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दिल्ली से सुन्दरनगर वाया ऊना

योजना थी कि 3 मई की सुबह निकल पडेंगे और दोपहर तक अम्बाला से आगे बनूड में अपनी एक रिश्तेदारी में रात रुकेंगे और अगले दिन सुन्दरनगर जायेंगे। लेकिन एक गडबड हो गई। नाइट ड्यूटी की थी, सुबह नींद आने लगी इसलिये नहीं निकल सके। मैं अक्सर नाइट ड्यूटी करके निकल पडता हूं लेकिन हमेशा थोडे ही ऐसा होता है। नींद तो आती ही है; कभी जल्दी, कभी देर से। इस बार जल्दी आ गई। फिर सोचा कि दोपहर तक सोकर फिर निकलेंगे और रात तक बनूड पहुंच जायेंगे।
दोपहर को केशव का फोन आ गया। हम साथ में ही काम करते हैं। उसकी लडकी को देखने वाले आ रहे हैं। मिलने-जुलने का कार्यक्रम लडके वालों ने कहीं बाहर रखने को कहा था तो केशव को मैं याद आ गया। कई दिन पहले इस बारे में बात हो गई थी। अब जब फोन आया तो मैंने सोचा कि दो परिवार आयेंगे, तो कुछ खाने-पीने का भी कार्यक्रम बनेगा। इस मौके को क्यों छोडा जाये? दोपहर को भी निकलना नहीं हुआ।
शाम को केशव का परिवार अपनी लडकी को लेकर आ गया और उधर से लडके वाले आ गये। खाने-पीने का हल्का-फुल्का कार्यक्रम ही था। जब लडके वाले चले गये और केशव का परिवार ही बचा तो महिलाओं ने घोषणा की कि उन्हें यह रिश्ता मंजूर नहीं। क्योंकि लडके की लम्बाई लडकी से मामूली सी कम थी। बाकी सब पसन्द था, लडके की कोई मांग भी नहीं थी, दोनों ही पक्ष पैसे वाले थे तो शादी में जी खोलकर पैसा खर्च करते। लडका नौकरी भी अच्छी करता था, शक्ल-सूरत से भी अच्छा था। मैंने और केशव ने दोनों मां-बेटियों को समझाने की खूब कोशिश की लेकिन आखिरकार महिलाएं ही जीतीं।
मुझे बडा दुख होता है जब कोई रिश्ता ऐसी मामूली बातों पर टूट जाता है। लेकिन केशव के जाने के बाद मेरा सारा दुख भी जाता रहा। वे लोग ढेर सारा खाने-पीने का सामान यहीं छोड गये थे। उनमें से कुछ तो हमने अपने यात्रा के सामान में बांध लिया और बाकी की अगले दिन तक दावत उडाई।
दिन ढल गया था, अब तो निकलने का कोई सवाल ही नहीं था। तय हुआ कि सुबह जितनी जल्दी हो सके, उतनी जल्दी निकल पडेंगे। तीन बजे निकलेंगे, ज्यादा से ज्यादा चार बजे तक। अब बनूड नहीं रुकना था, सीधे सुन्दरनगर का ही लक्ष्य बनाया।
आश्चर्यजनक रूप से मैं ठीक तीन बजे उठ गया। निशा नहीं उठी। मैंने भी नहीं उठाया। किसी को सोते देखकर मुझे बहुत अच्छा लगता है। जब तक बहुत ज्यादा जरूरी न हो, मैं सोते हुओं को उठाया नहीं करता। कुछ देर से निकल पडेंगे, आज सुन्दरनगर नहीं पहुंच सकेंगे; इतना ही तो होगा न। यह कोई बहुत जरूरी नहीं है। आखिरकार वह पांच बजे उठी। तब तक मैं नहा-धोकर बिल्कुल तैयार हो चुका था। सामान कल से ही पैक था। फटाफट निशा भी तैयार हुई और ठीक छह बजे हमने मोटरसाइकिल स्टार्ट कर दी।
सुबह सुबह का समय और एनएच एक; बाइक चलाने में पूरा आनन्द आता है। पौने दो घण्टे में पानीपत पार करके 104 किलोमीटर की दूरी तय करके नाश्ते के लिये रुके। आलू के परांठे का ऑर्डर दे दिया। परांठे थे तो बहुत स्वादिष्ट लेकिन कुछ जले-फुके से थे। दोनों ने दो-दो खा डाले।
