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26 मई 2011 की सुबह सुबह मेरी आंख खुली। जमीन कुछ ऊबड-खाबड सी लगी। अच्छा हां, जब मैं सोता हूं तो तसल्ली से सोता हूं। यह भी नहीं पता चलता कि सोने के दौरान क्या हो रहा है। और जब उठता हूं तो धीरे-धीरे इस दुनिया में आता हूं। ऐसा ही उस दिन हुआ। धीरे-धीरे याद आने लगा कि मैं करेरी झील के किनारे हूं। तभी गप्पू की आवाज आयी- ओये, उठ जा। देख सूरज निकल गया है। साले, वापस भी जाना है। और जब स्लीपिंग बैग से मुंह बाहर निकाला तो वाकई सूरज निकला हुआ था।
कल शाम को सात बजे जब हम यहां आये थे तो दूर दूर तक कोई आदमजात नहीं थी। झील के किनारे ही एक छोटा सा मन्दिर बना हुआ है। मन्दिर के बराबर में तीन टूटे हुए से कमरे हैं। उस समय आंधी-तूफान पूरे जोरों पर था। बारिश पड रही थी। ओले भी गिर रहे थे। जैसे ही हवा का तूफान आता तो लगता कि ले भाई, आज गये काम से। कमरों में केवल तीन तरफ ही दीवारें थीं। पीछे वाली दीवार में बडा सा छेद भी था। ऊपर टीन पडी थी। बराबर वाले कमरे की टीन उधड गई थी। जब भी हवा चलती और उससे खड-खड की आवाज आती तो लगता कि ऊपर पहाड से पत्थर गिर रहे हैं।
ऐसे माहौल में जब हम दोनों स्लीपिंग बैग लपेटकर सोने लगे तभी मेरे पैर पर कुछ रगडने का एहसास हुआ। मैंने सोचा कि यह क्या हो सकता है। एक तरह से हम खुले में ही पडे थे। यहां कोई भी आ सकता था। सोचा गया कि कोई बकरी होगी। वही अपनी थूथ रगड रही होगी। लेकिन मुंह निकालकर देखने की हिम्मत नहीं हुई। मैंने धीरे से गप्पू से कहा कि भाई, कुछ मामला गडबड है। बोला कि क्या। शायद कोई बकरी आ गई है। वो मेरे पैरों पर अपनी थूथ रगड रही है। देखना जरा क्या बात है। बोला कि भाई, मुझे ठण्ड लग रही है। मैं अपने शरीर को हिला रहा हूं जिससे गर्मी मिले। यह मेरा पैर है जिसे तू बकरी बता रहा है।
सुबह जब उठे तो गप्पू ने कहा कि मैं चार बजे उठ गया था। झील चांदनी में बेहद खूबसूरत लग रही थी। उसने चार बजे मुझे भी आवाज लगाई थी लेकिन मैं कहां सुनने वाला था। मैंने कहा कि अगर मैं सुन लेता तब भी नहीं उठता। बात चांदनी रात की हो या करेरी झील के सौंदर्य की, नींद से कोई समझौता नहीं। फिर भी दोनों की शिकायत थी कि हम लगभग दस घण्टे तक सोते रहे लेकिन लग रहा है कि अभी थोडी देर पहले ही सोये थे। इसका मतलब था कि हम उस तूफानी रात में लगभग खुले में स्लीपिंग बैगों में घुसकर तसल्ली से सोये।
अब धूप निकल गई थी। हमने अपने गीले कपडे बाहर डाल दिये। कल बारिश में भीग गये थे। गप्पू अपने दैनिक क्रियाकलाप करने चला गया। तब तक मैं बाकी बचे बिस्कुट और नमकीन खाता रहा। जब हम दिल्ली से चले थे तो वहां बेहिसाब गर्मी थी। गप्पू ने कहा था कि मैं झील पर जाकर नहाऊंगा। लेकिन मुझे पता था कि चारों तरफ बर्फीले पहाडों से घिरी समुद्र तल से 3000 मीटर की ऊंचाई पर स्थित झील के ठण्डे पानी में नहाना आसान नहीं होगा। वो मुझसे भी कहने लगा कि तू भी नहाना। मैंने साफ मना दिया। हममें बहस हो गई। तब मैंने कहा कि ठीक है, अगर तू नहा लिया तो मैं भी नहाऊंगा। कल जब हम झील पर आये थे तो तूफान में नहाने का सवाल ही नहीं था। अब सुबह जब देखा कि अच्छी धूप निकली हुई है, गप्पू नहा सकता है। अगर गप्पू नहा लिया तो शर्त के मुताबिक मुझे भी नहाना पडेगा। इसलिये मैंने शर्त बदल दी- बात कल की तय हुई थी। तू अगर कल नहाता तो मैं भी नहाता। आज की कोई बात तय नहीं हुई थी। तू बेशक नहा ले, मैं नहीं नहाने वाला। खैर, गप्पू भी नहीं नहाया।
