अगले दिन यानी 24 अगस्त को आराम से साढे आठ बजे सोकर उठे। तेज हवाएं अभी भी चल रही थीं। बाहर निकले तो घना कोहरा था। अगस्त में कोहरा आमतौर पर नहीं होता लेकिन यहां के भूगोल, तेज हवाओं और अगस्त के नम वातावरण की वजह से यहां ऊपर बादल बन गये थे जो कोहरे जैसे लग रहे थे। नीचे घाटी में कोई कोहरा नहीं होगा। अदभुत अनुभव था।
मैं और सुमित बाइक पर दूध लेने चल दिये। चौकीदार ने बताया कि गांव में किसी के यहां दूध मिल जायेगा। डिब्बा लेकर हम एक घर में पहुंचे। आवाज देने पर एक लडका बाहर आया। पूछने पर उसने पहले तो हमें विस्मय से देखा, फिर बोला- अभी हमारी गईया नहीं ब्याई है। फिर हमने किसी और से नहीं पूछा और सीधे पहुंचे तीन किलोमीटर दूर छिन्दी बाजार में। बाजार खुलने लगा था और हलवाई के यहां हमारी उम्मीदों के विपरीत ताजा पोहा उपलब्ध था। कल हमें बताया गया था कि यहां खाने को कुछ नहीं मिलता। अगर पोहे का पता होता तो हम आज खिचडी नहीं बनाते। देर-सबेर यहां आना ही था। हम सभी पोहे को बडे चाव से खाते हैं, तो आराम से भरपेट खाते।
दूध की थैली लेकर वापस रेस्ट हाउस पहुंचे। दोनों महिलाओं ने तब तक लकडी के चूल्हे पर खिचडी बनाने की तैयारी कर ली थी। खिचडी बनी, उसके बाद चाय बनी। मैं खिचडी का बडा शौकीन हूं, लेकिन यहां जो खिचडी बनी, वो बडी ही विलक्षण थी। पहले तो लग रहा था कि यह बच जायेगी लेकिन बाद में जब कुकर खाली हो गया तो लगा कि कम पड गई।
चौकीदार ने बताया कि छिन्दी से चार किलोमीटर आगे डोंगरा गांव है। वहां से नीचे पातालकोट को सडक गई है। यह सडक ऊपर से भी दिखती है। हम नीचे जाने के लिये ही आज यहां रुके हैं। दस बजे यहां से चल दिये और जल्दी ही डोंगरा पहुंच गये। यहां से बायें हाथ रास्ता जाता है। डोंगरा गांव में सडक का काम चल रहा था, इसके बाद काफी दूर तक अच्छी सडक है। जाहिर है कि रास्ता उतराई का ही है। कहीं कहीं खराब भी है लेकिन बाइक आराम से निकल जाती है। एक जगह सडक इतनी खराब थी कि मैं बाइक समेत गिर पडा। हल्की सी खरोंच आई। उस समय निशा नीचे उतरी हुई थी और हम यह तय करने में लगे थे कि आगे जायें या न जायें। आखिरकार निशा को अगले मोड पर यह देखने भेजा कि मोड के बाद भी सडक ऐसी ही खराब है या कुछ सुधार है। निशा ने वापस आकर बताया कि कुछ सुधार है। इसके बाद दोनों बाइकें कुछ और आगे गईं।
इस दौरान हम उस स्थान से भी गुजरे जहां रेस्ट हाउस बिल्कुल हमारे सिर के कई सौ फीट ऊपर था। कुछ और आगे हम रातेड गांव के नीचे थे। और यहां सडक इतनी खराब कि आगे बाइक नहीं जा सकती थीं। दोनों बाइकें यहीं खडी कर दीं और पैदल चल पडे।
कल रातेड में स्थानीय लडके ने इशारा करके राजाखोह की लोकेशन बताई थी। हम उसी दिशा की तरफ चल पडे। पक्का सोच रखा था कि राजाखोह अवश्य देखना है।
पातालकोट के बारे में इंटरनेट पर कई नकारात्मक टिप्पणियां भी मिलती हैं। जैसे कि यहां के लोग टूरिस्टों को घुमाने ले जाते हैं और उन्हें लूट लेते हैं या कभी कभी मार भी देते हैं। दुर्गम भूगोल होने के कारण यहां न कोई पुलिस आती है और न ही ऐसे मामलों की जांच पडताल होती है। लेकिन हमें ऐसा कुछ नहीं लगा। बल्कि कोई दिखा भी नहीं जिससे राजाखोह का रास्ता पूछ सकें। श्रीमति सुमित को चलने में दिक्कत हो रही थी। आखिरकार वे दोनों बैठ गये और हमसे कह दिया कि राजाखोह देखकर आ जाओ। हम आगे बढ गये।
जमीन खोदकर सडक बनाने की प्रक्रिया शुरू हो चुकी है। लेकिन शायद मानसून के कारण आजकल काम बन्द था। कई जगह पुल अधबने हैं। रास्ते में एक लडका बैठा मिला। अपनी गायों को चरा रहा था। उससे राजाखोह के बारे में पूछा लेकिन वह हमारी बात पूरी नहीं समझ पाया। यह तो हमें पक्का पता था कि यहीं कहीं आसपास नीचे उतरना है लेकिन यह नहीं पता था कि कहां से उतरें। इसके लिये स्थानीय सहायता की आवश्यकता थी। हम और आगे बढ गये।
