Skip to main content

दारनघाटी और सरायकोटी मन्दिर

8 मई 2015
दारनघाटी की कुछ जानकारी तो पिछली बार दे दी थी। बाकी इस बार देखते हैं। दारनघाटी 2900 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है और यहां से दो किलोमीटर दूर सरायकोटी माता का मन्दिर है जो समुद्र तल से 3090 मीटर ऊपर है। 3000 मीटर की ऊंचाई पर पहुंचने का अलग ही आकर्षण होता है। 2999 मीटर में उतना आकर्षण नहीं है जितना इससे एक मीटर और ऊपर जाने में।
दारनघाटी का जो मुख्य रास्ता है यानी तकलेच-मशनू को जोडने वाला जो रास्ता है, उसमें से सरायकोटी मन्दिर जाने के लिये एक रास्ता और निकलता है। यह सरकारी रेस्ट हाउस से एक किलोमीटर तकलेच की तरफ चलने पर आता है। यह पूरी तरह कच्चा है, खूब धूल है और तीव्र चढाई। इसी तरह की चढाई पर एक जगह जहां खूब रेत थी, बाइक धंस गई। आगे एक मोड था और रास्ता दिखाई नहीं दे रहा था; हमने सोचा कि आगे अब पैदल जाना पडेगा। बाइक वहीं रेत में खडी की, सामान इसी पर बंधा रहने दिया और पैदल बढ चले।
कुछ ही दूर गये थे कि पुनः रास्ता दिखाई दिया और आगे काफी दूर तक दिखता रहा। मैं वापस बाइक लेने तो नहीं जाना चाहता था लेकिन निशा ने भेज दिया। बडी मुश्किल से रेत से बाइक निकाली और आगे बढा। करीब आधे किलोमीटर बाद जहां रास्ता बिल्कुल ही बन्द था, रुक गये। इसके बाद करीब एक किलोमीटर पैदल चले। यह काफी तेज चढाई है। दोनों की सांस फूल गई लेकिन आनन्द भी आया।
मन्दिर में जाने का नियम है कि यहां पति-पत्नी एक साथ दर्शन नहीं कर सकते। पहले निशा दर्शन करने गई, मैं बाहर बैठा रहा; फिर मैं गया, निशा बाहर बैठी रही। इस समय मन्दिर बन्द था और पुजारी कोई श्रद्धालु न होने के कारण सो रहा था। हम पुजारी को बिना कुछ कहे बाहर से ही दर्शन करके आ गये। किसी को सोते से उठाना ठीक नहीं।
तेज और ठण्डी हवा चल रही थी, तेज धूप भी निकली थी। ऐसे में घास में लेटने का अलग ही आनन्द होता है। घण्टे भर तक हम यहां पडे रहे और फोटो खींचते रहे। इस दौरान कोई प्राणी नहीं दिखा सिवाय कां-कां करते पहाडी कौवों के।
तीन बजे यहां से वापस चल पडे। बाइक वहीं खडी थी। वापस मोडी और एक किलोमीटर आगे तिराहे पर पहुंचे। यहां एक दुकान थी, चाय पी और साढे तीन बजे तकलेच के लिये प्रस्थान कर गये। हालांकि हमें सराहन में बताया गया था कि दारनघाटी के बाद वापस मशनू आना और वहां से फिर रामपुर जाना लेकिन मेरी इच्छा इस रास्ते को तकलेच तक देखने की थी। अगर वापस मशनू चले जाते तो मलाल रहता।
रास्ता ढलान वाला है और पूरा कच्चा है। इस तरफ जंगल नहीं है, बल्कि गांव हैं। दारनघाटी से 18 किलोमीटर बाद देवठी गांव है। देवठी से आगे अच्छी सडक है। हमें रामपुर से तकलेच के रास्ते देवठी जाने वाली बस भी मिली। साढे पांच बजे तकलेच पहुंचे।
पिछली बार जब हम तकलेच के पास से निकले थे तो खूब भूख लगी थी। हमें तब पुल पार करके तकलेच में प्रवेश कर जाना था लेकिन हम बाहर से ही आगे बढ गये। सोचा था कि छोटा सा गांव है, यहां कहां खाना मिलेगा? लेकिन अब पता चला कि तकलेच उतना छोटा भी नहीं है। यहां व्यस्त बाजार है और खाने-पीने की दुकानें भी। शायद ठहरने को होटल भी है। सराहन से तकलेच की दूरी दारनघाटी के रास्ते 80 किलोमीटर है।
अब हमारे सामने दो विकल्प थे- एक तो सुंगरी के रास्ते नारकण्डा जाना और दूसरा नोगली के रास्ते नारकण्डा जाना। मुझे इन दोनों रास्तों की जानकारी थी इसलिये नोगली की तरफ चल दिया। सुंगरी वाला रास्ता नारकण्डा तक यानी लगभग 80 किलोमीटर तक खराब है जबकि नोगली वाला रास्ता पूरी तरह अच्छा बना है, दूरी भी कम है। हमें थकान होने लगी थी, इसलिये लम्बे और खराब रास्ते से जाने की बजाय अच्छा और छोटा रास्ता चुना।
परसों जब हम करसोग से आ रहे थे तो कुछ देर के लिये सतलुज के किनारे बैठ गये थे। मैंने एक फोटो खींचकर फेसबुक पर डाल दिया। जब हम दत्तनगर में समोसे खा रहे थे तो कुमारसैन के रोशन जसवाल जी का सन्देश आया कि अगर आसपास ही हो तो कुमारसैन आ जाओ, साथ बैठकर चाय पीयेंगे। कुमारसैन हमारे जाने की दिशा से विपरीत दिशा में लगभग 30 किलोमीटर था। मैंने जवाब दिया कि अभी तो हम आगे निकल गये हैं, वापसी में अवश्य चाय पीयेंगे। अब हम कुमारसैन से ही होकर गुजरे तो चाय याद आ गई। रोशन जी इंतजार कर ही रहे थे।
शाम साढे सात बजे कुमारसैन पहुंचे। अन्धेरा हो चुका था। मन में था कि फटाफट चाय पीकर नारकण्डा पहुंच जाना है और कोई कमरा लेकर रुकना है। अगर नारकण्डा में कमरा न मिलता तो सोच रखा था कि शिमला भी ज्यादा दूर नहीं है। बस ढाई-तीन घण्टे रात में चलना पडेगा। लेकिन रोशन जी ने ऐसा नहीं होने दिया। वे यहीं पास में ही एक सरकारी कॉलेज में प्रधानाचार्य हैं। जाहिर है कि कुमारसैन में सभी उन्हें जानते हैं। उन्होंने हमारे रुकने की बात की तो एक समस्या आ गई। स्थानीय विधायक को अगले दिन कुमारसैन के दौर पर आना था, तो सभी सरकारी विश्रामगृह बुक थे। रोशन जी ने खूब कोशिश कर ली लेकिन कहीं जगह नहीं मिली। लेकिन आखिरकार रुकने का इंतजाम कुमारसैन में हो ही गया। एक बात और समझ में आई कि नारकण्डा में भी कहीं रुकने को नहीं मिलने वाला था। हमें शिमला जाना ही पडता।
जो भी हुआ, बहुत अच्छा हुआ। इस बहाने हमारी रोशन जसवाल और उनके मित्रों के रूप में ऐसे लोगों से मित्रता हो गई जो हिमाचल की सेब पट्टी में रहते हैं। अगले महीने से सेब पकने शुरू हो जायेंगे, तो किसी दिन मौका देखकर दो दिन चार दिन के लिये कुमारसैन जा पहुंचेंगे और खूब सेब-भ्रमण व सेब-भक्षण करेंगे।

