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आली बुग्याल के बिल्कुल आखिरी सिरे पर है वो छोटा सा पानी का कुण्ड, मुझे बताया गया गया था कि वहां से नीचे उतरने का रास्ता मिलेगा। मैं कुण्ड के पास पहुंचा तो नीचे उतरने का रास्ता दिख गया। लेकिन मैं मुश्किल में पड गया कि रास्ता यही है या अभी कुछ और सीधे चलते जाना है। यहां से दाहिने की तरफ भी रास्ता होने का भ्रम था और सीधे भी।
मुझे पता था कि आगे दीदना गांव तक भयानक जंगल मिलने वाला है। बेदिनी में ही मैंने इसकी पुष्टि कर ली थी। जंगल में अकेले चलते हुए मुझे डर लगता है।
कुछ देर के लिये मैं कुण्ड के पास ही बैठ गया। एक आदमी आता दिखाई पडा। वो महिपत दानू (फोन- 09411528682, 09837439533) था, जो दीदना का रहने वाला है और लोहाजंग में उसकी दुकान भी है। उसने बताया कि दाहिने वाला रास्ता शॉर्टकट है, जो बहुत ढलान वाला है जबकि सीधा जाने वाला रास्ता खच्चरों वाला है। मैंने पूछा कि तुम किस रास्ते से जाओगे, तो बोला कि खच्चरों वाले रास्ते से क्योंकि मुझे इधर आये हुए बहुत दिन हो गये हैं, सुना है कि खच्चरों वाला रास्ता पक्का बन रहा है। देखूंगा कि कितना पक्का बन गया है। और हम शॉर्टकट रास्ते को छोडकर सीधे चल पडे।
जल्दी ही जंगल शुरू हो गया। लेकिन एक तो महिपत के साथ होने से और दूसरे आवाजाही होने से उतना डर नहीं लगा। पूरे रास्ते भर रूपकुण्ड जाने वाले कई ग्रुप मिले।
कुछ देर बाद तोलपानी पहुंच गये। तोलपानी दीदना से पहले दो तीन झौंपडियों वाली जगह है, जहां टैंट लगाने और झौंपडियों में रुकने की सुविधा है। चारों ओर जंगल से घिरी खूबसूरत जगह है तोलपानी- समुद्र तल से 2872 मीटर की ऊंचाई पर।
तोलपानी से कुछ नीचे उतरकर दीदना गांव के ऊपर एक खुली समतल जमीन है जिसे दीदना कैम्पिंग ग्राउण्ड कहा जाता है। दीदना में रात्रि विश्राम करने वाले ज्यादातर ग्रुप यही अपने तम्बू लगाते हैं।
दीदना- समुद्र तल से 2400 मीटर की ऊंचाई पर एक गांव। इसके सामने नीलगंगा के दूसरी तरफ कुलिंग है जहां मुझे जाना है। महिपत चूंकि दीदना का ही रहने वाला था इसलिये अपने घर ले गया। उसने घर को होम स्टे बना रखा है, जहां रूपकुण्ड या बेदिनी जाने वाले लोग रुक सकते हैं और खाना आदि भी खा सकते हैं। जाते ही मुझे चाय मिली जिसके पैसे लेने से उसने इंकार कर दिया। उसने यहीं रुक जाने को भी कहा लेकिन कल सुबह सवेरे लोहाजंग से बस पकडनी जरूरी बताकर मैं चल पडा। चलने से पहले महिपत ने नीचे नीलगंगा तक उतरने और फिर कुलिंग तक चढने का रास्ता समझा दिया।
लोहाजंग से बेदिनी बुग्याल जाने के दो रास्ते हैं- एक वान होकर और दूसरा दीदना होकर। मैं वान के रास्ते गया था जबकि दीदना के रास्ते लौट रहा हूं। ज्यादातर लोग वान वाले रास्ते का इस्तेमाल करते हैं। इसके दो कारण हैं- एक तो वान तक मोटर चलने योग्य रास्ता बना है, दूसरे वान (2460 मीटर) से बेदिनी बुग्याल (3470 मीटर) की चढाई अपेक्षाकृत कम है। इधर दीदना वाले रास्ते में ज्यादा चढाई चढनी पडती है। वान के रास्ते जहां नीलगंगा का पुल 2550 मीटर पर है वहीं दीदना के रास्ते 1950 मीटर पर। यानी अगर दीदना के रास्ते जाते हैं तो 1950 मीटर से सीधे 3450 मीटर पर जा चढना होता है। आली बुग्याल लगभग 3450 मीटर पर है। बडी भयंकर चढाई है यह। अच्छा हुआ कि मैं बच गया इससे।
नीलगंगा के पुल के पास मैं पेट की सफाई करने झाडियों में घुस गया। जब मामला निपटाकर बाहर निकल रहा था तो सामने जो दृश्य दिखाई पडा, मैं पहली नजर में डर गया। सुनसान इलाके में झाडियों के बीच में मैं खडा था, बराबर में नीलगंगा शोर मचाती हुई बह रही थी और सामने दिखाई दिया तकरीबन 500 मीटर की ऊंचाई से गिरता झरना। नदी के शोर के बीच इस झरने का शोर नहीं सुनाई पड रहा था, हालांकि यह पुल से करीब 100 मीटर दूर ही था।
