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22 अप्रैल 2011 को दोपहर होने से पहले मैं चोपता से तुंगनाथ पहुंच गया। तुंगनाथ पंचकेदारों में तीसरा केदार है। इसे दुनिया में सबसे अधिक ऊंचाई पर स्थित हिन्दू मन्दिर भी माना जाता है। इसकी समुद्र तल से ऊंचाई 3680 मीटर है। इंटरनेट का जमाना है- एक जगह मैंने इसकी ऊंचाई 3829 मीटर भी लिखी देखी है।
तब तक तुंगनाथ के कपाट नहीं खुले थे। चारों धामों की तरह यहां भी कपाट सिस्टम है और तुंगनाथ की डोली मक्कूमठ नामक गांव के मन्दिर में रखी जाती है। जब ऊखीमठ से चोपता जाते हैं तो रास्ते में एक तिराहा पडता है। यहां से तीसरी सडक मक्कूमठ जाती है।
खैर, इतनी ऊंचाई पर तो जून में भी जायेंगे तो भी ठण्ड लगेगी, फिर अप्रैल में क्या हालात हो रहे होंगे, अंदाजा लगाया जा सकता है। मन्दिर के चारों ओर बर्फ थी। हालांकि केदारनाथ जितनी नहीं थी। यहां से चंद्रशिला चोटी भी दिखती है। तुंगनाथ मन्दिर से डेढ किलोमीटर का पैदल रास्ता है चंद्रशिला का। तुंगनाथ जाने वाले ज्यादातर लोग चंद्रशिला जरूर जाते हैं। मैंने भी ठान रखा था। हालांकि तुंगनाथ से ऊपर चंद्रशिला तक काफी बर्फ दिख रही थी लेकिन फिर भी भरोसा था कि कहीं ना कहीं से चोटी तक पहुंचने का रास्ता मिल ही जायेगा। रही-सही कसर एक लोकल ने पूरी कर दी कि अगर आप वास्तव में चंद्रशिला जाना चाहते हैं तो आप जरूर पहुंच जायेंगे।
मैं तुंगनाथ अकेला गया था। सिद्धान्त की कुछ पारिवारिक दिक्कत थी, उसे सुबह-सुबह ही देहरादून के लिये निकल जाना पडा। फिर भी मुझे चोपता से यहां तक के पैदल रास्ते में कई लोग मिले। पांच-छह दिल्ली के भी मिले, एक मराठा मिला। दिल्ली वालों में से केवल एक ही मन्दिर तक पहुंच पाया। बाकी सभी बीच रास्ते में ही फैल गये थे। लेकिन उस अकेले की इच्छा चंद्रशिला जाने की नहीं थी। हां, मराठा चंद्रशिला जाना चाहता था। वो कई दिनों से दुगलबिट्टा में ठहरा हुआ था।
मैं और मराठा दोनों चंद्रशिला के लिये निकल पडे। एक मोड भी पार नहीं किया था कि एक चट्टान के ऊपर जमी बर्फ मिली। वैसी बर्फ तो बहुत देखी है लेकिन चट्टान के ऊपर ओस के कारण जमी बर्फ आज पहली बार देखी थी। यह ठोस होती है। कहीं कहीं तो इससे बडी ही मजेदार और आश्चर्यजनक आकृतियां भी बन जाती हैं। कहीं हाथी-घोडे बन जाते हैं कहीं कुल्फी बनकर लटक जाती हैं। यहां खून को जमा देने वाली ठण्ड थी। यहां से आगे चले तो रास्ते पर बर्फ थी। हां, मैंने मन्दिर के पास से एक डण्डा पहले ही ले लिया था। डण्डा बर्फ पर चलते समय बहुत काम आता है। तीसरी टांग का काम करता है।
मैं पहले भी कई बार बर्फ पर चल चुका हूं इसलिये रास्ते पर फैली इस बर्फ को पार करने में मुझे कोई दिक्कत नहीं हुई जबकि मराठा पहली बार बर्फ पर चल रहा था इसलिये बेहद डरा हुआ था। मैंने अपना डण्डा भी फेंककर उसे दे दिया था लेकिन वो उस बर्फ को पार नहीं कर पाया। आखिरकार उसने चंद्रशिला जाने से मना कर दिया और डण्डा वापस मुझे दे दिया। अब मुझे अकेले ही चंद्रशिला जाना था।