यह झील कोई ज्यादा बडी नहीं है। पूरा चक्कर लगभग दो किलोमीटर का होगा। मैंने कहा कि झील का चक्कर काटते हैं। इससे हम झील के हर कोण से हर दिशा से फोटो खींच लेंगे। चल पडे झील का चक्कर काटने।
सुबह चार बजे चांदनी रात में झील
मन्दिर के कमरे से दिखती झील
जितनी भी सफेदी दिख रही है, सब के सब कल के गिरे हुए ओले हैं।
झील के पास मन्दिर और बराबर में बने कमरे
इन्हीं में से बीच वाले कमरे में पडा हुआ आधुनिक कुम्भकर्ण
धीरे-धीरे आंख खुलती हुई
खुल गई दोनों आंखें। जाग गया कुम्भकर्ण।
अच्छी धूप निकल गई थी, जब यह आधुनिक कुम्भकर्ण उठा था। पेट-पूजा चल रही है। कल के बचे हुए पांच-चार बिस्कुट और जरा सी नमकीन हैं।
झील में भी जो सफेदी दिख रही है, सभी ओले हैं। मौसम और पानी इतना ठण्डा है कि कल के गिरे हुए ओले अभी तक भी नहीं पिघले।
यह मेरा एक दोस्त है जो पूरी रात मेरे पास ही सोता रहा।
झील वैसे तो सालभर साफ पारदर्शी बनी रहती है...
लेकिन बारिश पडने पर गंदली भी हो जाती है। रात जब बारिश रुकी तो झील पूरी तरह गंदली हो गई थी। तब से अब तक साफ पानी आते रहने से आधी झील साफ हो गई है।
झील के उस तरफ जो बर्फीले पहाड हैं, उन्हीं में मिन्कियानी दर्रा है जिससे होकर धौलाधार के पहाडों को पार करके उस तरफ चम्बा जिले में जाया जाता है। दर्रा यहां से चार किलोमीटर है। हमें वहां जाना चाहिये था, लेकिन करेरी गांव वालों द्वारा गुमराह किये जाने के कारण नहीं गये। गांव वालों ने कहा था कि मिन्कियानी दर्रा झील से 13 किलोमीटर आगे है। इसी तरह एक दर्रा और है- बलेनी दर्रा। वास्तव में बलेनी दर्रे की दूरी यहां से 13 किलोमीटर है। लेकिन गांववाले जिद पर अडे रहे कि दोनों ही बहुत दूर हैं।उन्होंने यह भी बताया कि झील के आसपास कोई दर्रा नहीं है।
ये यहां गाय-बकरी चराने वाले गद्दियों की गायें हैं। झील के उस तरफ कुछ ऊंचाई पर उनके तम्बू लगे थे।
यह गप्पू का पानी पीने का पसन्दीदा स्टाइल है।
अगला भाग: करेरी झील से वापसी
करेरी झील यात्रा
1. चल पडे करेरी की ओर
2. भागसू नाग और भागसू झरना, मैक्लोडगंज
3. करेरी यात्रा- मैक्लोडगंज से नड्डी और गतडी
4. करेरी यात्रा- गतडी से करेरी गांव
5. करेरी गांव से झील तक
6. करेरी झील के जानलेवा दर्शन
7. करेरी झील की परिक्रमा
8. करेरी झील से वापसी
9. करेरी यात्रा का कुल खर्च- 4 दिन, 1247 रुपये
10. करेरी यात्रा पर गप्पू और पाठकों के विचार
Jabardast! Enjoy aa gaya jeevan mein subah subah :)
ReplyDeleteनीरज जी बहुत ही लाजबाब फोटो हैं . करेरी झील के बारे में पढकर मैं धन्य हुआ ..... धन्यवाद
ReplyDeleteजाना तो शायद ही हो सके। पर पोस्ट और फोटुओं से जाने के बराबर ही हो गया बिना ठंड़ मे लरजे।
ReplyDeleteधन्यवाद।
मनमोहक चित्रों के साथ रोचक यात्रा वृत्तान्त । बगल में गिरगिट सोया था , जानकार डर लगा।
ReplyDeleteगज़ब आदमी हो यार, कहाँ कहाँ पहुँच जाते हो!!