यह मार्ग बेहद शानदार बना है हालांकि कुछ स्थानों पर फ्लाईओवर के निर्माण की वजह से डायवर्जन भी है। पीपली के पास दो साइकिल वालों ने हमें रुकने का इशारा किया। मैंने सोचा कि रास्ता पूछते होंगे। साइकिल पर पीछे थोडा सा सामान था और एक लाल रंग की झण्डी लगी थी, इसका मतलब था कि ये स्थानीय नहीं हैं। मैं रुक गया। बताया कि वे कन्नौज से साइकिल पर आ रहे हैं और वैष्णों देवी जा रहे हैं। खाने के लिये कुछ सहायता की मांग की। सुनते ही एकदम तो मुझे गुस्सा आया। मैं कहीं का भी रास्ता बताने को तैयार हो चुका था, उन्होंने मेरी उम्मीदों के विपरीत रास्ता न पूछकर पैसे मांगे तो क्षणिक गुस्सा आ गया, हालांकि कहा मैंने कुछ नहीं। फिर घूमने का यह तरीका देखकर अच्छा भी लगा। मैंने पचास रुपये दे दिये। उन्होंने खुशी खुशी रख लिये। बाद में बडा पछतावा भी हुआ। पचास रुपये में दो लोगों का अच्छे से खाना नहीं हो पायेगा। कम से कम सौ तो दे ही देने थे। वे भिखारी थोडे ही थे? अब उन्हें फिर से किसी को रोकना पडेगा। एक घुमक्कड का दूसरे घुमक्कड के लिये इतना उत्तरदायित्व तो बनता ही है।
ये पछतावा बाद में ही क्यों होता है?
खैर, दस बजे अम्बाला छावनी पहुंच गये। पूरे चार घण्टे लगे दिल्ली से यहां तक आने में जबकि रास्ते में नाश्ता भी किया था। इसका सारा श्रेय शानदार छह लेन की सडक को जाता है। अम्बाला के बाद हम चण्डीगढ की तरफ जाने की बजाय एनएच एक पर ही रहे। शहर से बाहर निकलकर घग्गर नदी पार की और हम हरियाणा से पंजाब में प्रवेश कर गये। पुल पार करते ही शम्भू से पहले पंजाब के टोल बैरियर के पास एक सडक दाहिने मुडती है। यह सीधे बनूड जाती है और उसके बाद खरड में चण्डीगढ-रोपड सडक में मिल जाती है। यहां से खरड चालीस किलोमीटर है। सडक अच्छी बनी है, डबल लेन है और डिवाइडर नहीं है लेकिन ट्रैफिक कम होने के कारण ज्यादा परेशानी नहीं होती।
हमने बनूड वाले भाई को अपनी यात्रा के बारे में नहीं बता रखा था। अगर हम कल ही आते तो दिल्ली से चलते समय सूचित कर देते। अगर आज हम सूचित करते तो कम से कम दो घण्टे तो रुकना ही पडता और फिर आज सुन्दरनगर पहुंचना मुश्किल हो जाता। अपना तो इधर आना-जाना लगा ही रहता है, फिर कभी आ जायेंगे। बनूड चौराहे से सीधे हाथ वाली सडक जीरकपुर जाती है, बायें पटियाला और सीधे खरड। हम सीधे बढ चले।
आराम से सत्तर की रफ्तार मिल रही थी। एक बाइक वाले को हमने ओवरटेक किया तो उसने भी बाइक के कान ऐंठे और वो हमसे आगे हो गया। हम अपनी उसी रफ्तार से चलते रहे। मुझे इससे कोई फर्क नहीं पडता कि कोई मुझे ओवरटेक कर रहा है या नहीं। बस, अपनी सुविधा देखता हूं और इसी के अनुसार स्पीड रखता हूं। लेकिन सभी ऐसे नहीं होते। वो आगे निकल गया और कुछ देर आगे रहने के बाद उसकी रफ्तार कम हो गई व हम अपने ही आप फिर उससे आगे निकल गये। फिर उसने कान ऐंठे और हमें देखता हुआ फिर वो आगे निकल गया। उसकी बाइक में रियर व्यू मिरर नहीं था, इसलिये अब आगे रहते हुए उसने बार-बार पीछे देखना शुरू कर दिया। हम नजदीक आते दिखते तो वो अपनी रफ्तार और बढा लेता। खरड तक ऐसा ही होता रहा। फिर वो खरड की किसी गली में मुड गया।
सवा ग्यारह बजे हम खरड पहुंचे। शहर पार करके सडक किनारे पेड के नीचे एक जूस वाले के यहां रुक गये। अब तक हम ढाई सौ किलोमीटर से ज्यादा आ चुके थे। धूप बहुत तेज थी और हम दोनों की बाइक पर बैठे बैठे हालत भी खराब होने लगी थी। मौसमी का जूस पीया और आधे घण्टे यहां रुके रहे।
