योंकि खाना खाए हमें चौबीस घंटे से ज्यादा हो गए थे. इधर मन और आँखे भी "प्यासी" थी. प्रकृति अपने पूरे सौन्दर्य के साथ हमारे सामने प्रस्तुत थी. हर दृश्य को आँखों और कैमरे में कैद कर लेना चाहता था. नीरज की चाल बढ़ते ही मैं उसके तेवर समझ गया था. "दिल्ली वाली पाल्टी" के बिखरे केम्प से लग रहा था कि वो जा चुके हैं. एक केम्प वाले से पुछा, "भैया चाय मिलेगी?" उसने दूसरे से पूछा और कहा, "है". खाना न मिले और चाय मिल जाये ये ही मेरे लिए काफी है. मैंने झट से वहां पड़े दो गिलास धोये और हम चाय पीने लगे. केम्प वाला लड़का बोला, "हलुवा भी है चाहिए ?" अंधे को क्या चाहिए......नीरज वहीँ पड़ी एक थाली में हलुवा डाल कर शुरू हो गया. ऐसा लग रहा था की कल की कसर भी आज ही निकाल रहा है. मुझे हलुआ और वो भी सूजी का पसंद नहीं है. हमने पैसे के लिए पूछा तो उन भले मानुसों ने मना कर दिया. हमने उन्हें मन ही मन ढेर सारी दुआएं दी और अपनी राह पर बढ़ चले.

एक दो किलोमीटर पर ही वो. "दिल्ली वाली पाल्टी" किसी पस्त सेना की तरह आगे बढ़ रही थी. नीरज की गति को पकड़ने के लिए मुझे लगभग भागना पड़ रहा था , जबकि मैंने सोचा था की वापस चलते हुए आराम से फोटो खीचेंगे और प्राकृतिक सौन्दर्य का आनंद लेंगे. "दिल्ली वाली पाल्टी" इस मनोरम और सुन्दर जगह को भी "दिल्ली" ही बनाने पर तुली हुई थी. चिप्स और नमकीन खाते और कोल्ड ड्रिंक्स पीते हुए वो लोग कचरा वही फेंकते जा रहे थे(शायद उनके बाप आकर उसे बाद में साफ करेंगे) मैंने नीरज से कहा तो वो बोला,"अपन तो अपना कचरा साथ लायें हैं, नीचे कहीं सही जगह फ़ेंक देंगे " और चार बजे तक घेरा पहुचने की हिदायत उसने दे दी.

अब "सौन्दर्य" तो दूर की बात "घेरा" दिखने लगा था . उससे पहले हमें करेरी गाँव पहुँचाना था. जिस रास्ते पर हमें चढ़ते हुए तनिक भी डर नहीं लगा वो उतरते हुए बड़ा भयानक हो गया था और ओलों से टूट कट गिरे पत्तों और उनके नीचे पड़े ओलों ने इस भयावहता को और बढ़ा दिया था. फिर भी हम अपनी गति से उतरते रहे. जहाँ हमें केरल की पार्टी मिली थी उससे थोडा नीचे एक झरने पर कोलाहल सुनाई दिया. नजदीक जाकर देखा तो तीन अंग्रेज एक अंग्रेजनी मस्ती(नहा रहे थे) कर रहे थे और दो गाईड बैठे थे. हम भी वहीँ बैठ गए. बात-चीत से पता चला कि अंग्रेजों से एक आदमी का ढाई हजार रुपये प्रतिदिन के हिसाब से इस ट्रेकिंग कि फीस वसूली जाएगी और पांच दिन का ट्रेक था. वहां से पानी पी कर हम फिर अपनी राह चल दिए. दो किलोमीटर से भी ज्यादा का झील का चक्कर लगाने और साढ़े तेरह किलोमीटर करेरी गाँव तक(लगभग पंद्रह -सोलह किलोमीटर) हम लोग सवा या डेढ़ बजे तक चल चुके थे. गाँव में मक्की कि रोटी के साथ चाय बड़ी मुश्किल से हलक से नीचे उतर रही थी. लेकिन नीरज बोला,"भूख से टांगे कांपने लगेंगी" तो जो मिला वो खाया.