सरायकोटी मन्दिर जाने का रास्ता

यहां बाइक खडी की और पैदल आगे बढे। बाद में बाइक को और भी आगे ले गये थे।


बाइक का रास्ता यहीं तक था, इसके बाद पैदल जाना पडेगा।


बाइक दिख रही है?













तकलेच की ओर



देवठी के बाद अच्छा रास्ता है।

यहां भी एक करेरी गांव है।



तकलेच से दूरियां... पिछली बार हम रामपुर-नोगली से आये थे और सुंगरी होते हुए रोहडू की तरफ गये थे। इस बार मशनू और दारनघाटी भी देख ली।


 बायें से: विनोद माण्टा जी, रोशन जसवाल जी, जाटराम और यहीं एक स्कूल के प्रधानाचार्य (खेद है, नाम ध्यान नहीं)



अगला भाग: हाटू चोटी, नारकण्डा


करसोग दारनघाटी यात्रा
1. दिल्ली से सुन्दरनगर वाया ऊना
2. सुन्दरनगर से करसोग और पांगणा
3. करसोग में ममलेश्वर और कामाख्या मन्दिर
4. करसोग से किन्नौर सीमा तक
5. सराहन से दारनघाटी
6. दारनघाटी और सरायकोटी मन्दिर
7. हाटू चोटी, नारकण्डा
8. कुफरी-चायल-कालका-दिल्ली
9. करसोग-दारनघाटी यात्रा का कुल खर्च