खरड से काफी आगे तक सडक बिना डिवाइडर की ही है। अत्यधिक ट्रैफिक होने के कारण परेशानी भी होती है। एक बडा सा पुल पार करके जब चार लेन की डिवाइडर वाली सडक मिली तो बडी राहत भी मिली। अब सामने से आने वाले ओवरटेक करते वाहन परेशानी पैदा नहीं करेंगे। रोपड बिना रुके पार हो गये। रोपड के बाद रेलवे लाइन और सडक साथ साथ ही हैं। निशा ने इसके बारे में पूछा कि यह लाइन कहां जा रही है। मैंने बताया- ऊना। एकदम आश्चर्यचकित सी होकर पूछने लगी- ऊना हिमाचल?
असल में निशा का पैतृक गांव मुरादाबाद के पास है। वहां से ये लोग दिल्ली आने के लिये बरेली-दिल्ली एक्सप्रेस पकडते हैं। यही ट्रेन दिल्ली आकर हिमाचल एक्सप्रेस बनकर ऊना जाती है। ट्रेन के हर डिब्बे पर लिखा भी है- बरेली-दिल्ली-ऊना हिमाचल। तो ये लोग इस ट्रेन को ‘ऊना हिमाचल’ ही कहते हैं। अब जब निशा को पता चला कि यह लाइन ऊना जा रही है तो उसका उत्सुक होना लाजिमी था- वही ‘ऊना हिमाचल’ वाला? वैसे अब यह लाइन ऊना से आगे अम्ब अन्दौरा तक बढ गई है तो हिमाचल एक्सप्रेस भी अम्ब अन्दौरा तक जाने लगी है। लेकिन फिर भी यह ‘ऊना हिमाचल’ ही है।
कीरतपुर से मनाली वाली सडक दाहिने चली जाती है। सुन्दरनगर इसी मनाली वाली सडक पर स्थित है। लेकिन हम सीधे चलते रहे। इसका कारण साफ था। यह सडक कीरतपुर से लेकर सुन्दरनगर और आगे मण्डी तक बहुत खराब है और ट्रैफिक भी भयंकर। पूरा रास्ता पर्वतीय। यहां से सुन्दरनगर की दूरी है लगभग 110 किलोमीटर। हमने तय किया कि ऊना के रास्ते सुन्दरनगर जायेंगे। कीरतपुर से ऊना 50 किलोमीटर है और सडक बेहद शानदार बनी है, डिवाइडर है और पूरी मैदानी है। फिर ऊना से सुन्दरनगर की दूरी है 135 किलोमीटर है। रास्ता पर्वतीय तो है लेकिन ट्रैफिक नहीं है। इतनी जानकारी तो मुझे थी। बस, एक रिस्क यह था कि पता नहीं सडक कैसी है। बाद में यात्रा करने के बाद देखा कि पर्वतीय होने के बावजूद भी यह सडक दो लेन की है, ट्रैफिक तो है ही नहीं और बनी भी बेहद शानदार है। हालांकि 70-75 किलोमीटर फालतू जरूर चले लेकिन उस परम्परागत रास्ते की कठिनाईयों से बच गये।
अगर किसी को मण्डी, कुल्लू या मनाली जाना है तो ऊना वाला यह रास्ता 50-60 किलोमीटर लम्बा पडता है। ये 50-60 किलोमीटर मैदानी हैं, इसलिये कुल मिलाकर फायदे का सौदा ही है।
टंकी फुल कराकर ऊना से ढाई बजे चल दिये। शीघ्र ही पर्वतीय मार्ग आरम्भ हो गया। 25 किलोमीटर दूर बंगाणा है। बंगाणा से बीस किलोमीटर आगे बडसर है। बडसर से एक सडक तो भोटा चली जाती है और एक प्रसिद्ध तीर्थ स्थान देवोथसिद्ध। हमें सुन्दरनगर जाना था इसलिये भोटा की ओर चल दिये। भोटा यहां से बीस किलोमीटर है। साढे चार बजे हम भोटा पहुंचे। अब तक भूख भी लगने लगी थी। यहां कुछ खाने का इरादा था लेकिन भोटा में घुसे और निकल गये, पता भी नहीं चला।
भोटा से एक सडक हमीरपुर जाती है और एक बिलासपुर। हमीरपुर-ऊना की बसें हर 15-20 मिनट में आती-जाती मिलती रहीं। भोटा से करीब दस किलोमीटर आगे एक गांव में हम रुके। एक दुकान से फ्रूटी लेकर पी। इसके अलावा कुछ और मिला भी नहीं। चिप्स या बिस्कुट खाने की इच्छा नहीं थी। तरुण भाई का फोन आया- जाटराम, कहां पहुंच गये? मैंने कहा- भोटा। हैरान होकर बोले- ओये, तू आ कहां से रहा है? मैंने कहा- वो रास्ता खराब था तो हम इस लम्बे वाले रास्ते से आ गये। फिर बोले- अब एक काम कर। भोटा से तू घाघस के रास्ते आ जा।
लेकिन हमने घाघस का रास्ता नहीं पकडा। पहली बात तो हम भोटा से दस किलोमीटर आगे आ गये थे, फिर घाघस के रास्ते सुन्दरनगर कुछ ज्यादा भी पडता है। और मुख्य बात कि घाघस में हम फिर से उसी खराब मुख्य सडक पर पहुंच जाते जो हमने कीरतपुर में छोड दी थी।
