जब लद्दाख गया था ना साइकिल लेकर, तो सोच लिया था कि यह आखिरी साइकिल यात्रा है। इसके बाद कोई साइकिल नहीं चलानी। हालांकि पहले भी ज्यादा साइकिल नहीं चलाई थी। फिर भी जब सपने पूरे होते हैं, तो उन्हें जीने में जो आनन्द है वो अगले सपने बुनने में नहीं है। बस, यही सोच रखा था कि एक सपना पूरा हुआ, इसी को जीते रहेंगे और आनन्दित होते रहेंगे।
लेकिन यह सपना जैसे जैसे पुराना पडता गया, आनन्द भी कम होता गया। फिर से नये सपने बुनने की आवश्यकता महसूस होने लगी ताकि उसे पूरा करने के बाद नया आनन्द मिले। थार साइकिल यात्रा की यही पृष्ठभूमि है। इसी कारण राजस्थान के धुर पश्चिम में रेत में साइकिल चलाने की इच्छा जगी। समय खूब था अपने पास। कोई यात्रा किये हुए अरसा बीत चुका था, उसका वृत्तान्त भी लिखकर और प्रकाशित करके समाप्त कर दिया था। बिल्कुल खाली, समय ही समय। तो इस यात्रा की अपनी तरफ से अच्छी तैयारी कर ली थी। गूगल अर्थ पर नजरें गडा-गडाकर देख लिया था रेत में जितने भी रास्ते हैं, उनमें अच्छी सडकें कितनी हैं। एक तो ऊंटगाडी वाला रास्ता होता है, कच्चा होता है, रेतीला होता है, साइकिल नहीं चल सकती। इसके लिये पक्की सडक चाहिये थी। गूगल ने सब दिखा दिया कि पक्की काली सडक कहां कहां है। कागज पर नक्शा बना लिया और दूरियां भी लिख ली।
छह दिन अपने हाथ में थे। प्रतिदिन 70-80 किलोमीटर साइकिल चलाने की योजना बनी। आरम्भ में था कि जोधपुर से शुरू करके मण्डोर होते हुए पहले दिन ओसियां पहुंचूंगा। दूसरे दिन ओसियां से देचू होते हुए पोखरण, तीसरे दिन जैसलमेर, चौथे दिन तनोट, पांचवें दिन लोंगेवाला होते हुए वापस जैसलमेर और छठा दिन रिजर्व। दूरियां देखी तो प्रतिदिन सौ किलोमीटर से भी ज्यादा का हिसाब बन रहा था। इसे रद्द करना पडा। अब पोखरण से जैसलमेर तक ट्रेन से जायेंगे और एक दिन बचायेंगे। तब लोंगेवाला से सीधे सम जायेंगे। और आखिरी दिन सम से जैसलमेर।
फेसबुक बडी झूठी चीज है। जैसे ही इस यात्रा के बारे में फेसबुक पर लिखा तो थोडी ही देर में सात आठ मित्र तैयार हो गये। करना भी क्या है, एक क्लिक भर करना है। लेकिन नटवर को छोडकर वास्तव में कोई नहीं गया। जिन्होंने हामी भरी थी, उनका कहीं अता-पता नहीं चला। नटवर ने कहा था- मैं तुझे अकेले नहीं घूमने दूंगा। उसका जज्बा देखकर मैंने खूब कहा कि साइकिल चलानी शुरू कर दे। उसी ने बताया था कि उसे साइकिल चलाये कई साल गुजर गये। अब अभ्यास नहीं है। मैंने अभ्यास करने को कहा तो कहने लगा- सब हो जायेगा। मैंने कहा कि सब नहीं हुआ करता। किसी चीज का अभ्यास नहीं है तो आसान ही लगता है। फिर साइकिल, ऊपर से सत्तर अस्सी किलोमीटर रोजाना; मधुर स्वप्न की तरह प्रतीत हो रहा होगा। कहने लगा कि सत्तर किलोमीटर होते ही कितने हैं। मैं समझ गया कि यह अभ्यास नहीं करेगा। लेकिन डर है कि कहीं आगे रास्ते में ढेर न हो जाये। हालांकि ऐसा नहीं हुआ।
एक तो उस दिन 22 दिसम्बर को सायंकालीन ड्यूटी थी, रात दस बजे तक, फिर अपनी आदत भी इतनी खराब है कि ऐन वक्त पर बैग पैक करता हूं। साढे दस बजे सराय रोहिल्ला से राजस्थान सम्पर्क क्रान्ति है जोधपुर जाने के लिये। सुबह तक जोधपुर पहुंच जाऊंगा, वहां नटवर मिल जायेगा। वो आज कुचामन से जोधपुर पहुंच गया होगा। अपनी किसी जान-पहचान से साइकिल उठायेगा।
