जून का तपता महीना था और हमने सोच रखा था कि 2500 मीटर से ऊपर ही कहीं जाना है। मई-जून में घूमने के लिए सर्वोत्तम स्थान 2500 मीटर से ऊपर ही होते हैं। और इसमें चकराता के आगे वह स्थान एकदम फिट बैठता है, जहाँ से त्यूनी की उतराई शुरू हो जाती है। इस स्थान का नाम हमें नहीं पता था, लेकिन गूगल मैप पर देवबन लिखा था, तो हम इसे भी देवबन ही कहने लगे। इसके पास ही 2700 मीटर की ऊँचाई पर एक बुग्याल है और इस बुग्याल के पास एक गुफा भी है - बुधेर गुफा। बस, यही हमें देखना था।
उधर इंदौर से सुमित शर्मा अपनी बुलेट पर चल दिया था। वह 5 जून की शाम को चला और अगले दिन दोपहर बाद दिल्ली पहुँचा। पूरा राजस्थान उसने अंधेरे में पार किया, क्योंकि लगातार धूलभरी आँधी चल रही थी और वह दिन में इसका सामना नहीं करना चाहता था। लेकिन उसे क्या पता था कि इन आँधियों ने दिल्ली का भी रास्ता देख रखा है। दिल्ली पूरी तरह इनसे त्रस्त थी।
जब मैं ऑफिस से लौटा तो सुमित बेसुध पड़ा सो रहा था। एक टांग दीवार पर इस तरह टिकी थी कि अगर वह जगा होता तो कोशिश करने पर भी इस स्टाइल में नहीं लेट सकता था। उसे रात मैंने सलाह भी दी थी कि चित्तौड़गढ़, अजमेर या जयपुर कहीं भी वातानुकूलित कमरा लेकर आठ-दस घंटे की नींद लेकर ही आगे बढ़ना, लेकिन उसने वही पिटा-पिटाया जवाब दोहरा दिया - “घुमक्कड़ी कम खर्चे में करनी चाहिए।”
“लेकिन मोटरसाइकिल चलाते समय कभी भी नींद से समझौता नहीं करना चाहिए। यह जीवन-मरण का सवाल है।”
शाम चार बजे मैं करोल बाग था। मोटरसाइकिल की सीट मॉडीफाई करानी थी। इसकी बड़ी सख्त आवश्यकता थी, लेकिन हर बार मैं आलस कर जाता था। हम आठ-नौ दिनों के लिए जा रहे थे, तो इस बार आलस करना ठीक नहीं समझा। लेकिन करोल बाग तो समूचा ही बुलेट और बुलेटवालों से भरा था। ये सब के सब लद्दाख जाने वाले थे। बुलेटों के बीच में अपनी डिस्कवर दिखनी ही बंद हो गई। ‘खजांची’ नाम की उस नन्हीं-सी दुकान के सामने बाइक खड़ी करने की जगह नहीं थी, जिसे मास्टर नरेंद्र गौतम ने सीट मॉडीफाई कराने के लिए सुझाया था।
“भाई, सीट मॉडीफाई करानी है।”
“बुलेट कौन-सी है?”
“डिस्कवर है।”
उसने अपने साथी से पूछा - “यह बुलेट का नया मॉडल आया है क्या?”
खैर, उसने बाइक पर एक नजर मारी और पूछा - “कैसी सीट लगवानी है?”
“चौड़ी।”
“ठीक है, लग जाएगी। ओ, ओये छोटू, इन्हें उधर मेन दुकान में ले जा।”
थोड़ी ही दूर ‘खजांची’ की बड़ी मेन दुकान थी। वहाँ के सारे कर्मचारी इतने व्यस्त थे कि “चार दिन बाद आना” कहकर बात समाप्त कर दी। मैं फिर से छोटी दुकान में गया - “यार, वे तो चार दिन बाद आने को कह रहे हैं। मैं नहीं आऊँगा अब। दो साल से आता-आता आज आना हो पाया है। अब चार दिन बाद कैसे आना हो जाएगा?”