यहीं दुकानदार से हमने रास्ते की बाबत पूछा कि कैसा रास्ता है, उसने बताया कि नेरचौक तक अच्छा है। लेकिन आप जाहू में बाईपास से जाना, शहर के अन्दर से जाओगे तो पुल टूटा हुआ मिलेगा। ये बात सुनकर हम आगे बढ गये। जाहू से एक किलोमीटर पहले एक तिराहा मिला। सामने एक सडक बायें जा रही थी और दूसरी दाहिने। दोनों के बीच में एक बोर्ड लगा था- आगे पुल टूटा है, कृपया बाईपास से जायें। इसमें न कहीं तीर का निशान था और न ही पता चल रहा था कि कौन सा बाईपास है। बायीं तरफ की सडक पर ज्यादा ट्रैफिक के निशान थे, इसलिये हम बायीं वाली पर ही चल पडे। जाहू से निकलकर जब शीरखड्ड का टूटा पुल मिला तो समझ में आया कि यह सडक बाईपास नहीं थी, बल्कि दाहिने वाली बाईपास थी। खैर, नदी में पानी नहीं था। सभी वाहन पत्थरों से होकर ही आ-जा रहे थे, फिर हमें भी पार करने में देर नहीं लगी। ढीले गोल-गोल पत्थरों पर पहले खडी उतराई है, फिर खडी चढाई है।
निशा को पैदल ही नदी पार करनी पडी।
जाहू के बाद बेहद खराब रास्ता मिला और सुन्दरनगर अभी भी चालीस किलोमीटर था। हम तो खराब रास्ते के लिये पहले से ही तैयार थे। हिमाचल में आपको अच्छा रास्ता कहीं मिले तो समझना कि आप बहुत खुशकिस्मत हो। अभी तक हम खुशकिस्मत थे। सोचा कि ये चालीस किलोमीटर खराब रास्ते पर चल लेंगे। एक घण्टे देर से सुन्दरनगर पहुंच जायेंगे।
लेकिन खुशकिस्मती अभी भी हमारा इंतजार कर रही थी। दो ढाई किलोमीटर आगे फिर एक तिराहा है। सीधा रास्ता सरकाघाट होते हुए जोगिन्दर नगर जाता है और दाहिने वाला सुन्दरनगर। इस दाहिने वाले पर थोडी दूर चले, एक बार फिर निशा को थोडा सा पैदल चलना पडा और खुशकिस्मती शुरू। फिर से शानदार सडक मिल गई।
हमारा इरादा पहले नेरचौक पहुंचने का था, फिर सुन्दरनगर। लेकिन नेरचौक से पहले कलखर में एक दाहिने जाती सडक पर एक काफी बडा बोर्ड लगा था। इस पर बडे अक्षरों में एक ही शब्द लिखा था- सुन्दरनगर। इसके नीचे तीर का निशान कह रहा था कि सुन्दरनगर के लिये इधर मुडें। हमने तुरन्त इसी पर बाइक मोड ली। यहां से सुन्दरनगर 16 किलोमीटर है लेकिन इस दूरी को तय करने में एक घण्टा लग गया। सडक बहुत ही पतली और बहुत ज्यादा घुमावदार है। रास्ते में एकाध जगह रास्ता भी पूछना पडा।
लेकिन सबसे ज्यादा आनन्द भी इसी रास्ते पर आया। एक जगह जंगल में हम रुक गये। इंजन बन्द होते ही जंगल का भीषण सन्नाटा सुनाई देने लगा। निशा भी बडी खुश हुई। सडक किनारे पुलिया पर बैठ गई। पन्द्रह मिनट बाद बडी खुशामद करके चलने को राजी हुई। तभी तरुण भाई का फिर से फोन आ गया- कहां पहुंच गया जाटराम? मैंने कहा- लेडा। बोला- अबे, तू उधर क्या कर रहा है? तुझे तो घाघस से आने को कहा था।
और जब सुन्दरनगर की झील के किनारे पहुंचे, सामने ही गोयल साहब कार में अपनी घरवाली के साथ बैठे हमारा इंतजार करते मिले। हम नेरचौक की तरफ से आते तो वे उधर मिलते, घाघस की तरफ से आते तो वे उधर मिलते। निशा तुरन्त बाइक से उतरकर कार में जा बैठी। सुबह से 500 किलोमीटर से ज्यादा चल चुके थे, उसकी बडी हालत खराब थी।
तरुण गोयल का घर सुन्दरनगर से बाहर जंगल के बिल्कुल किनारे है। शानदार घर है। हमें जाते ही एक कमरा मिल गया और बाथरूम भी। पहला काम यही किया कि गरम पानी से नहाये। बाइक चलाने की थकान मिटी तो नहीं लेकिन काफी कम अवश्य हो गई।