मैंने अभी जो बर्फ पार की थी, रास्ते ने उसी के नीचे से यू-टर्न ले रखा था। वो मुझे नहीं दिखाई दिया। सीधी सी बात है कि मैं भटक गया। घास पकडकर एक चट्टान पर चढ गया। ऊपर चढकर देखा कि चंद्रशिला तक ढलान बहुत ज्यादा नहीं है। जरा सा ऊपर ही चढा था कि नजारा देखकर होश उड गये। सामने लगभग दो सौ मीटर दूर चंद्रशिला चोटी दिख रही थी, रास्ता भी बिल्कुल सीधा था लेकिन पूरे रास्ते में बर्फ ही बर्फ थी। बैठकर अपना हौंसला बढाता रहा कि ज्यादा ढलान नहीं है, आराम से पार कर लूंगा।
अच्छा हां, यहां विंटर ट्रेकिंग भी होती है। ट्रैवलिंग कम्पनियां टूरिस्टों को जाडों में लाती हैं और बर्फ पर चलने के उपकरण देकर अपने अनुभवी प्रशिक्षकों द्वारा चंद्रशिला पर ले जाती हैं। यहां ढलान ज्यादा तो है नहीं, टूरिस्ट बर्फ पर खूब फिसलते हैं। उन्हीं के फिसलने के निशान बने थे। या ऐसा भी हो सकता है कि अभी कुछ ही दिन पहले पांच-चार लोग ऊपर गये हों और वापसी में वे फिसलकर लौटे हों। अगर मैं भी ऊपर पहुंच गया तो सीधी सी बात है कि फिसलता हुआ ही वापस लौटूंगा। कोई खतरा नहीं है।
रामनाम लेकर बर्फ पर पहला कदम रखा। मेरे जूते लेबर शू हैं। यानी आगे उंगलियों के ऊपर लोहे का या किसी अति कठोर प्लास्टिक का कवर लगा है ताकि अगर कुछ पैर पर गिर जाये तो चोट ना पहुंचे। मैंने यहां जूते से बर्फ को खोदकर सीढियां बनानी शुरू कर दीं। एक बात और, यहां कठोर बर्फ नहीं थी बल्कि ताजी नरम बर्फ थी। आसानी से खुदाई चलती रही। सात-आठ कदम आगे ही गया था कि पैर रखते ही घुटनों तक बर्फ में धंस गया। जूते में भी बर्फ घुस गई। किसी तरह दूसरा पैर उठाया और आगे रखा तो वो भी घुटनों तक बर्फ में जा धंसा। ऐसी हालात में क्या सीढियां बनायें, क्या डण्डे का सहारा लें, कोई फायदा नहीं था।
मैं इस धसान के लिये तैयार नहीं था। अभी तो शुरूआत है, आगे लगभग दो सौ मीटर तक बर्फ में ही चलना है जो ऊपर से सीधी समतल दिख रही है, क्या पता कहां कितनी गहराई है। अभी तो घुटनों तक ही धंसे हैं, आगे जाकर क्या पता पेट तक धंस जायें। ऐसे में क्या दुर्गति होती है, इसका अनुभव मुझे भूसे से है। अप्रैल-मई में जब गेहूं कटते हैं, तो अनाज के साथ-साथ भूसा भी ढोया जाता है। भूसे के लिये एक अलग कमरा होता है। जब भूसे को कमरे में छत तक भरते हैं तो वहां भी पेट और छाती तक भूसे में धंसकर काम करना होता है। उसी बुरे अनुभव से सबक लेकर मैं वापस लौट आया- फिर कभी चंद्रशिला जाने का इरादा लेकर।
तुंगनाथ मन्दिर के पास मुझे मराठा मिल गया। वो बडा सा कैमरा लिये हुए था और फोटो खींचने में मशगूल था। यहां धूप-धाप तो पहले से ही नहीं थी, अब और ज्यादा बादल घिर आये और देखते ही देखते बर्फबारी शुरू हो गई। आधे घण्टे तक बर्फ पडती रही। अप्रैल के आखिरी दिनों में जबकि पूरे उत्तर भारत के मैदानी भागों में पारा चालीस के पार जा चुका था, यहां बर्फबारी हो रही थी। अभी तीन दिन पहले केदारनाथ में भी मैंने बर्फबारी देखी थी लेकिन यहां ज्यादा तेज बर्फबारी हुई। पूरी घाटी ने चांदी ओढ ली।
यही मुझे पता चला कि चोपता से ऊखीमठ जाने के लिये आखिरी बस तीन बजे पहुंचती हैं। अभी समय ढाई बजे का था। साढे तीन किलोमीटर दूर है यहां से चोपता। सीधे उतरना शुरू कर दिया। और चोपता पहुंचकर ऊखीमठ जाने वाली बस पकड ली।
चोपता में तुंगनाथ जाने के लिये बनी सीढियां
जय तुंगनाथ
तुंगनाथ से चंद्रशिला जाने का रास्ता
