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जब मैं वान में था तो इन्दरसिंह के होटल के सामने सडक पर जो कि खाली पडी जमीन ज्यादा लगती है, दो लोग खच्चर के लिये मोलभाव कर रहे थे। अगले दिन पता चला कि वे मसूरी से आये हैं और आईएएस प्रशिक्षु हैं। यानी उनकी यह सरकारी यात्रा है। वे कुल मिलाकर बाइस जने थे, उनके साथ दो सहायक भी मसूरी से आये थे और एक सीआइएसएफ का जवान भी था।
खैर, जब वे दो लोग खच्चर के लिये मोलभाव कर रहे थे तो मुझे नहीं मालूम था कि वे इतने बडे आदमी हैं। मैंने समझा कि वे दो ही जने हैं और अपने राशन पानी और तम्बू आदि के लिये खच्चर करना चाहते हैं। हालांकि इसमें कोई विशेष बात कुछ नहीं हुई लेकिन उनकी बहस और मोलभाव करना काफी मजेदार था। अब मैं सोच रहा हूं कि जब वे सरकारी खर्चे पर थे तो उन्हें मोलभाव करने की जरुरत क्या थी।
अगले दिन यानी एक अक्टूबर की सुबह आराम से आठ बजे सोकर उठा। आज मुझे मात्र दस किलोमीटर पैदल चलकर बेदिनी बुग्याल तक ही जाना था। इन्दरसिंह से पता कर लिया कि वहां रुकने का क्या इन्तजाम मिलेगा, तो उसने कहा कि आप वहां पहुंचो तो सही, सारा इन्तजाम है। उसके कहने का मतलब था कि एक अकेले इंसान के लिये कहीं भी जगह हो जाती है। अगर संख्या ज्यादा है तो दिक्कत होती है। फिर मेरे पास स्लीपिंग बैग भी था, मुझे बस छत चाहिये थी। चूंकि यह रूपकुण्ड यात्रा के लिये आदर्श मौसम होता है, तो वहां स्थानीय लोगों के साथ साथ दूसरे यात्रियों के तम्बू भी मिलेंगे। मेरा भरोसा दूसरे यात्रियों के मुकाबले स्थानीय लोगों पर ज्यादा था, जो कि आखिरकार सही निकला।
नौ बजे वान से निकल पडा। वान समुद्र तल से लगभग 2400 मीटर की ऊंचाई पर है। इन्दरसिंह के होटल से कुछ ऊपर गढवाल मण्डल विकाल निगम का रेस्ट हाउस है, जहां तक पक्की कंक्रीट की पगडण्डी बनी है। इस पगडण्डी पर कुछ दूर चलकर रेस्ट हाउस से पहले मैंने शॉर्ट कट ले लिया जिससे मैं रेस्ट हाउस तक चढने और फिर उतरने से बच गया। शॉर्ट कट पूरा होने पर जहां मुख्य पगडण्डी दोबारा मिलती है, वहीं एक जलधारा बह रही थी। मैं यहां आराम करने रुक गया। शुरूआत में चढाई करने पर अचानक ज्यादा थकान होती है, उसके बाद धीरे धीरे चढते हुए मजा आने लगता है।
तभी रेस्ट हाउस की तरफ से दो तीन खच्चर आये जो स्लीपिंग बैगों आदि से लदे थे। उनके पीछे खच्चर वाला आया तो उसने मुझे पहचान लिया कि यह वही इन्दरसिंह के होटल वाला एकान्तवासी यात्री है। उसका नाम देवेन्द्र (फोन: 09690265413) था। उसने बताया कि वे लोग जो कल खच्चर के लिये मोलभाव कर रहे थे, पीछे पीछे आ रहे हैं। और मेरा बैग लेकर कन्धे पर लटकाकर चला गया। मैं उसे इतना ही कह सका कि भाई, बैग में वजन ज्यादा नहीं है, मैं ले जाऊंगा। उसने अनसुना कर दिया। इस बात से मैं परेशान नहीं हुआ क्योंकि बैग मुझे ऊपर बेदिनी में मिल ही जायेगा। मेरे पास कैमरा और स्लीपिंग बैग ही रह गये।
