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मई 2011 को सुबह लगभग दस बजे मैं और गप्पू करेरी झील से वापस चल पडे। हमें यहां आते समय पता चल गया था कि धर्मशाला के लिये आखिरी बस घेरा से शाम चार बजे मिलेगी। यहां से करेरी गांव 13 किलोमीटर दूर है। करेरी गांव से घेरा गांव लगभग साढे तीन किलोमीटर है। पूरी यात्रा पैदल ही है। हमें चार बजे से पहले ही घेरा पहुंच जाना था। वैसे तो हमारे पास नोली पहुंचने का भी विकल्प था जहां से सीधे शाहपुर के लिये बसें मिल सकती थीं और नोली करेरी के मुकाबले पास भी था। झील से कुछ नीचे उतरकर एक रास्ता करेरी चला जाता है और एक नोली। लेकिन हमारे पास स्लीपिंग बैग थे जिन्हें हम किराये पर लाये थे और वापस भी लौटाने थे। इसलिये करेरी और घेरा तक पैदल चलना हमारी मजबूरी थी। हम पिछले दो दिनों से जबरदस्त पैदल चलकर इतने थक गये थे कि आज बिल्कुल भी चलने का मन नहीं था।
झील से कुछ नीचे उतरे तो टेण्ट मिले। इनमें कल दिल्ली वाले रुके थे। वे वही दिल्ली वाले थे जो पचास की संख्या में आये थे और अपनी रसोई भी साथ लाये थे। हमने बारिश और ओलों में भीगते हुए उनसे जरा सी चाय मांगी तो उन्होंने हमें मना ही नहीं किया बल्कि झिडक भी दिया। आज वे वापस जा चुके थे। उन्होंने कल झील देखी होगी। हमें लगा था कि वे आज झील देखेंगे और सुबह सुबह सभी पचास के पचास मन्दिर के पास आ धमकेंगे। मेरे मन्दिर वाले टूटे कमरे में नौ बजे तक पडे रहने का एक कारण यह भी था कि मैं उन्हें दिखाना चाहता था कि बन्दे किसी की चाय के मोहताज नहीं हैं। उन्हें दिखाना चाहता था कि देखो, बन्दे कल से ज्यादा तंदुरुस्त और खुश हैं। जिन्दा हैं। इन सर्वसाधनयुक्त अंसानों से सौ गुने अच्छे तो सर्वगुणसम्पन्न वे इंसान हैं जिन्हें हम गद्दी कहते हैं। झील के उस तरफ गद्दियों की कुछ झोपडियां थीं। कल बारिश में हमें वे दिख रही थी और उनसे उठता धुआं भी दिख रहा था। हमें रात को मन्दिर पर अकेले देखकर उन्होंने सीटियां भी बजाई थी कि इधर चले आओ। लेकिन हमें वे नहीं दिखे और दूसरी बात ये कि वहां जाने के लिये झील का आधा चक्कर काटना पडता जो हम उस समय अंधेरे में बिल्कुल नहीं चाहते थे।
आज दिल्ली के लोग यहां से जा चुके थे। ट्रैवल कम्पनियां बहुत पहले से विज्ञापन दे देकर, दे देकर लोगों को पटाती हैं, पर्यटकों को घुमक्कड बनाने की नाकाम कोशिश करती हैं। वो पचास लोगों का ग्रुप उसी तरह का एक ग्रुप था। आज टेण्ट तो थे- उनकी देखभाल और साफ-सफाई करने वाले लोकल भी थे। हमने देखा कि दिल्ली का कबाड जा चुका है तो हमने लोकलों से चाय की फरमाइश कर दी। उन्होंने कहा कि आ जाओ भाई, चाय अभी बची हुई है और हलुवा भी। हमने चाय-हलुवे का लुत्फ उठाया। उन्होंने बताया कि अब चार दिन बाद की बुकिंग है। जब सब बुकिंग खत्म हो जायेंगी तो कम्पनी अपने सभी टेण्ट ले जायेगी।
