तीसरा दिन:
अपने अलार्म के कारण हम सुबह 5 बजे उठ गए। ठंड़ बहुत थी इसलिए ढाबे वाले से गरम पानी लेकर नहाया। फटाफट तैयार हो कर कमरे से बाहर निकले और ॐ नमः शिवाय बोल कर मंदिर की ओर प्रस्थान किया। यात्रा शुरुआत में तो ज्यादा मुश्किल नहीं थी, पर मेरे लिए थी। इसका कारण था मेरा 90 किलो का भारी शरीर। देबाशीष वैसे तो कोई नशा नहीं करते, पर उन्होंने सिगरेट जलायी। समझ नहीं आ रहा था कि ये सिगरेट पीने के लिए जलायी थी या सिर्फ फोटो के लिए। यात्रा की शुरुआत में घना जंगल है। सुबह 5:30 बजे निकलने के कारण अँधेरा भी था। इसलिए मन में भय था कि किसी भालू जी के दर्शन हो गए तो? पर ऐसा नहीं हुआ।
थोड़ी देर में ही उजाला हो गया। 1 किलोमीटर जाने पर एक चाय की दुकान मिली जिसे एक वृद्ध महिला चला रही थी। वहाँ नाश्ता किया। वहीं एक लाल शरबत की बोतल देखी । पूछने पर पता चला कि यह बुरांश का शरबत है। बुरांश उत्तराखंड़ में पाया जाने वाला फूल है । इसे राजकीय पुष्प का दर्जा भी प्राप्त है। अगर आप मार्च - अप्रैल के महीने में उत्तराखंड़ आये तो बुरांश के लाल फूल बिखरे हुए मिलेंगे।
नाश्ता करके हम आगे बढ़ चले। एक पहाड़ी कुत्ता भी हमारा साथी बन गया। ऐसा लग रहा था कि वो रास्ता बताने ही आया है। वो कुछ दूर आगे चलता और फिर पीछे मुड़ कर हमें देखने लगता। थोड़ी दूर जाने पर जंगल समाप्त हो गए और अब सामने थे हरे भरे बुग्याल। ऊँचे पहाड़ो पर पाए जाने वाले घास के मैदानों को यहाँ बुग्याल कहा जाता है। यह बहुत ही सुन्दर दृश्य था। हमारे रास्ते में तो कहीं बर्फ नहीं दिखी, लेकिन सामने ही कई बर्फ से ढकी चोटियाँ थी। जिस चोटी को मैने सबसे पहले पहचाना वो थी चौखम्बा। यहाँ से केदारनाथ की पहाड़ियाँ भी साफ़ दिखाई दे रही थीं। सभी बर्फ़ से ढकी थीं। हमने यहीं से केदारनाथ को प्रणाम किया।
मुझे थकान होने लगी थी, लेकिन डंडे ने बहुत सहारा दिया। अब तक हमें रास्ते में कोई नहीं मिला था। हमने कई फोटो खींचे। थोड़ा आगे बढ़े तो देखा एक छोटी-सी पगडण्डी थोड़ा नीचे की ओर जा रही थी। वहाँ हेमवती नंदन बहुगुणा विश्वविद्यालय का शोध केंद्र है। छात्र यहाँ उच्च हिमालय क्षेत्र में पायी जाने वाली वनस्पतियों पर शोध करते हैं।
हम आगे बढ़ने लगे। मौसम साफ था। कुछ दूर जाने पर बाबा तुंगनाथ का मंदिर दिखने लगा था। बाबा के मंदिर से बजने वाले भक्ति गानो की आवाज आने लगी थी। हमने थोड़ी और तेज़ी दिखाई और पहुँच गए बाबा के द्वार पर।
यहाँ कुछ दुकाने थी, जिनमे अधिकांश बंद ही थी। हमने एक चाय की दुकान पर चाय पी। प्रसाद भी वहीं पर उपलब्ध था। वहीं हमें पंजाब से आया एक युवक मिला। वो एक ड्राइवर था जो अपने मेहमानों को लेकर आया था। उसका नाम अमन था। अब इस यात्रा में वह भी हमारा साथी बन गया। हमने चाय वाले को मैगी बनाने को कहा और प्रसाद खरीदकर दर्शन करने चल दिये। वहाँ हम तीनों के अतिरिक्त और कोई यात्री नहीं पहुँचा था। अमन के मेहमान काफी पीछे थे।
