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ट्रेन डेढ घण्टे की देरी से जैसलमेर पहुंची। पोखरण तक यह ठीक समय पर चल रही थी लेकिन उसके बाद हर स्टेशन पर बडी देर देर तक रुकी। एक बार जैसलमेर-जोधपुर पैसेंजर क्रॉस हुई, इसके बाद जैसलमेर-लालगढ एक्सप्रेस, फिर एक और, फिर एक भी नहीं, बस ऐसे ही खडी रही। नटवर का फोन आता रहा- कहां पहुंचा? पोखरण। कुछ देर बाद फिर पूछा। कहां पहुंचा? ओडानिया... लाठी... चांदण। और आखिरकार जब जैसलमेर की सूचना दी तो बोला कि जल्दी बाहर निकल, मैं स्टेशन के बाहर प्रतीक्षा कर रहा हूं।
पार्सल वालों ने साइकिल को पार्सल डिब्बे से बाहर निकाला। बेचारी लगभग खाली डिब्बे में गिरी पडी थी। दिल्ली से जोधपुर तक यह एक मोटरसाइकिल के ऊपर चढकर आई थी, अगल बगल में बडे बडे पैकेट थे, कहीं नहीं गिरी। एक हस्ताक्षर किया और साइकिल मेरे हवाले कर दी गई। उडती उडती निगाह डाली, कहीं कोई कमी नहीं दिखी। बाकी चलाने पर पता चलेगा।
बाहर निकला। दोनों तरह के नजारे थे- शान्त भी और हलचली भी। दोनों ही नजारे होटल वालों ने बना रखे थे। सस्ते होटल वाले यात्रियों को घेर-घेर कर पकड रहे थे। इधर से उधर धकिया रहे थे और महंगे होटल वाले इनसे कुछ दूर तख्ती लिये शालीनता से कतारबद्ध होकर खडे थे। तख्तियों पर होटलों के नाम लिखे थे- ये होटल, वो होटल।
नटवर मिला। उसकी साइकिल देखते ही मैं हैरान रह गया। हीरो की हॉक नू एज साइकिल थी। पतले पतले पहियों वाली रेसिंग साइकिल। इसमें गियर तो होते नहीं हैं, पहिये बेहद पतले होते हैं, बडे भी होते हैं, साइकिल ऊंची होती है। मैंने सबसे पहले नटवर को ही धिक्कारा कि तुझे यही साइकिल मिली थी। यह रेसिंग साइकिल है। इससे अच्छा तो साधारण साइकिल ही ले आता। घर घर में मिल जाती है। यह साइकिल ऊबड खाबड रास्तों के काम की नहीं है। पंक्चर होने का खतरा भी बहुत ज्यादा होता है। लेकिन कर भी क्या सकते थे? अब तो जो भी हाथ में है, उसी से काम चलाना है।
नटवर और मैंने अभी तक दो बार साथ यात्राएं की हैं। पिछले साल अहमदाबाद से उदयपुर व रतलाम से कोटा रेलयात्रा और उसके बाद हिमानी चामुण्डा की यात्रा। हममें बडी अच्छी बनती है। कोई औपचारिकता नहीं होती। मिलते ही एक दूसरे पर व्यंगबाणों की बौछार कर देते हैं- गंजे टकले से शुरू करके बहुत दूर तक। वह एक फोटोग्राफर है। बडा सा डीएसएलआर कैमरा है। हिमानी चामुण्डा यात्रा में मैंने उसकी फोटोग्राफी में एक कमी देखी थी। वह कमी इस यात्रा में भी दिखाई दी। वह फोटो खींचते समय अपनी पूरी ताकत प्रकाश के संयोजन में झोंक देता है। फ्रेम के अन्दर क्या आना चाहिये, क्या नहीं आना चाहिये, इसकी उसे परवाह नहीं। वैसे इसमें भी उसकी कोई गलती नहीं है। कैमरा ही उसके पास ऐसा है कि फोटो खींचने से पहले कुछ भी नहीं दिखाता सिवाय स्क्रीन पर कुछ आंकडों के जैसे कि शटर स्पीड आदि। उसे अपने अनुभव के आधार पर शटर स्पीड, अपर्चर आदि सेट करके क्लिक करना होता है। क्लिक करने के बाद वह फोटो देख सकता है। इससे क्लिक करते समय यह पता नहीं चलता कि फ्रेम में क्या आया, क्या छूटा। यही उसकी आदत बन गई है। उसके विपरीत मैं फ्रेम पर ज्यादा ध्यान देता हूं। फोटो खींचने से पहले मैं निर्णय कर लेता हूं कि क्या लेना है, क्या नहीं लेना है।
