Skip to main content

मोइला डांडा, बुग्याल और बुधेर गुफा


8 जून 2018

नाम रोहन राणा। इस होटल के मालिक का नाम। शानदार व्यक्तित्व। रौबीली मूँछें। स्थानीय निवासी।
“भाई जी, आज हमें बुधेर केव जाना है।”
“बुधेर केव? मतलब मोइला डांडा?”
“मतलब?”
“मतलब उसे हम मोइला डांडा कहते हैं।”
मुझे यह जानकारी नहीं थी। अभी तक वो जगह मेरी नजरों में बुधेर केव ही थी, लेकिन अब इसे मैं मोइला डांडा कहूँगा। यह एक ‘डांडा’ है, इतना तो मुझे पता था, लेकिन इसका नाम मोइला है, यह नहीं पता था।
“भाई जी, हम 12 बजे तक आ जाएँगे और तभी चेक-आउट करेंगे।”
“नहीं भाई जी। आज होटल की कम्पलीट बुकिंग है। गुजराती लोगों ने इसे बुक किया हुआ है। अभी चेक-आउट कर देंगे, तो अच्छा रहेगा।
सारा सामान हमने नीचे रेस्टोरेंट में रख दिया और बिस्कुट, नमकीन, पानी लेकर मोइला डांडे की ओर बढ़ चले।
लोखंडी से तीन किलोमीटर तक कच्चा मोटर रास्ता है, जो फोरेस्ट रेस्ट हाउस के पास समाप्त हो जाता है। चौकीदार ने बताया कि इस रेस्ट हाउस की बुकिंग कालसी से होती है। यहाँ तक आने का रास्ता देवदार के घने जंगल से होकर है। वैसे यह जंगल देवदार का ही है या किसी और का, इसमें मुझे डाउट है। क्योंकि मेरा जैव-वनस्पति ज्ञान शून्य है। चीड़ और देवदार की पहचान मैं कर लेता हूँ, लेकिन चीड़ जैसे दिखने वाले अन्य पेड़ भी होते हैं और देवदार जैसे दिखने वाले भी। इसलिए इन ‘उप-चीड़ों’ और ‘उप-देवदारों’ में हमेशा डाउट रहता है। फिर भी यह चीड़-प्रजाति के पेड़ों का जंगल नहीं था। चीड़ का जंगल सूखा-सूखा होता है और उसमें केवल चीड़ ही पनपता है। वह किसी अन्य को नहीं पनपने देता। जबकि देवदार प्रजाति का जंगल ‘अतिथि देवो भवः’ का पालन करता दिखता है और इसके नीचे बाकी सब पेड़ और झाड़ियाँ जमकर पनपते हैं।
तो यह देवदार प्रजाति का जंगल था। हम कहेंगे कि देवदार का जंगल था। देवदार के जंगल में पलक भी झपकाने का मन नहीं करता, कहीं कोई नजारा ‘मिस’ न हो जाए।





एक-दो कारें खड़ी थीं और बादल भी थे। एकदम सन्नाटा। ऊँचे-घने पेड़ों के कारण जमीन तक न्यूनतम रोशनी आती है। फिर बादलों के कारण माहौल रहस्यमय लगने लगा था। यहाँ से मोइला डांडा लगभग दो किलोमीटर दूर है। यह दूरी पैदल तय करनी है। लेकिन देवदार के जंगल में इतना मन लग गया कि चलने का मन ही नहीं किया।
दो किलोमीटर का यह रास्ता जंगल से ही होकर गुजरता है। अच्छी पगडंडी बनी है और चलता रास्ता है। रेस्ट हाउस समुद्र तल से लगभग 2550 मीटर की ऊँचाई पर स्थित है जबकि मोइला डांडे का उच्चतम बिंदु 2750 मीटर पर है। बुग्याल 2700 मीटर से ऊपर ही है। प्राकृतिक नजारों के कारण 200 मीटर की यह चढ़ाई मुश्किल नहीं लगती।
अब आप सोचते होंगे कि बुग्याल क्या होता है। एक दिन एक दोस्त ने पूछा था। मैंने बताया - “हिमालय की ऊँचाइयों पर घास के खूबसूरत मैदानों को बुग्याल कहते हैं। यहाँ तापमान हमेशा नीचा रहता है और हमेशा सर्दियों में बर्फ पड़ती है।”
उस दोस्त ने तपाक से कहा - “मतलब वहाँ तुम लोग घास देखने जाते हो?”
“चुप बे। मैं नहीं बताऊँगा अब तुझे, बुग्याल की डेफीनेशन।”