बदसूरत लेकिन स्वादिष्ट परांठा




शम्भू-खरड रोड

कीरतपुर से दिखती नैना देवी

पंजाब से हिमाचल में प्रवेश



ऊना-सुन्दरनगर रोड


भोटा से धौलाधार भी दिखती है।

कलखर-सुन्दरनगर रोड




सुन्दरनगर की झील

गोयल साहब के घर के सामने

तरुण गोयल का घर



अगला भाग: सुन्दरनगर से करसोग और पांगणा


करसोग दारनघाटी यात्रा
1. दिल्ली से सुन्दरनगर वाया ऊना
2. सुन्दरनगर से करसोग और पांगणा
3. करसोग में ममलेश्वर और कामाख्या मन्दिर
4. करसोग से किन्नौर सीमा तक
5. सराहन से दारनघाटी
6. दारनघाटी और सरायकोटी मन्दिर
7. हाटू चोटी, नारकण्डा
8. कुफरी-चायल-कालका-दिल्ली
9. करसोग-दारनघाटी यात्रा का कुल खर्च




Comments

  1. नीरज जी राम राम, नए नए रास्तो के दर्शन कराते जा रहे हो, धन्यवाद, तरुण गोयल जी के भी दर्शन करा देते...वाकई उना सुंदरनगर मार्ग शानदार हैं..किरतपुर मंडी मार्ग पहले तो अच्छा बना हुआ था...पर वही बात हैं ना, सरकारे ध्यान नहीं देती है. जबकि टैक्स लगातार वसूलती हैं...

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    1. आपका बहुत बहुत धन्यवाद गुप्ता जी...

