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रूपकुण्ड- एक रहस्यमयी कुण्ड

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भगुवाबासा समुद्र तल से लगभग 4250 मीटर की ऊंचाई पर है जबकि इससे चार किलोमीटर आगे रूपकुण्ड 4800 मीटर पर। अगर चढाई का यही अनुपात 2000 मीटर की रेंज में होता तो समीकरण कुछ आसान होते।
अफसरों का पूरा दल मुझसे करीब डेढ किलोमीटर आगे था। सभी लोग दिख भी रहे थे लेकिन चींटियों जैसे। आखिरी एक किलोमीटर की चढाई भी दिख रही थी, जिसे देख-देखकर मैं परेशान हुआ जा रहा था। कम ऑक्सीजन के कारण मन भी नहीं था चलने का।
हालत अफसरों की भी ज्यादा अच्छी नहीं थी। जब वो आखिरी चढाई शुरू होने को आई, तब मैं उनके पास पहुंच गया। उनमें भी जो ज्यादा तन्दुरुस्त थे, वे ऊपर चढे हुए दिख रहे थे और नीचे वालों को चिल्ला-चिल्लाकर रास्ता बता रहे थे। जो मेरे जैसे थे, कमजोर मरियल से, वे सबसे पीछे थे। यहां चट्टान भी खत्म हो गई थी। था तो केवल चट्टानों का चूरा, जो हमारे सिर के लगभग ऊपर की चट्टानों से टूट-टूटकर गिरता रहता था।
जब मैं उनके सबसे पीछे वाले दल से आगे निकलने लगा तो उन्होंने मुझसे कहा कि यार, तुम तो थके ही नहीं हो, इधर हमारी ऐसी तैसी हुई पडी है। मैंने कहा कि नहीं, ऐसा नहीं है। मुझे तुम बे-थके लग रहे हो और ऐसी तैसे मेरी हुई पडी है।
नीचे गाइड देवेन्द्र ने बताया था कि अप्रैल- मई में यहां एक बंगाली ट्रैकर की मौत हो गई थी। यहां बर्फ ही बर्फ थी उस समय और वो फिसल गया था। यही आखिरी हिस्सा इस यात्रा का सबसे खतरनाक हिस्सा है। हालांकि आज यहां दूर दूर तक बर्फ का नामोनिशान नहीं है लेकिन जब यहां बर्फ होती है, तो कैसे पार करते हैं लोग-बाग इसे। चढ तो मैं जाऊंगा इस पर लेकिन जब नीचे उतरूंगा, तब बुरी फजीहत होगी क्योंकि मेरे पास आज कोई लठ भी नहीं है। चट्टानों का चूरा है, जो पैर रखते ही फिसल जाता है।
और आखिरकार मैं उस समतल जगह पर पहुंच जाता हूं जहां एक छोटा सा मन्दिर भी बना है। पूरी रूपकुण्ड यात्रा में एक चढाई चढने के बाद जहां भी समतल जगह आती है, वहीं मन्दिर है, तो यहां भी है। इसके दूसरी तरफ एक अपेक्षाकृत छोटी चढाई और दिख रही है, जिसके उस तरफ शायद रूपकुण्ड है। यही बराबर में ही एक बडा सा गड्ढा भी है जिसमें चट्टानों के टुकडे बिखरे पडे हैं। यहीं मन्दिर के चबूतरे पर सभी लोग बैठे हैं, गाइड देवेन्द्र भी है। थोडा आगे ताजी बर्फ है जहां इन्हीं में से कुछ लोग मस्ती कर रहे हैं, फोटो खींच रहे हैं। ये लोग शायद नीचे से आने वाले अपने आखिरी ‘जत्थे’ का इंतजार कर रहे हैं।
