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करसोग में ममलेश्वर और कामाक्षा मन्दिर

5 मई 2015
प्राकृतिक दृश्य मेरी यात्राओं के आधार होते हैं। मन्दिर वगैरह तो बहाने हैं। आप कभी अगर करसोग जाओ तो शाम होने की प्रतीक्षा करना और पता है कहां प्रतीक्षा करना? कामाक्षा वाले रास्ते पर।
करसोग समुद्र तल से लगभग 1300-1400 मीटर की ऊंचाई पर एक लम्बी चौडी घाटी है। चारों ओर ऊंचे पहाड हैं, बीच में समतल मैदान। गांव हैं और खेत हैं; खेतों के बीच में बहती नदी। आप चाहें तो इन खेतों में पैदल भी घूम सकते हैं। करसोग से कामाक्षा का 6-7 किलोमीटर का रास्ता खेतों से होकर भी नापा जा सकता है। हम सडक से गये थे।

इससे पहले शाम चार बजे हम करसोग पहुंचे। बस अड्डे से आगे निकल गये और ममलेश्वर मन्दिर से कुछ पहले एक होटल में कमरा ले लिया। 500 रुपये का कमरा था लेकिन गीजर देखकर घरवाला और घरवाली दोनों खुश हो गये। नहाकर जब बाहर निकले तो हम कुछ और ही थे।

सीधे पहुंचे ममलेश्वर मन्दिर। इसका मुख्य आकर्षण है गेहूं का एक दाना। अन्दर घुसे, जूते बाहर ही निकाल दिये। कोई नहीं दिखा। हमारी बेचैनी देखकर बूढे पुजारी जी आये। प्रणामों का आदान-प्रदान हुआ और सीधे गेहूं का दाना देखने की इच्छा जाहिर कर दी। पुजारी जी तुरन्त मन्दिर में और अन्दर गये और लकडी का एक डिब्बा निकालकर लाये। इस पर ऊपर कांच का ढक्कन लगा था। ढक्कन के नीचे था वो गेहूं का दाना। अगर इसे मुट्ठी में लिया जाये तो पूरी मुट्ठी बन्द नहीं होगी। इत्ता बडा। महाभारतकालीन। लेकिन मुझे यह पत्थर का लगा। पत्थर ही होगा, अन्यथा कभी का सड गल गया होता। नहीं तो देश दुनिया में और भी दाने मिलते। उससे भी करोडों साल पहले मर-खप गये डायनासोर भी तो मिले हैं। मैं इसे हाथ में लेकर खुरचकर देखना चाहता था लेकिन न दाने को हाथ में लेने की इजाजत थी और खुरचने की तो कतई नहीं। हां, डिब्बे को हाथ में लेकर जितनी देर चाहो, उतनी देर निहार सकते हो।
एक जर्जर ढोल टंगा हुआ था। यह भी काफी बडा था। जाहिर है कि इसे भी महाभारतकालीन बताया जायेगा। इसके जैसे कुछ ढोल कामाक्षा मन्दिर में भी टंगे हैं। ये आज बजाने के काम नहीं आते; बल्कि यह बताने के काम आते हैं कि हमारे यहां पहले इतने बडे बडे ढोल होते थे। लेकिन इन्हें शायद पता नहीं है कि यहां से हजारों किलोमीटर दूर छत्तीसगढ में आज भी इनसे बडे ढोल बजाये जाते हैं। कोई कोई तो इतने बडे होते हैं कि आप उन पर लेटकर सो जाओ तो एक फुट ऊपर और एक फुट नीचे फिर भी बचा रहेगा।
हां, तो मैं बता रहा था कि यह घाटी शाम को बडी सुन्दर लगती है। शाम हो चुकी थी, लालिमा आकाश में फैल चुकी थी। कामाक्षा से लौटते हुए हम बार बार रुकते हुए आए।
सुना है कि कामाक्षा में रात रुकने के लिये मन्दिर प्रांगण में ही कमरे व हॉल बने हैं। कम्बल मिल जाते हैं, रुकना मुफ्त है। इसी तरह ममलेश्वर में भी है। इस बात की जानकारी हमें तब लगी जब हम करसोग में कमरा ले चुके थे। पहले पता होता तो हम मुफ्त में रुकते।

होटल के कमरे से घाटी का नजारा

ममलेश्वर मन्दिर

गेहूं का दाना

मन्दिर में टंगा विशालकाय ढोल








ममलेश्वर मन्दिर का एक और नजारा

कामाक्षा मन्दिर के बाहर लगा नोटिस बोर्ड

कामाक्षा में टंगा ढोल












अगला भाग: करसोग से किन्नौर सीमा तक


करसोग दारनघाटी यात्रा
1. दिल्ली से सुन्दरनगर वाया ऊना
2. सुन्दरनगर से करसोग और पांगणा
3. करसोग में ममलेश्वर और कामाक्षा मन्दिर
4. करसोग से किन्नौर सीमा तक
5. सराहन से दारनघाटी
6. दारनघाटी और सरायकोटी मन्दिर
7. हाटू चोटी, नारकण्डा
8. कुफरी-चायल-कालका-दिल्ली
9. करसोग-दारनघाटी यात्रा का कुल खर्च




Comments

  1. अरे भाई कामाक्षा के backside में कोठी भी है। वो नहीं देखि क्या

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    Replies
    1. नहीं देखी तरुण भाई। पारखी नजर नहीं हैं, दिखी ही नहीं। किसी दिन आपके साथ निकलना पडेगा कोठियों को देखने।

      Delete
  2. राम राम जी, मंदिरों और घाटियों के खूबसूरत छाया चित्र, बहुत खूब, नीरज जी, इन चित्रों में कैप्शन डाल दिया करो कृपया....वन्देमातरम...

    ReplyDelete
    Replies
    1. कैप्शन है तो गुप्ता जी... जिसमें कैप्शन नहीं है वो बिना कैप्शन के ही सारा समझ में आ रहा है।

      Delete
  3. करसोग की ख़ूबसूरती देखते ही बनती है।

    ReplyDelete
  4. भाई गेंहु का इतना बडा दाना यकीन नही होता,
    एक बार अखवार में पढा था इसके बारे मे..
    बढिया पोस्ट

    ReplyDelete

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