कुछ देर में वे लोग भी आ गये। अब तक भी मुझे नहीं पता था कि ये आईएएस अधिकारी हैं। इनमें चार पांच लडकियां भी थीं। कुछ लोगों ने मुझसे हाय-हेलो भी कहा।
कुछ आगे जाकर देखा तो एक खच्चर ने अपने ऊपर लदा सारा सामान पटक दिया। गनीमत थी कि वो जगह ज्यादा ढलानदार नहीं थी, नहीं तो सारा सामान बहुत नीचे तक लुढक जाता। इस घटना के कुछ देर बाद देवेन्द्र ने मेरा बैग लौटा दिया कि अब खच्चरों पर ज्यादा ध्यान देना पडेगा, इनके पीछे ज्यादा भागदौड करनी पडेगी, इसलिये आप बैग वापस ले लो। मुझे इसमें कोई आपत्ति नहीं थी।
उस जगह का नाम याद नहीं है जहां से वान के बाद उतराई शुरू होती है। यहां से त्रिशूल पर्वत चोटी के पहले दर्शन होते हैं। त्रिशूल चोटी के नीचे ही रूपकुण्ड है जहां मेरा लक्ष्य है। यहां से नीचे उतरकर नीलगंगा के पुल तक पहुंचते हैं, जहां से पुल पार करके बडी कठिन चढाई शुरू होती है, जो बेदिनी जाकर ही समाप्त होती है। बेदिनी तक सारा रास्ता घने जंगल से होकर गुजरता है। हालांकि घने जंगल से गुजरते हुए मुझे डर लगता है लेकिन बडी सी पगडण्डी और उस पर आते जाते यात्री और स्थानीय निवासी और खच्चर इस डर को कम करने में बडे सहायक होते हैं।
अधिकारियों ने नीलगंगा का पुल मुझसे पहले ही पार कर लिया था। फिर भी मुझे यकीन था कि पुल के बाद जो चढाई आयेगी, उसमें मैं उन्हें आसानी से पकड लूंगा। लेकिन यह मेरा अन्दाजा ही रहा जो कदम दर कदम गलत सिद्ध होता गया। मैं उन्हें पकडना तो दूर, उनसे दूर होता चला गया।
3000 मीटर के लेवल तक भी नहीं पहुंचा कि मुझे उच्च पर्वतीय बीमारी का जबरदस्त आघात लगने लगा। मैं सोच रहा था कि कल लोहाजंग से पैदल वान के पास तक आया, दूसरी बात कि अभी 3000 मीटर तक भी नहीं पहुंचा, तो फिर क्यों ऐसा हो रहा है। पैरों ने चलने से बिल्कुल इन्कार कर दिया। किसी तरह इन्हें समझा-बुझाकर दस कदम चलता तो दस मिनट रुकना पडता।
मेरे साथ दो बन्दे और भी थे। उनकी हालत भी बिल्कुल मेरे जैसी हो रही थी। ये अधिकारियों के सहायक थे जो मसूरी से साथ आये थे। उनके पास मेरे मुकाबले काफी ज्यादा सामान था। वे हालांकि मसूरी के लेवल में ही चल रहे थे, फिर क्यों उन्हें ऐसा हो रहा था, मैं यही सोच रहा था। मानसिकता तीनों की एक जैसी थी, तो जल्दी ही दोस्ती भी हो गई। इन्होंने ही बताया कि आगे जो ग्रुप जा रहा है वे आईएएस अफसर हैं। किसी भी अफसर के पास पानी की बोतल और कैमरों से ज्यादा कुछ नहीं था, सबकुछ खच्चरों पर लदा था, तो वे तेजी से आगे निकल गये।