मैं बिल्कुल पस्त हो गया हूं। उस सामने दिख रही कथित आखिरी चढाई को चढने की हिम्मत नहीं रही मुझमें। चुसे आम जैसी हालत है मेरी, पूरी तरह पिचका हुआ। मैं भी मन्दिर के चबूतरे पर बैठ जाता हूं और घुटनों पर सिर रख लेता हूं। कुछ तो पहले से ही सांस तेज चल रही है, कुछ मैं और भी तेज कर देता हूं ताकि ज्यादा हवा फेफडों तक पहुंचाई जा सके।
पन्द्रह मिनट बाद देवेन्द्र से पूछता हूं कि भाई, रूपकुण्ड अभी कितना आगे है। सुनाई देता है कि यही तो रूपकुण्ड है।
मतिभ्रम हो गया है। कम हवा के कारण ऐसा हो जाता है कि मस्तिष्क काम करना कम कर दे। यहां कहां से रूपकुण्ड आ गया, पानी का नामोनिशान नहीं है दूर दूर तक। मुझे क्यों सुनाई दिया कि यही रूपकुण्ड है? दोबारा पूछ लेता हूं।
यही तो रूपकुण्ड है।
यहां कहां है रूपकुण्ड? वो चट्टानी दीवार रूपकुण्ड है या यह गड्ढा रूपकुण्ड है?
यह गड्ढा नहीं है, यह रूपकुण्ड है।
यकीन नहीं हो रहा है कि यह छोटा सा गड्ढा रूपकुण्ड है, जिसमें पानी भी नहीं है। यार, क्यों मजाक कर रहे हो? सही सही क्यों नहीं बताते। अच्छा, तो बताओ कि हड्डियां कहां हैं?
वो देखो, सामने।
सामने दो कपाल रखे हैं। कुछ और भी टूटी हुई हड्डियां रखी हैं। जिसे मैं अभी आखिरी चढाई कह रहा था, वो जूनारगली दर्रा है जहां से होकर होमकुण्ड जाया जाता है।
मैं भाव विभोर हो गया कि आज रूपकुण्ड पर हूं। मोबाइल में इस जगह की ऊंचाई देखी- 4782 मीटर। यानी लगभग 4800 मीटर।
जैसे ही अधिकारियों का आखिरी दल आया, पहले आये हुए दल जाने लगे। जल्दी ही सभी लोग चले जायेंगे यहां से, मैं कुछ देर यहां अकेला रहूंगा। अभी मेरे चारों तरफ बीस से ज्यादा जीवित व्यक्ति हैं, कुछ देर में ये सब चले जायेंगे, तो यहां मेरे साथ केवल मरे हुए व्यक्तियों के कंकाल रह जायेंगे।
एक बज चुका है। हमेशा की तरह मौसम खराब हो गया है। यहां आने से पहले जूनारगली तक जाने की इच्छा थी लेकिन अब बिल्कुल भी नहीं है। यहां से जूनारगली का रास्ता तो और भी खतरनाक दिख रहा है। विशेषज्ञ लोग सलाह देते हैं कि जूनारगली जाने के लिये रस्सी का इस्तेमाल करना चाहिये, हालांकि ज्यादातर लोग रस्सी इस्तेमाल नहीं करते।
देवेन्द्र सभी से कह रहा है कि मन्दिर में सभी लोग अपनी अपनी श्रद्धा अनुसार कुछ भेंट रखो। सौ सौ के कई नोट मुझे यहां रखे दिख भी रहे हैं। मैंने नहीं रखे। बाद में चलते समय सारी राशि देवेन्द्र ने उठा ली।