मैंने गप्पू से कहा कि ओये, तेज चल। दिल्ली वाले चाहे कितनी भी जल्दी निकले हों, हम उन्हें आराम से पीछे छोड देंगे। गप्पू राजी हो गया। दो-ढाई किलोमीटर चलने पर दिल्ली वाले मिल गये। कल तो बारिश पड रही थी, सभी टेण्टों में घुसे थे। अब देखा कि यहां तो काफी लम्बी लाइन बनी हुई है। हर उम्र के प्राणी हैं। लडकियां भी हैं। ना होने में भी कम से कम एक किलोमीटर लम्बी लाइन तो होगी ही। सभी अपनी सामर्थ्य के अनुसार उतर रहे थे। तेज चलने वाला सबसे आगे था और डरपोक से लोग पीछे थे। हम उनके जितना सुस्त तो चल नहीं सकते थे। हमें आगे निकलना था। बडे-बडे पत्थरों वाला रास्ता। फिर ओले भी। कल जो ओले पडे थे, वे अभी भी नहीं पिघले थे और रास्ते में भी खूब थे। रास्ता फिसलन भरा था। यहां से हमने उतरने की जो रफ्तार बनाई, तीसरे पैर यानी लठ का बाकी दो पैरों से भी ज्यादा इस्तेमाल किया- बन्दरों की तरह दे दनादन दे दनादन कूदते कूदते- दिल्ली वालों के ग्रुप को डिस्टर्ब ना करते हुए- एक तरह से स्टंट प्रदर्शन करते हुए हम उतर रहे थे। अगर अक्षय कुमार होता तो हमें दोनों को देखकर कहता कि- वाऊ।
एक जगह हमें वही बैठा दिखा जिसने कल चाय देने से मना किया था। मना ही नहीं बल्कि झिडका था। उसे देखते ही गप्पू उनके सामने जाकर रुक गया और सांस लेने लगा। पीछे मैं था। मुझे देखते ही वे बोले कि तुम तो वही हो, जो कल बारिश में गये थे। हां, वही हैं और सही सलामत भी हैं। तुम्हारे क्या हाल हैं। बोले कि भाई, बहुत खराब हाल हैं। जिन्दगी में कभी इधर मुंह करके भी नहीं सोयेंगे। हम यहां आ तो गये थे लेकिन हमें क्या पता था कि नीचे उतरना इतना खतरनाक होता है। फिर ये ओले- साले उतरने ही नहीं दे रहे हैं। हम तो मरे जा रहे हैं। भईया, कभी इधर नहीं आयेंगे। मैंने कहा कि इतनी बढिया सीनरी है- फोटो फाटो खींचो। बोले कि भाड में जाये फोटो। एक बार यहां से निकल जायें- जो फोटू अब तक खींचे हैं- मैं तो उन्हें देखूंगा भी नहीं। कितना दूर और है अभी। मैंने बताया कि करेरी से झील 13 किलोमीटर है- अभी कम से कम 10 किलोमीटर और है। उन्होंने बताया कि कम्पनी ने सभी से हैसियत और मोलभाव क्षमता के अनुसार 12 से 16 हजार रुपये लिये हैं। उनकी यह ‘दर्दभरी’ दास्तान सुनकर हमारा जी कितना खुश हुआ- यह तो हमे दोनों के साथ-साथ ऊपर वाला ही जानता है।
जम्मू गोठ के पास एक टेण्ट कालोनी और है। उसमें कल केरल के किसी सेण्ट्रल स्कूल के बच्चे रुके थे। तय कार्यक्रम के अनुसार उन्हें आज सुबह यहां से चलकर झील पर घूमकर वापस यही आना था। लेकिन आज वे नहीं गये। कारण था कल अचानक बिगडा मौसम। उनके पास दस्ताने नहीं थे। जब नीचे से दस्तानों का इंतजाम हो जायेगा, वे तब झील के लिये रवाना होंगे।
करेरी झील
यह है वो टेण्ट कालोनी जहां हमें कल चाय देने से मना कर दिया गया था और आज हम यहां से चाय के साथ हलुवा भी मारकर आये थे।
भेड-बकरी चराने वाले गद्दी हम घुमक्कडों के लिये बडे काम की चीज होते हैं। जरुरत पडने पर ये रहना-खाना मुहैया कर देते हैं- वो भी फ्री में।