सोलह किलोमीटर चलने और सुस्ताने के बाद अब चलने कि बिलकुल इच्छा नहीं थी. लेकिन वो ही चार बजे घेरा....! करेरी गाँव से घेरा लगभग पांच किलोमीटर था और मैं मन ही मन हिसाब लगा कर डर रहा था. लेकिन शरीर को धकेलते हुए मैं नीचे कि तरफ उतरता जा रहा था. नोरा से पांच किलोमीटर और.........! मरवा दिए!! जैसे तैसे नोरा के आगे सड़क तक आये मैंने सोचा चलो अब सड़क-सड़क चलना है......गाँव के कुछ लोग बैठे मिले, नीरज ने रास्ता पूछा . उन्होंने शोर्टकट बता दिया. मेरा मन ख़राब हो गया, क्योंकि मैं अब खड़ी उतराई की जगह सड़क पर चलना चाहता था...... नीरज के साथ हो लिए. एक जगह दो रास्ते मिले मैंने नीरज से पुछा, "कौन से पर चलना है?" (यहाँ मैं एक रोचक बात बताना चाहूँगा,वो ये कि इस पूरी यात्रा में हम कई बार रास्ता भटके ,लेकिन कोई दैव योग ही था कि थोडा सा आगे जाने पर ही कोई न कोई आकर हमें सही रास्ता बता देता था. नहीं तो हमारी यात्रा और भी दुश्कर हो जाती.) और मैं नीरज के बताये रस्ते पर न चल कर दूसरे पर चल दिया और पहली बार हम अपने मन से सही रस्ते पर चल दिए. पुल के पास से उतरते हुए हम जैसे ही घेरा गाँव कि सड़क पर पहुंचे नीरज ने अपने हाथ का डंडा फ़ेंक दिया. मैंने पीछे मुड़ कर देखा दूर चोटीपर बर्फ चमक रही थी और बड़ी ऊंचाई पर घेरा गाँव दिख रहा था. मुझे अपने चलने पर विश्वास नहीं हो रहा था. मात्र छः-साढ़े छः घंटे में हम बीस-बाईस किलोमीटर चले थे. मैं मन ही मन अपने को और पकृति की भव्यता को सराह ही रहा था कि नीरज कि आवाज कानों में पड़ी, ''डंडा फेंक दे" मैंने भी हाथ का डंडा फेंकना चाहा, लेकिन कठिन सफर के इस साथी को अचानक फ़ेंक नहीं पाया. फिर से एक बार गौर से डंडे को देखा और आदर से सड़क के किनारे रख दिया. बस स्टेंड पर आकर एक पिकअप वाले से बात की तो सौ रुपये दो सवारियों के मांगे. थोड़ी देर बाद दूसरा जाने लगा तो उससे बात की तो वो 'बस के किराये' में मान गया और हम वहां से चल दिए एक कठिन लेकिन शानदार यात्रा की यादें मन में संजोये हुए.......

अरे कंजूसी दिखानी है तो चाय व कोल्ड ड्रिंक व कई अन्य से भी पैसे बचाये जा सकते है।

बढिया रही कम खर्चा ज्यादा घूमना।
संदीप भाई, मेरा यहां यात्रा का कुल खर्चा लिखने का मतलब यह दिखाना नहीं है कि मैं कंजूस हूं। इसमें कुल खर्चा लिखने के बहाने पूरी यात्रा का सारांश भी आ रहा है। रही बात और पैसे बचाने की। अगर हम दिली से ही पैदल चलते तो सारे पैसे ही बच जाते। लेकिन कुछ खर्चे ऐसे होते हैं जो हमें करने ही होते हैं। मैं सफर में कोल्ड ड्रिंक जरूर पीता हूं। दिन में कम से कम आधा लीटर। और हां, आप तो चाय पीते नहीं हो, जबकि मुझे चाहिये। हालांकि इसमें भी कटौती की गुंजाइश है लेकिन अपने कुछ शौक भी होते हैं। घूमने के साथ-साथ उन्हें भी पूरा करना होता है।

