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7 दिसम्बर, 2011 की दोपहर करीब बारह बजे हम पराशर झील से वापस चल पडे। हमें बताया गया कि यहां से छह किलोमीटर नीचे उतरकर बागी नामक गांव है जहां से मण्डी जाने वाली बस मिल जायेगी और यह भी पता चला कि बस का टाइम ढाई बजे है। उसके बाद साढे चार बजे अगली बस मिलेगी। अभी बारह सवा बारह का टाइम था और हम अगले दो घण्टे में छह किलोमीटर का फासला तय करके बागी पहुंच सकते थे। लेकिन आज की सबसे बडी दिक्कत थी भरत जो चल नहीं पा रहा था।
पराशर झील एक ऐसी जगह पर स्थित है जहां से लौटकर वापस आने के लिये कम से कम चार रास्ते हैं और चारों नीचे ही उतरते हैं। एक तो वही है जिससे हम आये थे यानी पण्डोह की तरफ, दूसरा तुंगा माता से होकर ज्वालापुर की तरफ, तीसरा कच्चा रास्ता बागी-कटौला की तरफ और चौथा यानी पक्की सडक बागी-कटौला की तरफ। सडक से बागी 18 किलोमीटर दूर है जबकि पैदल रास्ते से सीधे नीचे उतरते जाओ तो छह किलोमीटर में ही मामला सुलट जाता है।
शुरू में तो कुछ दूर तक खाली ढलानदार मैदान से होकर उतरना होता है, फिर जंगल शुरू हो जाता है। जंगल भी इतना शानदार कि डर भी डर जाये। अमित अपनी अच्छी सेहत के कारण जल्दी जल्दी नीचे उतर रहा था जबकि भरत को बहुत परेशानी झेलनी पड रही थी। भरत के कारण मुझे भी धीरे धीरे उससे पीछे पीछे ही नीचे उतरना पड रहा था। अगर कहीं रास्ता दो फाड हो जाता और कुछ दूर मिलता हुआ भी दिखता तो भरत पूछता कि किस रास्ते से उतरूं।
अगर कभी इस रास्ते से बागी से पराशर जाना पडे तो यह दुनिया की बेहतरीन चढाईयों में गिनी जायेगी। मैंने आज तक कठिनतम चढाई जो चढी है वो है श्रीखण्ड यात्रा में डण्डाधार की चढाई जो करीब सात-आठ किलोमीटर की है। यह चढाई भी डण्डाधार के टक्कर की है। लेकिन आज हम यहां से ऊपर नहीं चढ रहे थे, बल्कि नीचे उतर रहे थे। ऐसे ढलान पर नीचे उतरना भी आसान नहीं होता, इसी कारण भरत जल्दी जल्दी बार-बार फिसल भी जाता था। वहां उसकी सहायता करने वाला कोई नहीं था, उसे जो भी रास्ता काटना था, खुद ही काटना था। कभी कभी तो वो दर्द के कारण चिल्ला भी पडता था।
चार किलोमीटर नीचे उतरने के बाद एक कच्ची सडक आती है। अब हमारा सफर सडक सडक हो जाता है यानी नीचे उतरना उतना मुश्किल नहीं रह जाता। थोडी ही देर में हम ढाई बजने से कुछ पहले बागी में थे। यहां से बस चलने को तैयार थी। यह बस कटौला होते हुए मण्डी जाती है। बागी से कटौला आठ किलोमीटर दूर है। कटौला से एक सडक कुल्लू जाती है जबकि एक मण्डी। काफी बडा गांव या कहिये कि कस्बा है कटौला। यहां हर समय मण्डी की बस खडी मिलती है।
अमित को आज ही दिल्ली के लिये लौट पडना था। जबकि मुझे और भरत को कुल्लू जाना था। दोनों पार्टियों ने अपनी अपनी बस पकडी और अपने-अपने गंतव्य के लिये चल पडे। चलने से पहले मैंने अपना रेनकोट अमित को दे दिया क्योंकि मौसम साफ था और साफ मौसम के रहते रेनकोट की जरुरत नहीं पडती। हालांकि अगले दिन मौसम बिगड गया और हमें रेनकोट की कमी बहुत भारी पडी।
कुल्लू के बस अड्डे के चारों तरफ कई होटल हैं। अब जब ट्रेकिंग खत्म हो गई यानी मेरा काम खत्म हो गया तो भरत घुमक्कड से पर्यटक बन गया। वैसे भी मैंने भरत से एक बात तय कर रखी थी कि यात्रा के तीन दिनों में पहले दो दिन मेरी चलेगी और आखिरी दिन भरत की। यानी पहले दो दिन मैं जहां ले चलूंगा, जैसे ले चलूंगा; भरत को मानना पडेगा और आखिरी दिन भरत जैसा कहेगा मुझे मानना पडेगा। इसलिये आखिरी दिन खत्म होने से पहले कुल्लू पहुंचते ही मैंने सारी लीडरशिप भरत को सौंप दी। रात को कहां रुकना है, कहां खाना-पीना है, सारी जिम्मेदारी भरत की थी।