जूते उतारकर जैसे ही जमीन पर पैर रखे, लगा कि बर्फ पर खड़े हों। पंडित ने पास ही पड़े लोटे की ओर इशारा किया और जल लेकर आने को कहा। जल और प्रसाद लेकर मंदिर में प्रवेश किया। एक अजीब-सी शांति थी वहाँ। हमारे सामने ही बाबा तुंगनाथ का स्वयम्भू शिवलिंग था। यहाँ एक मुकुट रखा था। पंडित ने बताया कि शीतकाल में इसे ही मक्कूमठ नाम के गाँव में पूजा जाता है। बाबा तुंगनाथ की कथा कुछ इस प्रकार है।
महाभारत के युद्ध के बाद भाई-बंधुओ की हत्या के पाप से मुक्ति पाने के लिए पांडव हिमालय यात्रा पर निकल गए। मार्ग में उन्हें भगवान शिव दिखे। शिव जी ने सोचा कि ऐसा ना हो कि पांडव मोक्ष माँग ले। यह सोच कर उन्होंने एक भैंसे का रूप धारण किया और भागने लगे, किन्तु भीम ने उन्हें पहचान लिया और दो चट्टानों पर पैर फैलाकर खड़े हो गए। ऐसा देख कर भगवान् शिव धरती में समा गए। धरती में समाने के बाद भगवान शिव का शरीर पाँच भागों में हिमालय में अलग-अलग स्थानों पर प्रकट हुआ। तुंगनाथ में भगवान् शिव की भुजा है। यहाँ शिव जी को अक्षय तृतीया (अप्रैल/मई के मास में एक त्यौहार) से भैया दूज (दीपावली के दो दिन बाद) तक पूजा जाता है। भैया दूज के बाद बाबा को चोपता से कुछ दूरी पर मक्कूमठ नाम के गाँव में ले जाया जाता है। शीत काल में पूजा वहीं होती है।
तो यह थी बाबा तुंगनाथ की कथा। मंदिर में पुजारी ने पूरे 20 मिनट तक पूजा करायी। पहली बार किसी तीर्थ में पुजारी ने इतना समय दिया था। इस दौरान अथाह शांति मिली। पूजा कराकर बाहर निकले तो पुजारी ने बाहर स्थित कुछ मंदिरो में पूजा करायी।
तुंगनाथ मंदिर समुद्र तल से लगभग 3600 मीटर की ऊँचाई पर स्थित है। पूजा के बाद लगभग आधे घंटे तक फोटो सेशन हुआ। पंडित जी ने भी हमारे साथ कई फोटो खिंचवायी। यह स्थान है ही इतना मनोरम कि कोई फोटो लिए बिना रह ही नहीं सकता। यहाँ से हिमालय की कई चोटियों के दर्शन हो रहे थे। ज्यादा नाम तो नहीं जानता, लेकिन चौखम्बा और केदारनाथ को पहचानता था। सभी बर्फ से ढकी थी। इससे सुन्दर कुछ नहीं हो सकता था। बस थोड़ा-सा अफ़सोस था कि तुंगनाथ पर बर्फ नहीं मिली। मिलेगी भी कैसे? हम सितंबर के महीने में जो गए थे। मैगी और चाय का नाश्ता कर के चंद्रशिला के प्रस्थान का निश्चय किया। रास्ता पूछने पर पता लगा कि मंदिर पीछे से रास्ता है।
हम बढ़ चले अपने रास्ते पर। रास्ता लगभग 200 मीटर तक तो ठीक-ठाक है, पर इससे आगे ही पता चल जाता है कि हम एक दुर्गम रास्ते की ओर बढ़ रहे हैं। हो सकता है कि अन्य ट्रैकर्स की लिए यह आसान हो, पर मेरे लिए तो मुश्किल ही था। रास्ता बहुत ऊबड़-खाबड़ है। कई स्थानों पर पत्थर खिसक रहे थे। कुछ जगहों पर बर्फ पिघलने के कारण काई जम गयी थी। जैसे-जैसे हम आगे बढ़ रहे थे, धुंध बढ़ती जा रही थी और रास्ता और मुश्किल होता जा रहा था। देबाशीष और अमन तो तेजी से आगे बढ़ रहे थे, जबकि मैं खुद को ढोते हुए धीरे-धीरे चल रहा था। इस यात्रा में डंडे ने बहुत साथ दिया। थोड़ा आगे बढ़ने पर एक मार्ग दायीं ओर जा रहा था। जिस पर लिखा था ‘गोपेश्वर जाने का मार्ग’। एक बार सोचा कि उस ओर भी चलते हैं। पर कुछ सोच कर नहीं गए।
