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कुल्लू के पास बिजली महादेव का मन्दिर है। यहां से पूरा कुल्लू शहर और भून्तर साफ-साफ दिखाई देते हैं। जाने का एकमात्र रास्ता कुल्लू से ही है। लेकिन मैने इरादा किया भून्तर की तरफ से उतरने का। उतरने लगा तो कुछ चरवाहे मिले। उन्होने रास्ता बता दिया। उनके बताये रास्ते पर चलते हुए कुछ दूर जाने पर नीचे उतरती सीढियां मिलीं। सामने बहुत दूर पार्वती नदी दिख रही थी और मणिकर्ण जाने वाली सडक भी। सडक पर चलती हुईं कारें, बसें बहुत नन्ही-नन्ही दिख रही थीं। शाम के पांच बजे के आसपास का टाइम था। मैने अपना लक्ष्य रखा दो घण्टे में यानी सात बजे तक नीचे नदी तक उतरने का। पहाडों का जो थोडा बहुत अनुभव था, उससे अन्दाजा लगाया कि दो घण्टे में नदी तक उतरना बहुत मुश्किल काम है। इसीलिये चलने की स्पीड भी बढा दी।
नीचे दूर-दूर गांव ही दिख रहे थे। पहाडों पर ऊपर चढने में जितना ज्यादा जोर पडता है, नीचे उतरने में बिल्कुल भी नहीं पडता। सांस भी नहीं फूलती। इसलिये मेरे पास रुककर सांस लेने का भी बहाना नहीं था। तेजी से लगातार उतरते जाना था। एक जगह पर रास्ते के दो टुकडे हो गये मतलब एक टुकडा दाहिने जा रहा था और एक बायें। भून्तर भी दाहिनी तरफ ही था। गौर से देखा तो लगा कि दाहिने वाला रास्ता ज्यादा दूर नहीं जा रहा है। बायें वाले पर चल पडा। बस, यही गलती कर दी। जैसे जैसे चलता गया, भून्तर दूर होता गया। फिर भी सामने पार्वती नदी थी। सोचा कि नीचे उतरकर मणिकर्ण रोड से कोई गाडी पकड लूंगा।
कुछ दूर चला तो तीन-चार कुत्ते खडे थे। देखते ही भौंकने लगे। वापस भागने का तो मतलब ही नहीं था। पत्थर उठाकर फेंकता तो क्या पता वे मुझ पर ही टूट पडते। पहाडी कुत्ते थे, मोटे-मोटे, झबरे। डरता-डरता पास पहुंचा तो वे पीछे हटने लगे। और आखिर में इधर-उधर हो गये। यहां से तो बच गया। एक गांव में पहुंचा और जल्दी ही बाहर भी निकल गया। छोटे-छोटे गांव होते हैं।
छह बज गये और अभी भी लग रहा था कि उतनी ही ऊंचाई पर हूं। नदी भी उतनी ही दूर लग रही थी। पीछे भून्तर भी नहीं दिख रहा था। तभी एक बात पर गौर किया कि मैं नीचे उतर ही नहीं रहा हूं। जिस रास्ते पर मैं चल रहा था वो कभी थोडा नीचे जाता फिर उतना ही ऊपर आ जाता। कुल मिलाकर एक ही लेवल में जा रहा था। इसी लेवल में यह कई गांवों को जोड रहा था। यह ख्याल आते ही मैं नीचे उतरने का कोई और रास्ता ढूंढने लगा। भूख लग रही थी। यह इलाका पहाड के पूर्वी हिस्से में था, इसलिये सूरज नहीं दिख रहा था। यहां अन्धेरा भी जल्दी हो जाता है। नदी के उस पार वाले पहाड पर अभी भी धूप थी।
यह सोचते ही तेजी से नीचे उतरने की ललक बढ गयी। कहते हैं कि जहां चाह, वहां राह। एक जगह काफी नीचे तक एक नन्ही सी लकीर जाती दिखी। इसी पर हो लिया। नीचे चीड का जंगल था। चीड के जंगल में भूत के किस्से काफी सुने थे। अकेला होने के कारण डर सा भी लग रहा था। अब एक विचार और आया। मणिकर्ण रोड नदी के उस तरफ है। यानी मुझे नदी पार करनी ही पडेगी। वो भी पार्वती नदी, जिसे हिमालय की तेज बहती नदियों में गिना जाता है। यहां दूर-दूर तक पुल भी नहीं मिलते। लेकिन वो तो बाद की बात है, पहला लक्ष्य है नदी तक पहुंचना।