हमें कोई नहीं दिखा। एकदम सन्नाटा और चारों तरफ पातालकोट का जंगल। बायीं तरफ ऊंचाई थी और रातेड व्यू पॉइण्ट की छत दिख रही थी। कल एक स्थानीय ने वहीं से हमें नीचे का इशारा करके राजाखोह की लोकेशन बताई थी। अब हम अगर और आगे जाते हैं तो उसकी बताई दिशा से आगे चले जायेंगे, इसलिये राजाखोह का रास्ता यहीं कहीं से होना चाहिये। यही सोचकर हमने यह रास्ता छोड दिया और दाहिनी तरफ जंगल में घुस गये।
जंगल ज्यादा घना नहीं था। बीच बीच में छोटे छोटे मैदान भी आये जिनमें प्राकृतिक रूप से उगी दूब अच्छी लग रही थी। कल ऊपर से देखा था तो याद है कि आगे एक पाताललोक और है यानी एक और गहरी घाटी। उसी गहराई में नीचे उतरकर राजाखोह है। यह घाटी जंगल के कारण अभी नहीं दिख रही थी। हम चलते रहे और आखिरकार उस स्थान पर पहुंच गये जहां फिर से कई सौ फीट गहराई थी। यहां से नीचे उतरना असम्भव था। हम कुछ देर यहां बैठे रहे, फोटो खींचे और राजाखोह देखे बिना वापस चलने लगे।
कुछ दूर चलने पर लकडी काटने की आवाज आने लगी। हम आवाज की दिशा में बढे। उससे राजाखोह के बारे में पूछा तो उसने बताया कि उधर आप जाओगे तो दो बडे बडे जामुन के पेड मिलेंगे। उनके पास से एक जलधारा नीचे जाती दिखेगी। उसी जलधारा के साथ साथ नीचे उतरने का रास्ता है। फिर जब आप बिल्कुल नीचे उतर जाओगे तो बायें मुड जाना और आप राजाखोह पहुंच जाओगे।
जामुन के पेडों तक तो हमें उसी दिशा में जाना था जिधर हमारी मोटरसाइकिलें खडी थीं। नीचे जाने के लिये बिल्कुल हल्की सी पगडण्डी थी जो आगे जाकर निश्चित ही कई भागों में विभक्त हो जायेगी और हमारे लिये फिर से रास्ता ढूंढना मुश्किल हो जायेगा। उधर सुमित भी हमारी प्रतीक्षा कर रहा है। हमें ज्यादा देर हो जायेगी तो वो परेशान भी हो सकता है। हम राजाखोह नहीं जायेंगे। इतना कुछ देख लिया, वहीं बहुत है।
लेकिन अभी तो एक नजारा और देखना था। हम उस स्थान पर पहुंचे जहां हमने सुमित को छोडा था तो वहां वे नहीं मिले। जाहिर था कि वे वापस मोटरसाइकिलों की तरफ चले गये होंगे। उस गाय चराने वाले लडके से पूछा तो उसने बता दिया कि कुछ ही देर पहले वे यहां से गये हैं। हम और आगे बढे तो वे दोनों सामने खडे दिखे। उनके साथ एक बुढिया भी थी। अचानक बुढिया नाचने लगी। यह नजारा वाकई मजेदार था। हमने इसकी वीडियो भी बनाई लेकिन दुर्भाग्यवश वह वीडियो अब हमारे पास नहीं है। वह एक स्थानीय बुढिया थी। उसने पी रखी थी तथा और दारू खरीदने के लिये हमें नाच दिखा रही थी। हमने उसे दस-दस रुपये दिये लेकिन वह और ज्यादा मांग रही थी और बार-बार ठुमके भी लगा देती थी। आदिवासियों में स्थानीय दारू पीना बुरा नहीं माना जाता और बच्चे-बूढे-महिलाएं सभी पीते हैं। हालांकि उसने ज्यादा कोई जबरदस्ती नहीं की। हम अपने रास्ते चले गये और वह अपने रास्ते चली गई।
फिर तो हम सीधे रेस्ट हाउस पहुंचे। सामान उठाया और वापसी की राह ली। चलते चलते हमने चौकीदार को पचास रुपये दिये लेकिन उसने लेने से इंकार कर दिया। हमें तुरन्त वो जंगल विभाग का सरकारी भ्रष्ट कर्मचारी याद आ गया जो हमसे कल 2400 रुपये मांग रहा था और बिल बनाने में भी आनाकानी कर रहा था। यह चौकीदार यहीं पास के गांव का रहने वाला था और इसकी बारह घण्टे की ड्यूटी होती है।
खैर।