ऐसी शक्ल-सूरत गप्पू की खास पसन्द थीं। यह फोटो गप्पू के कैमरे से गप्पू द्वारा खींचा गया है। मैं इस मामले में बिल्कुल पाक-पवित्र हूं। तौबा-तौबा।
सामने केरल वालों के टेण्ट दिख रहे हैं।
इस फोटो में देखने के लिहाज से कुछ नहीं है लेकिन महसूस करने के लिहाज से बहुत कुछ। कल आंधी-तूफान और ओले पडे थे। पेडों से पत्ते भी खूब गिरे। ओले अपनी बनावट के कारण जल्दी ही पत्तों से नीचे चले गये। यह देखने में तो पत्तों का मात्र एक ढेर लग रहा है लेकिन इसके नीचे ओलों का बहुत बडा ढेर है। अगर जरा सी भी लापरवाही दिखाई और इसे मात्र पत्ते समझकर इस पर चढ गये तो खैर नहीं। तुरन्त सैंकडों फुट गहरे पाताल लोक में पहुंच जाना तय है। गप्पू ऐसे ढेरों पर सावधानी से चलने के बावजूद भी कई बार फिसला। शुक्र है कि मैं बचा रहा। वैसे हम पर ऐसे ढेरों का पूरे रास्ते भर खौफ छाया रहा।
दो बजे तक करेरी गांव में पहुंच गये। भूख जोर की लग रही थी। जाते ही चाय की फरमाईश कर दी। लोटा भर कर चाय आ गई। साथ में मक्के की दो रोटी भी मिली। रोटी हालांकि सुबह की बनी थी लेकिन भूख भूख में सब खा गये। अगर पेट में जरा भी गुंजाइश होती तो हम बासी रोटी कतई खाने वाले नहीं थे। सतीश घर पर नहीं था- वो मैक्लोडगंज चला गया था। घर पर उसकी मां और घरवाली ही थी। हमने स्लीपिंग बैग दे दिये और अपना आई-कार्ड वापस ले लिया। उन्हें यह भी बता दिया गया कि इनमें से एक बैग में चैन नहीं है। इसमें चैन डलवा लो, नहीं तो किसी दिन इसके भरोसे रहकर किसी की जान चली जायेगी।
अब बात आई पैसों की। हमने पूछा कि कल से अब तक टोटल कितने पैसे हुए। अगर सास और बहू हों तो इस बारे में बात करने का हक केवल सास का ही होता है। उसने सतीश से फोन पर बात की और फिर बताया कि आठ सौ दे दो। मैं 300-400 तक का हिसाब लगाये बैठा था। हद से हद 500 तक। 800 हमारी हद से बाहर की बात थी। मैंने पूछा कि किस-किस चीज के कितने-कितने ले रहे हो आप? बोली कि सतीश ने 800 ही बताये हैं। मैंने कहा कि सतीश से बात कराओ। सतीश से बात हुई। उसने कहा कि 800 रुपये मां ने ही तय किये हैं- उनसे ही पूछो। मैं झुंझला गया। मैंने कहा कि यार मां तुम्हारा नाम ले रही है और तुम मां का। मुझे चार बजे वाली बस पकडनी है और ढाई बज चुके हैं। क्लियर क्यों नहीं करते। 400 रुपये देकर जा रहा हूं। बोला कि फोन मां को दो। उसकी मां से क्या बात हुई- मुझे नहीं पता। लेकिन इतना पता चल गया कि सतीश 400 के लिये राजी था।
मां बोली कि 400 बहुत कम हैं। मैंने कहा कि देखो, हम तुम्हारे यहां एक रात रुके हैं- कमरे का किराया, फिर दो टाइम का खाने का खर्चा, चाय का खर्चा। यह खर्चा आप बताओ- स्लीपिंग बैग का मैं बताऊंगा। क्योंकि सतीश ने कहा था कि बैग का किराया जो चाहो दे देना। फिर एक बैग में चैन नहीं है- चैन के बिना स्लीपिंग बैग बिल्कुल बेकार और जानलेवा है। मुझे पूरी रात तूफान और बारिश में एक कोने में बैठकर और जागकर काटनी पड गई। इस एक बैग का मैं कोई किराया नहीं दूंगा। एक बैग सही सलामत