मेरा आरक्षण था इस ट्रेन में। एक घण्टे पहले घर से निकलने की योजना थी। यहां से स्टेशन करीब दस किलोमीटर है। जब साढे नौ यहीं बज गये तो बैग पैक करने में जबरदस्त तेजी दिखाई। यह तो पता ही था कि रेत जितनी जल्दी गर्म होती है, उतनी ही जल्दी ठण्डी भी होती है। सर्दियों में तापमान शून्य से नीचे भी पहुंच जाता है, इसलिये उस हिसाब से भी कपडे रखने थे। और जब सारा सामान बैग में भर दिया तो यह इतना ज्यादा हो गया कि इसकी चेन भी बन्द नहीं हो सकी। थोडी बहुत चेन बन्द हुई, बाकी सुतली से बांध दिया। फिर स्लीपिंग बैग और टैण्ट भी थे। गधे की तरह लदकर मैं स्टेशन की ओर दस बजे रवाना हुआ।
यमुना पार करते समय याद आया कि मैं पम्प भूल गया हूं। साइकिल में हवा भरने के लिये पम्प बेहद आवश्यक था। और राजस्थान में जहां हर जगह कंटीली झाडियों का साम्राज्य है, वहां तो और भी ज्यादा। सडक पर पडी लम्बे मजबूत कांटों से भरी एक टहनी भी पहिये की हवा निकाल देने के लिये काफी होती है। दुर्गम स्थानों पर बिना पम्प के साइकिल यात्रा की कल्पना भी नहीं की जा सकती। एक बार तो मन में आया भी कि वापस चलूं और पम्प उठा लाऊं लेकिन समय नहीं था अपने पास। देखा जायेगा जो होगा, जोधपुर जाकर नया पम्प ले लूंगा।
मैं सराय रोहिल्ला कई बार गया हूं और हमेशा मेट्रो से जाना होता था। आज पहली बार साइकिल से जा रहा था। आज पता चला कि मेट्रो से पास में लगने वाला सराय रोहिल्ला वास्तव में कितनी दूर है। फिर कश्मीरी गेट से आजाद मार्किट तक चढाई है। स्पीड भी बरकरार रखनी थी। पसीने पसीने हो गया, घुटनों की जान निकली सो अलग। खैरियत यह रही कि नो एण्ट्री खुलने के बाद भी सडक पर ट्रक नहीं थे, अन्यथा और ज्यादा समय लगता। बिना कहीं ब्रेक लगाये सराय रोहिल्ला की शास्त्री नगर वाली तरफ पहुंच गया।
सीढियों पर चढने लगा तो सबसे आखिरी वाली लाइन से एक ट्रेन निकलती दिखी। समझते देर नहीं लगी कि यही अपनी ट्रेन है। समय देखा दस बजकर पैंतीस मिनट हो चुके थे। ट्रेन पांच मिनट की देरी से चली थी, समय से चली होती तो मुझे दिखती भी नहीं। फिर भी मैं फुट ऑवर ब्रिज पर चढा और ऊपर ही खडा हो गया। अब क्या करूं? नीचे प्लेटफार्म नम्बर तीन पर बीकानेर वाली ट्रेन खडी थी। क्या बीकानेर चला जाऊं? सुबह पांच बजे जोधपुर जाने वाली रानीखेत एक्सप्रेस आयेगी, क्या उसे पकडूं? बीकानेर वाली पकडूंगा तो कल बीकानेर घूमना पडेगा और रात को वहां से चलने वाली जैसलमेर एक्सप्रेस पकडनी पडेगी। परसों तक जैसलमेर पहुंचूंगा। रानीखेत पकडूंगा तो कल शाम तक जोधपुर पहुंच जाऊंगा, नटवर को साथ ले लूंगा और रात वाली ट्रेन से जैसलमेर निकल जायेंगे या फिर परसों सुबह दिल्ली-जैसलमेर एक्सप्रेस पकडेंगे।
नटवर को इस घटना की जानकारी दी तो वो भविष्य की बात छोडकर भूत की बात करने लगा- क्यों छूटी? समय से निकलना चाहिये था। क्यों नहीं निकला समय से? मैंने कहा जो हो गया सो हो गया। अब आगे की बात करते हैं। मैं सुबह रानीखेत पकडूंगा, शाम तक जोधपुर पहुंचूंगा। तू कल पूरे दिन जहां घूमना हो, घूम। शाम को मिलते हैं। नटवर बेचारा क्रोधित हो गया- घण्टा घूमूंगा। मेरा तो एक दिन बर्बाद हो गया। और सुबह वाली भी छूट जायेगी तो बेडा गर्क हो जायेगा। मैं सुबह वापस कुचामन चला जाऊंगा। नहीं करूंगा साइकिल यात्रा।