300 रुपये थोडे हैं????
300 रुपये तीन दिन की कमाई है हमारे देश में लोगों की, तीन दिन की गरीबों की। एक अनुमान के आधार पर सरकार के सर्वे में ये निकला था कि हमारे देश की लगभग आधी से ज्यादा अवाम रोज 25 से 30 रुपये में जीवन यापन कर रही है और आप कहते हैं 300 रुपये एक दिन में थोडे हैं।
अरे भाई, आप यह क्यों नहीं कहते कि नीरज, तू घुमक्कडी बन्द कर दे। आपने एक समस्या की ओर उंगली उठाई है, भारत के हर नागरिक को ऐसी समस्याओं के बारे में सोचना चाहिये। लेकिन जब आपने समस्या को मुझसे जोडा है तो आप समाधान भी जानते होंगे। आपने समाधान क्यों नहीं बताया? आपकी इस ‘विलक्षण’ बुद्धि में क्या समाधान नहीं है? अगर आप किसी समस्या के बारे में जानते हुए भी समाधान नहीं जानते तो मेरी सलाह है कि अपनी इस समस्या को दूसरों को मत परोसिये। दूसरे पहले से ही समस्याग्रस्त हैं, उन्हें आपकी समस्या की कोई जरुरत नहीं है।
आपने इसी साल 12वीं पास की है। अभी आपको सोचने का बहुत टाइम मिलेगा। पूरी जिन्दगी पडी है। अभी आप 25-30 और 300 में फरक ना करके अपनी क्वालिफिकेशन बढाकर कैरियर बनाने की सोचिये। इधर जो बन्दा चार दिन तक 300 रुपये रोजाना घूमने पर खर्च कर रहा है, वो कैरियर के मामले में स्थायी हो चुका है। उसे आपकी इस ‘अनमोल’ सलाह की जरुरत नहीं है।
ठीक है, हमें देश की समस्याओं के बारे में सोचना चाहिये लेकिन क्या सोच-सोचकर, सोच-सोचकर अपनी प्राथमिकताएं खत्म कर देनी चाहियें? अपनी जरुरतें खत्म कर देनी चाहिये? आप जब दिन में दो टाइम भरपेट खाना खाते हो तो क्या सोचते हो कि देश में आधी आबादी भूखे पेट सोती है? आप उस समय क्या करते हो?
अगर आपको 300 रुपये प्रतिदिन के हिसाब से ज्यादा लग रहे हैं तो मेरी आपको चुनौती है, ध्यान से देखिये चुनौती दे रहा हूं, कि आप इससे कम खर्चे में घूमकर दिखा दीजिये। हर इंसान कभी ना कभी भ्रमण पर जरूर जाता है। चाहे वो 25-30 रुपये रोजाना ही क्यों ना कमाता हो। आप भी कभी ना कभी कहीं ना कहीं जरूर गये होंगे। जब अगली बार जायें तो मेरी इस चुनौती को स्वीकार करने की कोशिश करके जरूर देखना। तब आपको हकीकत का पता चलेगा कि क्यों 300 रुपये रोजाना को सस्ता बताया जा रहा है।

और अन्त में यही कहना है कि कुल मिलाकर करेरी यात्रा मजेदार रही।



करेरी झील यात्रा
1. चल पडे करेरी की ओर
2. भागसू नाग और भागसू झरना, मैक्लोडगंज
3. करेरी यात्रा- मैक्लोडगंज से नड्डी और गतडी
4. करेरी यात्रा- गतडी से करेरी गांव
5. करेरी गांव से झील तक
6. करेरी झील के जानलेवा दर्शन
7. करेरी झील की परिक्रमा
8. करेरी झील से वापसी
9. करेरी यात्रा का कुल खर्च- 4 दिन, 1247 रुपये
10. करेरी यात्रा पर गप्पू और पाठकों के विचार

Comments

  1. भाई ऐसी गलती ना करियो, कि दिल्ली से ही पैदल चल पडो,
    नहीं तो अब के सारे रिकार्ड धवस्त हो जायेंगे,
    व रास्ते में रुकने व खाने का ही इतना खर्च आ जायेगा कि कभी भूल कर भी पैदल नहीं चलोगे, मस्त सफ़र ऐसे ही चलता रहे,
    जहां तक सम्भव हो वाहन से व जहाँ से आगे वाहन ना जा सके, सिर्फ़ वहीं पैदल जाना

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  2. जिजीविषा और घुमक्कड़ी को प्रणाम ||

    आभार ||

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  3. ghumakkadi ho to aisi ho,warna...............

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  4. ghummakaadi ho to aisi...
    wah neeraj yeh lekh to aur bhi majedaar hai.....

    bhai gappu ki asliyat to bataa do...
    lagtahai uska blog bhi tumhaari tarah romanchak hoga.....