चीड के जंगल में ही एक पगडण्डी भी मिल गयी। नीचे जा रही थी। झाडियों के बीच से होती हुई। (काफी हो गया ना? चलिये, कुछ चित्र देखिये)
कुल्लू के पास बिजली महादेव का मन्दिर है। यहां से पूरा कुल्लू शहर और भून्तर साफ-साफ दिखाई देते हैं। जाने का एकमात्र रास्ता कुल्लू से ही है। लेकिन मैने इरादा किया भून्तर की तरफ से उतरने का। उतरने लगा तो कुछ चरवाहे मिले। उन्होने रास्ता बता दिया। उनके बताये रास्ते पर चलते हुए कुछ दूर जाने पर नीचे उतरती सीढियां मिलीं। सामने बहुत दूर पार्वती नदी दिख रही थी और मणिकर्ण जाने वाली सडक भी। सडक पर चलती हुईं कारें, बसें बहुत नन्ही-नन्ही दिख रही थीं। शाम के पांच बजे के आसपास का टाइम था। मैने अपना लक्ष्य रखा दो घण्टे में यानी सात बजे तक नीचे नदी तक उतरने का। पहाडों का जो थोडा बहुत अनुभव था, उससे अन्दाजा लगाया कि दो घण्टे में नदी तक उतरना बहुत मुश्किल काम है। इसीलिये चलने की स्पीड भी बढा दी।
नीचे दूर-दूर गांव ही दिख रहे थे। पहाडों पर ऊपर चढने में जितना ज्यादा जोर पडता है, नीचे उतरने में बिल्कुल भी नहीं पडता। सांस भी नहीं फूलती। इसलिये मेरे पास रुककर सांस लेने का भी बहाना नहीं था। तेजी से लगातार उतरते जाना था। एक जगह पर रास्ते के दो टुकडे हो गये मतलब एक टुकडा दाहिने जा रहा था और एक बायें। भून्तर भी दाहिनी तरफ ही था। गौर से देखा तो लगा कि दाहिने वाला रास्ता ज्यादा दूर नहीं जा रहा है। बायें वाले पर चल पडा। बस, यही गलती कर दी। जैसे जैसे चलता गया, भून्तर दूर होता गया। फिर भी सामने पार्वती नदी थी। सोचा कि नीचे उतरकर मणिकर्ण रोड से कोई गाडी पकड लूंगा।
कुछ दूर चला तो तीन-चार कुत्ते खडे थे। देखते ही भौंकने लगे। वापस भागने का तो मतलब ही नहीं था। पत्थर उठाकर फेंकता तो क्या पता वे मुझ पर ही टूट पडते। पहाडी कुत्ते थे, मोटे-मोटे, झबरे। डरता-डरता पास पहुंचा तो वे पीछे हटने लगे। और आखिर में इधर-उधर हो गये। यहां से तो बच गया। एक गांव में पहुंचा और जल्दी ही बाहर भी निकल गया। छोटे-छोटे गांव होते हैं।
छह बज गये और अभी भी लग रहा था कि उतनी ही ऊंचाई पर हूं। नदी भी उतनी ही दूर लग रही थी। पीछे भून्तर भी नहीं दिख रहा था। तभी एक बात पर गौर किया कि मैं नीचे उतर ही नहीं रहा हूं। जिस रास्ते पर मैं चल रहा था वो कभी थोडा नीचे जाता फिर उतना ही ऊपर आ जाता। कुल मिलाकर एक ही लेवल में जा रहा था। इसी लेवल में यह कई गांवों को जोड रहा था। यह ख्याल आते ही मैं नीचे उतरने का कोई और रास्ता ढूंढने लगा। भूख लग रही थी। यह इलाका पहाड के पूर्वी हिस्से में था, इसलिये सूरज नहीं दिख रहा था। यहां अन्धेरा भी जल्दी हो जाता है। नदी के उस पार वाले पहाड पर अभी भी धूप थी।
यह सोचते ही तेजी से नीचे उतरने की ललक बढ गयी। कहते हैं कि जहां चाह, वहां राह। एक जगह काफी नीचे तक एक नन्ही सी लकीर जाती दिखी। इसी पर हो लिया। नीचे चीड का जंगल था। चीड के जंगल में भूत के किस्से काफी सुने थे। अकेला होने के कारण डर सा भी लग रहा था। अब एक विचार और आया। मणिकर्ण रोड नदी के उस तरफ है। यानी मुझे नदी पार करनी ही पडेगी। वो भी पार्वती नदी, जिसे हिमालय की तेज बहती नदियों में गिना जाता है। यहां दूर-दूर तक पुल भी नहीं मिलते। लेकिन वो तो बाद की बात है, पहला लक्ष्य है नदी तक पहुंचना।