ReplyDeleteगप्पूजी के पानी पीने के इस स्टाईल के तो हम दीवाने हो गये हैं।
अधकच्ची सी नींद में मोबाइल का अलार्म बज उठा. पहले लगा की कोई फोन आया है. फिर याद आया की हम तो करेरी झील पर है. यहाँ नेटवर्क पकड़ने का सवाल ही नहीं उठता. लेकिन इतनी जल्दी अलार्म .........? मैंने नीरज से कहा,"भाई मेरा अलार्म तो साढ़े चार बजे का भरा हुआ है....तो क्या साढ़े चार बज गए? सवाल ही नही उठता? मैंने कहा, "यार नीरज ऐसा लगा जैसे दो घंटे में ही सुबह हो गई". नीरज को भी यही महसूस हुआ. चांदनी और बर्फ की सफेदी से पूरी झील रोशन सी हो रही थी.अंदाजा लगाना मुश्किल हो रहा था की क्या वक्त हुआ होगा. मैं दिमाग पर जोर देते हुए बोला,"यार नीरज ! इतनी जल्दी सुबह कैसे हो सकती है? नीरज बोला," हम लोग जम के सोये हैं, इस लिए वक्त का पता ही नहीं चल पा रहा है! खैर.... रात को ठण्ड बारिश और ओलों तथा हवा के थपेड़ों ने हमें दहशत में ला दिया था. हिम्मत कर के मैं सुबह के उस चांदनी से रोशन आलौकिक नज़ारे को देखने स्लीपिंग बैग से बाहर निकल आया. शरीर की गर्मी से पहने हुए कपडे सूख चुके थे और जेब में रखी वो माचिस भी. जेब से निकल कर तीली को माचिस से रगडा तो सर्र से जल गई.आसमान की तरफ देखा तो वहां कोई बादल नहीं थे, आसमान साफ़ था. हाँ हवा जरूर ठंडी बह रही थी. कोई टोपी या कपड़ा नहीं होने की वजह से जेब से रूमाल निकल कर कानों को ढक लिया. मन से डर तिरोहित हो रहा था. करेरी गाँव से चलते वक्त नीरज ने मोबाइल पर गाना सुनाया था, "चल अकेला ..चल अकेला ...तेरा मेला पीछे छूटा जाये.... " वो गाना यहाँ याद आ रहा था. फिर मन में एक विचार आया कि, ये अटल सत्य है कि तूफानों, गरजती अँधेरी रातों, भूख और संघर्ष के बाद सुहानी सुबह जरूर आती है और उसी आलौकिक सुहानी सुबह का लुत्फ़ मैं उठा रहा था. मैं सोच रहा था कि मैंने अपने जीवन की कितनी दुर्लभ सुबह यहाँ बिताई है (क्योंकि करेरी झील अब जीवन में शायद ही कभी दुबारा जा पाऊं). जेब में रखी माचिस सूख चुकी थी...... . बस क्या था सूखी लकड़ी कि तलाश में जुट गया.....सफलता नहीं मिली. मैं सोच रहा था टाइम कैसे पास किया जाये, क्योंकि नीरज तो सोया पड़ा था...सोचा क्यों न गीले कपडे ही सुखा लूं ...वैसा ही किया. सूर्य की किरणों के दर्शन अभी भी नहीं हुए. मन में फिर वही शंका कि कहीं अभी रात ज्यादा तो बाकि नहीं है? मन मार कर स्लीपिंग बैग में वापस घुस गया....नींद नहीं आ रही थी....सोच रहा था क्या किया जाये कि ये टाइम जल्दी पास हो जाये. सोचा, क्यों न फोटो ही खींच लूं ...बस क्या था कैमरा बैग से निकाला ...'मेनुअल मोड' पर 'अपर्चर' और 'शटर' स्पीड कम किया और चाँद की रोशनी में फोटो लेने की कोशिश करने लगा काम चलाऊ फोटो(क्यों की 'फ्लेश' का कोई मतलब ही नहीं था) खींची. नीरज को जगाना कुम्भकरण को जगाने से भी कठिन था. अब उजाला ज्यादा हो चला था ...तभी मेरी नजरें दूर पहाड़ों की चोटी पर गई ....