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  5. एक शानदार यात्रा थी यह
    पढने में ही इतना रोमांच हो आया है कि बता नहीं सकता
    एक बार मूढ बना था और आपको फोन करके कहा भी था कि आपके साथ घुमक्कडी करना चाहूँगा, लेकिन अब मुझे खुद को स्वीकार करने में कोई शर्म नहीं है कि मैं शायद कभी भी घुमक्कड नहीं बन पाऊंगा। कारण आपके जितनी हिम्मत, हौंसला और जज्बा नहीं है मेरे पास। हम तो पर्यटक भी निचले किस्म के हैं जी, ये गवाही जाट देवता भी दे देंगे।

    प्रणाम

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  6. इस सीरिज में यह पोस्ट बहुत जरुरी थी। गप्पू जी की टिप्पणियां पढकर एक बार फिर से लगता है इस यात्रा का विवरण पूरा हुआ। गप्पू जी की जीवटता को एक पैर बजाकर सैल्यूट करता हूँ।
    गप्पू जी की टिप्पणीयां पढकर उनके ब्लॉग को भी पढने का मन है। गप्पू जी कृप्या अपने ब्लॉग का लिंक दें।

    गप्पू जी मेरा प्रणाम स्वीकार करें

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  7. नीरज भाई आपकी दिलेरी को हम हमेशा सलाम भेजते हैं. आज के युवाओं से कितने अलग हैं आप. घुम्मकड़ी का ऐसा ज़ज्बा आज के युवाओं में बहुत ढूँढने पर भी नहीं मिलता...आज के युवाओं में जोखिम भरे खेल जिसमें राक क्लाइम्बिंग ट्रेकिंग रिवर राफ्टिंग आदि लोकप्रिय हैं लेकिन आपकी तरह अकेले कहीं भी यात्रा करना हर एक के बस का नहीं है....
    आप अपने आस पास के स्कूल कालेजों में संपर्क करें और वहां अपनी यात्रा के चित्र और वहां का वर्णन बच्चों को सुनाएँ ताकि आप जैसा ज़ज्बा और भी नवयुवकों में पैदा हो...

    नीरज

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  8. मस्त हे जी आप की बाते, गप्पू कही अपना ??? तो नही जो रोहतक मे आप को मिला था, ओर उस ने भी इच्छा जताई थी एक बार साथ चलने की... समझ गये ना.... नाम यहां मत लिखना.

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  9. हम पढ़कर ही आनन्द प्राप्त करते रहे।

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  10. मजा आ गया !! @सोहिल जी मैंने पूर्व ब्लॉग बंद कर नया ब्लॉग बनाया है और अभी उस पर पढ़ने लायक ऐसा कुछ खास है नहीं!!
    उन सभी लोगों को मैं दिल से शुक्रिया अदा करना चाहूँगा जिन्होंने मेरी 'बेवकूफ़ियों' को पसंद किया. वैसे ऐसी कठिन यात्राओं में 'बेवकूफियां' जरूरी हो जाती हैं नहीं तो यात्रा में दुबारा जाने की न तो हिम्मत रहेगी और न ही इच्छा. जीवन में इच्छा थी की कुछ लोगों का ग्रुप मिले जो घूमने और यात्राओं से प्यार करते हों. भाई नीरज और संदीप (जाट देवता) जैसे लोग मिले हैं, लेकिन मैं अभी थोडा कैरियर को सुधारने में व्यस्त हूँ. नीरज और संदीप (जाट देवता) के साथ किसी भी यात्रा में अल्प सूचना के साथ जाया जा सकता है! अभी तीन चार महीने तो नहीं जा सकता ......इन साहसी लोगों को श्रीखंड यात्रा की सुभकामनाएँ.
    करेरी यात्रा जाने के बाद लगाने लगा है की हम लोग जिंदगी अधूरी जी रहे हैं. पैसा,मकान,जायदाद बीवी, बच्चे इन्ही में पूरी जिंदगी गुजर जाती है और जिन बच्चों के लिए हम अपनी पूरी जिंदगी होम कर देते है वे है अपने मां-बाप को छोड़ देते है असहाय,बेसहारा या वृद्धाश्रम में!!!
    जो घूमना चाहते हैं उनको सलाह है कि चालीस और पैंतालीस की उम्र से पहले घूम लें. बाद में तो 'यात्रा' करने लायक ही रह जाते हैं.