चीड के जंगल में ही एक पगडण्डी भी मिल गयी। नीचे जा रही थी। झाडियों के बीच से होती हुई। (काफी हो गया ना? चलिये, कुछ चित्र देखिये)
यह बन्दा यहां बैठकर भारत-श्रीलंका का मैच सुन रहा था। रेडियो पर। |
यह वो रास्ता है जो मुझे बिजली महादेव से कुछ नीचे से मिला था। |
एक हिमाचली गांव |
बताइये यह क्या है? |
सेब है यह। लाल सुर्ख है लेकिन स्वाद खट्टा मीठा था। ऊपर वाले पेड से तोडकर कई सेब खा डाले। |
जैसे-जैसे नीचे उतर रहा हूं, भून्तर भी दूर होता जा रहा है। |
यह क्या है? |
वो पगडण्डी शायद नीचे भून्तर जा रही है लेकिन मैंने उसे छोड दिया। यह गलती मुझ पर बहुत भारी पडी। |
चलते जाओ, चलते जाओ। कभी ना कभी तो नीचे पहुंचेंगे ही। |
देखने में तो यह कोई पुराने मन्दिर का खण्डहर लग रहा है। लेकिन सामने दीवार है। पहाड पर जगह जगह पानी फूटता है, जिसे गांव वाले पीने के काम में लाते हैं। लगता है कि कभी यहां भी पानी निकलता होगा, जिसके ऊपर छत बना दी और सामने दीवार इसलिये बना दी ताकि जानवर ना घुस सकें। हालांकि अब यह सूखा था। |
दो घण्टे हो गये उतरते-उतरते। अब भी नदी उतनी ही दूर है। देखता हूं, इस जंगल में नीचे उतरता हूं, शायद कहीं पर कुछ बात ही बन जाये। |
ओ हो हो हो। इसे कहते हैं सांयकालीन नजारा। |
पेड गिर गये तो गिर गये। कोई उठाने वाला नहीं है। |
यह हल्की सी पगडण्डी लग रही है। चलो, देखते हैं कहां पहुंचते हैं। |
अरे, यह तो और घनी झाडियों में जा रही है। लेकिन जा तो रही है। |
आ हा हा। दिख गयी मंजिल। सामने एक मोटर मार्ग दिख रहा है। |
ये रहा मोटर मार्ग। इससे नीचे नदी है, नदी के उस तरफ मणिकर्ण रोड। मेरा लक्ष्य है मणिकर्ण रोड पर पहुंचना। वहां से मणिकर्ण भी जा सकता हूं और कुल्लू भी। इस सडक पर चलता हूं, यह पक्का मणिकर्ण रोड से ही निकली होगी। |
इस तरफ तो अन्धेरा होने लगा है लेकिन उस तरफ अभी भी धूप है। |
हां, पार्वती नदी अब कुछ पास दिखने लगी है। उस तरफ मणिकर्ण रोड दिख रही है। |
एक पत्थर पर कैमरा रखा, दस सेकण्ड भरे और सामने खडा हो गया। अरे, यह क्या? केवल पैर ही आये हैं। दोबारा करता हूं। हां, अब ठीक है। |
घुमावदार मणिकर्ण रोड |
कुछ आगे नदी पर एक पुल था, पुल पार करके गाडी की प्रतीक्षा करने लगा। यहां से आधा किलोमीटर दूर छरोड नाला है। छरोड नाला से भून्तर की दूरी पांच किलोमीटर है। यहां से मणिकर्ण की कोई गाडी नहीं मिली। लेकिन एक कुल्लू की गाडी मिल गयी। रात नौ बजे तक कुल्लू पहुंचा। बस अड्डे के पास में ही एक कमरा लिया और सुबह जल्दी उठने का वादा करके सो गया।
अगला भाग: कुल्लू से मणिकर्ण
मणिकर्ण खीरगंगा यात्रा
1. मैं कुल्लू चला गया
2. कुल्लू से बिजली महादेव
3. बिजली महादेव
4. कुल्लू के चरवाहे और मलाना
5. मैं जंगल में भटक गया
6. कुल्लू से मणिकर्ण
7. मणिकर्ण के नजारे
8. मणिकर्ण में ठण्डी गुफा और गर्म गुफा
9. मणिकर्ण से नकथान
10. खीरगंगा- दुर्गम और रोमांचक
11. अनछुआ प्राकृतिक सौन्दर्य- खीरगंगा
12. खीरगंगा और मणिकर्ण से वापसी
मस्त दोस्त.. क्या घूम के आये हो.. और कितना सरल शब्दों में लिखा डाला....
ReplyDeleteईश्वर बचाये कि आपके साथ कभी घूमने न जाना पड़े..वरना हम तो आधे बचेंगे. :)
ReplyDeleteवैसा पहला तो आपने बता दिया कि सेब है और दूसरा, लेवेन्डर का फूल!
neeraj,
ReplyDeletemesmerizing post.
