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6 दिसम्बर, 2011 की दोपहर करीब एक बजे हम लहर गांव में दावत उडाकर आगे पराशर झील के लिये चल पडे। लहर समुद्र तल से 1600 मीटर की ऊंचाई पर है यानी अभी हमें सात किलोमीटर पैदल चलने में 950 मीटर ऊपर भी चढना है। पराशर झील की ऊंचाई 2550 मीटर है। अब चढाई और ज्यादा तेज हो गई थी। यहां रास्ते की कोई दिक्कत नहीं है क्योंकि स्थानीय ग्रामीण इसी रास्ते से पराशर तक जाते हैं। पराशर झील और उसके किनारे बना मन्दिर उनके लिये बेहद पूजनीय है। रास्ता जंगल से होकर नहीं है, क्योंकि इक्का-दुक्का पेडों को छोडकर कोई पेड नहीं मिलता। सामने एक पहाडी डांडा दिखता रहता है, जिसपर चढते ही झील दिख जायेगी। डांडे से कुछ नीचे जंगल भी दिखाई देता है जिसका मतलब है कि यह रास्ता बाद में उस जंगल से होकर जा सकता है।
भरत और अमित |
पराशर के रास्ते में खडा लाल शर्ट पहने अमित |
ये बच्चे बांदल से आ रहे हैं। |
लहर से तीन किलोमीटर आगे एक गांव और है- बांदल (Bandal)- छोटा सा गांव। गांव से पहले कुछ महिलाएं भेड चराती मिलीं। हालांकि हमने उनसे और उन्होंने हमसे कोई बात नहीं की लेकिन वे गीत गा रही थीं। वे पास पास नहीं थीं बल्कि बहुत दूर दूर थीं और उनके गीतों की मधुर आवाज हम तक पहुंच रही थीं। ऐसा अनुभव जिन्दगी में पहली बार हुआ, पढा बहुत बार है कि पहाड पर महिलाओं के गीतों की आवाजें गूंजती हैं तो बडी अच्छी लगती हैं।
बांदल से कुछ पहले एक बुजुर्ग मिले। अमित तेज-तेज चलकर आगे निकल जाता था जबकि मुझे भरत की वजह से पीछे पीछे चलना पडता था। जल्दी में हम थे नहीं। वे बुजुर्ग बांदल के ही रहने वाले थे और अमित ने उन्हें हमारे पहुंचने से पहले ही सारी रामकहानी सुना दी थी कि हम दिल्ली से आये हैं और पराशर जा रहे हैं। उन बुजुर्ग ने जब मेरी और भरत की मरी-मरी स्पीड देखी तो हमारे पहुंचते ही उन्होंने कहा- तुम यहां क्यों आये हो? तुम्हारे बसकी चलना नहीं है तो घर बैठते। मैंने इशारा भरत की ओर कर दिया और कहा कि बाबा, मैं चलने में किसी पहाडी से कम नहीं हूं। इसकी वजह से धीरे धीरे चल रहा हूं। फिर तो बाबा ने भरत को ऐसी ऐसी सुनाई कि बाद में भरत ने बताया- यार, ऐसे भी लोग होते हैं दुनिया में। मुझसे चला नहीं जा रहा, मुझे उत्साहवर्द्धन की जरुरत है और वो बुड्ढा मेरा उत्साह हरण कर रहा था।
नीरज, वही बुजुर्ग और अमित |
बांदल गांव के कुछ घर और खेत |
ऊपर बायें कोने में अमित और नीचे दाहिने कोने में भरत |
दिस इज नीरज जाट |
अमित |
रास्ता दिख रहा है ना? कैसा लगा? |
बांदल गांव |
बांदल गांव |
बांदल गांव इतना छोटा है कि हम गांव में घुसे और पता चला कि पार होकर बाहर भी निकल गये। घरों में कोई नहीं दिखा। शाम के तीन बजे थे और गांव के सभी लोग बाहर खेतों में गये होंगे या भेडों को चराने गये होंगे। बांदल की समुद्र तल से ऊंचाई 1935 मीटर है।