सूरज की रोशनी ऐसे पड़ रही थी जैसे कोई फिल्म का सैट हो.....ज़ूम करके फोटो लेने की कोशिश की ...मजा नहीं आया...मन में एक ख़ुशी थी कि एक भयानक रात हमने इस निर्जन जगह गुजारी और अब सही सलामत घर चले जायेंगे. मन में ख्याल आया की क्यों न नहा लिया जाये.... फिर 'फ्रेश' होने के लिए चला. वहां वातावरण इतना साफ़ था की फ्रेश होते हुए भी डर सा लग रहा था. हाथ धोये. पानी बहुत ही ठंडा था मन में से नहाने का विचार त्याग दिया. कैमरा जेब में ही था..... शानदार लोकेशन और शानदार फोटुएं . मन कर रहा था सारी प्रकृति को कैमरे में ही बटोर लूं और घर ले जाऊं. .....अच्चानक ....."अरे ज़ल्दी आ मर!!' की आवाज़ ने मेरी तन्द्रा को तोडा ...ऊपर मंदिर की तरफ नजर गई तो देखा नीरज किसी प्रेत की तरह चबूतरे पर चक्कर लगा रहा था और चिल्ला रहा था. छाले पड़े पैरों से नीरज की तरफ चल पड़ा. पास आने पर नीरज बोला, "जल्दी कर झील का चक्कर लगायेंगे" हमने अपने कपडे और स्लीपिंग बैग ठूंस-ठांस के भरे ..नीरज का स्लीपिंग बेग उसके कवर के अन्दर नहीं जा रहा था तो "जाट तकनीक" से अन्दर घुसाने लगा(लेट के बेग को हाथों में उठा के पैरों से ठूंस रहा था). सामान उठा के हाथ में डंडा ले के चल पड़े झील के चक्कर लगाने ... हर एंगल से फोटो खींचे. दो-चार बार जमें ओलों में फिसला भी. डंडे ने बचा लिया. हर वक्त यही लग रहा था की वो दिल्ली वाले 'कचरा पाल्टी' आने वाली है(क्योंकि शांत माहौल ख़राब कर देते). मन भर के फोटो खीचने और पकृति को निहारने के बाद झील से नीचे की और चल दिए.............
ReplyDeleteमनमोहक चित्रों के साथ रोचक यात्रा वृत्तान्त ।
ReplyDeleteहम तो इन सब स्थानों में जाने की कल्पना ही कर सकते हैं।
ReplyDeleteआपके साथ हमनें भी सैर कर ही ली!
ReplyDeleteअरे आपको डर नहीं लगता क्या..... :) सरे फोटो ज़बरदस्त हैं....
ReplyDelete*सारे
ReplyDeleteकोई बात नहीं, कभी मेरा भी जाना होगा?
ReplyDeleteये हुई ना कोई बात,नजारे बड़े खूबसूरत हैं और भाई तेरा काम भी गजब का ही है।
ReplyDeleteइस तरह गुजारी हुई एक रात याद आ रही है। जमीने पे रेत बिछी थी, डांगरी और ओवरकोट में गुजारी हुई रात शायद ऐसी ही थी।
चलो हम भी घुम लिए, इसलिए करेरी जाना कैंसिल।:)
aap wahan ghum rahe h dar hame lag raha h etni garmi me bhi hame thand lag rahi h aapka dost girgit vase to kisi ko kata nahi agar kat jaye to ak parkar ki aljri ho jati h jo sari gindgi thik nahi ho sakti h
ReplyDeleteये पोस्टब्लॉग4वार्ता पर भी है पधारे, और बालक का उत्साह वर्धन करें :)
ReplyDeleteमुसाफिर जी,
ReplyDeleteजैसे आपने अपनी ट्रेन की यात्रा (पैसेंजर, मेल/एक्सप्रेस, सुपरफास्ट) के बारे में हिसाब लगा रखा है वैसे ही आप अपनी बस द्वारा यात्रा, पैदल यात्रा व अन्य किसी जुगाड द्वारा यात्रा का हिसाब भी लगा कर अपने ब्लौग पर डालो.