स्टेशन से बाहर मेन गेट के बराबर में साइकिल खडी करके सामान बांधा। स्लीपिंग बैग आगे हैण्डल पर लटका दिया। टैण्ट बैग के अन्दर था।
यह समय जैसलमेर के लिये पर्यटन का पीक सीजन होता है। देशी विदेशी पर्यटकों की अच्छी संख्या थी यहां। हालांकि शहर में वाहनों की उतनी भीड नहीं थी। हनुमान चौराहे के पास नटवर का एक मित्र मिलने वाला था जो हाल ही में फेसबुक पर मुझसे भी परिचित हुआ था। स्टेशन से चले तो हनुमान चौक के पास एक दुकान के सामने जाकर रुके। संजय वहीं मिला। हंसमुख और फुर्तीला।
जैसलमेर मेरी उम्मीद से ज्यादा ठण्डा था। इसलिये एक गर्म इनर लेना पडा। काला चश्मा लेने की भी इच्छा थी लेकिन वह पूरी नहीं हुई। साइकिल के पंक्चर के लिये सॉल्यूशन लिया। एकाध चीज शायद नटवर ने भी ली। इस दौरान संजय ही हमारा पथप्रदर्शन करता रहा। साथ ही उसने रामगढ में अपने एक परिचित को फोन कर दिया। वह परिचित भी बाद में हमारे बडा काम आया।
आज 65 किलोमीटर दूर रामगढ तक जाने की योजना थी लेकिन ट्रेन ने दो घण्टे लेट होकर सारा खेल बिगाड दिया। तीन बजे जब जैसलमेर से चले तो आठ बजे तक भी रामगढ पहुंचने की उम्मीद नहीं थी। नटवर ने पूछा कि रामगढ तक कितना समय लगेगा, मैंने कहा कम से कम पांच घण्टे। हंसते हुए बोला कि मैं तो ढाई घण्टे का अन्दाजा लगाये बैठा था।
हनुमान चौक से पश्चिम की तरफ जाने वाली सडक सीधे सम जाती है। करीब सौ मीटर चलने पर एक सडक दाहिने जाती दिखती है। यह तनोट जाती है। हम इसी पर हो लिये।
पिछले साल करण भाई गये थे इस रास्ते पर साइकिल से, उन्होंने बताया था कि रास्ता समतल नहीं है, बल्कि उतराई-चढाई युक्त है। इस वजह से भी हमारी स्पीड में कुछ कमी आयेगी।
पवनचक्कियां बहुत हैं यहां। सभी बिजली बनाने के काम आती हैं। आज बडी तेज हवाएं चल रही थीं, तो सभी चक्कियां उत्पादन पर लगी थीं। कुछ चक्कियां तो सडक के काफी नजदीक हैं। इनके नीचे खडे होकर हैरानी होती है कि इतनी विशाल संरचना को कैसे खडा किया गया होगा। स्थिर चीज होती तो ठीक था लेकिन इतनी ऊंचाई पर विशाल दैत्याकार पंखे जो लगातार घूमते रहते हैं, फिट करना बडा पेचीदा काम होता है। जब ये घूमते हैं तो हवा की वजह से झूं-झूं की आवाज करते रहते हैं।
सडक की जैसी उम्मीद की थी, उससे भी अच्छी मिली। पर्याप्त चौडी और वाहन भी बेहद कम। कोई भी वाहन हमें विचलित नहीं कर रहा था।
पांच बजे भादासर पहुंचे। अब तक हम लगभग 25 किलोमीटर आ चुके थे। कई सालों बाद पहली बार साइकिल चलाने के कारण नटवर की हालत अच्छी नहीं थी लेकिन फिर भी महाराज पीछे नहीं हटे। न ही हटने का नाम लिया। भादासर में चाय पी, कुछ बिस्कुट खाये। छोटा सा गांव है, ज्यादातर ट्रक वाले यहां रुकते हैं, उनके लिये एक दो ग्रामीणों ने चाय पानी का इन्तजाम कर रखा है। ग्रामीण हमें देखकर बडे खुश हुए। स्वयं ही बोले कि हमारे फोटो खींचो, नटवर ने उनकी इच्छा पूरी कर