बांदल से निकलकर जब हमने 2200 मीटर के लेवल को पार कर लिया तो जंगल शुरू गया। हम इस जंगल को नीचे देवरी से ही देखते आ रहे थे और हमें पता था कि यह ज्यादा बडा जंगल नहीं है। जिस तरह किसी गंजे के सिर पर पांच चार बाल दिखते हैं, उसी तरह दूर से यह जंगल दिखता है। छोटा जंगल होने के कारण मुझे पक्का यकीन था कि इसमें जंगली जानवर तो कतई नहीं मिलेंगे। इसी कारण मैंने सोचा कि अब तक तो भरत से ‘मुकाबला’ चल रहा है, अब एक बार अमित से टक्कर ली जाये। वो पिछले सात किलोमीटर से हमसे आगे ही आ रहा था और मान रहा था कि वो मुझसे तेज चल सकता है।
चौधरी साहब |
अमित |
एक शानदार झरना |
जंगल में बहते एक झरने के पास भरत टट्टी करने बैठ गया, तो मैं उससे यह कहकर आगे बढ गया कि यह रास्ता सीधा झील पर जाता है, हम तेज तेज आगे जा रहे हैं, तू आ जाना। और फिर मुझे अमित से आगे निकलने में देर नहीं लगी। जंगल में ही अचानक एक हलचल सी सुनकर मैं ठिठक गया। देखा तो कम से कम पचासों लंगूर पेडों पर उछल-कूद मचा रहे हैं। अगर उनकी जगह बंदर होते तो मुझे डरना पडता। लंगूर और बंदर में यही फर्क होता है कि लंगूर शान्त स्वभाव वाला प्राणी है जबकि बन्दर हुडदंगी है। अगर कई बन्दर इकट्ठे हों तो उनका हुडदंग देखते ही बनता है जबकि लंगूरों के मामले में ऐसा नहीं है।
मैंने अमित से खूब कहा कि तू आगे चला जा। मैं भरत को लेकर आऊंगा, अगर उसने इन लंगूरों को देख लिया तो डर में मारे वो मर भी सकता है। अमित नहीं गया बल्कि मुझे सलाह देने लगा कि इस जगह से जल्दी से जल्दी निकल जाने में ही भलाई है, नहीं तो लंगूर बडा खतरनाक होता है। मैंने उसे बन्दर और लंगूर का अन्तर समझाया और बताया कि हम यहां लंगूरों के बीच बिल्कुल सुरक्षित हैं। देखना जब तक हम यहां हैं, तब तक कोई लंगूर पेड से नीचे नहीं उतरेगा। हुआ भी ऐसा ही। आखिरकार भरत को लेकर हम वहां से चले।
हिमालय की एक खास बात है कि अगर हम किसी ऊंची जगह की तरफ बढ रहे हैं तो घण्टों चलने के बाद भी हमें लगेगा कि वो जगह अभी भी उतनी ही दूर और ऊंचाई पर है। जितना हम चोटी की तरफ बढते हैं, लगता है कि चोटी भी उतना ही दूर होती जा रही है। ऐसा ही यहां हुआ। लग रहा था कि जंगल खत्म होते ही हम ऊपर पहुंच जायेंगे, लेकिन अभी भी वो डांडा उतना ही ऊंचा और दूर दिख रहा था। भरत माथा मकडकर बैठ गया कि सुबह से चल रहे हैं और डांडा उतना ही दूर है। अमित से मैंने कह दिया कि मैं भरत को लेकर धीरे धीरे आ रहा हूं, हमें वहां तक पहुंचने में अन्धेरा हो जायेगा। तू जल्दी जल्दी चला जा और रुकने का इंतजाम कर लेना। वो चला गया।
यही वो घाटी है जिससे होकर हम आये हैं। |
कुछ नजारे सूर्यास्त के |
यह है रेस्ट हाउस का कमरा। |
झील से करीब एक किलोमीटर पहले भरत कहने लगा कि मेरे पैर कांप रहे हैं, मुझसे नहीं चला जा रहा। सूरज ढल चुका था और अन्धेरा तेजी से होने लगा था। ऐसा अक्सर मेरे साथ भी हो जाता है, जब मुझे भूख लगी हो। मैंने वही नुस्खा आजमाया और भरत से कहा कि तेरे बैग में मठडी हैं, जितनी खा सके, खा ले। भरत मना करने लगा कि कुछ भी खाने का मन नहीं है। मैंने समझाया कि बच्चे की तरह जिद मत कर, जबरदस्ती खा। वो मठडी खाने लगा। थोडी देर बाद कहने लगा कि ठण्ड लग रही है। मुझे पता था कि पसीने की वजह से ठण्ड लग रही है और अगर यहीं बैठे रहे तो यह ठण्ड इतनी ज्यादा लगने लगेगी कि शरीर थर-थर कांपने लगेगा, फिर चला भी नहीं जायेगा। इसका तरीका यही है कि चलते रहो।
