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नड्डी एक पहाडी की चोटी पर बसा है। इससे एक तरफ काफी नीचे उतरने पर गतडी गांव आता है। गतडी से और नीचे उतरने पर एक पहाडी नदी (खड्ड) आती है। हम 24 मई 2011 की शाम चार बजे उस नदी के किनारे थे और करेरी जाने वाले रास्ते को ढूंढ रहे थे। हमें ये भी नहीं पता था कि अभी करेरी कितना दूर है। कितना टाइम लगेगा। वहां कुछ रहने-खाने का भी हो जायेगा या नहीं। फिर भी हमने अपना लक्ष्य बनाया था कि छह बजे तक करेरी पहुंच जाना है। आखिरकार हमें खड्ड पार करके दूसरी तरफ एक हल्की सी पगडण्डी ऊपर जाती दिखाई दी। हम उसी पर हो लिये।
ज्यादा चढाई नहीं थी लेकिन फिर भी चढाई तो चढाई होती है। थोडा ही ऊपर पहुंचे थे कि लगा जैसे चोटी पर पहुंच गये हों। सामने एक उतराई थी और उसके बाद एक नदी। नदी के उस तरफ सडक दिख रही थी। हमें नड्डी में ही बता दिया गया था कि वह सडक नोरा जाती है जहां से करेरी घण्टे भर दूर है। अभी जिस स्थान पर हम खडे थे, वहां से नीचे उतरना आसान नहीं था। अच्छा खासा आदमी आराम से फिसल सकता है। काफी तेज उतराई थी, उस पर भी छोटी-छोटी बजरी बिखरी हुई थी। ले-देकर हम उतरने में कामयाब रहे और नदी तक पहुंच गये। नदी में पानी बहुत ज्यादा और तेज बहाव वाला था। वो तो अच्छा था कि उस पर एक सीढियों वाला पुल था नहीं तो उसे पार करने में हमारी ऐसी तैसी हो जाती। नदी से उत्तर की तरफ देखने पर धौलाधार की बर्फीली चोटियां दिख रही थी और इंद्रहार दर्रा भी दिख रहा था। हमें बाद में पता चला कि वो इंद्रहार दर्रा है। पूरा दर्रा पूरी तरह से बरफ से ढका हुआ था। हां, इंद्रहार के लिये रास्ता त्रिउण्ड से जाता है।
नड्डी से चले हुए हमें डेढ घण्टा हो गया था और इस डेढ घण्टे में हमें लगा कि हम इस दुनिया से बिल्कुल कट चुके हैं। अब सामने सडक देखकर राहत सी मिली कि हां, हम अभी इसी दुनिया में हैं। राहत मिली तो आधा घण्टा हमने इसी नदी के किनारे लगा दिया। बडे-बडे पत्थरों पर कभी बैठकर कभी लेटकर तफरीह करते रहे। नदी से जरा सा ऊपर ही सडक थी।
सडक के साथ साथ चलते रहे। कोई भी मिल जाता तो उससे रास्ता पूछ लेते। हर कोई बताता कि अभी करेरी बहुत दूर है। एक बात और बता दूं कि यह सडक सीधे धर्मशाला से आ रही है। घेरा तक तो बसें भी चलती हैं। हम घेरा से बहुत आगे आ गये थे। घेरा और नोरा के बीच में एक पुल का काम चल रहा है, जिस दिन भी पुल बनकर तैयार हो जायेगा, बसें सीधे नोरा तक आया करेंगी। अभी पहाड काटकर रास्ता बनाया गया है, पक्की सडक नहीं बनी है। बन जायेगी धीरे-धीरे। घेरा से नोरा तक एक शॉर्टकट भी है, जिसपर नोरा पहुंचने में हद से हद आधा घण्टा लगेगा। लेकिन हम चूंकि घेरा और नोरा के बीच में थे, इसलिये वो शॉर्टकट हमारे किसी काम का नहीं था।