दी। उधर बच्चे मेरी साइकिल के गियरों में छेडछाड करते रहे। खडी हुई साइकिल के गियरों में छेडछाड करने से तकनीकी समस्याएं आ सकती हैं, लेकिन किस किस को रोकेंगे? करो, खूब उंगली करो, जो होगा हम सुलट लेंगे। बच्चों ने साइकिल चलाने की इच्छा जाहिर की। मैंने नटवर वाली की तरफ इशारा करके कहा कि उसे ले जाओ जहां ले जाना है, गिराओ, उठाओ, पटको, रगडो... खूब चलाओ। नटवर ने चश्मे के ऊपर से झांकते हुए कहा कि नहीं, वो गियर वाली अच्छी है, छोटी भी है। उसे ले जाओ। नतीजा हुआ कि दोनों साइकिलें खडी रहीं।
रास्ता मुख्यतः समतल ही है लेकिन कहीं कहीं ऊंचा नीचा भी मिल जाता है। नटवर के जहां तक बस में होता, साइकिल से ही चलता। ज्यादा चढाई आने पर नीचे उतर जाता। ज्यादा दूर तक ये चढाईयां जारी नहीं रहतीं, हद से हद बीस तीस मीटर। उसके बाद ढलान और साइकिल फिर तेजी पकड लेती। इसी तरह की तेजी पर एक बार मैं नटवर से आधा किलोमीटर आगे निकल गया। फिर कुछ सोचकर रुक गया। नटवर आया तो बोला कि तू चलता रह। रामगढ मिलते हैं। मैंने कहा कि नहीं, तेरी साइकिल में अगर पंक्चर हो गया तो ठीक कौन करेगा? टकले ने नाक के किनारे पर रखे चश्मे के ऊपर से झांकते हुए मुस्कान बिखेर दी। फिर हम दस बीस मीटर के आगे-पीछे पर ही रहे।
धुर पश्चिमी इलाका होने के कारण यहां बाकी देश के मुकाबले सूर्यास्त देर से होता है। छह बजे के बाद सूर्यास्त हुआ। हालांकि जैसा सूर्यास्त देखने की कल्पना की थी, वैसा नजारा नहीं मिला। और सच तो यह है कि मुझे भी नहीं पता कि कैसा नजारा देखने की कल्पना की थी। शायद रेत के टीले होंगे, उन पर ऊंट चल रहे होंगे। जैसा कि फिल्मों में दिखता है। यहां रेत ही रेत है लेकिन टीले नहीं हैं। टीले तो कहीं कहीं ही मिलते हैं। अन्यथा झाडियां उगी पडी हैं। सडक से नीचे उतरने पर ही पता चलता है कि झाडियां विशुद्ध रेत में हैं।
अन्धेरा होने पर माथे पर हैड लाइट लगानी पडी। यह अपने लिये कम दूसरों के लिये ज्यादा थी। काली सडक पर जहां स्ट्रीट लाइटें भी नहीं थीं, गुजरते हुए वाहनों को हम तभी दिखते जब वे हमारे सिर पर चढ आते। खाली सडक होने के कारण उनकी रफ्तार भी ज्यादा होती है। हैड लाइट लगाने से हमें भी रास्ता दिखने लगा और दूसरों को भी हम दूर से ही दिखने लगे। इस दौरान नटवर मुझसे दो तीन मीटर आगे ही रहा। आखिर हैड लाइट का लाभ उसे भी तो उठाना था।
साढे सात बजे सानू पहुंचे। यह जैसलमेर से 45 किलोमीटर दूर है। यह भादासर और मोकल से बडा गांव है। भूख लगने लगी थी। एक दुकान से नमकीन बिस्कुट लिये। थोडा ही आगे चले कि एक घर के अन्दर से रोशनी आती दिखी और उस रोशनी में घर में टंगे गुटकों के पैकेट भी दिख गये। हमने तुरन्त साइकिल रोकी। अन्दर गये तो पता चला कि यह एक छोटी सी चाय की दुकान है, रोटी भी मिल जायेगी। नटवर अपने साथ परांठे लिये हुए था, चाय के साथ गटक लिये। रोटियों की आवश्यकता ही नहीं पडी।
दुकान के सामने एक छप्पर पडा था। हमने मालिक से टैण्ट लगाने की बात कही तो उसी ने सुझाव दिया कि इस छप्पर के नीचे ही लगा लो। हमें और क्या चाहिये था?