हमने यात्रा शुरू करने से पहले ही एक-एक डंडा ले लिया था। इसने बहुत साथ दिया। इसने कई जगह गिरने से बचाया और कई जगह थकान कम करने में साथ दिया।
थोड़ा आगे बढ़े तो एक ऊँचाई-सी दिखाई दी। शायद वही चंद्रशिला था। वो दोनों तो आगे निकल चुके थे। मैंने चंद्रशिला के अनुमान की वजह से थोड़ी तेज़ी दिखायी और ऊपर पहुँच गया। पर यह क्या? ऊपर तो कुछ और ही नज़ारा था। सामने एक छोटा-सा घास का मैदान था और एक बहुत ऊँची चोटी। उस चोटी के ऊपर था चंद्रशिला। यही अंतिम चढ़ाई थी, पर थी बेहद मुश्किल। कई जगह गिरते-गिरते बचा। जैसे-तैसे चढ़ाई पूरी की और पहुँच गए चंद्रशिला पर।
एक अलग ही अनुभव था यहाँ। एक छोटा-सा मंदिर चंद्रशिला माता का। हम तीनो के अलावा वहाँ कोई नहीं था। चंद्रशिला लगभग 4100 मीटर की ऊँचाई पर स्थित है। यहाँ पहुँचते-पहुँचते हम धुंध में घिर चुके थे। अगर मौसम साफ़ होता तो बहुत सी चोटियाँ दिखायी देतीं। यहाँ किसी ने एक तिरंगा झंडा लगा रखा था तो फोटो लेना बनता था। हमने यहाँ कई फोटो ली। थोड़ी ही देर में देहरादून के कुछ युवाओं का समूह आ पहुँचा। अमन के मेहमान मंदिर तक पहुँच चुके थे, इसलिए उसका जल्दी नीचे पहुँचना जरूरी था। वो नीचे चला गया। थोड़ी देर बाद हम भी नीचे की और चल दिए। उतरने में शुरूआत में थोड़ी-सी परेशानी हुई, पर बाद में आसानी हो गयी। मंदिर पहुँचने पर अमन के मेहमानों से मिले। दो बुजुर्ग थे। बस वे देखने में बुज़ुर्ग थे, पर जोश जवानों से भी ज्यादा। अंकल की उम्र करीब 70 वर्ष थी और आण्टी की उम्र लगभग 65 वर्ष। वे कनाडा में रहने वाले अप्रवासी भारतीय थे जो भारत यात्रा पर निकले थे। कैलाश मानसरोवर और केदारनाथ की यात्रा पूरी करके वे तुंगनाथ पहुँचे थे। आण्टी की एक वर्ष पहले ही बाईपास सर्जरी हुई थी। अंकल तो चंद्रशिला तक भी गये। इस उम्र में इतना जोश देख कर सलाम करना बनता था।
चाय पीकर चोपता का रुख किया। वापसी में उसी बुज़ुर्ग महिला की चाय की दुकान पर पहुँचे और बुरांश का शरबत खरीद कर आगे बढ़ चले। उस दुकान से एक पगडण्डी चोपता की और जाती थी। हम मुख्य मार्ग को छोड़कर उसी ओर बढ़ चले और लगभग 2:30 चोपता पहुँच गए। गोपेश्वर से जो बस 12:30 बजे चलती थी, वही बस यहाँ पहुचने वाली थी। हम दोनों बस की पिछली सीट पर बैठ गए और चल पड़े गुप्तकाशी की ओर।
वहाँ से निकलते ही पहला पड़ाव था दुगलबिट्टा। यहाँ कुछ कैंप लगे हुए थे। थोड़ा आगे जाने पर एक मार्ग मक्कूमठ जा रहा था और दूसरा ऊखीमठ। ऊखीमठ वाले रास्ते पर बस मस्तूरा पहुँची। मस्तूरा एक शानदार घाटी है। यहाँ कई सवारियाँ चढीं। उन्हीं में दो बाजे वाले भी थे। दोनों भाई ही थे। छोटा भाई जो करीब 13-14 वर्ष का था, मेरे साथ बैठ गया। वह कैसियो बजाता था। उसने मुझे इस क्षेत्र के बारे में कई जानकारियाँ दीं। वह 9वीं कक्षा में पढता भी था। उसी ने बताया कि बादल फटने पर क्या-क्या होता है। वो गुप्तकाशी किसी उत्सव में बाजा बजाने जा रहा था। पढ़ाई के साथ-साथ बाजा बजा कर पैसा कमाना! वास्तव में बहुत मेहनती लोग होते हैं ये लोग। ऊखीमठ से होते हुए बस गुप्तकाशी पहुँच गयी।