यह लद्दाख का सीजन था। बुलेट का सीजन। हर कोई अत्यधिक व्यस्त था और महंगा भी। बुलेट के अलावा इधर किसी अन्य मोटरसाइकिल की कोई पूछ नहीं, खासकर इस सीजन में। लेकिन बुलेट से भी ज्यादा जिस चीज की पूछ थी, वो मेरी जेब में थी।
“पैसे कितने लगेंगे?”
“पच्चीस सौ।”
“ले, ये पकड़। और अभी निपटा दे इस काम को।”
तीनों कारीगरों ने एक साथ सिर उठाकर देखा। मुझे भी पता था कि अगर जून के अलावा किसी भी महीने में आता, तो हजार - बारह सौ में यह काम हो जाता, लेकिन आलस का नतीजा भी तो होता है कुछ।
“ठीक है। दो घंटे लगेंगे।”
फिर भी वापस शास्त्री पार्क आने में रात के ग्यारह बज चुके थे।
दोपहर तक हमारी आज की योजना थी शाम चार बजे निकल लेने की और रात दस बजे तक विकासनगर पहुँच जाने की। यही योजना विकासनगर में रहने वाले मित्र उदय झा जी को बता दी। झा साहब मान गए। फिर करोल बाग चला गया, उसने कहा दो घंटे और हमने तय किया कि रात आठ बजे दिल्ली से निकलेंगे और आधी रात को दो बजे विकासनगर पहुँचेंगे। झा साहब इस बार भी मान गए। फिर करोल बाग में ही दस बज गए, तो तय किया कि दिल्ली से बारह बजे चलेंगे और सुबह छह बजे... झा साहब फिर मान गए।
लेकिन ग्यारह बजे जब शास्त्री पार्क पहुँचा तो झा साहब को मैसेज कर दिया - “सरजी, हम सुबह दिल्ली से चलेंगे।”
मोटरसाइकिल यात्राओं की पहली शर्त - नींद से समझौता नहीं।
6 जून को सुबह कितने बजे उठे, पता नहीं; कितने बजे चले, पता नहीं; लेकिन जब हम यमुना पार कर रहे थे तो सभी गाड़ियों की हैडलाइटें जली हुई थीं। मतलब चार और पाँच के बीच का समय था। दीप्ति पीछे बैठी हुई मोबाइल से वीडियो रिकार्डिंग कर रही थी, लेकिन एक भी सही नहीं बनी और बाद में डिलीट भी करनी पड़ीं। इससे सिद्ध होता है कि हमारे पास वीडियो रिकार्डिंग करने के लिए अच्छा कैमरा और अच्छा मोबाइल नहीं है और हमें इस बात का मलाल भी नहीं है। उजाला हो जाएगा, तो अपने आप ही सब सही होने लगेगा।
दिल्ली पार हो गई, बहालगढ़ भी पार हो गया। मुरथल पहुँचने ही वाले थे कि अचानक कुछ याद आया। सुमित प्राचीनकाल से ही एक व्हाट्सएप ग्रुप का सदस्य है। ग्रुप का नाम है “घुमक्कड़ी... दिल से”। प्यार से सब इसे जी.डी.एस. कहते हैं। इसके एडमिन संजय कौशिक हैं। प्राचीनकाल में जब मैं भी इस ग्रुप में हुआ करता था, तब भी इसके एडमिन कौशिक जी ही थे।
“कौशिक जी से मिलते हुए चलें क्या?”
“कौन? संजय जी?”