सभी लोग नीचे जाने लगे हैं। मैं इस समय रूपकुण्ड के तल में हूं जो मन्दिर से ज्यादा नीचे नहीं है। यहां बेहिसाब टूटी फूटी हड्डियां बिखरी पडी हैं। हालांकि कपाल दो ही दिखे, लेकिन बाकी हड्डियों की कोई कमी नहीं है। दोनों कपाल ऊपर मन्दिर के सामने कुछ और हड्डियों के साथ छोटे से चबूतरे पर रखे हैं।
देवेन्द्र ने मुझे आवाज लगाई कि आ जाओ, सभी लोग चले गये हैं। मैंने कहा कि तुम भी जाओ, मैं पन्द्रह मिनट में आ रहा हूं। वो भी चला गया। मैं इस रहस्यमयी कुण्ड के किनारे अकेला हूं।
देवेन्द्र के जाते ही एक अजीब सा डर लगने लगा। यहां प्रतिध्वनियां गूंजती हैं यानी आप जोर से कुछ बोलो, आपको वही आवाज दोबारा सुनाई पडेगी। इसका कारण कुण्ड के दो तरफ बिल्कुल सीधे खडे चट्टानी पहाड हैं। उनसे टकराकर आपकी आवाज शीघ्र ही आपके पास लौट आती है।
यह कुण्ड एक झील कम बल्कि कुआं ज्यादा लगता है। एक बडा चौडा कुआं। इसमें पानी आने का एकमात्र साधन बारिश या बर्फबारी ही है। चूंकि मानसून जा चुका है, इसलिये सारा पानी सूख गया।
एक भयानक सन्नाटा है यहां। मैं जल्दी ही बेचैन हो गया और कुण्ड के तल से निकलकर ऊपर मन्दिर के पास पहुंचा। चारों तरफ बादल थे और नीचे जाते हुए लोग नहीं दिख रहे थे। सन्नाटा इस कदर था कि सिर फटने जैसे हालात हो गये। सन्नाटे की भी आवाज होती है। यहां वो आवाज इतनी जोर की आ रही थी कि लग रहा था कि कोई कान में घुसकर जोर से सीटी बजा रहा है। दस मिनट ध्यान करने की इच्छा थी लेकिन इस आवाज ने मुझे बुरी तरह विचलित कर रखा था। यह किसी भूत-प्रेत या चुडैल की आवाज नहीं थी कि मुझे डरने की जरुरत पडती। डर तो नहीं लग रहा था लेकिन सन्नाटे के शोर से सिर में दर्द हो गया था।
जैसे ही नीचे उतरना शुरू किया, रूपकुण्ड के क्षेत्र से बाहर आया तो सबकुछ ठीक हो गया। हालांकि बाद में मैंने कालू विनायक पर भी बैठकर ध्यान लगाया तो एक सुरीली सीटी जैसी मन्द मन्द आवाज सुनाई देती रही, रूपकुण्ड जैसी आवाज नहीं आई।
...
अब मैं बेदिनी बुग्याल में अपने टैण्ट में हूं। सुबह पांच बजे यहां से चला था और शाम सात बजे वापस आया। अन्धेरे में चला था, अन्धेरे में ही वापस लौटा। रूपकुण्ड के बारे में सोच रहा हूं। चिल्लाने, नाचने-कूदने का मन कर रहा है कि मैंने रूपकुण्ड देख लिया, रूपकुण्ड की यात्रा कर ली। यहां आने से पहले क्या-क्या सोचता था इसके बारे में। स्थानीय लोगों के बारे में सोच रहा हूं कि कितना सहयोग कर रहे हैं वे।
हर यात्राएं बडी उपलब्धि होती हैं। यह भी मेरे लिये एक बडी उपलब्धि थी। अब तो सोच रहा हूं कि
“एक पत्थर तो तबियत से उछालो यारों, आसमान में छेद हो या ना हो, लेकिन वो छत तो टूट ही जायेगी जिसके नीचे हम कैदी की तरह रहते हैं।“