बायी तरफ जो सबसे ऊंची चोटी दिख रही है, वही चंद्रशिला है। रास्ता भी स्पष्ट दिख रहा है लेकिन मैं भटककर दाहिने वाली चट्टान के ऊपर पहुंच गया।
एक चट्टान पर ओस के कारण जमी बर्फ
अगर ऐसी आकृतियां दिख जायें तो समझो कि भयंकर ठण्ड है
बर्फ की कुल्फियां जो टूटकर गिरती रहती हैं
भटककर जब मैं उस चट्टान पर पहुंच गया तो पीछे मुडकर तुंगनाथ की तरफ का नजारा।
देखी है कभी राक्षसी चट्टान? कितने लम्बे लम्बे दांत हैं? अगर नीचे कोई खडा हो और एक दांत गिर जाये तो सिर की हड्डी को तोडकर दिमाग में घुसने की औकात रखती है यह।
उसी चट्टान के ऊपर खडा हूं। सामने चंद्रशिला चोटी दिख रही है। लेकिन बीच में फैली बर्फ की वजह से नहीं जा पाया। बर्फ और ढलान देखकर लग रहा है ना कि आसानी से पहुंचा जा सकता है। मुझे भी यही लगा था।
आ गये वापस।
चंद्रशिला, तुझे फिर कभी देखूंगा।
और बर्फबारी शुरू हो गई।
घाटी चांदी ओढती जा रही है।
रेनकोट पहनना पड गया था।
एक अलग ही नशा चढ जाता है बर्फ पडने के बाद
यह सीन चोपता का है।
अगला भाग: तुंगनाथ से वापसी भी कम मजेदार नहीं
केदारनाथ तुंगनाथ यात्रा
1. केदारनाथ यात्रा
2. केदारनाथ यात्रा- गुप्तकाशी से रामबाडा
3. केदारनाथ में दस फीट बर्फ
4. केदारनाथ में बर्फ और वापस गौरीकुण्ड
5. त्रियुगी नारायण मन्दिर- शिव पार्वती का विवाह मण्डप
6. तुंगनाथ यात्रा
7. चन्द्रशिला और तुंगनाथ में बर्फबारी
8. तुंगनाथ से वापसी भी कम मजेदार नहीं
9. केदारनाथ-तुंगनाथ का कुल खर्चा- 1600 रुपये
gazab ki ghumakkadi hai neeraj,gazab ki.taarif ke liye shabd hi nahi hai aur himmat ki dad bhi nahi de pa raha hun.swarg ki hi sair kara di aaj to.
ReplyDeleteआज तो दिन बन गया...सुबह सुबह इतनी ख़ूबसूरत तस्वीरों के अवलोकन ने मन प्रसन्न कर दिया.
ReplyDeleteआपके यात्रा वृत्तांत हमेशा ही एक दूसरी दुनिया में ले जाते हैं....और लगता है...हम भी साथ ही हैं....आँखों के सामने सारा नज़ारा खींच गया.
आपका घुमक्कड़ी का ये ज़ज्बा हमेशा बना रहे...
सचमुच घुमक्कड़ी जिंदाबाद :)
हिमशूल,
ReplyDeleteश्वेत समूल,
विस्तृत नभ,
जन स्थूल।
चन्द्रशिला से ऊँची इस चोटी पर एक बोर्ड लगा आते जाटशिला के नाम का
ReplyDeleteअब आने वाले समय में पर्यटक जाटशिला पर जरुर जाया करेंगे।:)
प्रणाम
फेण्टाबुलस चित्र!
ReplyDeleteमेरा तो कंप्यूटर जम गया बर्फबारी के चित्र देखते देखते ठंड के मारे।
ReplyDeleteवाह !क्या मजेदार कुल्फी थी ! जाट पुत्र अपने जाने का कुछ तो निशान छोड़ आते ..कभी अगले जन्म में जाना हुआ तो याद रह जाती...
ReplyDeleteमेरे साथ गये होते तो चन्द्रशिला भी छोटी पड जाती, आगे ध्यान रखना, अब अपने जैसे किसी सिरफ़िरे के ही साथ जाना।
ReplyDeleteचन्द्र शिला से हम भी मिलेंगें आपके साथसाथ .
ReplyDeleteभाई गज़ब...आपका जवाब नहीं जी...सच्ची लाजवाब हो आप...
ReplyDeleteनीरज
मेरा जिन्दगी मे बहतु सारी बर्फ गिरते देखना का मन है, जो आज तक पूरा नहीं हो पाया है. आपकी बहुत सारी बर्फ वाली फोटो ने मन खुश और मेरी तम्मना को जिन्दा कर दिया. आपकी यात्राओं से भारत भूमि की संस्कृति की साफ़ झलक दिखाई देती है. शुक्रिया
ReplyDeleteWah
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