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  2. is garmi me aap ki post bahar le ke aayi
    bada intizar kara ya bhai

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  3. सफर के साथ-साथ फोटोग्राफी के लिए इतना समय निकाल लेना वाकई काबिले तारीफ़ है। पोस्ट और फोटोज हमेशा की तरह शानदार।

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  4. शानदार घुमक्कङी, कोई शक नहीं। बाईक पर घूमने का अपना अलग ही मजा है। अच्छा लिखते हैं। यात्रा के अगले भाग का ईन्तजार है।

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    1. धन्यवाद कुलवन्त सिंह जी...

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  5. राम राम जी..
    भाई तंदुरी परांठे ऐसे ही होते है,
    गोयल साहब का भवन व आसपास की जगह बहुत ही सुन्दर प्रतित हो रहा है.

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    1. हां त्यागी जी, उनका घर शहर से बाहर जंगल के बिल्कुल पास है। बहुत शानदार जगह है।

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  6. आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन कवि सुमित्रानंदन पन्त और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।

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    1. धन्यवाद हर्षवर्द्धन जी...

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  7. अच्छी पोस्ट है नीरज ,लगता है अब बाईकिंग में भी रिकॉर्ड बनाने वाले हो ?जिंदगी का असली मज़ा तो घुमक्कड़ी में ही है ,खूब मज़े करो |

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    1. सर जी, आपने पहले नहीं बताया कि बाइक में इतना मजा आता है। वो मैं आपके साथ बस्तर गया तो इस बात का पता चला।

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    2. बाइक यात्रा के अपने मज़े हैं पर लम्बी यात्रा में क्या होता पता तो लग गया होगा आपको ?एक पोस्ट में फोटो के माध्यम से आपने बताया भी है |सपत्निक लम्बी यात्रा पर निकलने का साहस करने के लिए आप दोनों को बधाई |

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  8. इतना तकड़ा झटका।
    सोतडू कू 3बजे उठता देख।😞😞😞

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    1. हां भाई, सही में... मैं तीन बजे ही उठा था।

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  9. नीरज आप विवरण लिखते समय फिर से वहाँ का चप्पा-चप्पा घूमते हैं तभी रास्ते के किसी मोड़ या गड्ढे तक को नही छोड़ते . यही बात आपके वृत्तान्त को विशिष्ट बनाती है .हमेशा की तरह आनन्द आरया पढ़कर .

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    1. आपका बहुत बहुत धन्यवाद गिरिजा जी...

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  10. आखिरकार 15 दिन लंबे अंतराल के बाद घुमक्कडी पढने को मिली

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    1. सर जी, ऐसे अन्तराल तो आते ही रहते हैं। आगे भी आयेंगे। यह यात्रा वृत्तान्त समाप्त होगा, तो अगला वृत्तान्त तब तक प्रकाशित नहीं होगा जब तक कहीं की यात्रा न कर लूं।

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  11. बहुत रोचक ,सुन्दर सटीक और सार्थक रचना के लिए बधाई स्वीकारें।
    कभी इधर भी पधारें

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    1. बताओ किधर पधारना है सक्सेना जी???

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  12. भाई जी अलीगढ से आपका एक माह पुराना पाठक हू काफी पोस्ट पढ डाली है आपकी यात्रा वर्णन कौशलता अतुलनीय है व आपसे प्रेरित होकर हिमाचल भ्रमण का कार्यक्रम बना लिया है 26-5 को रवानगी है 26 -6को वापसी है पोस्ट द्वारा मार्गशन हेतु धन्यवाद

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    1. एक महीने का कार्यक्रम,.. मुबारक हो कुशवाहा जी। चन्द्रताल तो हालांकि मुश्किल लग रहा है लेकिन कोशिश करना जाने की।

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  13. एक दिन में 500 KM से ज्यादा बाइक से और आप गए तो गए बीवी को भी साथ ले गए. आपके चरण कहाँ हैं प्रभु......

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  14. बहुत सुन्दर चित्रों के साथ यात्रा वर्णन अच्छा लगा...

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  15. Neeraj ji cycle yatra me aap ne Samsa gaav me ek bachhe k yaha ruke the .vaha aapne Rs 500 ka note nahi diya tha ..baad me aapko uska pachataap bhi hua tha .abhi aap ne cycle vale Ghumakkad ko aaraam se 50 diye aur 100 bhi dene ka irada tha ...very good.but ye change kaise ....??????

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    1. Vaise aap ki saari post aur photos achhi hoti hai....