अच्छा था कि आज मुझे दस किलोमीटर ही चलना था। पिछले अनुभवों से पता भी था कि कल जब बेदिनी से आगे चलना शुरू करूंगा तो कुछ भी दिक्कत नहीं आयेगी, रातोंरात सबकुछ ठीक हो जायेगा। उच्च पर्वतीय बीमारी उच्च पर्वतों में जाकर ही होती है और ठीक भी उच्च पर्वतों में ही होती है। फिर भी अगर कल बेदिनी से निकलने के दो किलोमीटर के अन्दर ऐसा होता है तो मैंने सोच लिया कि कल बेदिनी में ही रुक जाऊंगा और एक्लीमेटाइजेशन करूंगा। बेदिनी बुग्याल की ढलानों पर घूमता रहूंगा और परसों रूपकुण्ड जाऊंगा। हालांकि बेदिनी पहुंचने के दो घण्टों के अन्दर मैं पूरी तरह ठीक हो चुका था और अगले दिन ही रूपकुण्ड गया।
बेदिनी से दो किलोमीटर पहले एक जगह आती है, नाम है गैरोली पाताल। यहां दो तीन झौंपडियां हैं और भेड चराने वाले भी। उन्होंने चाय बनाकर दी। आगे जाने वाले अफसरों ने पीछे आते दो सहायकों के पैसे दे दिये थे, उधर मैंने अपने पैसे दिये। यहां पता चला कि वे लोग बेदिनी पहुंच चुके होंगे।
डौलियाधार- जहां से जंगल खत्म हो जाता है और बेदिनी की सीमा शुरू हो जाती है। अब हम रूपकुण्ड तक जंगल को छोड देंगे, रास्ते में आगे कोई पेड नहीं मिलेगा। यहां से आगे दूर तक बेदिनी बुग्याल का विस्तार दिखाई देता है। लेकिन हमारे लिये वही मुसीबत थी कि अभी भी कुछ दूर तक चढना पडेगा। मुझे हर जगह बैठने में बडा आनन्द मिल रहा था। जो भी उच्च पर्वतीय बीमारी की चपेट में आ जाता है, उसे सबसे ज्यादा आनन्द बैठे रहने या लेटे रहने में ही मिलता है। यहां मुझ समेत तीनों आधे घण्टे से ज्यादा तक बैठे रहे।
जैसे जैसे मंजिल नजदीक आती जा रही थी, मैं बिल्कुल निचुडता जा रहा था। अब पैर दो कदमों से ज्यादा नहीं चल रहे थे। मैं बार बार उन्हें समझाता कि वो देखो, हम बेदिनी पहुंचने वाले हैं लेकिन बेचारे कहते कि हम शक्तिहीन हो गये हैं, इसलिये नहीं चलेंगे। दोनों लोग भी कभी के आगे निकल गये और आंखों से ओझल हो गये।
बेदिनी बुग्याल- भारत के विशाल बुग्यालों में से एक। बुग्याल कहते हैं गढवाल में वृक्ष रेखा से ऊपर घास के बडे बडे मैदानों को। ये अक्सर 3000 मीटर से ज्यादा ऊंचाई पर ही मिलते हैं। चोपता भी एक बुग्याल ही है।
यहां पूरी एक टैण्ट कालोनी है, काफी चहल पहल है। मैं दूर से इन्हें देखता हूं, सोच रहा हूं कि किस टैण्ट में जाऊं। तभी एक कोने में गन्दी सी झौंपडी दिखती है। वह स्थानीयों का ठिकाना है, वहीं चलता हूं।
इस झौंपडी में चूल्हा जल रहा है, दोनों सहायक भी यहीं बैठे चाय पी रहे हैं। मुझे देखते ही चाय के लिये कहते हैं। मैं भी चाय पीने लग जाता हूं। मुझे लग रहा है कि यह झौंपडी आईएएस वालों की रसोई है, लेकिन ऐसा नहीं है। यह एक ‘ढाबा’ है जहां पैसे देकर चाय और खाना मिल जाते हैं।