“हाँ। बगल में ही रहते हैं।”
“रहने दे यार। सुबह सवेरे बिना सूचना दिए जाना ठीक नहीं।”
“वो सब छोड़। फोन खड़खड़ा एक बार।”
और सेकंडों में हमारे पास पूरे दिशा-निर्देश आ गए - अग्रसेन चौक, दारू का ठेका, अस्पताल, लोहे का गेट... और ऊपर छत पर खड़े होने का वादा।
वैसे तो करनाल पार करके हमें यमुनानगर की ओर मुड़ जाना था और सुमित हमारे ठीक पीछे-पीछे ही चल रहा था। हम जिधर मुड़ते, वह भी उधर ही मुड़ जाता और हम जिस गाड़ी को ओवरटेक करते, वह भी उसी को ओवरटेक करता। लेकिन करनाल से पहले बूँदाबाँदी होने लगी, हमें रेनकोट पहनने पड़ गए और रेनकोट पहनते ही सुमित के लिए हमें पहचानना मुश्किल हो गया। हम करनाल पार करके यमुनानगर वाले मोड पर रुककर सुमित की प्रतीक्षा करने लगे और वह एक ट्रक को ओवरटेक करता-करता आगे निकल गया। हम उसे इशारा भी नहीं कर सके।
आगे बढ़ते हैं। कुछ दूर बाद वह हमें न पाकर रुक जाएगा और हम पीपली से यमुनानगर की ओर मुड़ लेंगे। इसी चक्कर में मैंने भी स्पीड़ बढ़ा दी और लाल बरसाती पहने सुमित से सौ मीटर पीछे जा लगे। कई किलोमीटर चलने के बाद वो लाल बरसाती बाएँ मुड़ गई और अपने गाँव की ओर चली गई।
पीपली तक भी सुमित हाथ नहीं आया। अब फोन करना पड़ा - “शाहबाद रुक जाना।”
उधर से उत्तर आया - “मैं तो तुम्हारे पीछे-पीछे हूँ। जहाँ चाहोगे, तुम्हीं रुक लेना।”
“तू जिसके पीछे-पीछे है, हमें पता है... और हम भी अभी-अभी बहुत दूर तक ‘तेरे’ पीछे रहे थे।”
मारकंडा नदी को जय सरस्वती कहकर प्रणाम किया और नारायणगढ़ की ओर मुड़ गए। भूख लगी थी, लेकिन हरियाणा में खाने-पीने की क्या दिक्कत!
साहा पार करते ही आश्चर्यजनक रूप से चार-लेन की सड़क मिल गई। सामने पंचकुला और चंडीगढ़ की दूरियाँ लिखी आ रही थीं। यह ताजी-ताजी ही चार-लेन बनी है। और आपको बता दूँ कि जहाँ भी पहली बार चार-लेन की सड़क बनती है, वहाँ के निवासी रोंग साइड में डिवाइडर से सटकर गाड़ियाँ चलाते हैं।
लेकिन चार-लेन ज्यादा देर तक साथ नहीं रही। शहजादपुर में हमें इससे अलग होना पड़ा। यह तो बेचारी खाली-पीली चंडीगढ़ चली गई और हम नारायणगढ़।
नारायनगढ़ से निकलते ही काला अंब है, जहाँ हम हरियाणा से निकलकर हिमाचल में प्रवेश कर जाते हैं। दोपहरी हो चुकी थी और बादल अभी तक हरियाणा में ही थे। पता नहीं यह असल में हरियाणा है या हरयाणा - हरि का देश है या हर का, लेकिन बादलों का उधर ही मन लग गया। हिमाचल में तपती धूप निकली थी और लू भी चल रही थी। रेनकोट उतारकर एक तरफ रख दिए।
काला अंब |
मैं और सुमित साथ यात्रा करें और किसी फॉसिल पार्क में न जाएँ, यह नहीं हो सकता। कच्छ गए थे, तब भी फॉसिल पार्क और थार गए थे, तब भी फॉसिल पार्क। लगता है करोड़ों साल पहले समाप्त हो चुके जीवों और हमारा कुछ याराना है, तभी तो हम यमुनानगर जाते-जाते रह गए और यहाँ आ गए। काला अंब के पास भी एक फॉसिल पार्क है - सुकेती फॉसिल पार्क।
हमारे अलावा कोई भी यात्री नहीं था। केवल पार्क के कर्मचारी ही थे। वातानुकूलित वातावरण था और लू से चलकर यहाँ आने में बड़ा सुकून मिला। मन किया कि कोई हमें भी फॉसिल बनाकर यहीं किसी अलमारी में बैठा दे।
यहाँ कुछ भी प्रवेश शुल्क नहीं है।
“सर, एंट्री फ्री है। और अगर आप इस रजिस्टर में कुछ लिख देंगे तो अच्छा लगेगा।” उन्होंने एक रजिस्टर सरका दिया। हमसे पहले बहुत सारे लोगों ने तारीफ लिख रखी थी। हमने भी तारीफ लिख दी। ए.सी. चल रहा हो और एंट्री फ्री हो, तो भला कौन बावला तारीफ नहीं करेगा!