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    2. समय के साथ परिवर्तन अनिवार्य है।

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  16. सह यात्री को भी बाइक पर हाथ साफ़ करने का मौका मिलना चाहिए..

    मैं तो सोचता था की तरुण जी दिल्ली में रहते हैं। अब पता चला हिमाचल में रहते हैं इसी लिए आये दिन पहाड़ों पर निकल जाते हैं ..

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    1. प्रदीप जी, सहयात्री के पास ड्राइविंग लाइसेंस नहीं है, अन्यथा उसे भी मौका मिलता।

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  17. Neeraj Bhai .. Hamesh ki tarah " Sarvottam".....

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  18. हमेशा की तरह एक खुबसूरत प्रस्तुति।
    At the same time, though it could be just me, I found it little 'rushed'.
    Good luck brother!!!

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    1. हां जी, ‘रश्ड’ तो है- पोस्ट भी और आज की यात्रा भी। पोस्ट को दो-तीन टुकडों में बांटा जा सकता था लेकिन फिर मुझे मजा नहीं आता। उधर हमारी यात्रा दिल्ली से नहीं बल्कि सुन्दरनगर से ही शुरू होनी थी इसलिये दिल्ली से सुन्दरनगर तक तो भागमभाग में जाना ही था। ठीक उसी तरह मान लो हमें केरल जाना है। तो केरल तक तो हम नॉन-स्टॉप जाते हैं, रास्ते में कहीं नहीं रुकते, कहीं नहीं भ्रमण करते; बस भागे चले जाते हैं लेकिन केरल जाकर फिर हमारा काम शुरू होता है। इसी तरह हमारा काम सुन्दरनगर से शुरू होगा। सुन्दरनगर तक हमें ‘रश्ड’ होना पडेगा।

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  19. Bhaiya Ji,, Agla Bhaag kab publish kar rahe ho.. Badi besabri ho rahi hai padne k liye

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  20. नीरज भाई बहुत सुंदर फोटो और लेख में जब भी आपकी कोई भी यात्रा पड़ता हु लगता है की आपके सात ही यात्रा पर हु नीरज भाई बाइक से तो बहुत यात्रा करली अब तो कार लेलो क्योकि आप के सात आपकी वाइफ भी हो गयी है

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  21. बहुत खूब नीरज जी । हमारे शहर पधारने का बहुत बहुत धन्यवाद ।

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  22. एक दिन में 500 km की यात्रा सपत्नीक वो भी बाइक से हिम्मत का काम है नीरज जी......! आपके यात्रा वृत्तांत बहुत सुन्दर होते है ......! यात्रा ब्लॉगरों में आप एकमात्र ऐसे लेखक हो जिसकी तुलना चांदनी रात में चमकते चन्द्रमा से की जाय तो भी कम है...!

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  23. Bahut sunder yatra hai bhai chlte rho.......

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  24. बहुत सुंदर यात्रा वर्णन ------ आपसे प्रेरणा लेकर मैं भी हमारी हाल ही यात्रा का वर्णन पोस्‍ट करने की सोच रही हूं।

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  25. AGLE BHAAG ME JAARI.. YE LINK KAM NAHI KARTA NEERAJ BHAI.

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    1. लिंक ठीक कर दिया है प्रदीप जी... आपका बहुत बहुत धन्यवाद।

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  26. NEERAJ JI APKA BANJ A/C NO BHEJIYE ON 9001124555

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  27. main agle shaniwar 3 june ko kiratpur se manali jaa rha hoo.. kya mandi wala rasta abhi bhi khraab h... m parwartiy road se jana chahta hoo

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  28. This is really a great. I am also planning from Indore to Manali.

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46 रेलवे स्टेशन हैं दिल्ली में