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  11. chalo achcha hua apan to 47 ke ho gaye.......Ghumakkadi ke liye 1st class rejected piece.....

    par Kalpnaon me tum teeno ke sath hoon pyare.....

    Ek bar fir....Ghumakkadi Zindabaad...

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  12. @मौदगिल जी! आप का शारीर 47 या 97 का भी हो जाये,किन्तु मन में उत्साह है तो उम्र बंधन नहीं है!!

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  13. करेरी यात्रा के साथ यह पोस्ट भी मजेदार रही.
    पर्यटन दिवस जैसे अवसरों पर जिनकी दिल्ली जैसे शहर मे कमी नहीं किसी सावर्जनिक स्थल या गैलरी में प्रदर्शनी के बारे में सोच सकते हैं. इसके अलावे अपने यात्रा संस्मरण को एक पुस्तक का रूप देने पर भी विचार कीजियेगा, क्योंकि लगता नहीं कि जिन राहों से आप गुजरे हैं उनपर काफी चर्चा पहले हुई होगी.

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  14. BAHUT MAJA AAYA AAPKA YATRA BRITANT SUNKAR KE.
    AAGE SE KAHI JANA TO MUJHE BHI KAHNA BROTHER.I AM READY.MAI GANA BHI GATA HU AAPKO MOBILE ME GANA NAHI SUNANA PADEGA MAI LIVE GANA SUNAUNGA.OK LAGO RAHO.

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  15. नीरज भाई आपने जो करेरी यात्रा की बहुत ही बढ़िया रही और गप्पू जी का साथ भी अच्छा रहा सभी तस्वीरे भी बहुत ही अच्छी थी बहुत ही कम खर्च में सफर भी अच्छा रहा मै आपको एक बात बताना चाहता हूँ आप जब इस यात्रा की पोस्ट लिख रहे थे और हम पढ़ रहे थे बहुत ही मज़ा आ रहा था पर जब अगली पोस्ट का इंतजार करना पड़ता था तो बड़ी ही मुस्किल से टाइम पास होता था अब तो आप श्री खंड महादेव की यात्रा पर संदीप जी के साथ जा रहे हो यात्रा से आने के बाद तो आप भी अपनी यात्रा का विवरण लिखोगे और संदीप भी लिखेगे हमें तो कोई न कोई पोस्ट पढने को मिलेगी भगवान आपकी यात्रा को सफल करें जय भोले की

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  16. शानदार यात्रा। जिसे पढ़ कर इतना रोमांच हो गया कर के कितना मजा आया होगा। युधिष्ठिर और कुत्ता प्रसंग भी सबूत के साथ अच्छा लगा। गप्पु जी का लिंक भी मिल जाता तो मज़ा जाता।

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46 रेलवे स्टेशन हैं दिल्ली में

एक बार मैं गोरखपुर से लखनऊ जा रहा था। ट्रेन थी वैशाली एक्सप्रेस, जनरल डिब्बा। जाहिर है कि ज्यादातर यात्री बिहारी ही थे। उतनी भीड नहीं थी, जितनी अक्सर होती है। मैं ऊपर वाली बर्थ पर बैठ गया। नीचे कुछ यात्री बैठे थे जो दिल्ली जा रहे थे। ये लोग मजदूर थे और दिल्ली एयरपोर्ट के आसपास काम करते थे। इनके साथ कुछ ऐसे भी थे, जो दिल्ली जाकर मजदूर कम्पनी में नये नये भर्ती होने वाले थे। तभी एक ने पूछा कि दिल्ली में कितने रेलवे स्टेशन हैं। दूसरे ने कहा कि एक। तीसरा बोला कि नहीं, तीन हैं, नई दिल्ली, पुरानी दिल्ली और निजामुद्दीन। तभी चौथे की आवाज आई कि सराय रोहिल्ला भी तो है। यह बात करीब चार साढे चार साल पुरानी है, उस समय आनन्द विहार की पहचान नहीं थी। आनन्द विहार टर्मिनल तो बाद में बना। उनकी गिनती किसी तरह पांच तक पहुंच गई। इस गिनती को मैं आगे बढा सकता था लेकिन आदतन चुप रहा।

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