तुम्हें तो कोई एडवेंचर ट्रेल वाली कंपनी खोल लेनी चाहिये।
फ़ोटो बहुत शानदार, पोस्ट तो शानदार होती ही है तुम्हारी
और वो फ़ोटो क्या धतूरे के फ़ूल की हैं?
सुन्दर चित्र हैं।
ReplyDeleteआपने हमें भी जंगल में भटका दिया था .. रास्ता देखा तो जान में जान आयी !!
ReplyDeleteयात्रा वृत्तान्त बहुत सुन्दर रहा!
ReplyDeleteमजेदार और रोमांचक .
ReplyDeleteकमाल का आदमी सै भाई तू तो
ReplyDeleteवादा किससे किया था??
शानदार फोटोज के लिये धन्यवाद
Man vs. Wild याद आ गया।
प्रणाम
पिछली पोस्ट पढ़कर लग रहा था कि आप भटकेंगे अवश्य । :)
ReplyDeleteभाई, ये घुमक्कड़ी ऐसे ही बनी रहे. बहुत रोचक पोस्ट और तसवीरें. आपका ब्लॉग मुझे सबसे बढ़िया बढ़िया ब्लॉग में से एक लगता है. बहुत बड़ा फैन हूँ मैं इसका, नीरज.
ReplyDeleteवाह वाह नस्त मोला जी आप ने तो खुब घुमाया, लेकिन हां तो डर ही गये कि अगर रास्ता नही मिला तो..... सभी चित बहुत सुंदर लगे यह सेब का पेड तो जाना पहचान है, हमारे यहां ऎसे पॆड भी बहुत मिलते है, ओर यह फ़ुल जिस के बारे आप ने पुछा है इस का नाम याद नही आ रहा, लेकिन इस का पोधा आदमी से बडा होता है
ReplyDeleteधन्यवाद इस बहुत सुंदर पोस्ट के लिये
majedar post.. laga hamne bhi aapke sath ghoom liya..
ReplyDeleteवाह एक से बढ़कर एक शानदार चित्र |
ReplyDeleteवाह जी मान गए. बड़ी हिम्मत दिखाई. सुन्दर संस्मरण.
ReplyDeleteनीरज जी...भटक तो मैने भी गया आपने इतना सजीव और बढ़िया वर्णन कर . की देखते ही मन इन्ही चित्रों में रम गया...बहुत उम्दा और खूबसूरत प्रस्तुति......धन्यवाद नीरज जी...
ReplyDeleteइस तरह के जोखिम उठाने की यही उम्र है भाई मगर जंगल-फंगल जाते हुए कोई कट्टा,तमंचा या रामपुरी न सही एक भीमसेनी लट्ठ ज़रूर ले जाया करो !काम आता है . आगे तुम्हारी मर्ज़ी मगर मेरा यही अनुभव है कि नमी वाली जगहों में कई बार जोंक चिपट जाती हैं और अगर स्विस -नाइफ़ न हो तो मुश्किल हो जाती है !
ReplyDeleteआपकी घुमक्कड़ी की जितनी प्रशंशा की जाये कम है...आज के नौजवानों के लिए आप एक आदर्श हैं...जियो नीरज भाई...अत्यधिक रोचक वर्णन और उत्तम फोटोग्राफी...
ReplyDeleteनीरज
आपकी घुमक्कड़ी को नमन. प्रशंसनीय यात्रा वृत्तांत. आज ही मैने दिसम्बर २००८ में लिखी कुमायूं यात्रा के सातों भाग पढ़े.इतना सजीव चित्रण और इतनी बारीकी से! पढ़ कर अभिभूत हूँ
ReplyDeleteकल आधा दिन लग गया इस ब्लाग पै पढणे में और कमेंट करना ही भूल ग्या।
ReplyDeleteऔर के हाल चाल सै?
राम राम
चलो पहाड़ की चोटी पर रास्ता भूले. मैं तो एक बार घने जंगल में भटक गया था और वो भी ऐसी जगह जहां पहाड़ियों की तलहटी में भालू भी थे व कंधे पर कम से कम १५ किलो वज़न भी रहा होगा. इन जगहों की सबसे बड़ी दिक्क़त ये भी है की कोई मिलता भी नहीं जिससे कुछ पूछ लिया जाए. कहीं कोई भूले-भटके मिल भी गया तो ज़रूरी भी नहीं कि वो आपकी सहायता कर ही सकेगा. पर इसमें भी एक मज़ा है.
ReplyDeleteवाह एक से बढ़कर ए
ReplyDeleteचीड़ के पेड़ों में भूत वाली बात तो बताई नही न ही उस पेज में कुछ मिला है
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