जैसे ही ढाबे वालों को पता चलता है कि मैं अकेला हूं, वे मुझसे पूछते हैं कि रहने का ठिकाना कहां है। मेरी जरुरत को देखते हुए वे खत्री साहब को बुलाते हैं। खत्री साहब जंगल विभाग के आदमी हैं और रूपकुण्ड जाने वालों से साठ साठ रुपये का टैक्स लेकर पर्ची देते हैं। साथ ही टैण्ट, स्लीपिंग बैग आदि भी रखते हैं। मुझे इस समय टैण्ट की जरुरत थी तो उन्होंने दो सौ रुपये प्रति रात्रि की दर से मुझे एक टैण्ट दे दिया। मुझे यहां दो रात रुकना है, इसलिये चार सौ रुपये दे दिये। साथ ही एक स्लीपिंग मैट यानी गद्दा भी ले लिया।
मुझे यहां जिस चीज की सर्वाधिक जरुरत है, वो मुझे मिल गई- टैण्ट और खाना। अब मैं बिल्कुल बेफिक्र हूं। राजा हूं राजा। इससे पहले मुझे उम्मीद थी कि कोई स्थानीयों की झौंपडी मिल जायेगी, जिसमें कई लोग पडे होंगे, देर रात तक बात करते रहेंगे, बीडी पीते रहेंगे, दारू भी पियेंगे। लेकिन अब मैं आजाद हूं। अपना मकान है मेरे पास।
वान से रेस्ट हाउस की तरफ जाती पगडण्डी। यही आगे चलकर बेदिनी की तरफ चली जाती है। |
वान से दिखता नजारा |
यही वो खच्चर है जिसने ‘कमिश्नरों’ का सामान एक गड्ढे में पटक दिया। |
पटके सामान को दोबारा लादा जा रहा है। |
यहां से त्रिशूल चोटी के पहले दर्शन होते हैं। बैकग्राउण्ड में एक चोटी दिख रही है, वही त्रिशूल है। उसी के नीचे रूपकुण्ड है। |
यह है नीलगंगा का इलाका। इसी में नीचे उतरकर पुल पार करना होता है। |
त्रिशूल |
नीलगंगा |
नीलगंगा के बाद जंगल के रास्ते चढाई शुरू होती है जो बेदिनी तक जारी रहती है। |
ये हैं ‘अफसरों’ के सहायक जो मेरी ही तरह पस्त हो गये थे। |
ताजा मेमना |
भेड वैसे तो पेडों पर नहीं चढ सकती लेकिन कभी कभार झुके पेडों पर जा चढती है। |
गैरोली पाताल- यहां चाय पी थी। |
जंगल खत्म और बुग्याल शुरू |
बेदिनी बुग्याल की कैम्प साइट- यहीं मुझे भी एक टैण्ट मिल गया था। |
रूपकुण्ड यात्रा
1. रूपकुण्ड यात्रा की शुरूआत
2. रूपकुण्ड यात्रा- दिल्ली से वान
3. रूपकुण्ड यात्रा- वान से बेदिनी बुग्याल
4. बेदिनी बुग्याल
5. रूपकुण्ड यात्रा- बेदिनी बुग्याल से भगुवाबासा
6. रूपकुण्ड- एक रहस्यमयी कुण्ड
7. रूपकुण्ड से आली बुग्याल
8. रूपकुण्ड यात्रा- आली से लोहाजंग
9. रूपकुण्ड का नक्शा और जानकारी
बहुत सुंदर भारत इतना सुंदर है कि कहीं और जाने कि जरुरत नहीं है. इतना अच्छा वर्णन करने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद
ReplyDeleteचलत मुसाफिर मोह लिओ रे दिल्ली वाले नीरज बाबु, लगे रहो बड़े भाई !