अमूमन 2700 मीटर की ऊँचाई पर बुग्याल नहीं होते। पश्चिमी हिमालय में ट्री-लाइन 3200 मीटर पर समाप्त होती है और 3200 मीटर के बाद य्यै विशाल बुग्याल मिलते हैं, जिनके परली तरफ कोई 6000-7000 मीटर ऊँची बर्फ से ढकी चोटी होती है। लेकिन कई स्थानों पर 3000 मीटर से कम पर भी छोटे-छोटे बुग्याल मिल जाते हैं। ऐसा ही एक स्थान है मोइला डांडा।
आप अगर कहीं बुग्याल शब्द पढ़ते हैं, भले ही आपको बुग्याल का कोई आइडिया नहीं है, लेकिन यकीन मानिये कि आप दुनिया की सबसे खूबसूरत जगह के बारे में पढ़ रहे होते हैं।
जब जंगल से निकलकर बुग्याल क्षेत्र में प्रवेश किया, तो वन विभाग का एक सूचना-पट्ट लगा देखा, जिस पर लिखा था:
“मोइला टॉप के मुख्य आकर्षण - बुधेर प्राकृतिक गुफा, प्राकृतिक पानी का तालाब, ऐतिहासिक परी मंदिर, सुरम्य बुग्याल क्षेत्र।”
धुंध से ढके बुग्याल की शोभा ही अलग थी। एक ऊँचे टीले पर लकड़ी का मंदिर दिख रहा था। सीधे उसी की ओर बढ़े। मंदिर एकदम जीर्ण-शीर्ण अवस्था में है और कभी भी ढह जाने की कगार पर है। वैसे तो हिमालय में इस तरह ऊँची जगहों पर देवता और छोटे-छोटे मंदिर बनाने का रिवाज है, लेकिन इस मंदिर की कहानी देवताओं से संबंधित नहीं है। यह किसी अंग्रेज का घर बताया जाता है। लेकिन किसी अंग्रेज का घर इतना छोटा-सा थोड़े ही होगा? केवल एक कमरा - छोटा-सा। इसकी छत की बनावट इस क्षेत्र में स्थित अन्य मंदिरों जैसी ही है। बाद में रोहन से पूछना भूल गया, लेकिन इतना पक्का है कि अंग्रेज के घर वाली कहानी सही नहीं है।
मंदिर के उस तरफ एक छोटा-सा तालाब है। इसमें मटमैला पानी भरा था।
अब बारी थी गुफा ढूँढ़ने की। लेकिन इसका कोई निशान नजर नहीं आया।
गुफा कहाँ होगी?
जहाँ चट्टाने होंगी।
चट्टानें कहाँ होंगी?
बुग्याल पर तो नहीं।
मतलब बुग्याल से कहीं नीचे उतरना पड़ेगा। जंगल में। हमने जंगल और बुग्याल की मिलन-रेखा पर बुग्याल का चक्कर लगाना शुरू कर दिया, लेकिन कहीं भी गुफा का कोई संकेत नहीं मिला।
आखिर में नफेराम यादव को फोन किया। जी हाँ, फोन। यहाँ मरियल नेटवर्क आ रहा था। नफे भाई अप्रैल में इधर आए थे।
“रामराम नफे भाई। हमें मोइला डांडे पर गुफा नहीं मिल रही। पूरे बुग्याल का चक्कर लगा लिया।”
“मुझे भी नहीं मिली थी, लेकिन सुना है कि उस तालाब के आसपास ही है।”
फिर रोहन को फोन मिलाया - “भाई जी, गुफा नहीं मिल रही।”
“आपको मंदिर मिला?”
“हाँ, मिला।”
“फिर तालाब मिला?”
“हाँ, मिला।”
“तालाब के दाहिनी तरफ देखोगे, तो जमीन में एक छेद दिखेगा।”
“हाँ, है।”
“वही गुफा है।”
इतना छोटा-सा द्वार! शायद अंदर गुफा बड़ी हो। बैठकर मोबाइल की टॉर्च जलाकर सरक-सरककर अंदर जाना पड़ा। तकरीबन पंद्रह मीटर भीतर तक गया, लेकिन कहीं भी खड़े होने की जगह नहीं मिली। फिर गुफा और ज्यादा संकरी होने लगी, हम वापस आ गए।
धूप निकल गई तो यहीं लेट गए और सो गए। अब हमें होटल से चेक-आउट करने की चिंता तो थी नहीं। कुछ देर बाद कोई आवाज सुनकर आँख खुली। कुछ यात्री आ गए थे और तिरपाल बिछाकर और खाने-पीने का सामान खोलकर बैठ गए थे। उन्हें देखकर मुझे भी तलब लगी - “ओये डाक्टर, उठ चल। बारिश होने वाली है।”
“लेकिन धूप निकली हुई है। बारिश कैसे हो जाएगी?”
“मुझे भूख लगी है, इसलिए हो जाएगी।”


हम तो इन दोनों मोटरसाइकिलों को यहाँ खड़े करके चले गए... लेकिन आज सबसे ज्यादा आनंद इन दोनों ने ही लिया...