जब जीव मरने के बाद मिट्टी में मिल जाते हैं, तो कई बार कुछ कारणों से वे पूरी तरह नष्ट नहीं होते और लाखों-करोड़ों सालों में वे इतने कठोर हो जाते हैं कि पत्थर जैसे बन जाते हैं। इन्हें ही ‘फॉसिल’ कहा जाता है। डायनासोर जैसे भी कोई जीव धरती पर रहते थे, इसका पता उनके फॉसिल से ही चला है।
आपको पता ही होगा कि कभी प्राचीनकाल में हिमालय नहीं था, बल्कि इसके स्थान पर समुद्र था। गोंडवानालैंड और यूरेशियन प्लेटें आपस में टकराईं तो उनके टक्कर-स्थल पर हिमालय बन गया। गोंडवानालैंड प्लेट अभी भी यूरेशियन प्लेट की ओर खिसक रही है, जिसके कारण आज भी हिमालय की ऊँचाई बढ़ रही है। शिवालिक की पहाड़ियाँ हिमालय की सबसे बाहरी पहाड़ियाँ हैं और गोंडवानालैंड और टक्कर-स्थल के बीच में हैं। टक्कर से पहले गोंडवानालैंड एक द्वीप था और इसके व यूरेशियन प्लेट के बीच में समुद्र था। धीरे-धीरे लाखों-करोड़ों सालों में टक्कर हुई, इनके बीच की जमीन ऊपर उठी और समुद्र भी धीरे-धीरे समाप्त हो गया। यह सारी प्रक्रिया लाखों वर्षों में सम्पन्न हुई और इतना धीरे-धीरे सम्पन्न हुई कि किसी को इसका पता भी नहीं चला। समुद्री जीव भी मरकर विलीन होते चले गए और फिर दलदली जीव भी। आज यहाँ उनके अवशेष फॉसिलों के रूप में मिलते हैं।
एक दूसरे कक्ष में मानव का विकास क्रम दिखाया गया है। साथ ही शिवालिक से स्पीति तक की चट्टानों के टुकड़े और उनमें अंतर भी दिखाया गया है। कहाँ-कहाँ धरती की अंदरूनी चट्टानों पर कितना-कितना बल पड़ रहा है और उससे क्या हो रहा है, सब आपको देखते ही समझ आ जाएगा। आपको हिमाचल के भूगोल की थोड़ी भी जानकारी है, तो यह आपको बड़ा अच्छा लगेगा, अन्यथा आप दो फोटो खींचकर बाहर निकल जाएँगे।
बाहर कुछ जीवों के बड़े-बड़े प्रतिरूप रखे हैं, जो सेल्फी लेने के काम आते हैं। गर्मी के बावजूद भी इन सभी जानवरों ने हमारा अच्छा साथ दिया और बिना नुकसान पहुँचाए, बिना हिले-डुले फोटो खिंचवाए।
हाथी दाँत |
दरियाई घोड़े के जबड़े का फॉसिल |
विभिन्न प्रकार के फॉसिल |
हिमाचल के विभिन्न भागों की चट्टानें |
मानव का विकास-क्रम... आखिरी मानव के आगे दीवार है, उसका अब और विकास नहीं होगा... |
उधर विकासनगर में झा साहब ने आज की छुट्टी ले ली थी और हम सोच रहे थे कि वे शाम 5 बजे ऑफिस से लौटेंगे, तभी उनके यहाँ पहुँचेंगे। वे बार-बार फोन करते रहे और हम फॉसिलों में घूमते रहे।
नाहन से पाँवटा साहिब की सड़क शानदार बनी है और ट्रैफिक भी ज्यादा नहीं है। लेकिन गर्मी के कारण मुझे नींद आ रही थी और नींद में मैं बाइक नहीं चलाता। कोल्ड-ड्रिंक पीने के बहाने दस मिनट की झपकी बड़ी कारगर रही।