स्टेशन के बाहर सामान की बंधाई |
जैसलमेर रेलवे स्टेशन |
तनोट रोड |
मरु भूमि में आपका स्वागत है। |
विशाल पवनचक्कियां |
नटवर लाल भार्गव |
20 किलोमीटर आ गये, तनोट अभी भी 100 किलोमीटर दूर है, कल शाम तक पहुंचेंगे। |
भादासर में |
नटवर ग्रामीणों को फोटो दिखा रहा है। |
इस साइकिल में बच्चों से लेकर बडे तक सभी उंगली करते हैं। |
थार में सडकें |
सूर्यास्त की फोटोग्राफी के लिये ऊंट नहीं मिला तो क्या हुआ, कुत्ता तो है। |
जहां तेज चढाई आती थी, नटवर पैदल चल पडता था। |
थार में सूर्यास्त |
सानू गांव में यहीं पर डिनर किया था। |
और यहीं टैण्ट लगा लिया। |
इसमें A जैसलमेर है, B सानू है। नक्शे को यहीं क्लिक करके सैटेलाइट व टैरेन मोड में भी देखा जा सकता है। छोटा व बडा किया जा सकता है व इधर-उधर खिसकाया जा सकता है। यह हमारी आज की साइकिल यात्रा है।
अगला भाग: थार साइकिल यात्रा- सानू से तनोट
थार साइकिल यात्रा
1. थार साइकिल यात्रा का आरम्भ
2. थार साइकिल यात्रा- जैसलमेर से सानू
3. थार साइकिल यात्रा- सानू से तनोट
4. तनोट
5. थार साइकिल यात्रा- तनोट से लोंगेवाला
6. लोंगेवाला- एक गौरवशाली युद्धक्षेत्र
7. थार साइकिल यात्रा- लोंगेवाला से जैसलमेर
8. जैसलमेर में दो घण्टे
आपकी साइकिल के साथ भारतीय रेल ने क्या किया, इस पर दृष्टि बनी रहेगी।
ReplyDeleteटेंट बड़ा गजब काम कर रहा है आपका, दिल्ली में ठंड से निपटने के लिये अच्छी जैकेट कहाँ मिल जायेंगी ।
ReplyDeleteअति सुंदर यात्रा करवाने के लिए अाभार ।
ReplyDeletebhai kya mast ullekh karte ho... Pad k thand pa gyi...thand me haha
ReplyDeleteबहुत खूब...
ReplyDeleteबहुत अच्छा यात्रा वर्तान्त है नीरज भाई अगली क़िस्त का इंतजार है
ReplyDeleteबहुत सुन्दर
ReplyDeleteFirst class and detailed description of the journey.
ReplyDeleteMast hai NEERAJ jat Bhaiyya.
Pics are also awesome ...especially the cat one.
जय हो!! विस्तार से!!
ReplyDeleteजिंदगी का असली आनंद तो आप ही ले रहे हैं। हम बस दूर से महसूस कर पा रहे हैं।
ReplyDeleteनमस्कार नीरज जी! मजा आ गया आपकी यात्रा वृर्तान्त पढ़कर।
ReplyDeleteबहुत अच्छा यात्रा वृतान्त पढ़ने मे मजा आया
ReplyDeleteहीरो नु ऐज इतनी बुरी नहीं जितनी बुराई करदी हवा से बातें करती हैं नीरज जी, इन महाशय कि आदत नहीं साइकिल चलाने कि वर्ना इतनी समस्या नहीं आती
ReplyDeleteदाढ़ी बहुत शूट कर रही है नीरज ----और यदि पंचर हो जाता है तो क्या तुम खुद पंचर पक्का लेते हो-- पर कैसे ???
ReplyDeleteवैसे नटवर है काम की चीज !!
ReplyDeletevery intersting description
ReplyDeletedosti me todhi todhi narjgi sath sath chalti rahti he
ReplyDeleteवाकई में पवन चक्कियां देख हैरानी होती है
ReplyDeleteअब आगे चलते हैं आपके साथ
Yaad raja ho gai. Mai b akela paidal ho k aaya ya:-)
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