है- उसका किराया दूंगा। बताओ किस किस चीज के कितने कितने हुए। बोली कि हमारे यहां टूरिस्ट आते रहते हैं-हम कमरे का 150 रुपये लेते हैं। मैंने कहा कि ठीक है 150 का कमरा, 100 रुपये का खाना-चाय, 150 का स्लीपिंग बैग। फिर बोली कि कभी कभी हम कमरे के 200 भी ले लेते हैं। मैंने कहा कि वो भी ठीक है- 200 का कमरा, 100 का खाना-चाय, 100 का बैग। कुल मिलाकर 400 रुपये दूंगा- एक भी फालतू नहीं। खैर, 400 रुपये दिये और यहां से भाग चले।
यह फोटो करेरी गांव से खींचा गया है। दाहिने वाली पहाडी की चोटी पर कुछ घर दिख रहे हैं- वह नड्डी है जो मैक्लोडगंज के पास है। हम परसों वहां से पैदल चलकर करेरी आये थे।
करेरी गांव से दिखती धौलाधार
नोरा गांव
और पहुंच गये घेरा। यहां से धर्मशाला के लिये आखिरी बस शाम साढे चार बजे है।
कल जो बारिश और तूफान आया था-उसका नतीजा यह हुआ कि पूरे रास्ते भर पेडों के पत्ते बिखरे पडे थे। इससे एक तो नीचे उतरने का रास्ता नहीं दिख रहा था और पत्तों की वजह से फिसलन भी बहुत ज्यादा थी। इसलिये करेरी से नोरा पहुंचने में हमें काफी टाइम लग गया। नोरा के पास तक सडक बन गई है। नोरा से घेरा सडक मार्ग से करीब पांच छह किलोमीटर दूर है लेकिन अगर नाक की सीध में जायें तो एक किलोमीटर से ज्यादा नहीं है। एक से पूछा तो उसने हमें नोरा से घेरा तक नाक की सीध वाला शॉर्ट कट बता दिया। इससे हम सवा तीन बजे ही घेरा पहुंच गये। यहां से धर्मशाला वाली बस साढे चार बजे थी।
हमारे पास अभी भी एक दिन और था। लेकिन इन तीन दिनों में हम इतने थक गये कि बिना कुछ कहे-सुने ही तय हो गया कि वापस घर चलो। साढे चार बजे वाली बस का भी इंतजार नहीं किया और एक ट्रक में बैठकर धर्मशाला पहुंच गये। वहां से साढे छह बजे चलने वाली बस पकडी और सुबह छह बजे तक दिल्ली।
इति श्री करेरी डल यात्रा वृत्तान्त, समाप्तयामि।
अगला भाग: करेरी यात्रा का कुल खर्च- 4 दिन, 1247 रुपये
करेरी झील यात्रा
1. चल पडे करेरी की ओर
2. भागसू नाग और भागसू झरना, मैक्लोडगंज
3. करेरी यात्रा- मैक्लोडगंज से नड्डी और गतडी
4. करेरी यात्रा- गतडी से करेरी गांव
5. करेरी गांव से झील तक
6. करेरी झील के जानलेवा दर्शन
7. करेरी झील की परिक्रमा
8. करेरी झील से वापसी
9. करेरी यात्रा का कुल खर्च- 4 दिन, 1247 रुपये
10. करेरी यात्रा पर गप्पू और पाठकों के विचार
बहुत खूब! पढ़ते पढ़ते रोमांच हो आया। किसी यात्रा में आप के साथ चलने का इच्छुक हूँ। बताओ कहाँ ले चलोगे?
ReplyDeleteNeeraj ji or Gappu ji aap ne jo kareri yatra ki bahut hi badiya rahi bahut hi maja aaya aapne delhi walo ki halat per khushi nahi manani chahiye thi aapme or unme kaya phark huya aapne unko ahsas karana chahiye tha taki wo aage se kabhi bhi asi galti na karen
ReplyDeleteसर्वसाधनयुक्त अंसानों से सौ गुने अच्छे तो सर्वगुणसम्पन्न वे इंसान हैं जिन्हें हम गद्दी कहते हैं।
ReplyDeleteThis is 100% True.....