यह रास्ता गूगल मैप में भी दिखता है।

यहां से आखिरी खतरनाक हिस्से की चढाई शुरू होती है।



आखिरकार चढाई खत्म।


यही रूपकुण्ड है, इसमें पानी नहीं है।

पूरे कुण्ड में चारों ओर इंसानी हड्डियों के टुकडे बिखरे पडे हैं।





जूनारगली दर्रा पार करके दूसरी तरफ होमकुण्ड जाया जाता है। नन्दा देवी राजजात यात्रा होमकुण्ड पर ही समाप्त होती है।



रूपकुण्ड बाबा का प्रसाद









अगला भाग: रूपकुण्ड से आली बुग्याल

रूपकुण्ड यात्रा
1. रूपकुण्ड यात्रा की शुरूआत
2. रूपकुण्ड यात्रा- दिल्ली से वान
3. रूपकुण्ड यात्रा- वान से बेदिनी बुग्याल
4. बेदिनी बुग्याल
5. रूपकुण्ड यात्रा- बेदिनी बुग्याल से भगुवाबासा
6. रूपकुण्ड- एक रहस्यमयी कुण्ड
7. रूपकुण्ड से आली बुग्याल
8. रूपकुण्ड यात्रा- आली से लोहाजंग
9. रूपकुण्ड का नक्शा और जानकारी

Comments

  1. इस जगह सालभर में कई हजार लोग यात्रा पर जाते है। बीच-बीच में दो-दो किमी के दो-तीन टुकडों ही थोडे खडी चढाई वाले है, इसके मुकाबले श्रीखण्ड यात्रा ज्यादा कठिन दिखाई दी है। इस यात्रा में पगडंडियाँ ज्यादातर हिस्से में बनी हुई है। इसी से अंदाजा लगा लो कि भगुवासा तक सामान लेकर घोडे पहुँच जाते है, जो यह दर्शाता है कि यह ज्यादा कठिन पद यात्रा नहीं है।

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  2. रुपकुंड देखने तमन्ना बरसों की है, अब तुम्हारे माध्यम से देख ली......... बढ़िया यात्रा

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  3. केवल एक श्रीखंड की आधी-अधूरी यात्रा से ही मेरी तो टें बोल गई :)
    वास्तव में घुमक्कडी सबके बस की बात नहीं

    प्रणाम

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  4. बधाई हो भाई मेरे जानकारों में पहले व्यक्ति हो जो रूपकुण्ड पंहुचे.. बिना जल का कुण्ड ..??कलयुग आ गया जो रूपकुँड सूख गया वरना इसमे हर मौसम में भरपूर जल रहता है... होमकुंड चले जाते तो सबका रिकार्ड टूट जाता.. चलो अगली बार

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    1. साइलेण्ट साहब, रिकार्ड तोडने वाले लोग अलग ही मिट्टी के बने होते हैं। मैं कहां रिकार्ड- विकार्ड...
      रूपकुण्ड देख लिया, यही मेरे लिये एक उपलब्धि है। किसी दिन मन करेगा तो होमकुण्ड भी चला जाऊंगा। वहां जाना रूपकुण्ड के मुकाबले कुछ आसान भी है, घाट के रास्ते।

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  5. वाह भई ! गजब और अदभुत वर्णन ....सच पूछो तो पढ़ते समय मैं भी रोमांचित हो उठा...बहुत अच्छा लगा...| रूपकुंड की यात्रा पूर्ण करने पर आप को बहुत-बहुत बधाई...|
    सही किसी काम को करने की ठान लो वो जरुर पूरा होता हैं.....कोशिश करने वालो की कभी हार नहीं होती ...|
    रूपकुंड के अदभुत चित्रों को देखकर वहाँ की रहस्यमयी छवि मस्तिष्क पटल पर अंकित हो गयी....|

    चलो होमकुंड फिर कभी .....यह उपलब्धि भी बहुत महान हैं....

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  6. वाह, बधाई हो! अभिनन्दन!

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  7. aap jaipur se churu jayenge to jaipur-sikar-churu passenger se jaayenge kya

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  8. बधाई हो bahut sundar vivran

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  9. भाई ! होमकुंड ज़रूर जाना चाहिए था ! एक जगह जाने के बाद दुबारा जाना बहुत मुश्किल है, आदमी सोचता है कि वहाँ तो मै गया हूँ,कहीं और चला जाय! मुझे भी मासर ताल से केदारनाथ न जाकर वापस लौट आने का बहुत अफसोस है !

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    1. डोभाल साहब, होमकुण्ड ना जाने का मुझे कोई मलाल नहीं है। उनसे पूछो जो बेदिनी बुग्याल तक जाते हैं, आनन्द लेते हैं और बिना रूपकुण्ड देखे वापस आ जाते है। रूपकुण्ड से आगे होमकुण्ड, उससे आगे वो, उससे आगे वो.... यह तो हमेशा चलता रहता है।

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  10. ADBHUT...............NEERAJ BHAI........AVISMARNIYA.........