पाँवटा साहिब पहुँचते-पहुँचते हमें पता चल गया कि झा साहब ने आज की छुट्टी ले रखी है और वे हमारे विलंब के कारण परेशान हो रहे होंगे। इसलिए दीप्ति का यमुना किनारे कुछ देर बैठने का मन होने के बावजूद भी हम यहाँ नहीं रुके और यमुना पार करके उत्तराखंड में प्रवेश कर गए। यहाँ आते ही शीतल हवाओं से सामना हुआ। सड़क पर थोड़ी-थोड़ी दूरी पर फैला मलबा बता रहा था कि रात यहाँ जमकर बारिश हुई है। बाद में झा साहब ने इसकी पुष्टि भी की।
हरबर्टपुर में लीची ही लीची और आम ही आम। रास्ते में लीची के पेड़। पहली बार पता चला कि विकासनगर लीची उत्पादन का गढ़ है। उदय झा जी के घर पर पहुँचे तो टोकरा भरकर लीची सामने थी। जस्ट अभी-अभी तोड़ी हुई। इनका घर विकासनगर के बाहर है और चारों ओर खेत व लीची के बाग ही हैं।
शाम को विकासनगर के कुछ गणमान्य व्यक्ति आ गए और झा साहब ने उनके सामने हमारी इतनी वाहवाही कर दी कि सीना चौड़ा हो गया।
उदय झा और विकासनगर के प्रख्यात कवि शिव सरहदी जी को किताब भेंट कर दी... |
अगला भाग: विकासनगर-लखवाड़-चकराता-लोखंडी बाइक यात्रा
1. मोटरसाइकिल यात्रा: सुकेती फॉसिल पार्क, नाहन
2. विकासनगर-लखवाड़-चकराता-लोखंडी बाइक यात्रा
3. मोइला डांडा, बुग्याल और बुधेर गुफा
4. टाइगर फाल और शराबियों का ‘एंजोय’
5. बाइक यात्रा: टाइगर फाल - लाखामंडल - बडकोट - गिनोटी
6. बाइक यात्रा: गिनोटी से उत्तरकाशी, गंगनानी, धराली और गंगोत्री
7. धराली सातताल ट्रैकिंग
8. मुखबा-हर्षिल यात्रा
9. धराली से दिल्ली वाया थत्यूड़
आय हाय लीची...😊😊👍
ReplyDeleteअतिसुन्दर ....
ReplyDeleteBhai GoPro le lo for vedio shoot on bike
ReplyDeleteदो बाईक सवार डिस्कवर ओर बुलेट साथ साथ। यात्रा का बीच का भाग भी पता चला। दोनों यात्राएं खूबसूरत है ं
ReplyDeleteशानदार
ReplyDeleteBhai Seat modified karwai hai us ka photo bhi post karna chaiye, kitna fark pada seat modified karwane k baad
ReplyDeleteबहुत ही बढ़िया Yatra नीरज जी, भाभी जी and dr. साहब, next भाग का wait रहेगा
ReplyDeleteAese hi likhte rahiya
ReplyDeleteBahut badhiya varnan
ReplyDeletebahut badiya sir
ReplyDeleteरोचक यात्रा वर्णन ! नीरज जी.
ReplyDeleteबढ़िया यात्रा वर्णन
ReplyDeleteसही शब्द हरयाणा है
ReplyDeletenice write up...
ReplyDeleteअत्यंत रोचक यात्रा वृत्तांत, विस्तृत और सचित्र, यूँ कि जैसे हमने भी घूम लिया.
ReplyDeleteशानदार यात्रा मजा आ गया पड़ कर
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