Comments

  1. Nice photo , yatra me nye dost banana vo bhi achcha he . Naye raste ki jankari bhi milti he .

    ReplyDelete
  2. हमेशा की तरह एक शानदार लेख। हिमाचल का जिक्र आते ही बस शिमला कुल्लू मनाली और रोहतांग की ही चर्चा होती है लेकिन आपके लेखो से हिमाचल के अन्य अनछुए खूबसूरत स्थानों की जानकारी भी मिलती है। बहुत किस्मत वाले हो भाई जो मनपसंद जीवनसाथी के साथ मनपसंद स्थानों पर जाने का अवसर और छुट्टियां मिल रही है। हमारी तो जिंदगी झंड है। छुट्टियां मिलना तो दूर सन्डे में भी यहाँ तो बस गधे की तरह काम करते रहो बस.....

    ReplyDelete
    Replies
    1. अरे सर जी, इतना मायूस ना हुआ करते। समय बदलते देर नहीं लगती, मौका सबको मिलता है; आप भी छोडना मत।

      Delete
  3. इतनी अच्छी-अच्छी जगहों पर सिर्फ आपके द्वारा ही हमारा घूमना संभव है। धन्यवाद!

    ReplyDelete
    Replies
    1. धन्यवाद सलाहुद्दीन साहब...

      Delete
  4. अच्छा यात्रा वृतांत,जब कभी सेबपेटी जाओ तो बताकर जाना,एक कट्टा हमारे लिए भी सेब लेते आना,
    हाहाहा... बढिया भाई

    ReplyDelete
    Replies
    1. बताकर जाऊंगा भाई, लेकिन लाऊंगा नहीं...

      Delete
  5. जहाँ नींद वहीं बिस्तर !!!!!
    बढ़िया !!

    वैसे भाई तुम्हारा फोन नहीं लग रहा ! मैने अपना फेसबुक अकाउंट बंद कर दिया है ! तुमने उस समस्या का समाधान नहीं बताया !

    ReplyDelete
    Replies
    1. फोन बन्द था। अब चालू है।

      Delete
  6. Bhai sach men aap jaisa doosra koi nahin...ghoomne ka aesa shauk kisi aur men nahin dekha aur ab to aapke sath aapki patni bhi chal rahi hai...Ishwar aap dono ki jodi ko hamesha salamat raho...ghoomte raho likhte raho taki hum jaise aananad lete rahen...Jiyo Neeraj Ji jiyo...

    ReplyDelete
    Replies
    1. आपका बहुत बहुत धन्यवाद सर जी...

      Delete
  7. भाई नीरज ! बहू भी हंडोर मिल गई I बहुत सुन्दर जोड़ी है I भगवान दीर्घायु और प्रसन्न रखें, ऐसी मेरी कामना हैI घुमक्कड़ी के आपके वर्णन तो हमेशा ही सुन्दर होते हैंI

    ReplyDelete
  8. आभार आपका आपने जिक्र किया। सौभाग्‍य मेरा मैं आपसे मिल पाया। एक संशोधन है आपने कालेज लिखा है मैं स्‍कूल संवर्ग में हूं ये जमा दो कक्षा यानी 12वीं तक आते है। आपकी यात्रायों के लिए शुभकामनायें । अगली बार इस तरफ आयें तो फोन जरूर करें । शेष शुभ

    ReplyDelete
    Replies
    1. क्या फर्क पडता है सर जी... कॉलेज या स्कूल... हमें भी आपके साथ बहुत अच्छा लगा।

      Delete

Post a Comment

Popular posts from this blog

डायरी के पन्ने- 30 (विवाह स्पेशल)