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  11. नीरज बाबु, चलो एक और मिल का पत्थर खड़ा हो गया ! बधाई हो, रूपकुंड के आगे भी जहान होगी वहां की भी तैयारी शुरू कर दो !

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  12. आज के चित्र देखकर हिल गये..एक पैर फिसला और न जाने कहाँ पहुँचे..

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  13. BHAUT KHUB BHAI MERE KO TO PHOTO DEK KAR HE DAR LAG RAHA HAI OR APP TO UN KE PAAS JA KAR DEK AAYE APP KI HIMMAT KE SAMNE TO HUM KUCH BI NAHI NEERAJ BHAI

    PHOTO BHAUT SAANDAR HAI LAGE RAHO BHAI

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  14. रूपकुंड याने यमराज की गली या घर...सचमुच जी को थर्रा देने वाला दृश्य हैं....नीरज जी अब तो बस सतोपंथ की यात्रा कर ही आओ...

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  15. नीरज भाई आपको तो खैर मालूम ही होगा और शायद मेरे से ज्यादा होगा रूपकुंड के बारे में लेकिन अन्य आपके ब्लॉग के पाठकों की जानकारी के लिए लिखना चाहूँगा कि जो अभी तक का श्रेष्ठ तथ्य रूपकुंड में पाए जाने वाले कंकालों के बारे में सामने आया है, उसके अनुसार दसवी सदी के आसपास कन्नौज( इलाहाबाद के पास ) के राजा के भाई सोमचंद ने जोशीमठ स्थित कत्यूरी राज्य को जीतकर वहाँ (कुमाऊँ और गढ़वाल में ) अपना राज्य स्थापित किया ! उसवक्त भी माँ नंदा देवी की राजजात यात्रा बड़े धूमधाम से निकलती थी जो कि रूपकुंड के समीप आकर ही ख़त्म होती है ! सोमचंद ने इस यात्रा के लिए कन्नौज से अपने भाई और वहा के राजा को इस यात्रा में आने का निमंत्रण दिया था ! वह राजा जब अपने लाव लश्कर के साथ इस यात्रा में भाग ले रहे थे तो बर्फीले तूफ़ान में दबकर वे और उनका लाव लश्कर दफ़न हो गए और माना जाता है कि ये कंकाल उन्ही के है !

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    1. नहीं गोदियाल साहब, मुझे यह सब मालूम नहीं था। इतना तो पता है कि कोई गये थे, विपत्ति आ गई और वे मर गये लेकिन कौन गये थे, यह नहीं पता था। खैर, आपने स्पष्ट कर दिया।
      लेकिन फिर भी ये माना जाता है कि कंकाल उन्हीं के हैं, पक्के तौर पर कोई कुछ नहीं कह सकता।

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  16. Adbhut, Akalpaniy, Atulya..................

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  17. अफसर लोग वहाँ क्या करने गए थे नीरज ...घुमने सरकारी पैसे से या कोई और रीजन था ....ओ माय गॉड ..इतने खतरनाक जगह पर तुम गए क्यों ? सुनकर हक्का -बक्का हु की तुम इतनी खतरनाक जगह पर जाकर वापस आ भी गए और तुम्हारा कुछ नहीं बिगड़ा ...हे प्रभु .मेरे घर में बैठा था कभी यह नन्हा सा लड़का (नीरज ) इसको समझाओ की ऐसी खतरनाक जगहों पर जाना छोड़ दे ....इसकी हिम्मत की दाद देती हूँ ...

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  18. Yaha tak kab jayenge, aapne darshan kara diye yahi bahut hai

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  19. भाई आपको आपके वैबसाइट के बारे मे एक सुझाओ देना चाहता हूँ I कि आप जिस बारे मे भी लिखो उससे related उसकी फोटो जस्ट उसे के नीचे अपलोड करो उससे ये होगा के अप जो भी बताएँगे उसे हम सही से समझ पाएंगे I

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