सवा पांच बजे नोरा पहुंचे। नोरा से हमें इशारा करके बताया गया कि उस पहाड के ऊपर करेरी बसा है। हमें नड्डी से चलते हुए ढाई-तीन घण्टे हो गये थे, उससे पहले हम मैक्लोडगंज से भागसू नाग गये थे औ वापस मैक्लोडगंज आये थे और नड्डी तक भी पैदल ही चले थे। कुल मिलाकर हमें सात घण्टे हो गये हैं चलते-चलते। सीधी सी बात है कि हम थककर चूर होने लगे थे। अब जब यह बताया गया कि सामने वाले पहाड पर चढना है, तो होश खराब होने लगे।
नोरा के बाद एक और खड्ड को पार करते ही जो चढाई सामने आई, उसे चढने में गप्पू जी बिल्कुल टूट गये। यह लगभग दो किलोमीटर की बिल्कुल खडी चढाई है। पूरे रास्ते भर सीढियां ही सीढियां हैं। इस रास्ते में मुझे तो कुछ खास दिक्कत नहीं हुई, क्योंकि मेरा सामना ऐसे रास्तों से होता रहता है। गप्पू जी पहली बार शहर से निकलकर इन पहाडों में ट्रेकिंग करने आये थे। उनकी पहली ट्रेकिंग भी एक ऐसी जगह की थी जिसका नाम भी ज्यादातर हिमाचलियों तक को मालूम नहीं है। इस दो किलोमीटर के रास्ते में गप्पू जी इतना टूट चुके थे कि कहने लगे कि भाई, करेरी गांव पहुंचना भी मेरे बस से बाहर की बात है, मैं नहीं जा पाऊंगा कल करेरी झील। तू घूमकर आ जाना मैं गांव में ही पडा मिलूंगा। मैंने कहा कि यार, कोई दिक्कत नहीं है, देखना तू झील तक जरूर जायेगा। बस, अब जरा सी हिम्मत दिखा दे। गांव ज्यादा दूर नहीं है।
पौने सात बजे हम करेरी गांव पहुंच गये। इस खडी चढाई के बाद एक बहुत बडा मैदान सा आता है। वही पर करेरी गांव बसा है। गांव वालों के खेत भी हैं। हमें रास्ते में ही पता चल गया था कि करेरी में रेस्ट हाउस है, तो हम रेस्ट हाउस का पता पूछते-पूछते उसके नजदीक पहुंच गये। वहां जाकर पता चला कि आज कोई बुकिंग नहीं है और चौकीदार रेस्ट हाउस को बन्द करके अपने घर चला गया है। उधर गप्पू घास पर बिल्कुल निढाल बेहोश से पडे थे। एक गडरिये से बात हुई और उसने अपने पडोस में एक घर में हमारे रात को रुकने का इंतजाम करा दिया।
जिस कमरे में हम रुके थे, उसे देखकर लग रहा था कि यहां अक्सर घुमक्कड आते रहते हैं। अच्छा हां, यहां पहुंचकर हमें पसीने के कारण ठण्ड लगनी थी और लगने भी लगी। गप्पू जी थरथर कांपने लगे। मोहर लगा दी कि मेरा कल का जाना कैंसिल। मुझे बुखार चढने वाला है। मैंने कहा कि भाई, ऐसा हो जाता है। चिन्ता की कोई बात नहीं है, आप सुबह को ठीकठाक उठोगे और झील तक जाओगे। देख लेना। मैं पहले भी ऐसे हालातों से दोचार हो चुका हूं। फिर नोरा से करेरी वाली चढाई पर मुझे पसीना आया भी नहीं था क्योंकि गप्पू इतना थक गया था कि जरा सा चलते ही बैठ जाता था। इस कारण मुझे पसीना तो दूर सांस तक नहीं चढी। इसी घर में खाना खाकर सो गये।
गतडी खड्ड पार करके हमें आगे जाने के लिये यह रास्ता मिला।
इस खड्ड पर भी कभी पुल था।
खड्ड पार करने के बाद ऊपर चढना था।
इस फोटो में ऊपर कुछ घर दिख रहे हैं। यही गतडी गांव है।