मैंने समझाया कि जो हमारा कार्यक्रम था, सब यथावत रहेगा। बस यही तो होगा कि हम कल ओसियां नहीं देख पायेंगे। उसके बाद के पांच दिनों तक सारा कार्यक्रम ज्यों का त्यों रहेगा। हमें परसों ओसियां से जो ट्रेन पकडकर जैसलमेर जाना था, हम परसों वही ट्रेन जोधपुर से पकडेंगे और अपने उसी कार्यक्रम के अनुसार चलेंगे। खैर, जैसे तैसे करके नटवर को मनाया। मान भी गया।
अभी ग्यारह बजे थे। सुबह पांच बजे ट्रेन है, पम्प लाने के लिये पर्याप्त समय है। स्टेशन पर पडे रहने से सौ गुना अच्छा है आधे घण्टे और साइकिल चला लूं। रात घर पर आराम से सोऊंगा और सुबह पम्प भी उठाता लाऊंगा। ट्रेन छूटना एक लिहाज से अच्छा हुआ कि अब मेरे साथ पम्प आ जायेगा।
वापस पुरानी दिल्ली स्टेशन के सामने से आया। सारा रास्ता ढलानयुक्त है। आधी रात, ऊपर से सर्दियां, सडक बिल्कुल खाली मिली। एक बार तो पुरानी दिल्ली के पास पहुंचकर ऊंची ऊंची इमारतें देखकर भ्रम में भी पड गया कि कहीं और तो नहीं आ गया।
और जब रजाई में घुसा, अपूर्व शान्ति व सुकून मिला तो दिमाग की सोचने की शक्ति भी बढ गई। जब परसों जोधपुर से दिल्ली-जैसलमेर एक्सप्रेस पकडनी है तो क्यों न उसे दिल्ली से ही पकड लूं? आधी रात हो गई है, सुबह चार बजे उठो, पांच बजे रानीखेत पकडो, फिर परसों जोधपुर में सुबह चार बजे उठो, पांच बजे जैसलमेर वाली ट्रेन पकडो; इससे तो अच्छा यही है कि आज जमकर सोया जाये, कल शाम को दिल्ली से वही ट्रेन पकड लूंगा जिसे परसों जोधपुर से पकडता। हां, ऐसा ही करूंगा। नटवर से कल बता दूंगा कि मैं ऐसा कर रहा हूं। साथ ही इस ट्रेन से आरक्षण भी करा लिया, 113 वेटिंग मिली। पता नहीं कल तक कन्फर्म होगी भी या नहीं।
आराम से दस बजे सोकर उठा। सबसे पहला काम यही किया कि पम्प रख लिया। एक दो सामान और रखने थे, कुछ सामान अतिरिक्त भी था। अब समय काफी था, तसल्ली से सब काम किया।
शाम को साढे चार बजे चल पडा। अब पुरानी दिल्ली स्टेशन जाना था जो यमुना पार करते ही है। हमारे यहां से बमुश्किल दो किलोमीटर। सीधे पार्सल कार्यालय गया। गेट पर ही एक दलाल ने रोक लिया। कहां ले जानी है साइकिल? हम ही पार्सल में बुकिंग कराते हैं। अभी हमारा एक आदमी बाहर गया है, दो मिनट रुको, बुलवाता हूं। मैं उसकी बात अनसुनी करता हुआ अन्दर घुस गया। पिछला अनुभव था। तब इन दलालों ने ही मेरा ऐसा दिमाग खराब किया था कि ट्रेन से साइकिल न ले जाने की कसम खा ली थी और पुरानी दिल्ली से तो कभी नहीं।
दो तीन चक्कर इधर से उधर अवश्य लगाने पडे लेकिन आखिरकार सारी औपचारिकताएं आराम से निपट गईं। 195 रुपये लगे। साइकिल जिस एसएलआर डिब्बे में रखी गई, उस पर बाडमेर लिखा था। असल में ये दो ट्रेनें एक साथ मिलकर रवाना होती हैं। एक जैसलमेर जाती है, दूसरी बाडमेर। जोधपुर से दोनों अलग अलग होती हैं। दोनों ट्रेनों के दोनों सिरों पर एसएलआर डिब्बे होते हैं। दिल्ली में जब दोनों ट्रेनें एक साथ जुडी रहती हैं तो ट्रेन के बीच में बराबर बराबर में दो एसएलआर डिब्बे होंगे जिनमें से एक जैसलमेर जायेगा और दूसरा बाडमेर। जब साइकिल बाडमेर वाले डिब्बे में एक मोटरसाइकिल के ऊपर रखी गई तो मैंने इसके बगल वाले डिब्बे में अपना आसन जमा लिया ताकि जोधपुर में साइकिल को जैसलमेर वाले डिब्बे में रखवा सकूं। और हां, टिकट कन्फर्म नहीं हुआ। ट्रेन चलने से चार घण्टे पहले चार्ट बन जाता है, तभी पता चल गया था कि सीट नहीं मिली है। मुझे जनरल टिकट लेना पडा।