राहुल जी घुमक्कड़ी के बारे मे कहते हैं:
ReplyDelete“ मेरी समझ में दुनिया की सर्वश्रेष्ठ वस्तु है घुमक्कड़ी। घुमक्कड़ से बढ़कर व्यक्ति और समाज का कोई हितकारी नहीं हो सकता। दुनिया दुख में हो चाहे सुख में, सभी समय यदि सहारा पाती है तो घुमक्कड़ों की ही ओर से। प्राकृतिक आदिम मनुष्य परम घुमक्कड़ था। आधुनिक काल में घुमक्कड़ों के काम की बात कहने की आवश्यकता है, क्योंकि लोगों ने घुमक्कड़ों की कृतियों को चुरा के उन्हें गला फाड़-फाड़कर अपने नाम से प्रकाशित किया। जिससे दुनिया जानने लगी कि वस्तुत: तेली के कोल्हू के बैल ही दुनिया में सब कुछ करते हैं। आधुनिक विज्ञान में चार्ल्स डारविन का स्थान बहुत ऊँचा है। उसने प्राणियों की उत्पत्ति और मानव-वंश के विकास पर ही अद्वितीय खोज नहीं की, बल्कि कहना चाहिए कि सभी विज्ञानों को डारविन के प्रकाश में दिशा बदलनी पड़ी। लेकिन, क्या डारविन अपने महान आविष्कारों को कर सकता था, यदि उसने घुमक्कड़ी का व्रत न लिया होता। आदमी की घुमक्कड़ी ने बहुत बार खून की नदियाँ बहायी है, इसमें संदेह नहीं, और घुमक्कड़ों से हम हरगिज नहीं चाहेंगे कि वे खून के रास्ते को पकड़ें। किन्तु घुमक्कड़ों के काफले न आते जाते, तो सुस्त मानव जातियाँ सो जाती और पशु से ऊपर नहीं उठ पाती। अमेरिका अधिकतर निर्जन सा पड़ा था। एशिया के कूपमंडूक को घुमक्कड़ धर्म की महिमा भूल गयी, इसलिए उन्होंने अमेरिका पर अपनी झंडी नहीं गाड़ी। दो शताब्दियों पहले तक आस्ट्रेलिया खाली पड़ा था। चीन, भारत को सभ्यता का बड़ा गर्व है, लेकिन इनको इतनी अक्ल नहीं आयी कि जाकर वहाँ अपना झंडा गाड़ आते। ”
फ़िलहाल तो यही पोस्ट [पढ़ा हूँ, पहले वाले बाकी अंक पढता हूँ थोड़ी देर में..
ReplyDeleteयार नीरज भाई, सबसे ज्यादा अच्छी बात ये लगी की इस पोस्ट में तस्वीरें बहुत सी थी :)
मजा आ गया आपके बहाने परिक्रमा करके।
ReplyDelete---------
रहस्यम आग...
ब्लॉग-मैन पाबला जी...
मजा आ गया आपके बहाने परिक्रमा करके।
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रहस्यम आग...
ब्लॉग-मैन पाबला जी...
wah jaatram wah....... kareri jheel ke kinare ek din albela khatri ko le jao.....
ReplyDeleteभाई जी अपने जूते भिजवा दो...अपने घर की दीवार पे टांग के पूजूंगा...क्या इंसान हो कसम से भगवान् ने खुद अपने हाथों से आपको घढा है हम जैसे तो उसने ठेके पे बनवाये हैं...जय हो आपकी.
ReplyDeleteनीरज
padh ke aisa laga jaise aap logo ke 7 hum bhi chal rahe ho
ReplyDeleteyou are always nice bhai
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