बुग्याल जाने का रास्ता



इसका नाम क्या है? पता नहीं। खाने में कैसी है? पता नहीं। जहरीली तो नहीं है? पता नहीं। तो नहीं खाते...

और ये पहुँचे बुग्याल में... समुद्र तल से 2700 मीटर ऊपर...





परी मंदिर


बुग्याल में छोटा मटमैला तालाब...



बुग्यालों में फूलों का गलीचा बिछा होना अनिवार्य है...










बुधेर गुफा


जयपुर के कुछ यात्री मिले, तो गपशप शुरू हो गई... इन्हें यहाँ तक लाई थीं सबसे पीछे बैठी गुज्जर कन्याएँ...








बुधेर फोरेस्ट रेस्ट हाउस...

लोखंडी से रेस्ट हाउस तक रास्ता कच्चा है, लेकिन अच्छा है...




रेस्ट हाउस की कैंटीन में किसी ने कुछ खाया, किसी ने कुछ और किसी ने कुछ

रेस्ट हाउस



और अब कुछ फोटो सीधे सुमित के कैमरे से...










बुग्याल में जाटराम का लेक्चर...



बुधेर रेस्ट हाउस की कैंटीन में किसी ने कुछ खाया, किसी ने कुछ और किसी ने कुछ। फिर मोटरसाइकिल स्टार्ट की और लोखंडी लौट आए।
“भाई जी, आ गए?” रोहन ने पूछा।
“हाँ जी, आ गए।”
“कैसा लगा?”
“कैसा लगा, वो सब छोड़। ये बता कि तेरा घर कहाँ है?”
“यहीं बगल में, गाँव में।”
“कोई अगर तेरे घर पर ठहरना चाहे तो? होटल में न ठहरना चाहे तो?”
“हो जाएगा।”
“तो अपना फोन नंबर दे और फेसबुक पर तुझे फ्रेंड रिक्वेस्ट भेजता हूँ। हम सितंबर या अक्टूबर में अपने दोस्तों के साथ फिर से आएँगे।”
“स्वागत है जी। जब मर्जी, आओ।”








1. मोटरसाइकिल यात्रा: सुकेती फॉसिल पार्क, नाहन
2. विकासनगर-लखवाड़-चकराता-लोखंडी बाइक यात्रा
3. मोइला डांडा, बुग्याल और बुधेर गुफा
4. टाइगर फाल और शराबियों का ‘एंजोय’
5. बाइक यात्रा: टाइगर फाल - लाखामंडल - बडकोट - गिनोटी
6. बाइक यात्रा: गिनोटी से उत्तरकाशी, गंगनानी, धराली और गंगोत्री
7. धराली सातताल ट्रैकिंग
8. मुखबा-हर्षिल यात्रा
9. धराली से दिल्ली वाया थत्यूड़




Comments

  1. सुन्दर चित्र, शुभकामनाएं सदा साथ हैं !

    ReplyDelete
  2. बढियां, नीरज जी

    ReplyDelete
  3. शानदार नीरज भाई���� सुमित भाई के लेख के बाद आपके लेखों में ओर जानकारियां साझा होगी

    ReplyDelete
  4. आहा...
    क्लीनिक की कुर्सी पर बैठे बैठे एक बार फिर मोइला पहुँचा दिया आपने...
    और वो मकड़ी का जाला बढ़िया कैद किया यू ने ।

    ReplyDelete
  5. बहुत बढ़िया फ़ोटो,
    और हाँ, वो जो भी है जहरीली नही है 🤣🤣

    ReplyDelete
  6. जहरीली तो बिलकुल नहीं बहुत खाया हमने

    ReplyDelete
  7. दोनों यात्राएं अच्छी चल रहीं हैं। जोड़ों वाली सभी फोटो सुंदर हैं। इस लेख को रेटिंग दें - रेटिंग का तरीका भी समझाएं।

    ReplyDelete
  8. बहुत खूबसूरत और रोमांचक यात्रा विवरण, बहुत अच्छा लगा।

    ReplyDelete
  9. बुधेर गुफा के लिए चकराता पुनः जाना चाहता था।कुछ अधूरा लगता था। लेकिन आपके सजीव व सचित्र वर्णन ने यह कमी पूरी कर दी । धन्यवाद नीरज जी।