इससे पहले नटवर भडक गया जब उसे पता चला कि मैं शाम तक जोधपुर नहीं आऊंगा। अक्सर लोगों की अकेले घूमने की प्रवृत्ति नहीं होती। इसी प्रवृत्ति के चलते नटवर को सब काम करने पहाड लग रहे होंगे। वो अपने को असहाय मान रहा होगा। एक दिन पहले तक हमारी योजना आज सुबह से ही साथ साथ रहने की थी, साथ साथ घूमना, साथ साथ ट्रेन में साइकिल लेकर चलना। लेकिन जब उसे यह सब अकेला ही करना पडेगा तो वो असहज हो गया होगा। यात्रा रद्द करके वापस कुचामन जाने की बात करने लगा। मैंने जोधपुर में ही रहने वाले प्रशान्त से कहा कि वो किसी भी तरह नटवर को मनाये। प्रशान्त ने इस काम को बखूबी किया। इस वजह से आज नटवर ने कुछ साइकिल भी चलाई, एक पंक्चर भी ठीक करवाया और शाम को जैसलमेर जाने वाली एक बस पर साइकिल रख ली। सुबह तक जैसलमेर पहुंच जायेगा।
पुरानी दिल्ली से चलते ही ट्रेन में काफी भीड हो गई थी। सराय रोहिल्ला, दिल्ली छावनी और पालम तक तो पैर हिलाने तक की भी जगह नहीं बची। रेवाडी जाकर गाडी बिल्कुल खाली हो गई। अब मैं अपनी कब्जाई हुई ऊपर वाली बर्थ पर जा पहुंचा। यह बुरी तरह से टूटी थी और मात्र तीन फट्टे ही इसमें लगे थे। बैग समेत सारा सामान बांधना पडा कि कहीं पाइपों के बीच की खाली जगह से नीचे न गिर जाये। फिर भी ये तीन फट्टे मेरे सोने के लिये पर्याप्त थे। ठीकठाक नींद आई।
जोधपुर जाकर मैं ट्रेन से बाहर निकला। यह देखकर खुशी मिली कि जिस डिब्बे में साइकिल रखी थी और बाडमेर लिखा था, वो वास्तव में जैसलमेर ही जायेगा। अब मैं निश्चिन्त था।
अगला भाग: थार साइकिल यात्रा- जैसलमेर से सानू
थार साइकिल यात्रा
1. थार साइकिल यात्रा का आरम्भ
2. थार साइकिल यात्रा- जैसलमेर से सानू
3. थार साइकिल यात्रा- सानू से तनोट
4. तनोट
5. थार साइकिल यात्रा- तनोट से लोंगेवाला
6. लोंगेवाला- एक गौरवशाली युद्धक्षेत्र
7. थार साइकिल यात्रा- लोंगेवाला से जैसलमेर
8. जैसलमेर में दो घण्टे
बहुत सुन्दर।
ReplyDeleteसुप्रभात।
नववर्ष में...
स्वस्थ रहो प्रसन्न रहो।
आपका दिन मंगलमय हो।
musafir kar di ek or yatra suru chalo accha hai...
ReplyDeleteअपनी तो ट्रेन छूट जाये तो बड़ा अनमना सा लगता है क्योंकि अपने को ज्यादा रूट्स की जानकारी भी नहीं है ।
ReplyDeleteअगला भाग कहाँ है !!
ReplyDeleteपहाड़ो से अचानक रेगिस्तान नीरज --- वैसे तो रेगिस्तान मुझे पसंद नहीं पर तुम्हारी अलग निगाहों से देखेगे -- देखते है कि बगैर पहाड़ और हरियाली के भी आन्नद आता है क्या? अब सफ़र जारी है और हम भी ----
ReplyDeleteनीरज भाई राम-राम, चलो इतनी तकलीफो के बावजूद आप जैसलमैर पहुचं ही गए, नटवर जी को मनाइए काफी गुस्से मे होगें.
ReplyDeleteसाइकिल तो साथ में रहनी ही चाहिये।
ReplyDeleteएक तो घुमक्कड़ी , उसपर बेहतरीन लेखन शैली में लिखे गए यात्रा संस्मरण.. लाजवाब हैं नीरज जी आप... शुभकामनाँए... नव वर्ष यात्रामय हो...
ReplyDeleteउलझी सी शुरूआत
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