कुछ ऊपर चढकर जब दोबारा उतराई शुरू हुई तो सामने नदी और उसके पार सडक दिख गई तो अपने मजे दुगने हो गये।
अति वेगवान नदी पार करने के लिये बना पुल।
जाट नदी पार करते हुए
यह पतला डरावना सा पुल है।
गप्पू जी नदी पार करने के लिये पुल की तरफ आते हुए
पानी पीने का यह स्टाइल गप्पू का पसंदीदा स्टाइल है।
बिल्कुल सामने इंद्रहार दर्रा दिख रहा है। दर्रे पर अभी भी बर्फ है।
नोरा गांव की इस लडकी ने हमें बताया था कि उस पहाडी पर करेरी गांव है।
पानी का इंतजाम
और जब करेरी की सीमा शुरू हुई तो राहत मिली।
इसी गडरिये ने हमारे रुकने का इंतजाम कराया था।
अगला भाग: करेरी गांव से झील तक
करेरी झील यात्रा
1. चल पडे करेरी की ओर
2. भागसू नाग और भागसू झरना, मैक्लोडगंज
3. करेरी यात्रा- मैक्लोडगंज से नड्डी और गतडी
4. करेरी यात्रा- गतडी से करेरी गांव
5. करेरी गांव से झील तक
6. करेरी झील के जानलेवा दर्शन
7. करेरी झील की परिक्रमा
8. करेरी झील से वापसी
9. करेरी यात्रा का कुल खर्च- 4 दिन, 1247 रुपये
10. करेरी यात्रा पर गप्पू और पाठकों के विचार
सुन्दर चित्रों के साथ बढ़िया विवरण
ReplyDeleteखून का ग्रुप बी+ होने के कारण हरियाली और पानी मुझे कुछ ज्यादा ही आकर्षित करते हैं. मेरी "भूखी निगाहें" हिमाचल में प्रवेश करते ही प्रकृति के सौन्दर्य को तलाशने लगी थी. नीरज बोला ," शिमला जैसा माहौल धर्मशाला में मिलेगा. " .....
ReplyDeleteनोरा तक तो मुझे कोई ज्यादा परेशानी नहीं हुई,लेकिन नोरा से करेरी की चढ़ाई ने मेरे तन और मन दोनों को तोड़ के रख दिया. 'साहस के पैरों' से चढ़ाई चढ़ी थी मैंने. नीरज से काफी सहयोग मिला. अगले दिन सुबह उठा तो कुछ ताजगी लगी और साहस तो जैसे 'रावण का सिर' हो गया, एक काटो तो दूसरा तैयार!!
वाकई कमाल की यात्रा थी. भाई नीरज को बहुत-बहुत धन्यवाद!
वेगवान नदी का पुल व गप्पू का पानी पीने का स्टाईल सबसे जोरदार रहे है।
ReplyDeleteगप्पू भाई से पता करना कि, ये वानरों के और कौन से गुण अभी बाकि है।
आप के यात्रा विवरण साहस जगाते हैं।
ReplyDeleteजाट जी आखिर झरने तक पहुच ही गए.........:)
ReplyDeleteगप्पू जी ब्लॉग क्यों नहीं लिखते, उनकी टिप्पणी पढकर यही ख्याल आया है।
ReplyDeleteऔर जाटजी बढिया है जलाते रहो हमें, ईर्ष्या हो रही है तुम्हारी, जिन्दादिली, साहस और घुमक्कडी देखकर :)
प्रणाम
बहुत मज़ा आया पढ़ के ......आप इतना चले उस दिन पैदल ...पहले मैं भी चल लेता था ....खूब कुश्तियां लड़े हम घूम घूम के हिमाचल के गावों में .......अब हिम्मत नहीं ...उतनी फिटनेस भी नहीं ...पर वह सड़क है ....bike से जायेंगे ....क्या route बनेगा .......पर पोस्ट पढ़ के मज़ा आया .....इतने remote areas में ही तो सौंदर्य है प्रकृति का ...वाह
ReplyDelete@सोहिल जी मैं पहले ब्लॉग लिखता था और अब छोड़ दिया, परीक्षाओं की वजह से ब्लॉग लेखन वर्तमान में संभव नहीं है.