    ReplyDelete
  10. बहुत खुशकिसमती हो यार

    ReplyDelete

Post a Comment

Popular posts from this blog

तिगरी गंगा मेले में दो दिन

कार्तिक पूर्णिमा पर उत्तर प्रदेश में गढ़मुक्तेश्वर क्षेत्र में गंगा के दोनों ओर बड़ा भारी मेला लगता है। गंगा के पश्चिम में यानी हापुड़ जिले में पड़ने वाले मेले को गढ़ गंगा मेला कहा जाता है और पूर्व में यानी अमरोहा जिले में पड़ने वाले मेले को तिगरी गंगा मेला कहते हैं। गढ़ गंगा मेले में गंगा के पश्चिम में रहने वाले लोग भाग लेते हैं यानी हापुड़, मेरठ आदि जिलों के लोग; जबकि अमरोहा, मुरादाबाद आदि जिलों के लोग गंगा के पूर्वी भाग में इकट्ठे होते हैं। सभी के लिए यह मेला बहुत महत्व रखता है। लोग कार्तिक पूर्णिमा से 5-7 दिन पहले ही यहाँ आकर तंबू लगा लेते हैं और यहीं रहते हैं। गंगा के दोनों ओर 10-10 किलोमीटर तक तंबुओं का विशाल महानगर बन जाता है। जिस स्थान पर मेला लगता है, वहाँ साल के बाकी दिनों में कोई भी नहीं रहता, कोई रास्ता भी नहीं है। वहाँ मानसून में बाढ़ आती है। पानी उतरने के बाद प्रशासन मेले के लिए रास्ते बनाता है और पूरे खाली क्षेत्र को सेक्टरों में बाँटा जाता है। यह मुख्यतः किसानों का मेला है। गन्ना कट रहा होता है, गेहूँ लगभग बोया जा चुका होता है; तो किसानों को इस मेले की बहुत प्रतीक्षा रहती है। ज्...

अदभुत फुकताल गोम्पा

इस यात्रा-वृत्तान्त को आरम्भ से पढने के लिये यहां क्लिक करें ।    जब भी विधान खुश होता था, तो कहता था- चौधरी, पैसे वसूल हो गये। फुकताल गोम्पा को देखकर भी उसने यही कहा और कई बार कहा। गेस्ट हाउस से इसकी दूरी करीब एक किलोमीटर है और यहां से यह विचित्र ढंग से ऊपर टंगा हुआ दिखता है। इसकी आकृति ऐसी है कि घण्टों निहारते रहो, थकोगे नहीं। फिर जैसे जैसे हम आगे बढते गये, हर कदम के साथ लगता कि यह और भी ज्यादा विचित्र होता जा रहा है।    गोम्पाओं के केन्द्र में एक मन्दिर होता है और उसके चारों तरफ भिक्षुओं के कमरे होते हैं। आप पूरे गोम्पा में कहीं भी घूम सकते हैं, कहीं भी फोटो ले सकते हैं, कोई मनाही व रोक-टोक नहीं है। बस, मन्दिर के अन्दर फोटो लेने की मनाही होती है। यह मन्दिर असल में एक गुफा के अन्दर बना है। कभी जिसने भी इसकी स्थापना की होगी, उसी ने इस गुफा में इस मन्दिर की नींव रखी होगी। बाद में धीरे-धीरे यह विस्तृत होता चला गया। भिक्षु आने लगे और उन्होंने अपने लिये कमरे बनाये तो यह और भी बढा। आज इसकी संरचना पहाड पर मधुमक्खी के बहुत बडे छत्ते जैसी है। पूरा गोम्पा मिट्टी, लकडी व प...

जाटराम की पहली पुस्तक: लद्दाख में पैदल यात्राएं

पुस्तक प्रकाशन की योजना तो काफी पहले से बनती आ रही थी लेकिन कुछ न कुछ समस्या आ ही जाती थी। सबसे बडी समस्या आती थी पैसों की। मैंने कई लेखकों से सुना था कि पुस्तक प्रकाशन में लगभग 25000 रुपये तक खर्च हो जाते हैं और अगर कोई नया-नवेला है यानी पहली पुस्तक प्रकाशित करा रहा है तो प्रकाशक उसे कुछ भी रॉयल्टी नहीं देते। मैंने कईयों से पूछा कि अगर ऐसा है तो आपने क्यों छपवाई? तो उत्तर मिलता कि केवल इस तसल्ली के लिये कि हमारी भी एक पुस्तक है। फिर दिसम्बर 2015 में इस बारे में नई चीज पता चली- सेल्फ पब्लिकेशन। इसके बारे में और खोजबीन की तो पता चला कि यहां पुस्तक प्रकाशित हो सकती है। इसमें पुस्तक प्रकाशन का सारा नियन्त्रण लेखक का होता है। कई कम्पनियों के बारे में पता चला। सभी के अलग-अलग रेट थे। सबसे सस्ते रेट थे एजूक्रियेशन के- 10000 रुपये। दो चैप्टर सैम्पल भेज दिये और अगले ही दिन उन्होंने एप्रूव कर दिया कि आप अच्छा लिखते हो, अब पूरी पुस्तक भेजो। मैंने इनका सबसे सस्ता प्लान लिया था। इसमें एडिटिंग शामिल नहीं थी।