भाई हम कभी वहां गये "दिल्ली के कबाड" की तरह ही जायेंगें।
ReplyDeleteवैसे आपमें और उस आदमी में गहरे में देखा जाये तो कुछ फर्क नहीं है। वो पहले दिन खुश हुआ और आप दूसरे दिन खुश हुये (एक दूसरे की हालत पर)
यानि दोनों ने एक-दूसरे के दुख में लुत्फ उठाया :)
प्रणाम
उन की ऐसी की तैसी, जिन्होंने चाय भी नहीं पिलायी थी, ऊपर से गडबड कर दी गप्पू व घुमक्कड(नीरज) ने कि वापसी में वही चाय पी कर आये, नहीं पीनी थी चाय व नहीं खाना था हल्वा, ऐसों को तो ढेर सारी सुनानी थी।
ReplyDeleteये जम्बो जैट वाली उतराई अभी फ़िर से करनी है, श्रीखंड महादेव की प्यारी सी पाँच दिनों की पैदल यात्रा में। चार दिन भी नहीं लगाने है।
दिनेशराय द्विवेदी जी को भी १५ जुलाई की रात को चलने के लिये तैयार रहने के लिये कह दो भाई, ताकि उन की भी हसरत हो जाये पूरी, हम जैसे सिरफ़िरों के साथ जाने पर कैसा मजा आता है।
पिछली कुछ पोस्ट्स एक साथ पढ़ीं. स्मरणीय यात्रा और यात्रा इससे जुडी रोचक पोस्ट्स हम तक पहुचने का धन्यवाद. स्पौंसर्ड घुमक्कड़ी में गद्दियों वाली उन्मुक्तता कहाँ !
ReplyDeleteकरेरी झील से नीचे उतरते हुए बड़ी जोर की भूख लगी हुई थी,क्योंकि खाना खाए हमें चौबीस घंटे से ज्यादा हो गए थे. इधर मन और आँखे भी "प्यासी" थी. प्रकृति अपने पूरे सौन्दर्य के साथ हमारे सामने प्रस्तुत थी. हर दृश्य को आँखों और कैमरे में कैद कर लेना चाहता था. नीरज की चाल बढ़ते ही मैं उसके तेवर समझ गया था. "दिल्ली वाली पाल्टी" के बिखरे केम्प से लग रहा था कि वो जा चुके हैं. एक केम्प वाले से पुछा, "भैया चाय मिलेगी?" उसने दूसरे से पूछा और कहा, "है". खाना न मिले और चाय मिल जाये ये ही मेरे लिए काफी है. मैंने झट से वहां पड़े दो गिलास धोये और हम चाय पीने लगे. केम्प वाला लड़का बोला, "हलुवा भी है चाहिए ?" अंधे को क्या चाहिए......नीरज वहीँ पड़ी एक थाली में हलुवा डाल कर शुरू हो गया. ऐसा लग रहा था की कल की कसर भी आज ही निकाल रहा है. मुझे हलुआ और वो भी सूजी का पसंद नहीं है. हमने पैसे के लिए पूछा तो उन भले मानुसों ने मना कर दिया. हमने उन्हें मन ही मन ढेर सारी दुआएं दी और अपनी राह पर बढ़ चले.
ReplyDeleteएक दो किलोमीटर पर ही वो. "दिल्ली वाली पाल्टी" किसी पस्त सेना की तरह आगे बढ़ रही थी. नीरज की गति को पकड़ने के लिए मुझे लगभग भागना पड़ रहा था , जबकि मैंने सोचा था की वापस चलते हुए आराम से फोटो खीचेंगे और प्राकृतिक सौन्दर्य का आनंद लेंगे. "दिल्ली वाली पाल्टी" इस मनोरम और सुन्दर जगह को भी "दिल्ली" ही बनाने पर तुली हुई थी. चिप्स और नमकीन खाते और कोल्ड ड्रिंक्स पीते हुए वो लोग कचरा वही फेंकते जा रहे थे(शायद उनके बाप आकर उसे बाद में साफ करेंगे) मैंने नीरज से कहा तो वो बोला,"अपन तो अपना कचरा साथ लायें हैं, नीचे कहीं सही जगह फ़ेंक देंगे " और चार बजे तक घेरा पहुचने की हिदायत उसने दे दी.