ReplyDeleteअहा, हर बार देखते हैं, और हर बार घूमने का मन करने लगता है।
ReplyDeleteJahan aapne chai pee thi , us jagah ka naam hai Gairoli Patal....wahan devi ka vishram sthal bhi hai jahan devi yatra ke dauran rukti hain....humne wahin par apni raat gujari thi....yahan se trishul ka bada hi sunder darshan hota hai....
ReplyDeleteनौटियाल साहब, आपका बहुत बहुत धन्यवाद।
Deleteगैरोली पाताल नाम लिख दिया गया है।
मन को भाती हुई यात्रा ...ठंडी -ठंडी हवा के झोके यहाँ मुंबई की गर्मी में भी मन को तरोताजा कर रहे है नीरज ...
ReplyDeleteनीरज भाई , तुम्हारे जज्बे को सलाम करता हूँ !तुम उन लोगो के सवालों का एक सटीक जबाब हो जो कहते है , हमें समय नहीं मिलता !
ReplyDeleteहाँ , आप जिस एम्प्लायर के यहाँ नौकरी करते है उन्हें भी मेरा सलाम कबूल फरमाईयेगा ! :)
DELHI METRO CORP.
Deleteहालत खराब होने के बावजूद आप चल पड़े. आपके हौसले को सलाम.ट्रेक मैं बहुत मजा आ रहा है. आगे के भाग का इन्तेज़ार
ReplyDeleteबहुत खूबसूरत यात्रा. टहनी पर भेड़ बहुर सुन्दर लग रही है.
ReplyDeleteबस सैल्यूट ही ठोंक सकते हैं आपको
ReplyDeleteप्रणाम
kayi Dino se soch raha tha ki ye "BUGYAAL" kis chidiya ka naam hai,
ReplyDeleteKayi "Pahari Mitro" se pucha jawab mila ye "EK CAST" hoti hai.
Neeraj ji aaj aapne concept clear kar diya. Thank You
बेहतरीन प्रस्तुति, नीरज भाई और फोटोज भी लाजवाब हैं. अपनी तो ये यात्रा इस साल होते होते रह गयी....चलो फिर कभी सही...आपकी ये यात्रा मार्गदर्शक के रूप में काम आयेगी...आगे के लेख का बेसब्री से इंतज़ार...
ReplyDeleteयही वो खच्चर है जिसने ‘कमिश्नरों’ का सामान एक गड्ढे में पटक दिया।
ReplyDeleteबेचारा खच्चर ऐसे खड़ा है, जैसे कोई बड़ा अपराध कर दिया है !!
Hhahahaha,
DeleteAflsaron se gustaakhi karna koi chhota apraadh hota hai kya.....
लोगों से सुना था कि बहुत कठिन यात्रा है,खुद जाने पर पता लगा कि लोग कितना सच बोल रहे थे?
ReplyDeleteबहुत बढ़िया विवरण व चित्र... लगता है सरकार ने रास्ता ठीक बना दिया क्योकि राजजात्रा की जो सीडी मैने देखी थी उसमे तो बेदिनी तक ही रास्ता बहुत खराब था... अब तो पक्की पगडंडी नजर आ रही है.
ReplyDeleteरुपकुँड की यात्रा, होमकुण्ड के बिना अधूरी है.. होम-कुण्ड से फिर वान आये बिना नंदप्रयाग पंहुचते है.. ये सीडी मे था....पता नही आप गये या नही
अगली कड़ी की इंतजार में
आखिरी चित्र बेदिनी बुग्याल का... अनुपम है
ReplyDeleteneeraj bhai Ram Ram good visit good photography, kash main bhi aap k sath hota- Roshan Kalyan
ReplyDeleteबेदिनी बुग्याल, सचमुच स्वर्ग....इतनी हिम्मत इतनी मेहनत आप ही कर सकते हो नीरज जी....
ReplyDeleteThe last pic is Paradise on earth > BEDINI BUGYAL>>>
ReplyDeleteNEERAJ JI > u have captured the entire trip in minute detail..
LAJAWAAB YAAR NEERAJ SETH.