ऊखीमठ और गुप्तकाशी दोनों ही मन्दाकिनी नदी के किनारे बसे हैं। गुप्तकाशी से केदारनाथ पर्वत का शानदार दॄश्य दिख रहा था। यहाँ पहुँचते ही पहला काम था रहने का ठिकाना ढूँढ़ना। एक होटल वाले से बात की तो वह 400 रुपये में मान गया। सामान रख कर खाना खाने चल पड़े। मैंने देबाशीष को बताया कि गौरी कुंड़ यहाँ से 30 किलोमीटर दूर ही है। गौरी कुंड़ से ही केदारनाथ की यात्रा शुरू होती है। उन्होंने तो पूरा मन बना लिया था केदारनाथ जाने का, पर समय और पैसों की कमी के कारण यह संभव नहीं था। हेलीकॉप्टर सेवा के बारे में पता किया तो पता लगा कि 7500 रुपये में केदारनाथ के दर्शन होंगे। देबाशीष तो तैयार थे, पर मैं ही पीछे हट गया। मेरा बजट इसकी अनुमति नहीं दे रहा था। हमने संकल्प लिया कि 2017 में केदारनाथ ही जायेंगे।
गुप्तकाशी में ही कालीमठ और भगवान् शिव का मंदिर भी है, पर हम वहाँ नहीं गए। कमरे में पहुँच कर कुछ फोटो ली और फिर सो गए।
Post karne ke liye bahut bahut dhanyawad..
ReplyDeleteUmesh
Good Ya. Acha Likha Hai. Photos Bhi Acche Aaye Hain. Thoda Weight Kam Ho Jaye Toh Tracking Aur Bhi Easy Ho Jayegi Umesh Ji. Good Going. Good Luck For Your Next Track.
ReplyDeleteFir Milte Hain.
Try kar raha hu kam karne ka, lekin hota hi nahi.. upar se BPO ki shifts... :(
Deleteबहुत बढ़िया लिखे हैं, इनको अपना ब्लाग बना लेना चाहिये।
ReplyDeleteAbhi itna bada kad nahi hai mera.. Aapke ne ise pada.. Bahut bahut shukriya.
DeleteAapne*
DeleteThoda Weight Kam Ho Jaye Toh Aur Bhi Easy Ho Jayegi Umesh. Pahle bhag ki apeksha yah bhag jyada acha hai.
ReplyDeletebahut bahut sundar yatra rahi aap ki.... aap ki yatra ka vivaran padh ke bada maza aaya sir or bhi yatra ka vivaran likhana.. or plz sir.. esi jagah pe rahane ki jagah ka agar name (hotel-dharmshala) ke bhi likhoge to sayad ham jese ko jana ho to sidhe vahi pe ja sake.. plz. sir
ReplyDeleteGine-chune hotel hai yaha. Mai Devlok hotel me ruka tha. Kirya bhi ₹400 hi tha.
DeleteBhai maine aur mere doston ne june me tungnath aur chandrashila jane ka plan banaya hai..kyuki sept-dec bahut busy schedule rehta hai..
ReplyDeleteVaise trek ka rasta kaisa hai..kya first time trekkers ke liye acha rahega..mujhe thoda experience hai but mere bhai aur dosto ko nahi hai..plz jarur bataiyega..
ट्रैक आसान ही है और अच्छी तरह पक्का बना हुआ है। जिसने कभी ट्रैकिंग नहीं की हो, वो भी इसे आसानी से कर लेगा।
DeleteThank u bhai..
Deleteबेहतरीन वृतांत
ReplyDeleteशानदार
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