ReplyDeleteयात्रा विवरण की सुन्दर प्रस्तुति. शुभकामनाएं.
ReplyDeleteभाई जी अपने तो पुल देख कर ही होश उड़ गए...पार करने की तो सोच भी दूर से भाग रही है...गज़ब करते हो भाई...पानी पीते हुए गप्पू की टी शर्त पसीने में नही हुई नज़र आ रही है...फोटो तो भाई जी बेजोड़ है...आप तो इन फोटों की एकल प्रदर्शनी लगा सकते हो...स्कूल कालेज में ताकि युवा बच्चे आपसे प्रेरणा लें...
ReplyDeleteनीरज
सुन्दर चित्रों के साथ बढ़िया विवरण| धन्यवाद|
ReplyDeleteसच में डरावना पुल, रोमांचपूर्ण विवरण।
ReplyDelete......रस्ते में नीरज ने एक बड़ा प्रेरणास्पद प्रसंग सुनाया,"तेनजिंग नोर्गे जब एवरेस्ट पर पहुंचे तो उन्होंने आदरवश एवरेस्ट की चोटी पर पैर न रख कर अपना माथा टिका दिया .......हमारे पुरखों ने बड़ी समझदारी से तीर्थों/मंदिरों को ऊँचे पर्वतों पर बनाया है. आप जब भगवान के दर्शन करने जाते हो और आप का सामना भगवान की बनाई कठिनाइयों/पर्वतों से होता है तो आप में लघुता का अहसास होता है और वहीँ से आप का अहं खंडित होने लगता है. मेरे साथ भी यही हुआ ...एक पर्वत को पर करते ही उससे बड़ा पर्वत सीना ताने खड़ा दिखाई देता था........मन ही मन इन सब को बनाने वाली शक्ति के प्रति आदर का भाव लिए मैं दीन-हीन 'प्राणी' ईश्वर की शक्ति के एक 'छोटे' से पर्वत पर अपनी श्रद्धा के सुमन अर्पित करने जा रहा था. मंदिरों में तो मूर्तियाँ होती है, भगवान तो अपनी विशालता और सौन्दर्य के साथ इन्ही जंगलों/नदियों और पर्वतों के कण-कण में व्याप्त है.इसी नमन के साथ ....
ReplyDeleteजय हो इस घुमक्कड़ी की...हर बार अचरज की सीमा एक सीढ़ी उपर चढ़ जाती है...बहुत बढ़िया
ReplyDeleteनीरज बाबू "काला पत्थर" कब जाओगे? क्या ये तुम्हारी भावी योजनाओं में है ?अगर हो तो बताना!!
ReplyDeletehttp://en.wikipedia.org/wiki/Kala_Patthar
इस डरावने पुल को तो मैं इस जीवन में कभी पार ही नही करती नीरज ? वापसी मैं तुम्हारा इन्तजार यही करती ..
ReplyDeleteनीरज भाई आपने जो करेरी यात्रा की बहुत ही बढ़िया रही और गप्पू जी का साथ भी अच्छा रहा सभी तस्वीरे भी बहुत ही अच्छी थी बहुत ही कम खर्च में सफर भी अच्छा रहा मै आपको एक बात बताना चाहता हूँ आप जब इस यात्रा की पोस्ट लिख रहे थे और हम पढ़ रहे थे बहुत ही मज़ा आ रहा था पर जब अगली पोस्ट का इंतजार करना पड़ता था तो बड़ी ही मुस्किल से टाइम पास होता था अब तो आप श्री खंड महादेव की यात्रा पर संदीप जी के साथ जा रहे हो यात्रा से आने के बाद तो आप भी अपनी यात्रा का विवरण लिखोगे और संदीप भी लिखेगे हमें तो कोई न कोई पोस्ट पढने को मिलेगी भगवान आपकी यात्रा को सफल करें जय भोले की
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