पातालकोट एक काफी बडे भूभाग का नाम है। इसमें कई गांव आते हैं। ध्यान नहीं शायद 12 गांव हैं या 20 गांव। सभी गांव नीचे गहराई में ही बसे हुए हैं। सडक तो अब पहुंचनी शुरू हुई है। लेकिन अभी भी आना जाना पैदल ही है। रास्ते भी सीधी खडी चट्टानों पर बिल्कुल ‘वर्टिकल’ हैं। लेकिन यहां के निवासियों को अब एक दुख ने घेरना शुरू कर दिया है। वो यह है कि यहां बाघ परियोजना आरम्भ की जायेगी और सभी निवासियों को विस्थापित होना पडेगा। रातेड के एक लडके से इस बारे में खूब बातें हुईं। वो पढा लिखा तो नहीं था लेकिन उसे आने वाले खतरे की खूब समझ थी। कहने लगा- यहां सरकार शेर पालेगी। उनके लिये हमें यहां से हटना पडेगा। पूरे पातालकोट में सडकें बनाई जायेंगी और टूरिस्टों को वहां घुमाया जायेगा। हमारे लिये कभी सडक नहीं बन सकी लेकिन जानवरों के लिये सडक बन रही है।
हालांकि ऐसी परियोजनाओं से स्थानीय विस्थापितों को बहुत ही कम फायदा होता है लेकिन मैंने जब कहा कि तुम्हें भी तो अच्छा रोजगार मिलेगा तो उसने जवाब दिया- कोई रोजगार नहीं मिलेगा। सब आमदनी सरकार को होगी। अभी तो यह जंगल हमारा है, फिर यह भी हमारा नहीं होगा।
मैं सोचने लगा- ऐसे ही नक्सलवाद पैदा होता है। अभी यहां नक्सलवाद की हवा नहीं है लेकिन बीज बोया जा चुका है। किसी दिन मौसम बनेगा और सतपुडा के ये जंगल नक्सलवाद से ग्रस्त होने में देर नहीं लगायेंगे। अभी भी समय है, सरकार को चेत जाना चाहिये।
रेस्ट हाउस से सुबह का नजारा और चौकीदार |
खिचड़ी बन गयी, अब चाय की तैयारी |
पातालकोट नीचे जाने का रास्ता |
यहाँ बाइक खडी कर दीं और आगे पैदल गए |
पातालकोट वासियों के रास्ते |
राजाखोह की खोज में... जंगल में मिला एक छोटा सा मैदान |
रास्ता न पता हो तो आगे बढ़ने या न बढ़ने का फैसला करना होता है |
दारू वाली `नृत्यांगना' |
रास्ता बनाने का काम चल रहा है. |
वापस चल दिए |
डोंगरा गाँव में सड़क निर्माण |
पातालकोट |
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वाह! सुन्दर फोटोज! नीरजजी, ये पोहा कितने का था? २००८ में मैने बड़वानी में १ रूपया और २ रूपए का पोहा खाया है!
ReplyDeleteधन्यवाद निरंजन जी, पोहा 10 रूपये का था.
Deleteनीरज भाई, दिल्ली कि शोरी ने कहाँ लगा दिया चूल्हा फूंकने ... में .,
ReplyDeleteसही लिखा है असंतोष और दुःख अंत में नक्सलवाद को जन्म देते हैं. प्रोजेक्ट बनाने बाले आईएएस अफसर वातानुकूलित कमरों में बैठ कर निर्णय लेते हैं और यथार्थ को ध्यान में नहीं रखा जाता . आम लोगों का ध्यान रखना अति आवश्यक है. आपने सही कहा कि जानवरों को पालने के लिया इंसानो को बेघर किया जायेगा.
सर जी, वो दिल्ली की छोरी नहीं है बल्कि गाँव की छोरी है.
Deleteहाँ भाई , ठीक कहते हो , असल में गांव की , बढ़िया.
Deleteवाह नीरज जी, खिचड़ी तो बहुत स्वादिष्ट दिख रही है, फोटो देखकर ही मुँह में पानी आ रहा है तो खाने में आपको तो बहुत मज़ा आया होगा ? बहुत सुंदर पोस्ट तथा आकर्षक तस्वीरें. खिचड़ी बनाई किसने थी ?
ReplyDeleteहाँ सर जी, खिचडी बहुत स्वादिष्ट बनी थी.
Deleteअगली पोस्ट का बेसब्री से इंतजार रहेगा . पातालकोट के भारिया, खूब सुना व पढ़ा है, उनके बारे में.
ReplyDeleteआप मुलाकात भी करा देंगे.
धन्यवाद् मुकेश जी, मुझे भरियाओं के बारे में ज्यादा जानकारी नहीं है. हम भारियाओं के बारे में ज्यादा जानकारी नहीं ले सके.
DeleteTop class and detailed narration..
ReplyDeleteधन्यवाद विनय जी.
DeleteTop class and detailed narration..
ReplyDeleteभई खूब घुमाया ..
ReplyDeleteधन्यवाद अनुराग जी...
Deleteनीरज भाई ,मुकेश जी की तरह हमारे मुहं में भी पानी आ गया खिचड़ी देख कर |आपने वहां बहुत आनंद किया होगा ये तो फोटो देखकर ही पता लग रहा है |शुभ यात्रा |
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