मुझे पहाडी नाला पार करते हुए भी डर लगता है। अगर साथ एक डण्डा हो तो मैं आसानी से निकल जाता हूं। आज डण्डा नहीं था और एक नाला पार करना पड गया। यह काफी चौडा था और बीच में खडे होने लायक एक छोटा सा सुरक्षित टापू भी था। किसी तरह टापू तक पहुंच गया। दो कदम और बढाने थे पार करने के लिये लेकिन हिम्मत नहीं जुटा पाया। जैसे ही पानी से एक इंच बाहर निकले छोटे से पत्थर पर कूदने लगता, तभी पूरा शरीर कांप उठता। इस एक कूद से ही काम नहीं चलता, बल्कि इस पर बिना रुके तुरन्त ही दूसरी कूद लगानी पडती, फिर तीसरी, तब जाकर बाहर निकलता। एक बार सोचा कि बैग दूसरी तरफ फेंक दूं, मैं कुछ हल्का हो जाऊंगा लेकिन इससे बैग के भी ढलान पर लुढक जाने का डर था। आखिरकार जब काम सफलतापूर्वक पूरा हो गया, तो सदमे से निकलने के लिये पन्द्रह मिनट तक बैठना पडा।
कुलिंग पहुंचकर मैं वही उसी सडक पर पहुंच गया जहां से कुछ दिन पहले वान जाते हुए गुजरा था। शाम चार बजे तक लोहाजंग जा पहुंचा। हालांकि देवाल जाने वाली जीप खडी थी, लेकिन आज तसल्ली से सोने के लिये लोहाजंग में ही रुक जाना बेहतर समझा। फिर सुबह पांच बजे सीधे ऋषिकेश वाली बस भी लोहाजंग से ही चलती है।
रूपकुण्ड जाते समय लोहाजंग में हरिसिंह बिष्ट के यहां खाना खाया था। बिष्ट साहब ने नेहरू पर्वतारोहण संस्थान उत्तरकाशी से पर्वतारोहण का एडवांस कोर्स कर रखा है। मुझे दूर से देखकर ही पहचान गये। बोले कि बताओ कैसा कमरा चाहिये- सौ रुपये वाला या पचास रुपये वाला। मैंने कहा कि बिष्ट साहब, लूंगा तो मैं पचास वाला ही लेकिन पहले सांस लेने दो, आज सुबह आठ बजे बेदिनी से चला था, दीदना के रास्ते आया हूं।
खाना खाकर एक डोरमेटरी में पचास रुपये का बिस्तर मिल गया। सुबह पांच बजे ऋषिकेश वाली बस पकडनी है।
रात को खाना खाते समय पता चला कि सुबह ऋषिकेश वाली बस नहीं जायेगी, बल्कि वो बस डाक गाडी बनकर गोपेश्वर जायेगी, वो भी साढे सात बजे। यानी बारह एक बजे कर्णप्रयाग पहुंचेगी। इसका हल यह निकला कि साढे पांच बजे ऋषिकेश जाने वाली जीप पकडी जाये।
इस जीप ने मुझ समेत सभी सवारियों को देवाल उतार दिया। देवाल में उसे कुछ काम था या कुछ और मामला, मैं दूसरी जीप में बैठकर कर्णप्रयाग पहुंच गया। कर्णप्रयाग से दिल्ली आना कौन सा बडी बात है!
आली बुग्याल के पास वाले कुण्ड से दिखता लोहाजंग गांव। यहां से स्पष्ट दिख रहा है कि यह एक दर्रा है। |
दीदना, कुलिंग और इनके बीच गहरी घाटी में बहती नीलगंगा नदी। कुलिंग से होकर लोहागंज-वान रोड (2) भी दिख रही है। इसके अलावा नीलगंगा पुल से कुलिंग की सीधी चढती पगडण्डी (1) भी दिखाई दे रही है। |
आली से दीदना का रास्ता |
तोलपानी |
तोलपानी |
दीदना कैम्पिंग ग्राउण्ड |
दीदना कैम्पिंग ग्राउण्ड |
नदी के उस तरफ कुलिंग की तरफ जाती पगडण्डी |
यही वो झरना है, जिसे पहली बार देखकर मैं डर गया था। |
नीलगंगा |
नीलगंगा का पुल |
कुलिंग में लगा सोचना पट्ट |
कुलिंग गांव |
अगला भाग: रूपकुण्ड का नक्शा और जानकारी
रूपकुण्ड यात्रा
1. रूपकुण्ड यात्रा की शुरूआत
2. रूपकुण्ड यात्रा- दिल्ली से वान
3. रूपकुण्ड यात्रा- वान से बेदिनी बुग्याल
4. बेदिनी बुग्याल
5. रूपकुण्ड यात्रा- बेदिनी बुग्याल से भगुवाबासा
6. रूपकुण्ड- एक रहस्यमयी कुण्ड
7. रूपकुण्ड से आली बुग्याल
8. रूपकुण्ड यात्रा- आली से लोहाजंग
9. रूपकुण्ड का नक्शा और जानकारी
बढ़िया यात्रा ........ शुभकामनाएं
ReplyDeleteशुभकामनाएं
ReplyDeleteबहुत अच्छी, रोमांचक यात्रा रही है आपकी नीरज भाई, लगे रहो किंग ऑफ घुमक्कड....