अब "सौन्दर्य" तो दूर की बात "घेरा" दिखने लगा था . उससे पहले हमें करेरी गाँव पहुँचाना था. जिस रास्ते पर हमें चढ़ते हुए तनिक भी डर नहीं लगा वो उतरते हुए बड़ा भयानक हो गया था और ओलों से टूट कट गिरे पत्तों और उनके नीचे पड़े ओलों ने इस भयावहता को और बढ़ा दिया था. फिर भी हम अपनी गति से उतरते रहे. जहाँ हमें केरल की पार्टी मिली थी उससे थोडा नीचे एक झरने पर कोलाहल सुनाई दिया. नजदीक जाकर देखा तो तीन अंग्रेज एक अंग्रेजनी मस्ती(नहा रहे थे) कर रहे थे और दो गाईड बैठे थे. हम भी वहीँ बैठ गए. बात-चीत से पता चला कि अंग्रेजों से एक आदमी का ढाई हजार रुपये प्रतिदिन के हिसाब से इस ट्रेकिंग कि फीस वसूली जाएगी और पांच दिन का ट्रेक था. वहां से पानी पी कर हम फिर अपनी राह चल दिए. दो किलोमीटर से भी ज्यादा का झील का चक्कर लगाने और साढ़े तेरह किलोमीटर करेरी गाँव तक(लगभग पंद्रह -सोलह किलोमीटर) हम लोग सवा या डेढ़ बजे तक चल चुके थे. गाँव में मक्की कि रोटी के साथ चाय बड़ी मुश्किल से हलक से नीचे उतर रही थी. लेकिन नीरज बोला,"भूख से टांगे कांपने लगेंगी" तो जो मिला वो खाया.
सोलह किलोमीटर चलने और सुस्ताने के बाद अब चलने कि बिलकुल इच्छा नहीं थी. लेकिन वो ही चार बजे घेरा....! करेरी गाँव से घेरा लगभग पांच किलोमीटर था और मैं मन ही मन हिसाब लगा कर डर रहा था. लेकिन शरीर को धकेलते हुए मैं नीचे कि तरफ उतरता जा रहा था. नोरा से पांच किलोमीटर और.........! मरवा दिए!! जैसे तैसे नोरा के आगे सड़क तक आये मैंने सोचा चलो अब सड़क-सड़क चलना है......गाँव के कुछ लोग बैठे मिले, नीरज ने रास्ता पूछा . उन्होंने शोर्टकट बता दिया. मेरा मन ख़राब हो गया, क्योंकि मैं अब खड़ी उतराई की जगह सड़क पर चलना चाहता था...... नीरज के साथ हो लिए. एक जगह दो रास्ते मिले मैंने नीरज से पुछा, "कौन से पर चलना है?" (यहाँ मैं एक रोचक बात बताना चाहूँगा,वो ये कि इस पूरी यात्रा में हम कई बार रास्ता भटके ,लेकिन कोई दैव योग ही था कि थोडा सा आगे जाने पर ही कोई न कोई आकर हमें सही रास्ता बता देता था. नहीं तो हमारी यात्रा और भी दुश्कर हो जाती.) और मैं नीरज के बताये रस्ते पर न चल कर दूसरे पर चल दिया और पहली बार हम अपने मन से सही रस्ते पर चल दिए. पुल के पास से उतरते हुए हम जैसे ही घेरा गाँव कि सड़क पर पहुंचे नीरज ने अपने हाथ का डंडा फ़ेंक दिया. मैंने पीछे मुड़ कर देखा दूर चोटीपर बर्फ चमक रही थी और बड़ी ऊंचाई पर घेरा गाँव दिख रहा था. मुझे अपने चलने पर विश्वास नहीं हो रहा था. मात्र छः-साढ़े छः घंटे में हम बीस-बाईस किलोमीटर चले थे. मैं मन ही मन अपने को और पकृति की भव्यता को सराह ही रहा था कि नीरज कि आवाज कानों में पड़ी, ''डंडा फेंक दे" मैंने भी हाथ का डंडा फेंकना चाहा, लेकिन कठिन सफर के इस साथी को अचानक फ़ेंक नहीं पाया. फिर से एक बार गौर से डंडे को देखा और आदर से सड़क के किनारे रख दिया. बस स्टेंड पर आकर एक पिकअप वाले से बात की तो सौ रुपये दो सवारियों के मांगे. थोड़ी देर बाद दूसरा जाने लगा तो उससे बात की तो वो 'बस के किराये' में मान गया और हम वहां से चल दिए एक कठिन लेकिन शानदार यात्रा की यादें मन में संजोये हुए.......