एक बार मैं गोरखपुर से लखनऊ जा रहा था। ट्रेन थी वैशाली एक्सप्रेस, जनरल डिब्बा। जाहिर है कि ज्यादातर यात्री बिहारी ही थे। उतनी भीड नहीं थी, जितनी अक्सर होती है। मैं ऊपर वाली बर्थ पर बैठ गया। नीचे कुछ यात्री बैठे थे जो दिल्ली जा रहे थे। ये लोग मजदूर थे और दिल्ली एयरपोर्ट के आसपास काम करते थे। इनके साथ कुछ ऐसे भी थे, जो दिल्ली जाकर मजदूर कम्पनी में नये नये भर्ती होने वाले थे। तभी एक ने पूछा कि दिल्ली में कितने रेलवे स्टेशन हैं। दूसरे ने कहा कि एक। तीसरा बोला कि नहीं, तीन हैं, नई दिल्ली, पुरानी दिल्ली और निजामुद्दीन। तभी चौथे की आवाज आई कि सराय रोहिल्ला भी तो है। यह बात करीब चार साढे चार साल पुरानी है, उस समय आनन्द विहार की पहचान नहीं थी। आनन्द विहार टर्मिनल तो बाद में बना। उनकी गिनती किसी तरह पांच तक पहुंच गई। इस गिनती को मैं आगे बढा सकता था लेकिन आदतन चुप रहा।

ट्रेन में बाइक कैसे बुक करें?

अक्सर हमें ट्रेनों में बाइक की बुकिंग करने की आवश्यकता पड़ती है। इस बार मुझे भी पड़ी तो कुछ जानकारियाँ इंटरनेट के माध्यम से जुटायीं। पता चला कि टंकी एकदम खाली होनी चाहिये और बाइक पैक होनी चाहिये - अंग्रेजी में ‘गनी बैग’ कहते हैं और हिंदी में टाट। तो तमाम तरह की परेशानियों के बाद आज आख़िरकार मैं भी अपनी बाइक ट्रेन में बुक करने में सफल रहा। अपना अनुभव और जानकारी आपको भी शेयर कर रहा हूँ। हमारे सामने मुख्य परेशानी यही होती है कि हमें चीजों की जानकारी नहीं होती। ट्रेनों में दो तरह से बाइक बुक की जा सकती है: लगेज के तौर पर और पार्सल के तौर पर। पहले बात करते हैं लगेज के तौर पर बाइक बुक करने का क्या प्रोसीजर है। इसमें आपके पास ट्रेन का आरक्षित टिकट होना चाहिये। यदि आपने रेलवे काउंटर से टिकट लिया है, तब तो वेटिंग टिकट भी चल जायेगा। और अगर आपके पास ऑनलाइन टिकट है, तब या तो कन्फर्म टिकट होना चाहिये या आर.ए.सी.। यानी जब आप स्वयं यात्रा कर रहे हों, और बाइक भी उसी ट्रेन में ले जाना चाहते हों, तो आरक्षित टिकट तो होना ही चाहिये। इसके अलावा बाइक की आर.सी. व आपका कोई पहचान-पत्र भी ज़रूरी है। मतलब

जिम कार्बेट की हिंदी किताबें

इन पुस्तकों का परिचय यह है कि इन्हें जिम कार्बेट ने लिखा है। और जिम कार्बेट का परिचय देने की अक्ल मुझमें नहीं। उनकी तारीफ करने में मैं असमर्थ हूँ क्योंकि मुझे लगता है कि उनकी तारीफ करने में कहीं कोई भूल-चूक न हो जाए। जो भी शब्द उनके लिये प्रयुक्त करूंगा, वे अपर्याप्त होंगे। बस, यह समझ लीजिए कि लिखते समय वे आपके सामने अपना कलेजा निकालकर रख देते हैं। आप उनका लेखन नहीं, सीधे हृदय पढ़ते हैं। लेखन में तो भूल-चूक हो जाती है, हृदय में कोई भूल-चूक नहीं हो सकती। आप उनकी किताबें पढ़िए। कोई भी किताब। वे बचपन से ही जंगलों में रहे हैं। आदमी से ज्यादा जानवरों को जानते थे। उनकी भाषा-बोली समझते थे। कोई जानवर या पक्षी बोल रहा है तो क्या कह रहा है, चल रहा है तो क्या कह रहा है; वे सब समझते थे। वे नरभक्षी तेंदुए से आतंकित जंगल में खुले में एक पेड़ के नीचे सो जाते थे, क्योंकि उन्हें पता था कि इस पेड़ पर लंगूर हैं और जब तक लंगूर चुप रहेंगे, इसका अर्थ होगा कि तेंदुआ आसपास कहीं नहीं है। कभी वे जंगल में भैंसों के एक खुले बाड़े में भैंसों के बीच में ही सो जाते, कि अगर नरभक्षी आएगा तो भैंसे अपने-आप जगा देंगी।