हम एक होटल में पहुंचे, किराया साढे तीन सौ रुपये। दूसरे में भी साढे तीन सौ रुपये। भरत भले ही कुछ भी हो, लेकिन अव्वल दर्जे का कंजूस भी है। इतने किराये की उसे उम्मीद नहीं थी। कहने लगा कि यार, बडे महंगे कमरे हैं। मैंने कहा कि भाई, तेरी मर्जी जहां रुकना हो, रुक ले। दो तीन जगह और ढूंढा, कहीं चार सौ कहीं पांच सौ। भरत ने हाथ जोड लिये कि मेरे बस की नहीं है इतने महंगों में रुकना। तू ही कहीं ढूंढ। और जब मैंने ढूंढना शुरू किया तो दो सौ का कमरा मिल गया- डबल बेड, टीवी, गरम पानी। नाम वाम अब भूल गया हूं- बस अड्डे के चारों तरफ होटल और रेस्ट हाउस बिखरे पडे हैं। ढूंढने वाली आंखें चाहिये, सब मिल जाते हैं।
अब मैंने पूछा कि बता भाई, कल मणिकर्ण या मनाली। अगर किसी ने इन दोनों जगहों में से कुछ भी ना देखी हों, तो वो मनाली का नाम लेगा। भरत ने भी मनाली ही कहा। मैं एक बार मणिकर्ण जा चुका था, मनाली अब तक कभी नहीं गया। इसलिये तुरन्त उसकी बात मान ली। फिर तो खाया-पीया और पडकर सो गये। सुबह मनाली जाना है।
पराशर किनारे कुछ रिहाइश |
यह एक महाराज है जिसे ऐसे रास्तों पर चलने में उतना ही मजा आता है जितना कि मच्छर को खून चूसने में। |
भरत नागर |
और यह फोटो भी ऐतिहासिक बन गया। हम तीनों का एक साथ फोटो। एक पत्थर पर पत्थरों की सहायता से कैमरा रखा, शटर टाइम दस सेकण्ड लगाया और भागकर बीच में जा बैठा। |
अपना फोटो खुद ही खींच लेते हैं। |
बायें तरोताजा सा दिखता अमित और दाहिने वाला चुसा आम सा भरत। |
चेहरा ऐसी चीज है जो सबकुछ बता देता है। इन दोनों के चेहरों पर साफ साफ पढा जा सकता है कि किसकी कैसी हालत थी। |
यह बरफबारी तो नहीं है लेकिन बरफ से कम भी नहीं है- पाला जमा पडा है। अमित और भरत खुश कि हमने बरफ देख ली। |
भारतीय आविष्कार |
यह क्या है?... मेरा मूं है। |
एक फोटो जंगल का। अकेले-दुकेले जाना, मजा आयेगा। |
भरत के लिये- चल थकेला, चल थकेला, चल थकेला। तेरा मेला आगे निकला, राही चल थकेला। |
इस फोटो में भरत को मत देखना। इसमें देखना कि करीब चार किलोमीटर का यह खतरनाक रास्ता ऐसी ही ढलान वाला है। |
बागी के पास एक घर |
अब हमें सडक मिल गई है। |
बागी गांव |
रास्ते में कहीं का है। यह फोटो पता नहीं मैंने क्यों लगाया है, कुछ खास तो दिख नहीं रहा इसमें। |
बागी से कुल्लू के रास्ते में खींचा गया फोटो। |
अब चले हम कुल्लू। जो जाये कुल्लू, हो जाये उल्लू। ऐसा हमने सुना है- वैसे हम तो उल्लू नहीं हुए। |
अगला भाग: सोलांग घाटी में बर्फबारी
पराशर झील ट्रैक
1. पराशर झील ट्रेकिंग- दिल्ली से पण्डोह
2. पराशर झील ट्रेकिंग- पण्डोह से लहर
3. पराशर झील ट्रेकिंग- लहर से झील तक
4. पराशर झील
5. पराशर झील ट्रेकिंग- झील से कुल्लू तक
6. सोलांग घाटी में बर्फबारी
7. पराशर झील- जानकारी और नक्शा
वाह भाई वाह मज़ा आ गया बहुत इंतज़ार कर रहा था पोस्ट पूरी ख़तम होने का परन्तु अभी और इंतजार करना पड़ेगा
ReplyDeleteबहुत बढ़िया विवरण.. अगला भाग जल्दी लगाना - SS
ReplyDeleteउतरना चढ़ने से अधिक दुखदायी होता है, घुटने दर्द करने लगते हैं।
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