ReplyDeleteकरेरी में उकेरी विश्व बन्धुत्व की भावना, वाह।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर यात्रा वृत्तान्त प्रस्तुत किया है आपने!
ReplyDeleteपोस्ट एक्सीलैंट,
ReplyDeleteसंदीप का कमेंट भी एक्सीलैंट, और
गप्पू जी तो हैं ही एक्सीलैंट। डंडे को आदर वाली बात लिखकर तो गप्पू जी ने ’फ़ट्टे चक दित्ते’
अब श्रीखण्ड यात्रा का इंतज़ार है, दो दो जाट देवता एक साथ होंगे और दोनों अपनी अपनी फ़ील्ड के धुरंधर।
शुभकामनायें।
@sanjay ji-Thanks!!
ReplyDelete@sanjay ji-Thanks!!
ReplyDeleteगप्पू भाई
ReplyDeleteआप कमैन्ट करने के लिये ई मेल की जगह अपने ब्लाग का प्रयोग करे, वैसे आपके कमैन्ट एक पोस्ट से कम नहीं है।
आप भी चल रहे हो श्रीखण्ड महादेव की यात्रा पर, चलो तो मजा आयेगा, जब तीन ऊँत खोपडी एक साथ होगी, और हाँ बाइक पर चलेंगे, आप भी तैयार रखना अपनी बाइक, और कोई हमारे जैसा बावला दीवाना हो तो उसे भी टाँग लेना अपनी बाइक पर?
अपने ब्लाग का लिंक मुझे बता देना।
मनोरम और सुन्दर जगह को भी "दिल्ली" ही बनाने पर तुली हुई थी. चिप्स और नमकीन खाते और कोल्ड ड्रिंक्स पीते हुए वो लोग कचरा वही फेंकते जा रहे थे(शायद उनके बाप आकर उसे बाद में साफ करेंगे) मैंने नीरज से कहा तो वो बोला,"अपन तो अपना कचरा साथ लायें हैं, नीचे कहीं सही जगह फ़ेंक देंगे "
ReplyDeletepata nahin log kab apni jimmedaari samjhengein....
neeraj/gappu bhai aap ghhummkadi ko ek salaah hai agar theek lage to..
aap jahaan bhi jaate ho to kyon na wahaan ek board laga kar aayaa karo "Pl. Dont left waste material here" kuchh istarah ka, isse logon ko kuchh to msg jayega aur pata bhi ahclta jayega ki ghummakadi sirf ghumna hi nahin, nature ke saath ekaakaar hona hai...
waise gapuut u, Ab aap bhi likhna phir se shuru kar do....
"डंडा फेंक दे" maine bhi feel kiya hai kai baar ki kathin safar ke saathi ko phekna achha nahin lagta hai...
abi mera anubhav sunataa hu.. kuchh dino pehle chardham ko gaye the.. Yamunotri mein jo danda saath chala tha... woh aajkal raigarh(C.G.) mein saheja hua hai...
@जाट देवता जी मेरी भी श्रीखंड महादेव जाने की बहुत इच्छा है,लेकिन छुट्टी नहीं मिल पाने के कारण मजबूर हूँ . नीरज और आप के साथ अगला टूर शायद दिसम्बर में .........
ReplyDeleteजाट महाराज और गप्पू भाई की जय हो...जय हो...जय हो...
ReplyDeleteनीरज
bahut achchhe |
ReplyDeleteहा हा -> उनकी यह ‘दर्दभरी’ दास्तान सुनकर हमारा जी कितना खुश हुआ- यह तो हमे दोनों के साथ-साथ ऊपर वाला ही जानता है।- कसम से :) :)
ReplyDeleteइसपे भी एक जोरदार ताली हा हा --> मैं इस मामले में बिल्कुल पाक-पवित्र हूं। तौबा-तौबा। - :) :)
पत्तों के नीचे ओलों वाली बात नयी और अच्छी बात पता चली...वैसे आज फुर्सत में आपकी पूरी करेरी झील यात्रा वृतांत पढ़ गया..
मजा आया भाई :)
शानदार और मजेदार. दिल्लीवाले उन हरामखोरों को कुछ सबक सिखाना था.
ReplyDeletevery nice post
ReplyDeleteजाट महाराज और गप्पू भाई की जय हो...जय हो...जय हो...