छह बजे हम अपनी इस यात्रा के उच्चतम बिन्दु पर थे- 2576 मीटर की ऊंचाई पर। इसके बाद करीब 25 मीटर नीचे उतरकर झील तक पहुंचना था। पांच मिनट बाद हम कंटीली बाड पार करके झील क्षेत्र में प्रवेश कर चुके थे। नीचे झील और उसके किनारे बना मन्दिर दिखाई दे रहे थे। मन्दिर में लाइटें जली थीं। अच्छा-खासा अंधेरा हो चुका था। तभी अमित की आवाज आई, मैंने भी उसका जवाब दिया। उसे हम नहीं दिख रहे थे। हमें वो नहीं दिख रहा था। यहां 15-20 मीटर तक अच्छा-खासा ढलान है। हमें उतरने का रास्ता नहीं मिला। अंदाजे से उतर रहे थे कि भरत कहने लगा कि मेरे पैर जम नहीं रहे हैं। हम फिर से वापस ऊपर गये और पता नहीं कहां कहां से निकलकर अन्धेरे में झील के किनारे मन्दिर के पास पहुंचे।
अमित कहने लगा कि यहां तो रुकने का बहुत बढिया इंतजाम है- धर्मशाला है। लेकिन एक दिक्कत है कि यहां केवल ब्राह्मण और क्षत्रिय ही रुक सकते हैं। मैंने कहा कि मैं जाट हूं मतलब क्षत्रिय हूं, तुम दोनों अपनी सोचो कि कैसे रुकोगे। अमित बढई यानी वैश्य है और भरत भी वैश्य की श्रेणी में आता है। तय हुआ कि अमित और भरत ‘शर्मा’ बनेंगे यानी ब्राह्मण बनेंगे। पण्डित जी के पास पहुंचे। उन्होंने धर्मशाला का कमरा दिखाया। कमरे में मात्र लकडी का फर्श था, ओढने बिछाने का कुछ नहीं। मैंने पूछा कि कम्बल दोगे क्या? बोले कि बीस रुपये का एक कम्बल मिलेगा। मैंने हिसाब लगाया कि तीनों को कम से कम पांच पांच कम्बल नीचे बिछाने को चाहिये, दो के पास स्लीपिंग बैग हैं, एक को ओढने को भी कम से कम पांच कम्बल चाहिये। यानी बीस कम्बल लेने पडेंगे मतलब चार सौ रुपये में पडेगी यह धर्मशाला हमें। फिर खाना अलग से।
मैंने पण्डत से कहा कि हमें यहां नहीं रुकना है। ये बताओ कि रेस्ट हाउस कहां है। बोले कि यहां से आधा किलोमीटर दूर। रेस्ट हाउस में जाने के लिये आधा किलोमीटर चलने का नाम सुनते ही अमित और भरत बिगड गये। बोले कि यहीं चार सौ रुपये दे देंगे लेकिन रेस्ट हाउस में नहीं जायेंगे। अच्छा हां, अमित के बारे में एक बात तो रह ही गई। उसने भी मेरी तरह डिप्लोमा किया हुआ है, वो 2007 में इलेक्ट्रिकल डिप्लोमा में यूपी टॉपर रहा है। पूरे उत्तर प्रदेश के हजारों इलेक्ट्रिकल इंजीनियरों में उसने पहला स्थान हासिल कर रखा है। अभी भी उसे अपने क्षेत्र की बहुत जानकारी है लेकिन उसमें एक कमी है- वो निर्णय नहीं ले पाता। जहां मैं एक बडा डिसीजन लेने में भी कुछ सेकण्ड ही लगाता हूं वहीं वो छोटा सा डिसीजन लेने में घण्टों और कभी कभी तो दिन भी लगा देता है। यहीं कारण था कि उसने धर्मशाला तो देख ली, यह भी देख लिया कि आज हमें रात भर रुकने को फ्री में कमरा मिलेगा लेकिन जरूरी चीज नहीं देखी- कम्बल आदि।