ReplyDeleteaapko itni chhutian kaise milti hain?
ReplyDeleteसुन्दर यात्रा वृतांत फोटो भी बढ़िया है ....
ReplyDeleteघूमते रहिए ..
ReplyDeleteशुभकामनाएं
आज की शाम हमने आपके नाम कर दी.
ReplyDeleteसारी पोस्ट्स आज ही पढ़ी और आनंद लिया .
बहुत बढ़िया यात्रा वर्णन किया है. आपकी रूपकुंड यात्रा पर एक पुस्तक लिखी जा सकती है.
ReplyDeleteबहुत खूबसूरत फोटोग्राफ्स लिए हैं . विशेषकर त्रिशूल की चोटी के और जंगली फूलों के फोटो लाज़वाब हैं. पहाड़ों की वादियाँ भी अत्यंत सुन्दर लगी .
ReplyDeleteफोटोज में मध्य में नाम लिखा हुआ थोडा अखर रहा है . इसे एक कोने में होना चाहिए.
इन दुर्गम स्थानों पर अकेले जाना समझदारी नहीं है. वैसे भी साथ में साथी हों तो , मज़ा और भी आता है. समूह में चलना सुरक्षित भी रहता है. हालाँकि दूसरे लोग मिल जाते हैं . ऐसे में उन्ही से दोस्ती कर लेनी चाहिए. लेकिन बेशक आई ऐ एस लोग खुद ही अपनी अकड़ में रहते हैं . उनसे दोस्ती करना ज़रा मुश्किल ही होता है.
ReplyDeleteकुछ टिप्पणियां शायद स्पैम में चली गई हैं .
ReplyDeleteआपने एक और यात्रा को सफलतापूर्वक पूरा किया: बधाई। अपने स्वास्थ्य पर और ध्यान दें, इस तरह सफ़र में जहां इतनी एनर्जी खर्च होती है अक्सर ही खाना अच्छा नहीं मिलता आप को एनर्जी के साथ पौष्टिकता भी चाहिए, आप शाकाहारी हैं तो क्या साथ में सूखे मेवों का मिक्स या ग्रेनोला रखते हैं, साथ ही कोई इलेक्ट्रोलाइट भी रखें। धन्यवाद्
ReplyDeleteजैसा की ऊपर कहा गया वाकई इन दुर्गम स्थानों पर अकेले यात्रा करना सच में ठीक नहीं, आपके पास कैमरा और मोबाइल होते है जो किसी को ललचा सकते हैं। न सिर्फ दुसरे इंसान बल्कि कुदरत भी यहाँ पर परीक्षा लेती मालूम होती है। वैसे तो हमेशा ऊपर वाले का सहारा है ही, साथी हो तो सहारा रहता है।
ReplyDeleteनीरज भाई, कभी कभी लगता है की हम आपकी बनाई हुई दुनिया में रहते है आप जैसे चाहे घुमाते रहते है ! धन्यवाद !
ReplyDeleteNieeraj bhai, aapke yatra vritant ghumakkar me pade the. Tebhi se yatra vritant padne ka shok shuru ho gaya.Jab kafi din se aapke vritnat venha nehi mile to, aapke blog me pahunch gaya. Ek hi sans me aapki rup kund ki yatra pad dali. Bada achaa likha hai apne.
ReplyDeleteएक रोचक यात्रा..
ReplyDeleteसही कहा डॉ साहेब ने अकेले रहने से किसी का साथ बहुत जरुरी है ....कीमती सामन के साथ किसी की भी नियत ख़राब हो सकती है ..इसलिए जान और माल का ध्यान रखना चाहिए ...आज एक ही दिन में एक साथ पूरा पढने में वाकई बहुत ही मज़ा आया .......ऐसी खतरनाक जगह पर सिर्फ नीरज ही घुमा सकता है ...चित्र तो अद्भुत है ...कुछ फूल मेनें हेमकुंड यात्रा में देखे है
ReplyDeleteJATRAM आपका ये ब्लॉग पढ़ें के बाद आनन्द आ गया.आप इसे खूबसूरती से लिखा है
ReplyDeleteप्रणाम नीरज जी!!! आज इस शृंखला को फिर से पढा!!!! अवाक् हूँ!
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