ReplyDeleteहमारे एक दोस्त अभी switzerland हो के आये हैं सपरिवार ...एक कंपनी की तरफ से ट्रिप था ....पूरा 5 सितारा ट्रिप था .....सब लोग भी पढ़े लिखे ...so called high class gentry थी .....पर जो गंद उन्होंने वहां पर मचाया ...उसके किस्से सुन के मेरा मन ग्लानि से भर गया ......हमारे देश के education system में hygene कोई subject ही नहीं है ....ये साफ़ सफाई का संस्कार हमने दिया ही नहीं देश वासियों को .......ये तथाकथित पढ़े लिखे लोग भी ऐसा करते हैं ....शर्म आती है .....दिल्ली वालों ने क्या सीखा common wealth games से ......हम हिन्दुस्तानी सूअर हैं .....सूअर रहेंगे ....बल्कि सूअर से भी बदतर ....उस दिल्ली वाली कंपनी और पार्टी का चालान कर के 20 -25 हज़ार का जुर्माना ठोक देते तो सारी जिंदगी के लिए अक्ल आ जाती उन्हें ........
ReplyDeleteajit
मुझे लगता है दिल्ली वालों की इंसानियत मर गयी है ......क्या हर बड़े शहर के लोग ऐसे हो जाते हैं .....मनुष्य नहीं मशीन .........एक हमसफ़र को ...जो बेचारा थका और भूखा है ...कोई एक कप चाय के लिए भी मना कर सकता है ....भारत देश में ........अजीब सा लगता है सोच के ........
ReplyDeleteनीरज भाई ये पोस्ट पढ़ के एक किस्सा याद आ गया ........हम चार लोग bike से डलहौज़ी गए थे ...वहां से भलेइ माता मंदिरचले गए घूमने ....एक सड़क मंदिर से और आगे जा रही थी ....उसपे निकल गए .........३-४ किलो मीटर जा के वो सड़क ख़तम हो गयी ....वहां एक छोटी सी दुकान थी ....सिर्फ चाय थी उसके पास.........चाय पिलाई उसने ...और कुछ था ही नहीं ......हमने कहा बड़ी भूख लगी है यार ...बोला बाबू जी कुछ नहीं है .....खैर मन मार के हम वही पड़े सुस्ता रहे थे ...तभी उसकी माँ घर से रोटी ले आयी ......वो बोला बाबु जी यही खा लो ....और हमारे लिए उसने वो अपनी सब्जी गरम की .....एक जंगली घास होती है वहां ....लिंगड़ी कहते है उसे ....वाह क्या taste था ....अमृत जैसा .........एक एक रोटी खाई हमने प्याज और उस लिंगड़ी की सब्जी के साथ ........पैसे पूछे तो बोला बीस रूपये ..........हमने कहा किस हिसाब से भैया .....बोला बाबूजी चार चाय के बीस रूपये ...स्पेशल बनाई थी आपके लिए ......मैंने पूछा और रोटी के ......वो बोला बाबू जी चाय मैंने आपको ग्राहक समझ के पिलाई ...और रोटी मेहमान समझ के ............किसी दिन पहले फोन कर के आइयेगा ...पूरा हिमाचली खाना खिलाऊंगा .......हम आजकल जब भी हिमाचल जाते हैं हमेशा किसी के घर में ही रुकते है ...as a paying guest ......और पहले ही तय कर लेते है ...भैया लिंगड़ी की सब्जी खिलानी पड़ेगी ...और वो तमाम हिमाचली natural सब्जियां जो जंगलों में लगती हैं .......वहां हमने लिंगड़ी का आचार भी खाया .......भारत के गावों में आज भी अतिथि देवो भव की भावना जीवित है ....दिल्ली तो अब भारत नहीं रहा .......
ReplyDeleteajit
Hello neeraj.mein kangra se hun aur tumhare kai articals mene padhe.bahut natural aur simple hai sab..bahut acha laga padke maza aa gya.. but kuch esi jagah hai himachal mein jaahn tum abhi nahi ja paye ho aur bo bahut sunder hai.ek tasvir ki tarah.. jese kuch jagah hai BAROT,PURANI CHAMUNDA,CHUDDHAR,NAURADHAR,SHIKARI DEVI.ho sake to is jagah mein program banao..Its nice to read your articales...Amit Chahal
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