जब मैंने अपना फैसला सुना दिया कि चलो, रेस्ट हाउस तक चलते हैं तो उसकी यही कमी आडे आने लगी। कहने लगा कि आधा किलोमीटर यहां अन्धेरे में मायने रखता है, एक बार बैठ कर सोच ले। वहां कमरे का किराया देना पडेगा, कम्बलों का भी किराया देना पडेगा और खाना खाने वापस यहां आना पडेगा। धर्मशाला के पास एक ढाबा है। मैंने बताया कि ऐसा नहीं होता है। कमरे के खर्चे में ही ओढने बिछाने को सबकुछ मिलेगा, खाना भी मिल जायेगा। हममें खूब तू-तडाक हुई लेकिन आखिरकार उन्हें मेरे साथ आधे किलोमीटर दूर रेस्ट हाउस तक जाना पडा। यहां 260 रुपये में एक बडा सा कमरा मिल गया। हमारी फरमाइश और उपलब्धता के हिसाब से खाना भी बनने लगा। लेकिन यहां एक दिक्कत थी कि नलों में पानी नहीं था। रात में पारा जीरो से नीचे चला जाता है, पानी जम जाता है और नल फट भी जाता है। जरूरी कामों से निपटने के लिये मेन गेट के पास ही एक बाल्टी गर्म पानी रख दिया था। बाहर खुले में टट्टी करने जाना पडता था और मूतने भी। खैर, यह सब मेरे लिये यह कोई परेशानी की बात नहीं थी।
इसके बाद... इसके बाद क्या!!! खाना खाया और पडकर सो गये।
अगला भाग: पराशर झील
पराशर झील ट्रैक
1. पराशर झील ट्रेकिंग- दिल्ली से पण्डोह
2. पराशर झील ट्रेकिंग- पण्डोह से लहर
3. पराशर झील ट्रेकिंग- लहर से झील तक
4. पराशर झील
5. पराशर झील ट्रेकिंग- झील से कुल्लू तक
6. सोलांग घाटी में बर्फबारी
7. पराशर झील- जानकारी और नक्शा
हरियाणा में तो सभी बढई अपने नाम के साथ शर्मा लगाते हैं।
ReplyDeleteप्रणाम
रेस्टहाउस तो बहुत ही अच्छा लग रहा है।
ReplyDeleteवाह एक से एक चित्र
ReplyDeleteबेचारे भरत को पहली बार में श्रीखण्ड जैसे चढाई चढवा दी, वैसे उसके लिये यह श्रीखण्ड से कम ना रही होगी?
ReplyDeleteअरे भाई मजा आ गया, अब तो फ़ोटो भी बडे-बडॆ दिखाई देने लगे है मेरे ब्लॉग की तरह, ये बहुत अच्छा रहा,
ReplyDeletekripya bajaaroo bhasha ka istemaal naa karen. apne blog kaa ek standard banaa kar rakhen.
ReplyDeleteनीरज जाट जी, बहुत खूबसूरत पोस्ट | परन्तु आपसे एक गुजारिश है कि पोस्ट मैं भाषा अवश्य ही सभ्य होनी चाहिए | आपको स्तरीय पोस्ट लिखनी चाहिए तथा निम्नकोटि की शब्दावली का पर्योग नहीं करना चाहिए |
ReplyDeleteमैं भी भाषा के विषय में आपसे सहमत हूँ.
Deleteमैं भी भाषा के विषय में आपसे सहमत हूँ.
Deleteआखिर मित्रों से हर बार अपनी बात मनवा ही लेते हैं.सुंदर नयनाभिराम चित्रों के साथ सुंदर यात्रा वृत्तांत.
ReplyDeletekripya batay ki hindi mein comment kaise kiya jaata hai.
ReplyDeleteनीरज जी बहुत ही सुन्दर प्रोग्राम बनाया है काश मै भी आपके साथ चल सकता पर आपने राय देने के लिये कोई कालम नही बनाया है । खैर अब जा ही रहे हो तो कोई नही पर म्हारे लिये भी कुछ लेते आइयो
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