ध्यान दें: डायरी के पन्ने यात्रा-वृत्तान्त नहीं हैं। 1 फरवरी: इस बार पहले ही सोच रखा था कि डायरी के पन्ने दिनांक-वार लिखने हैं। इसका कारण था कि पिछले दिनों मैं अपनी पिछली डायरियां पढ रहा था। अच्छा लग रहा था जब मैं वे पुराने दिनांक-वार पन्ने पढने लगा। तो आज सुबह नाइट ड्यूटी करके आया। नींद ऐसी आ रही थी कि बिना कुछ खाये-पीये सो गया। मैं अक्सर नाइट ड्यूटी से आकर बिना कुछ खाये-पीये सो जाता हूं, ज्यादातर तो चाय पीकर सोता हूं।। खाली पेट मुझे बहुत अच्छी नींद आती है। शाम चार बजे उठा। पिताजी उस समय सो रहे थे, धीरज लैपटॉप में करंट अफेयर्स को अपनी कापी में नोट कर रहा था। तभी बढई आ गया। अलमारी में कुछ समस्या थी और कुछ खिडकियों की जाली गलकर टूटने लगी थी। मच्छर सीजन दस्तक दे रहा है, खिडकियों पर जाली ठीकठाक रहे तो अच्छा। बढई के आने पर खटपट सुनकर पिताजी भी उठ गये। सात बजे बढई वापस चला गया। थोडा सा काम और बचा है, उसे कल निपटायेगा। इसके बाद धीरज बाजार गया और बाकी सामान के साथ कुछ जलेबियां भी ले आया। मैंने धीरज से कहा कि दूध के साथ जलेबी खायेंगे। पिताजी से कहा तो उन्होंने मना कर दिया। यह मना करना मुझे ब...

डायरी के पन्ने-32

ध्यान दें: डायरी के पन्ने यात्रा-वृत्तान्त नहीं हैं। इस बार डायरी के पन्ने नहीं छपने वाले थे लेकिन महीने के अन्त में एक ऐसा घटनाक्रम घटा कि कुछ स्पष्टीकरण देने के लिये मुझे ये लिखने पड रहे हैं। पिछले साल जून में मैंने एक पोस्ट लिखी थी और फिर तीन महीने तक लिखना बन्द कर दिया। फिर अक्टूबर में लिखना शुरू किया। तब से लेकर मार्च तक पूरे छह महीने प्रति सप्ताह तीन पोस्ट के औसत से लिखता रहा। मेरी पोस्टें अमूमन लम्बी होती हैं, काफी ज्यादा पढने का मैटीरियल होता है और चित्र भी काफी होते हैं। एक पोस्ट को तैयार करने में औसतन चार घण्टे लगते हैं। सप्ताह में तीन पोस्ट... लगातार छह महीने तक। ढेर सारा ट्रैफिक, ढेर सारी वाहवाहियां। इस दौरान विवाह भी हुआ, वो भी दो बार। आप पढते हैं, आपको आनन्द आता है। लेकिन एक लेखक ही जानता है कि लम्बे समय तक नियमित ऐसा करने से क्या होता है। थकान होने लगती है। वाहवाहियां अच्छी नहीं लगतीं। रुक जाने को मन करता है, विश्राम करने को मन करता है। इस बारे में मैंने अपने फेसबुक पेज पर लिखा भी था कि विश्राम करने की इच्छा हो रही है। लगभग सभी मित्रों ने इस बात का समर्थन किया था।

लद्दाख बाइक यात्रा-4 (बटोट-डोडा-किश्तवाड-पारना)

9 जून 2015 हम बटोट में थे। बटोट से एक रास्ता तो सीधे रामबन, बनिहाल होते हुए श्रीनगर जाता ही है, एक दूसरा रास्ता डोडा, किश्तवाड भी जाता है। किश्तवाड से सिंथन टॉप होते हुए एक सडक श्रीनगर भी गई है। बटोट से मुख्य रास्ते से श्रीनगर डल गेट लगभग 170 किलोमीटर है जबकि किश्तवाड होते हुए यह दूरी 315 किलोमीटर है। जम्मू क्षेत्र से कश्मीर जाने के लिये तीन रास्ते हैं- पहला तो यही मुख्य रास्ता जम्मू-श्रीनगर हाईवे, दूसरा है मुगल रोड और तीसरा है किश्तवाड-अनन्तनाग मार्ग। शुरू से ही मेरी इच्छा मुख्य राजमार्ग से जाने की नहीं थी। पहले योजना मुगल रोड से जाने की थी लेकिन कल हुए बुद्धि परिवर्तन से मुगल रोड का विकल्प समाप्त हो गया। कल हम बटोट आकर रुक गये। सोचने-विचारने के लिये पूरी रात थी। मुख्य राजमार्ग से जाने का फायदा यह था कि हम आज ही श्रीनगर पहुंच सकते हैं और उससे आगे सोनामार्ग तक भी जा सकते हैं। किश्तवाड वाले रास्ते से आज ही श्रीनगर नहीं पहुंचा जा सकता। अर्णव ने सुझाव दिया था कि बटोट से सुबह चार-पांच बजे निकल पडो ताकि ट्रैफिक बढने से पहले जवाहर सुरंग पार कर सको। अर्णव को भी हमने किश्तवाड के बारे में नहीं ...